परिच्छेद २ - द्वितीय दर्शन

(१)

अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्। तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः॥

द्वितीय दर्शन का प्रसंग। सुबह का समय था, - आठ बजे होंगे। श्रीरामकृष्ण उस समय दाढ़ी बनवाने की तैयारी में थे। तब भी थोड़ी ठण्डी थी। इसलिए वे शरीर पर गरम किनारीदार शाल ओढ़े हुए थे। मास्टर को देखकर उन्होंने कहा, “तुम आए हो? अच्छा, यहाँ बैठो।”

यह वार्तालाप श्रीरामकृष्ण के कमरे के दक्षिण-पूर्व बरामदे में हो रहा था। नाई आया हुआ था। श्रीरामकृष्ण उसी बरामदें में बैठकर दाढ़ी बनवाने लगे। बीच बीच में वे मास्टर के साथ बातचीत कर रहे थे। शरीर पर शाल थी, पैर में जूतियाँ। सहास्यवदन थे। बात करते समय कुछ तुतलाते थे।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - क्यों जी, तुम्हारा घर कहाँ है?

मास्टर - जी कलकत्ते में।

श्रीरामकृष्ण - यहाँ कहाँ आए हो?

मास्टर - यहाँ वराहनगर में बड़ी दीदी के घर आया हूँ, - ईशान कविराज के यहाँ।

श्रीरामकृष्ण - ओहो, ईशान के यहाँ।

श्री केशवचन्द्र सेन के लिए श्रीरामकृष्ण का जगन्माता के पास रोना।

श्रीरामकृष्ण - क्यों जी, केशव अब कैसा है - बहुत बीमार था।

मास्टर - जी हाँ, मैंने भी सुना था कि बीमार हैं, पर अब शायद अच्छे हैं।

श्रीरामकृष्ण - मैंने तो केशव के लिए माँ के निकट नारियल और चीनी की पूजा मानी थी। रात को जब नींद उचट जाती थी, तब माँ के पास रोता और कहता था, - ‘माँ, केशव की बीमारी अच्छी कर दे। केशव अगर न रहा तो मैं कलकत्ते जाकर बातचीत किससे करूँगा?’ इसी से तो नारियल-चीनी मानी थी।

“क्यों जी, क्या कोई कुक साहब आया है? सुना वह लेक्चर (व्याख्यान) देता है। मुझे केशव जहाज पर चढ़ाकर ले गया था। कुक साहब भी साथ था।”

मास्टर - जी हाँ, ऐसा ही कुछ मैंने भी सुना था। परन्तु मैंने उनका लेक्चर नहीं सुना। उनके विषय में ज्यादा कुछ मैं नहीं जानता।

गृहस्थ तथा पिता का कर्तव्य

श्रीरामकृष्ण - प्रताप का भाई आया था। कुछ दिन यहाँ रहा। काम-काज कुछ है नहीं। कहता है, मैं यहाँ रहूँगा। सुनते हैं, जोरूजाता सब को ससुराल भेज दिया है। कच्चे-बच्चे कई हैं। मैने खूब डाँटा। भला देखो तो, लड़के-बच्चे हुए हैं, उनकी देखरेख, उनका पालपोष तुम न करोगे तो क्या कोई गाँववाला करेगा? शर्म नहीं आती, बीवी-बच्चों को ससुर के यहाँ रख दिया है, उन्हें कोई और पाल रहा है। बहुत डाँटा और काम-काज खोज लेने को कहा, तब यहाँ से गया।

(२)

अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः॥

मास्टर का तिरस्कार तथा उनका अहंकार चूर्ण करना

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - क्या तुम्हारा विवाह हो गया है?

मास्टर - जी हाँ।

श्रीरामकृष्ण (चौंककर) - अरे रामलाल, अरे अपना विवाह तो इसने कर डाला। रामलाल श्रीरामकृष्ण के भतीजे और कालीजी के पुजारी हैं। मास्टर घोर अपराधी जैसे सिर नीचा किए चुपचाप बैठे रहे। सोचने लगे, विवाह करना क्या इतना बड़ा अपराध है?

श्रीरामकृष्ण ने फिर पूछा - “क्या तुम्हारे लड़के-बच्चे भी हैं?”

मास्टर का कलेजा काँप उठा। डरते हुए बोले - “ जी हाँ, लड़के-बच्चे हुए हैं।”

श्रीरामकृष्ण ने फिर दुःख के साथ कहा - “अरे लड़के भी हो गए!”

इस तरह तिरस्कृत होकर मास्टर चुपचाप बैठे रहे। उनका अहंकार चूर्ण होने लगा। कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण सस्नेह कहने लगे, “देखो, तुम्हारे लक्षण अच्छे हैं, यह सब मैं किसी के कपाल, आँखें आदि को देखते ही जान लेता हूँ। अच्छा, तुम्हारी स्त्री कैसी है? विद्या-शक्ति है या अविद्या-शक्ति?

ज्ञान क्या है?

मास्टर - जी अच्छी है, पर अज्ञान है।

श्रीरामकृष्ण (अप्रसन्न होकर) - और तुम ज्ञानी हो?

मास्टर नहीं जानते, ज्ञान किसे कहते हैं और अज्ञान किसे।अभी तो उनकी धारणा यही है कि कोई लिख-पढ़ ले तो मानो ज्ञानी हो गया। उनका यह भ्रम दूर तब हुआ जब उन्होंने सुना कि ईश्वर को जान लेना ज्ञान है और न जानना अज्ञान। श्रीरामकृष्ण की इस बात से कि ‘तुम ज्ञानी हो’ मास्टर के अहंकार पर फिर धक्का लगा।

मूर्तिपूजा

श्रीरामकृष्ण - अच्छा, तुम्हारा विश्वास ‘साकार’ पर है या ‘निराकार’ पर?

मास्टर मन ही मन सोचने लगे, ‘यदि साकार पर विश्वास हो तो क्या निराकार पर भी विश्वास हो सकता है? ईश्वर निराकार है - यदि ऐसा विश्वास हो तो ईश्वर साकार है ऐसा भी विश्वास कभी हो सकता है? ये दोनों विरोधी भाव किस प्रकार सत्य हो सकते हैं? सफेद दूध क्या कभी काला हो सकता है?’

मास्टर - निराकार मुझे अधिक पसन्द है।

श्रीरामकृष्ण - अच्छी बात है। किसी एक पर विश्वास रखने से काम हो जायगा। निराकार पर विश्वास करते हो, अच्छा है। पर यह न कहना कि यही सत्य है, और सब झूठ। यह समझना कि निराकार भी सत्य है और साकार भी सत्य है। जिस पर तुम्हारा विश्वास हो उसी को पकड़े रहो।

दोनों सत्य हैं, यह सुनकर मास्टर चकित हो गए। यह बात उनके किताबी ज्ञान में तो थी ही नहीं! तीसरी बार धक्का खाकर उनका अहंकार चूर्ण हुआ, पर अभी कुछ रह गया था; इसलिए फिर वे तर्क करने को आगे बढ़े।

मास्टर - अच्छा, वे साकार हैं, यह विश्वास मानो हुआ। पर मिट्टी की या पत्थर की मूर्ति तो वे हैं नहीं।

श्रीरामकृष्ण - मिट्टी की मूर्ति वे क्यों होने लगे? पत्थर या मिट्टी नहीं, चिन्मयी मूर्ति।

चिन्मयी मूर्ति, यह बात मास्टर न समझ सके। उन्होंने कहा - “अच्छा, जो मिट्टी की मूर्ति पूजते हैं, उन्हें समझाना भी तो चाहिए कि मिट्टी की मूर्ति ईश्वर नहीं है और मूर्ति के सामने ईश्वर की ही पूजा करना ठीक है, किन्तु मूर्ति की नहीं!”

लेक्चर तथा श्रीरामकृष्ण

श्रीरामकृष्ण (अप्रसन्न होकर) - तुम्हारे कलकत्ते के आदमियों में यही एक धुन सवार है, - सिर्फ लेक्चर देना और दूसरों को समझाना! अपने को कौन समझाए, इसका ठिकाना नहीं। अजी समझानेवाले तुम हो कौन? जिनका संसार है वे समझाएँगे। जिन्होंने सृष्टि रची है, सूर्य-चन्द्र, मनुष्य, जीव-जन्तु बनाए हैं, जीव-जन्तुओं के भोजन के उपाय सोचे हैं, उनका पालन करने के लिए माता-पिता बनाए हैं, माता-पिता में स्नेह का संचार किया है - वे समझाएँगे। इतने उपाय तो उन्होंने किए और यह उपाय वे न करेंगे? अगर समझाने की जरूरत होगी तो वे समझाएँगे, क्योंकि वे अन्तर्यामी हैं। यदि मिट्टी की मूर्ति पूजने में कोई भूल होगी तो क्या वे नहीं जानते कि पूजा उन्हीं की हो रही है? वे उसी पूजा से सन्तुष्ट होते हैं। इसके लिए तुम्हारा सिर क्यों धमक रहा है? तुम यह चेष्टा करो जिससे तुम्हें ज्ञान हो - भक्ति हो।

अब शायद मास्टर का अहंकार बिलकुल चूर्ण हो गया।

वे सोचने लगे, ‘ये जो कह रहे हैं वह ठीक ही तो है। मुझे दूसरों को समझाने की क्या जरूरत? क्या मैंने ईश्वर को जान लिया है, या मुझमें उनके प्रति विशुद्ध भक्ति उत्पन्न हुई है? स्वयं के सोने के लिए जगह नहीं है, और लोगों को न्यौता दे रहे हैं! स्वयं को कुछ ज्ञान नहीं, अनुभव नहीं, और दूसरों को समझाने चले हैं! वास्तव में कितनी लज्जा की बात है, कितनी हीन बुद्धि का काम है। क्या यह गणित, इतिहास या साहित्य है कि दूसरों को समझा दे? यह ईश्वरीय ज्ञान है। ये जो बातें कह रहे हैं, वे कैसे हृदय को स्पर्श कर रही है!

श्रीरामकृष्ण के साथ मास्टर का यही प्रथम और यही अन्तिम तर्कवाद था।

श्रीरामकृष्ण - तुम मिट्टी की मूर्ति की पूजा की बात कहते थे। यदि मिट्टी ही की हो तो भी उस पूजा की जरूरत है। देखो, सब प्रकार की पूजाओ की योजना ईश्वर ने ही की है। जिनका यह संसार है, उन्होंने ही यह सब किया है। जो जैसा अधिकारी है उसके लिए वैसा ही अनुष्ठान ईश्वरने किया है। लड़के को जो भोजन रुचता है और जो उसे सह्य है, वही भोजन उसके लिए माँ पकाती है, समझे?

मास्टर - जी हाँ।

(३)

संसारार्णवघोरे यः कर्णधारस्वरूपकः। नमोऽस्तु रामकृष्णाय तस्मै श्रीगुरवे नमः॥

भक्ति का उपाय

मास्टर (विनीत भाव से) - ईश्वर में मन किस तरह लगे?

श्रीरामकृष्ण - सर्वदा ईश्वर का नाम-गुणगान करना चाहिए, सत्संग करना चाहिए - बीच बीच में भक्तों और साधुओं से मिलना चाहिए। संसार में दिनरात विषय के भीतर पड़े रहने से मन ईश्वर में नहीं लगता। कभी कभी निर्जन स्थान में जाकर ईश्वर की चिन्ता करना बहुत जरूरी है। प्रथम अवस्था में बीच बीच में एकान्तवास किए बिना ईश्वर में मन लगाना बड़ा कठिन है।

“पौधे को चारों ओर से रूँधना पड़ता है, नहीं तो बकरी चर लेगी।

“ध्यान करना चाहिए मन में, कोने में और वन में। और सर्वदा सत्-असत् विचार करना चाहिए। ईश्वर ही सत् अथवा नित्य वस्तु है, और सब असत्, अनित्य। बारम्बार इस प्रकार विचार करते हुए मन से अनित्य वस्तुओं का त्याग करना चाहिए।

मास्टर (विनीत भाव से) - संसार में किस तरह रहना चाहिए?

गृहस्थ तथा संन्यास। उपाय निर्जन में साधना

श्रीरामकृष्ण - सब काम करना चाहिए परन्तु मन ईश्वर में रखना चाहिए। मातापिता, स्त्री-पुत्र आदि सब के साथ रहते हुए सब की सेवा करनी चाहिए परन्तु मन में इस ज्ञान को दृढ़ रखना चाहिए की ये हमारे कोई नहीं हैं।

“किसी धनी के घर की दासी उसके घर का कुल काम करती है, किन्तु उसका मन अपने गाँव के घर पर लगा रहता है। मालिक के लड़कों का वह अपने लड़कों की तरह लालन-पालन करती है, उन्हें ‘मेरा मुन्ना’, ‘मेरा राजा’ कहती है, पर मन ही मन खूब जानती है कि ये मेरे कोई नहीं हैं।”

“कछुआ रहता तो पानी में है, पर उसका मन रहता है किनारे पर जहाँ उसके अण्डे रखे हैं। संसार का काम करो, पर मन रखो ईश्वर में।

“बिना भगवद्-भक्ति पाए यदि संसार में रहोगे तो दिनोंदिन उलझनोंमें फँसते जाओगे और यहाँ तक फँस जाओगे कि फिर पिण्ड छुड़ाना कठिन होगा। रोग, शोक, तापादि से अधीर हो जाओगे। विषय-चिन्तन जितना ही करोगे, आसक्ति भी उतनी ही अधिक बढ़ेगी।

“हाथों में तेल लगाकर कटहल काटना चाहिए। नहीं तो, हाथों में उसका दूध चिपक जाता है। भगवद्-भक्तिरूपी तेल हाथों में लगाकर संसाररूपी कटहल के लिए हाथ बढ़ाओ।

“परन्तु यदि भक्ति पाने की इच्छा हो तो निर्जन में रहना होगा। मक्खन खाने की इच्छा हो, तो दही निर्जन में ही जमाया जाता है। हिलाने-डुलाने से दही नहीं जमता। इसके बाद निर्जन में ही सब काम छोड़कर दही मथा जाता है, तभी मक्खन निकलता है।

“देखो, निर्जन में ही ईश्वर का चिन्तन करने से यह मन भक्ति, ज्ञान और वैराग्य का अधिकारी होता है। इस मन को यदि संसार में डाल रखोगे तो यह नीच हो जायगा। संसार में कामिनी-कांचन के चिन्तन के सिवा और है ही क्या?

“संसार जल है और मन मानो दूध। यदि पानी में डाल दोगे तो दूध पानी में मिल जाएगा, पर उसी दूध का निर्जन में मक्खन बनाकर यदि पानी में छोड़ोगे तो मक्खन पानी में उतराता रहेगा। इस प्रकार निर्जन में साधना द्वारा ज्ञान-भक्ति प्राप्त करके यदि संसार में रहोगे भी तो संसार से निर्लिप्त रहोगे।

“साथ ही साथ विचार भी खूब करना चाहिए। कामिनी और कांचन अनित्य हैं, एकमात्र ईश्वर ही नित्य हैं। रुपये से क्या मिलता है? रोटी, दाल, कपड़े, रहने की जगह - बस यहीं तक। रुपये से ईश्वर नहीं मिलते। तो रुपया जीवन का लक्ष्य नहीं हो सकता। इसी को विचार कहते हैं - समझे?”

मास्टर - जी हाँ, अभी अभी मैंने ‘प्रबोधचन्द्रोदय’ नाटक पढ़ा है। उसमें ‘वस्तुविचार’ है।

श्रीरामकृष्ण - हाँ, वस्तु-विचार! देखो, रुपये में ही क्या है और सुन्दरी की देह में भी क्या है। विचार करो, सुन्दरी की देह में केवल हाड़, मांस, चरबी, मल, मूत्र - यही सब है। ईश्वर को छोड़ इन्हीं वस्तुओ में मनुष्य मन क्यों लगाता है? क्यों वह ईश्वर को भूल जाता है?

ईश्वर-दर्शन के उपाय

मास्टर - क्या ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं?

श्रीरामकृष्ण - हाँ, हो सकते हैं। बीच बीच में एकान्तवास, उनका नाम-गुणगान और वस्तु-विचार करने से ईश्वर के दर्शन होते हैं।

मास्टर - कैसी अवस्था हो तो ईश्वर के दर्शन हों?

श्रीरामकृष्ण - खूब व्याकुल होकर रोने से उनके दर्शन होते हैं। स्त्री या लड़के के लिए लोग आँसुओ की धारा बहाते हैं, रुपये के लिए रोते हुए आँखें लाल कर लेते हैं, पर ईश्वर के लिए कोई कब रोता है? ईश्वर को व्याकुल होकर पुकारना चाहिए।

यह कहकर श्रीरामकृष्ण गाने लगे -

(भावार्थ) - “मन, तू सच्ची व्याकुलता के साथ पुकारकर तो देख। भला देखें, वह श्यामा बिना सुने कैसे रह सकती हैं! तुझे यदि माँ काली के दर्शन की अत्यन्त तीव्र इच्छा हो तो जवापुष्प और बिल्वपत्र लेकर उन्हें भक्तिचन्दन से लिप्त कर माँ के चरणों में पुष्पांजलि दे।”

“व्याकुलता हुई कि मानो आसमान पर सुबह की ललाई छा गयी। शीघ्र ही सूर्य भगवान् निकलते हैं, व्याकुलता के बाद ही भगवद्दर्शन होते हैं।

“विषय पर विषयी की, पुत्र पर माता की और पति पर सती की - यह तीन प्रकार की चाह एकत्रित होकर जब ईश्वर की ओर मुड़ती है तभी ईश्वर मिलते हैं।

“बात यह है कि ईश्वर को प्यार करना चाहिए। विषय पर विषयी की, पुत्र पर माता की और पति पर सती को जो प्रीति है, उसे एकत्रित करने से जितनी प्रीति होती है, उतनी ही प्रीति से ईश्वर को बुलाने से उस प्रेम का महा आकर्षण ईश्वर को खींच लाता है।

“व्याकुल होकर उन्हें पुकारना चाहिए। बिल्ली का बच्चा ‘मिऊँ-मिऊँ’ करके माँ को पुकारता भर है। उसकी माँ जहाँ उसे रखती, वहीं वह रहता है - कभी राख की ढेरी पर कभी जमीन पर, तो कभी बिछौने पर। यदि उसे कष्ट होता है तो बस वह ‘मिऊँ-मिऊँ’ करता है ओर कुछ नहीं जानता। माँ चाहे जहाँ रहे ‘मिऊँ-मिऊँ’ सुनकर आ जाती है।”

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