परिच्छेद ३१ - सींती के ब्राह्मसमाज में ब्राह्मभक्तों के साथ

(१)

संसार में निष्काम कर्म

श्रीरामकृष्ण ने श्री वेणी पाल के सींती के बगीचे में शुभागमन किया है। आज सींती के ब्राह्मसमाज का छःमाही महोत्सव है। रविवार, चैत्र पूर्णिमा, २२ अप्रैल १८८३। तीसरे प्रहर का समय। अनेक ब्राह्मभक्त उपस्थित है। भक्तगण श्रीरामकृष्ण को घेरकर दक्षिण के बरामदे में आ बैठे। सायंकाल के बाद आदिसमाज के आचार्य श्री बेचाराम उपासना करेंगे। ब्राह्मभक्तगण बीच बीच में श्रीरामकृष्ण से प्रश्न कर रहे हैं।

ब्राह्मभक्त - महाराज, मुक्ति का उपाय क्या है?

श्रीरामकृष्ण - उपाय अनुराग, अर्थात् उनसे प्रेम करना, और प्रार्थना।

ब्राह्मभक्त - अनुराग या प्रार्थना?

श्रीरामकृष्ण - अनुराग पहले, फिर प्रार्थना।

श्रीरामकृष्ण सुर के साथ गाना गाने लगे जिसका भावार्थ यह है, - ‘हे मन, पुकारने की तरह पुकारो तो देखूँ श्यामा कैसे रह सकती हैं!’ फिर बोले -

“और सदा ही उनका नामगुणगान, कीर्तन और प्रार्थना करनी चाहिए। पुराने लोटे को रोज माँजना होगा, एक बार माँजने से क्या होगा? और विवेक-वैराग्य तथा संसार अनित्य है यह बुद्धि चाहिए।”

ब्राह्मभक्त - संसार छोड़ना क्या अच्छा है?

श्रीरामकृष्ण - सभी के लिए संसारत्याग ठीक नहीं। जिनके भोग का अन्त नहीं हुआ, उनसे संसारत्याग नहीं होता। रत्ती भर शराब से क्या मस्ती आती है?

ब्राह्मभक्त - तो फिर वे लोग क्या संसार करेंगे?

श्रीरामकृष्ण - हाँ, वे लोग निष्काम कर्म करने की चेष्टा करें। हाथ में तेल मलकर कटहल छीलें। धनियों के घर में दासियाँ सब काम करती हैं, परन्तु मन रहता है अपने निज के घर में; इसी का नाम निष्काम कर्म है।* इसी का नाम है मन से त्याग। तुम लोग

मन से त्याग करो। संन्यासी बाहर का त्याग और मन का त्याग दोनों ही करे।

ब्राह्मभक्त - भोग के अन्त का क्या अर्थ है?

श्रीरामकृष्ण - कामिनी-कांचन भोग है। जिस कमरे में इमली का अचार और पानी की सुराही है, उस कमरे में यदि सन्निपात का रोगी रहे, तो मुश्किल ही है। रुपया, पैसा, मान, इज्जत, शारीरिक सुख ये सब भोग एक बार न हो जाने पर, - भोग का अन्त न होने पर, - ईश्वर के लिए सभी को व्याकुलता नहीं होती।

ब्राह्मभक्त - स्त्री-जाति खराब है या हम खराब है?

श्रीरामकृष्ण - विद्यारूपिणी स्त्री भी है, और फिर अविद्यारूपिणी स्त्री भी है। विद्यारूपिणी स्त्री भगवान् की ओर ले जाती है और अविद्यारूपिणी स्त्री ईश्वर को भुला देती है, संसार में डुबा देती है।

“उनकी महामाया से यह जगत्-संसार हुआ है। इस माया के भीतर विद्यामाया और अविद्यामाया दोनों ही हैं। विद्यामाया का आश्रय लेने पर साधुसंग की इच्छा, ज्ञान, भक्ति, प्रेम, वैराग्य ये सब होते हैं। पंचभूत तथा इन्द्रियों के भोग के विषय अर्थात् रूप-रस-गन्ध-स्पर्श-शब्द, यह सब अविद्यामाया है। यह ईश्वर को भुला देती है।”

ब्राह्मभक्त - अविद्या यदि अज्ञान पैदा करती है तो उन्होने अविद्या को पैदा क्यों किया?

श्रीरामकृष्ण - उनकी लीला। अन्धकार न रहने पर प्रकाश की महिमा समझी नहीं जा सकती। दुःख न रहने पर सुख समझा नही जा सकता। बुराई का ज्ञान रहने पर ही भलाई का ज्ञान होता है।

“फिर आम पर छिलका है इसीलिए आम बढ़ता है और पकता है। आम जब तैयार हो जाता है उस समय छिलका फेंक देना पड़ता है। मायारूपी छिलका रहने पर ही धीरे धीरे ब्रह्मज्ञान होता है। विद्यामाया, अविद्यामाया, आम के छिलके की तरह हैं। दोनों ही आवश्यक हैं!”

ब्राह्मभक्त - अच्छा, साकार पूजा, मिट्टी से बनायी हुई देवमूर्ति की पूजा - ये सब क्या ठीक हैं?

श्रीरामकृष्ण - तुम लोग साकार नहीं मानते हो, अच्छी बात है। तुम्हारे लिए मूर्ति नहीं, भाव मुख्य है। तुम लोग आकर्षण मात्र को लो, जैसे श्रीकृष्ण पर राधा का आकर्षण, प्रेम। साकारवादी जिस प्रकार माँ काली, माँ दुर्गा की पूजा करते हैं, ‘माँ, माँ, कहकर पुकारते हैं, कितना प्यार करते है, तुम लोग इसी भाव को लो, मूर्ति को न भी मानो तो कोई बात नहीं है।

ब्राह्मभक्त - वैराग्य कैसे होता है? और सभी को क्यों नहीं होता?

श्रीरामकृष्ण - भोग की शान्ति हुए बिना वैराग्य नहीं होता। छोटे बच्चे को खाना और खिलौना देकर अच्छी तरह से भुलाया जा सकता है, परन्तु जब खाना हो गया और खिलौने के साथ खेल भी समाप्त हो गया तब वह कहता है, ‘माँ के पास जाऊँगा।’ माँ के पास न ले जाने पर खिलौना पटक देता है और चिल्लाकर रोता है।

सच्चिदानन्द ही गुरु है ईश्वरलाभ के बाद सन्ध्यादि कर्मों का त्याग

ब्राह्मभक्तगण गुरुवाद के विरोधी हैं। इसीलिए ब्राह्मभक्त इस सम्बन्ध में चर्चा कर रहे हैं।

ब्राह्मभक्त - महाराज, गुरु न होने पर क्या ज्ञान न होगा?

श्रीरामकृष्ण - सच्चिदानन्द ही गुरु हैं। यदि कोई मनुष्य गुरु के रूप में तुम्हारा चैतन्य जागृत कर दे तो जानो कि सच्चिदानन्द ने ही उस रूप को धारण किया है। गुरु मानो सखा हैं। हाथ पकड़कर ले जाते हैं। भगवान् का दर्शन होने पर फिर गुरु-शिष्य का ज्ञान नहीं रह जाता। ‘वह बड़ा कठिन स्थान है, वहाँ पर गुरु-शिष्यों में साक्षात्कार नहीं होता।’ इसीलिए जनक ने शुकदेव से कहा था, ‘यदि ब्रह्मज्ञान चाहते हो तो पहले दक्षिणा दो;’ क्योंकि ब्रह्मज्ञान हो जाने पर गुरु-शिष्यों में भेदबुद्धि नहीं रहेगी। जब तक ईश्वर का दर्शन नहीं होता, तभी तक गुरु-शिष्य का सम्बन्ध रहता है।

थोड़ी देर में सन्ध्या हुई। ब्राह्मभक्तों में से कोई कोई श्रीरामकृष्ण से कह रहे हैं, “शायद अब आपको सन्ध्या करनी होगी।”

श्रीरामकृष्ण - नहीं, ऐसा कुछ नहीं। यह सब पहले-पहल एक एक बार कर लेना पड़ता है। उसके बाद फिर अर्घ्यपात्र या नियम आदि की आवश्यकता नहीं रहती।

(२)

श्रीरामकृष्ण तथा आचार्य बेचाराम; वेदान्त और ब्रह्मतत्त्व के प्रसंग में

सन्ध्या के बाद आदि-समाज के आचार्य श्री बेचाराम ने वेदी पर बैठकर उपासना की। बीच बीच में ब्राह्मसंगीत और उपनिषद् का पाठ होने लगा।

उपासना के बाद श्रीरामकृष्ण के साथ बैठकर आचार्यजी अनेक प्रकार के वार्तालाप कर रहे हैं।

श्रीरामकृष्ण - अच्छा, निराकार भी सत्य है और साकार भी सत्य है। आपका क्या मत है?

आचार्य - जी, निराकार मानो electric current (बिजली का प्रवाह) है; आँखों से देखा नहीं जाता, परन्तु अनुभव किया जाता है।

श्रीरामकृष्ण - हाँ, दोनों ही सत्य हैं। साकार-निराकार दोनों सत्य हैं। केवल निराकार कहना कैसा है जानते हो? जैसे शहनाई में सात छेद रहते हुए भी एक व्यक्ति केवल ‘पों’ करता रहता है, परन्तु दूसरे को देखो, कितनी ही रागरागिनियाँ बजाता है। उसी प्रकार देखो, साकारवादी ईश्वर का कितने भावों से आस्वाद लेता है। शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य, मधुर - अनेक भावों से।

“असली बात क्या है जानते हो? किसी भी प्रकार से अमृत के कुण्ड* में गिरना है। चाहे स्तव करके गिरो अथवा कोई धक्का दे दे और तुम जाकर कुण्ड में गिर पड़ो। परिणाम एक ही होगा। दोनों ही अमर होंगे।

“ब्राह्मों के लिए जल और बरफकी उपमा ठीक है। सच्चिदानन्द मानो अनन्त जलराशि हैं। महासागर का जल ठण्डे देश में स्थान स्थान पर जिस प्रकार बरफ का आकार धारण कर लेता है, उसी प्रकार भक्तिरूपी ठण्ड से वे सच्चिदानन्द भक्त के लिए साकार रूप धारण करते हैं। ऋषियों ने उस अतीन्द्रिय, चिन्मय रूप का दर्शन किया था और उनके साथ वार्तालाप किया था। भक्त के प्रेम के शरीर - भागवती तनु द्वारा इस चिन्मय रूप का दर्शन होता है।

“फिर है ब्रह्म ‘अवाङ्मनसगोचरम्।’ ज्ञानरूपी सूर्य के ताप से साकार बरफ गल जाती है; ब्रह्मज्ञान के बाद, निर्विकल्प समाधि के बाद फिर वही अनन्त, वाक्य-मन के अतीत, अरूप, निराकार ब्रह्म।

“उसका स्वरूप मुख से नहीं कहा जाता, चुप हो जाना पड़ता है। मुख से कहकर अनन्त को कौन समझाएगा? पक्षी जितना ही ऊपर उठता है, उसके ऊपर और भी है। आप क्या कहते हैं?”

आचार्य - जी हाँ, वेदान्त में इसी प्रकार की बातें हैं।

श्रीरामकृष्ण - नमक का पुतला समुद्र नापने गया था। लौटकर फिर उसने खबर न दी। एक मत में है, शुकदेव आदि ने दर्शन-स्पर्शन किया था, डुबकी नहीं लगायी थी।

“मैंने विद्यासागर से कहा था, ‘सब चीजें उच्छिष्ट हो गयी है, परन्तु ब्रह्म उच्छिष्ट नहीं हुआ।* अर्थात् ब्रह्म क्या है, कोई मुँह से कह नहीं सका। मुख से बोलने से ही चीज उच्छिष्ट हो जाती है।’ विद्यासागर विद्वान् हैं, यह सुनकर बहुत खुश हुए।

“सुना है, केदार के उस तरफ बरफ से ढका पहाड़ है। अधिक ऊँचाई पर उठने से फिर लौटना नहीं होता। जो लोग यह जानने के लिए गए है कि अधिक ऊँचाई पर क्या है तथा वहाँ जाने पर कैसी स्थिति होती है, उन्होने फिर लौटकर खबर नहीं दी।

उठने से फिर लौटना नहीं होता। जो लोग यह जानने के लिए गए है कि अधिक ऊँचाई पर क्या है तथा वहाँ जाने पर कैसी स्थिति होती है, उन्होने फिर लौटकर खबर नहीं दी।

“उनका दर्शन होने पर मनुष्य आनन्द से विह्वल हो जाता है, चुप हो जाता है। खबर कौन देगा? समझाएगा कौन?

“सात फाटकों से परे राजा है। प्रत्येक फाटक पर एक एक महा ऐश्वर्यवान पुरुष बैठे है। प्रत्येक फाटक में शिष्य पूछ रहा है, ‘क्या यही राजा है?’ गुरु भी कह रहे हैं नहीं;’ नेति नेति। सातवें फाटक पर जाकर जो कुछ देखा, एकदम अवाक् रह गए! आनन्द से विह्वल हो गए। फिर यह पूछना न पडा कि क्या यही राजा है? देखते ही सब सन्देह मिट गये।

आचार्य - जी हाँ, वेदान्त में इसी प्रकार सब लिखा है।

श्रीरामकृष्ण - जब वे सृष्टि, स्थिति, प्रलय करते हैं, तब हम उन्हें सगुण ब्रह्म, आद्याशक्ति कहते हैं। जब वे तीनों गुणों से अतीत हैं, तब उन्हें निर्गुण ब्रह्म, वाक्य-मन के अतीत परब्रह्म कहा जाता है।

“मनुष्य उनकी माया में पड़कर अपने स्वरूप को भूल जाता है। इस बात को भूल जाता है कि वह अपने पिता के अनन्त ऐश्वर्य का अधिकारी है। उनकी माया त्रिगुणमयी है। ये तीनों ही गुण डाकू हैं। सब कुछ हर लेते हैं, हमारे स्वरूप को भुला देते हैं। सत्त्व, रज, तम तीन गुण हैं। इनमें से केवल सत्त्वगुण ही ईश्वर का रास्ता बताता है; परन्तु ईश्वर के पास सत्त्वगुण भी नहीं ले जा सकता।

“एक धनी जंगल के बीच में से जा रहा था। ऐसे समय तीन डाकुओं ने आकर उसे घेर लिया और उसका सब कुछ छीन लिया। सब कुछ छीनकर एक डाकू ने कहा, ‘अब इसे रखकर क्या करोगे! इसे मार डालो।’ ऐसा कहकर वह उसे काटने गया। दूसरा डाकू बोला, ‘जान से मत मारो; हाथ-पैर बाँधकर इसे यहीं पर छोड दिया जाय, तो फिर यह पुलिस को खबर नहीं दे सकेगा।’ यह कहकर उसे बाँधकर डाकू लोग वहीं छोड़कर चले गए।

“थोड़ी देर के बाद तीसरा डाकू लौट आया। आकर बोला, ‘खेद है; तुमको बहुत कष्ट हुआ? मैं तुम्हारा बन्धन खोले देता हूँ।’ बन्धन खोलने के बाद उस व्यक्ति को साथ लेकर डाकू रास्ता दिखाता हुआ चलने लगा। सरकारी रास्ते के पास आकर उसने कहा, ‘इस रास्ते से चले जाओ; अब तुम सहज ही अपने घर जा सकोगे।’ उस व्यक्ति ने कहा, ‘यह क्या महाशय? आप भी चलिए! आपने मेरा कितना उपकार किया! हमारे घर पर चलने से हम कितने आनन्दित होंगे!’ डाकू ने कहा, ‘नहीं, मेरे वहाँ जाने पर छुटकारे का उपाय नहीं, पुलिस पकड़ लेगी।’ यह कहकर रास्ता बताकर वह लौट गया।

“पहला डाकू तमोगुण है, जिसने कहा था, ‘इसे रखकर क्या करोगे, मार डालो।’ तमोगुण से विनाश होता है। दूसरा डाकू रजोगुण है; रजोगुण से मनुष्य संसार में आबद्ध होता है; अनेकानेक कार्यों में जकड़ जाता है। रजोगुण ईश्वर को भुला देता है। सत्त्वगुण ही केवल ईश्वर का रास्ता बताता है। दया, धर्म, भक्ति यह सब सत्त्वगुण से उत्पन्न होते हैं। सत्त्वगुण मानो अन्तिम सीढ़ी है। उसके बाद ही है छत। मनुष्य का धाम है परब्रह्म। त्रिगुणातीत न होने पर ब्रह्मज्ञान नहीं होता।”

आचार्य - अच्छा हुआ, ये सब बड़ी अच्छी बातें हुईं।

श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - भक्त का स्वभाव क्या है, जानते हो? मैं कहूँ, तुम सुनो; तुम कहो, मैं सुनूँ। तुम लोग आचार्य हो, कितने लोगों को शिक्षा दे रहे हो। तुम लोग जहाज हो, हम तो हैं मछुओं की छोटी नैया। (सभी हँस पड़े।)

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