परिच्छेद ४७ - ब्रह्मतत्त्व तथा आद्याशक्ति

(१)

पण्डित पद्मलोचन। विद्यासागर

आषाढ़ की कृष्णा तृतीया तिथि है, २२ जुलाई १८८३ ई. । आज रविवार है। भक्त लोग अवसर पाकर श्रीरामकृष्ण के दर्शन के लिए फिर आए हैं। अधर, राखाल और मास्टर कलकत्ते से एक गाड़ी पर दिन के एक-दो बजे दक्षिणेश्वर पहुँचे। श्रीरामकृष्ण भोजन के बाद थोड़ी देर आराम कर चुके हैं। कमरे में मणि मल्लिक आदि भक्त भी बैठे हैं।

श्रीरामकृष्ण अपने छोटे तख्त पर उत्तर की ओर मुँह किए बैठे हैं। भक्त लोग जमीन पर - कोई चटाई और कोई आसन पर - बैठे हैं। सभी महापुरुष की आनन्दमूर्ति को एकटक देख रहे हैं। कमरे के पास ही, पश्चिम की ओर गंगाजी दक्षिणवाहिनी होकर बही जा रही हैं। वर्षा-ऋतु के कारण स्रोत बड़ा प्रबल है, मानो गंगाजी सागर-संगम पर पहुँचने के लिए बड़ी व्यग्र हों, केवल राह में क्षण भर के लिए महापुरुष के ध्यान-मन्दिर के दर्शन और स्पर्श करती हुई जा रही हैं।

श्री मणि मल्लिक पुराने ब्राह्मभक्त हैं। उनकी उम्र साठ-पैंसठ वर्ष की है। कुछ दिन हुए वे काशीजी गए थे। आज श्रीरामकृष्ण से मिलने आए हैं और उनसे काशी-दर्शन का वर्णन कर रहे हैं।

मणि मल्लिक - एक और साधु को देखा। वे कहते हैं कि इन्द्रिय-संयम के बिना कुछ नहीं होगा। सिर्फ ईश्वर की रट लगाने से क्या होगा?

श्रीरामकृष्ण - इन लोगों का मत यह है कि पहले साधना चाहिए - शम, दम, तितिक्षा चाहिए। ये निर्वाण के लिए चेष्टा कर रहे हैं। ये वेदान्ती हैं, सदैव विचार करते हैं, ‘ब्रह्म सत्य है और जगत् मिथ्या’ बड़ा कठिन मार्ग है। यदि जगत् मिथ्या हुआ तो तुम भी मिथ्या हुए जो कह रहे हैं वे स्वयं मिथ्या हैं, उनकी बातें भी स्वप्नवत् हैं। बड़ी दूर की बात है।

“यह कैसा है जानते हो? जैसे कपूर जलाने पर कुछ भी शेष नहीं रहता, लकड़ी जलाने पर राख तो बाकी रह जाती है। अन्तिम विचार के बाद समाधि होती है। तब ‘मैं’ ‘तुम’ ‘जगत्’ इन सब का कोई पता ही नहीं रहता।

“पद्मलोचन बड़ा ज्ञानी था, परन्तु मैं ‘माँ माँ’ कहकर प्रार्थना करता था, तो भी मुझे खूब मानता था, वह बर्दवानराज का सभापण्डित था। कलकत्ते में आया था - कामारहाटी के पास एक बाग में रहता था। पण्डित को देखने की मेरी इच्छा हुई। मैंने हृदय को यह जानने के लिए भेजा कि पण्डित को अभिमान है या नहीं। सुना कि अभिमान नहीं है। मुझसे उसकी भेंट हुई। वह तो इतना ज्ञानी और पण्डित था, परन्तु मेरे मुँह से रामप्रसाद के गाने सुनकर रो पड़ा! बातें करके ऐसा सुख मुझे कहीं और नहीं मिला उसने मुझसे कहा, ‘भक्तों का संग करने की कामना त्याग दो, नहीं तो तरह तरह के लोग हैं, वे तुमको गिरा देंगे’। वैष्णवचरण के गुरु उत्सवानन्द से उसने पत्र-व्यवहार करके विचार किया था, मुझसे कहा, ‘आप भी जरा सुनिये’। एक सभा में विचार हुआ था - शिव बड़े हैं या ब्रह्मा। अन्त में पण्डितों ने पद्मलोचन से पूछा। पद्मलोचन ऐसा सरल था कि उसने कहा, ‘मेरे चौदह पुरखों में से किसी ने न तो शिव को देखा और न ब्रह्मा को ही’। ‘कामिनी-कांचन का त्याग’ सुनकर एक दिन उसने मुझसे कहा, ‘उन सब का त्याग क्यों कर रहे हो? यह रुपया है, वह मिट्टी है, - यह भेदबुद्धि तो अज्ञान से पैदा होती है’ मैं क्या कह सकता था, बोला, ‘क्या मालूम, पर मुझे रुपया-पैसा आदि रुचता ही नहीं।’

विद्यासागर की दया। भीतर सोना छिपा है।

“एक पण्डित को बड़ा अभिमान था। वह ईश्वर का रूप नहीं मानता था। परन्तु ईश्वर का कार्य कौन समझे? वे आद्याशक्ति के रूप में उसके सामने प्रकट हुए। पण्डित बड़ी देर तक बेहोश रहा। जरा होश सम्हालने पर लगातार ‘का, का, का’ (अर्थात्, काली) की रट लगाता रहा।

भक्त - महाराज, आपने विद्यासागर को देखा है? कैसा देखा?

श्रीरामकृष्ण - विद्यासागर के पाण्डित्य है, दया है, परन्तु अन्तर्दृष्टि नहीं है। भीतर सोना दबा पड़ा है, यदि इसकी खबर उसे होती तो इतना बाहरी काम जो वह कर रहा है, वह सब घट जाता और अन्त में एकदम त्याग हो जाता। भीतर, हृदय में ईश्वर हैं यह बात जानने पर उन्हीं के ध्यान और चिन्तन में मन लग जाता। किसी किसी को बहुत दिन तक निष्काम कर्म करते करते अन्त में वैराग्य होता हैं और मन उधर मुड़ जाता है - ईश्वर से लग जाता है।

“जैसा काम ईश्वर विद्यासागर कर रहा है वह बहुत अच्छा है। दया बहुत अच्छी है। दया और माया में बड़ा अन्तर है। दया अच्छी है, माया अच्छी नहीं। माया का अर्थ है आत्मीयों से प्रेम - अपनी स्त्री, पुत्र, भाई, बहन, भतीजा, भानजा, माँ, बाप इन्हीं से प्रेम। दया अर्थात् सब प्राणियों से समान प्रेम”।

(२)

ब्रह्म त्रिगुणातीत है।‘मुँह से नहीं बताया जा सकता’।

मास्टर - क्या दया भी एक बन्धन है?

श्रीरामकृष्ण - वह तो बहुत दूर की बात ठहरी। दया सतोगुण से होती है। सतोगुण से पालन, रजोगुण से सृष्टि और तमोगुण से संहार होता है, परन्तु ब्रह्म सत्त्व, रज, तम इन तीनों गुणों से परे है - प्रकृति से परे है।

“जहाँ यथार्थ तत्त्व है वहाँ तक गुणों की पहुँच नहीं। जैसे चोर-डाकू किसी ठीक जगह पर नहीं जा सकते; वे डरते हैं कि कहीं पकड़े न जायें। सत्व, रज, तम ये तीनों गुण डाकू हैं। एक कहानी सुनाता हूँ, सुनो -

“एक आदमी जंगल की राह से जा रहा था कि तीन डाकुओं ने उसे पकड़ा। उन्होंने उसका सब कुछ छीन लिया। एक डाकू ने कहा, ‘अब इसे जीवित रखने से क्या लाभ?’ यह कहकर वह तलवार से उसे काटने आया। तब दूसरे डाकू ने कहा, ‘नहीं जी, काटने से क्या होगा? इसके हाथ-पैर बाँधकर यहीं छोड़ दो’। वैसा करके डाकू उसे वहीं छोड़कर चले गये। थोड़ी देर बाद उनमें से एक लौट आया और बोला, ‘ओह! तुम्हें चोट लगी? आओ, मैं तुम्हारा बन्धन खोल देता हूँ’ उसे मुक्त कर डाकू ने कहा, ‘आओ मेरे साथ, तुम्हें सड़क पर पहुँचा दूँ’ बड़ी देर में सड़क पर पहुँचकर उसने कहा, ‘इस रास्ते से चले जाओ, वह तुम्हारा मकान दिखता है’। तब उस आदमी ने डाकू से कहा, ‘भाई, आपने बड़ा उपकार किया; अब आप भी चलिये मेरे मकान तक; आइये’ डाकू ने कहा, ‘नहीं मैं वहाँ नहीं आ सकता; पुलिस को खबर लग जाएगी’

“यह संसार ही जंगल है। इसमें सत्त्व, रज, तम ये तीन डाकू रहते हैं - ये जीवों का तत्त्वज्ञान छीन लेते हैं। तमोगुण मारना चाहता है; रजोगुण संसार में फँसाता है; पर सतोगुण रज और तम से बचाता है। सत्त्वगुण का आश्रय मिलने पर काम, क्रोध आदि तमोगुण से रक्षा होती है। फिर सतोगुण जीवों का संसारबन्धन तोड़ देता है। पर सतोगुण भी डाकू है - वह तत्त्वज्ञान नहीं दे सकता। हाँ, वह जीव को उस परमधाम में जाने की राह तक पहुँचा देता है और कहता है, ‘वह देखो, तुम्हारा मकान वह दीख रहा है!’ जहाँ ब्रह्मज्ञान है, वहाँ से सतोगुण भी बहुत दूर है।

“ब्रह्म क्या है, यह मुँह से नहीं बताया जा सकता। जिसे उसका ज्ञान होता है वह फिर खबर नहीं दे सकता। लोग कहते हैं कि कालेपानी में जाने पर जहाज फिर नहीं लौटता।

“चार मित्रों ने घूमते-फिरते हुए ऊँची दीवार से घिरी एक जगह देखी। भीतर क्या है यह देखने के लिए सभी बहुत ललचाये। एक दीवार पर चढ़ गया। झाँककर उसने जो देखा तो दंग रह गया, और ‘हा हा हा हा’ करते हुए भीतर कूद पड़ा। फिर कोई खबर नहीं दी। इस तरह जो चढ़ा वही ‘हा हा हा हा’ करते हुए कूद गया! फिर खबर कौन दे?

“जड़भरत, दत्तात्रेय - ये ब्रह्मदर्शन के बाद फिर खबर नहीं दे सके। ब्रह्मज्ञान के उपरान्त, समाधि होने से फिर ‘अहं’ नहीं रहता। इसीलिए रामप्रसाद ने कहा है, ‘यदि अकेले सम्भव न हो तो मन, रामप्रसाद को साथ ले।’ मन का लय होना चाहिए, फिर ‘रामप्रसाद’ का अर्थात् अहं-तत्त्व का भी, लय होना चाहिए। तब कहीं वह ब्रह्मज्ञान मिल सकता है।”

एक भक्त - महाराज, क्या शुकदेव को ज्ञान नहीं हुआ था?

श्रीरामकृष्ण - कितने कहते हैं कि शुकदेव ने ब्रह्मसमुद्र को देखा और छुआ भर था, उसमें पैठकर गोता नहीं लगाया। इसीलिए लौटकर उतना उपदेश दे सके। कोई कहता है, ब्रह्मज्ञान के बाद वे लौट आए थे - लोकशिक्षा देने के लिए। परीक्षित् को भागवत सुनाना था और कितनी ही लोकशिक्षा देनी थी - इसीलिए ईश्वर ने उनके सम्पूर्ण अहं-तत्त्व का लय नहीं किया। एकमात्र ‘विद्या का अहं’ रख छोड़ा था।

केशव को शिक्षा - ‘दल (साम्प्रदायिकता) अच्छा नहीं’

एक भक्त - क्या ब्रह्मज्ञान होने के बाद सम्प्रदाय आदि चलाया जा सकता है?

श्रीरामकृष्ण - केशव सेन से ब्रह्मज्ञान की चर्चा हो रही थी। केशव ने कहा, आगे कहिए। मैंने कहा, और आगे कहने से सम्प्रदाय आदि नहीं रहेगा। इस पर केशव ने कहा, तो फिर रहने दीजिए। (सब हँसे।) तो भी मैंने कहा, ‘मैं’ और ‘मेरा’ यह कहना अज्ञान है। ‘मैं कर्ता हूँ, यह स्त्री, पुत्र, सम्पत्ति, मान, प्रतिष्ठा - यह सब मेरा है’ यह विचार बिना अज्ञान के नहीं होता। तब केशव ने कहा, महाराज, ‘अहं’ को त्याग देने से तो फिर कुछ रहता ही नहीं। मैंने कहा, केशव, मैं तुमसे पूरा ‘अहं’ त्यागने को नही कहता हूँ, तुम ‘कच्चा अहं’ छोड़ दो। ‘मैं कर्ता हूँ’, ‘यह स्त्री और पुत्र मेरा है’, ‘मैं गुरु हूँ’ - इस तरह का अभिमान ‘कच्चा अहं’ है - इसी को छोड़ दो। इसे छोड़कर ‘पक्का अहं’ बनाए रखो। ‘मैं ईश्वर का दास हूँ, उनका भक्त हूँ; मैं अकर्ता हूँ और वे ही कर्ता हैं’ - ऐसा सोचते रहो।

एक भक्त - क्या ‘पक्का अहं’ सम्प्रदाय बना सकता है?

श्रीरामकृष्ण - मैंने केशव सेन से कहा, ‘मैं सम्प्रदाय का नेता हूँ, मैंने सम्प्रदाय बनाया है, मैं लोगों को शिक्षा दे रहा हूँ’ - इस तरह का अभिमान ‘कच्चा अहं’ है। किसी मत का प्रचार करना बड़ा कठिन काम है। वह ईश्वर की आज्ञा बिना नहीं हो सकता। ईश्वर का आदेश होना चाहिए। शुकदेव को भागवत की कथा सुनाने के लिए आदेश मिला था। यदि ईश्वर का साक्षात्कार होने के बाद किसी को आदेश मिले और तब यदि वह प्रचार का बीड़ा उठाए - लोगों को शिक्षा दे, तो कोई हानि नहीं। उसका अहं ‘कच्चा अहं’ नहीं, ‘पक्का अहं’ है।

“मैंने केशव से कहा था, ‘कच्चा अहं’ छोड़ दो। ‘दास अहं’ ‘भक्त का अहं’ - इसमें कोई दोष नहीं। तुम सम्प्रदाय की चिन्ता कर रहे हो, पर तुम्हारे सम्प्रदाय से लोग अलग होते जा रहे हैं। केशव ने कहा, महाराज, तीन वर्ष हमारे सम्प्रदाय में रहकर फिर दूसरे सम्प्रदाय में चला गया और जाते समय उलटे गालियाँ दे गया। मैंने कहा, तुम लक्षणों का विचार क्यों नहीं करते? क्या चाहे जिसको चेला बना लेने से ही काम हो जाता है!

“केशव से मैंने और भी कहा था कि तुम आद्याशक्ति को मानो। ब्रह्म और शक्ति अभिन्न हैं - जो ब्रह्म हैं वे ही शक्ति हैं। जब तक ‘मैं देह हूँ’ यह बोध रहता है, तब तक दो अलग अलग प्रतीत होते हैं। कहने के समय दो आ ही जाते हैं। केशव ने काली (शक्ति) को मान लिया था।

“एक दिन केशव अपने शिष्यों के साथ आया। मैंने कहा, मैं तुम्हारा लेक्चर सुनूँगा। उसने चाँदनी में बैठकर लेक्चर दिया। फिर घाट पर आकर बहुत-कुछ बातचीत की। मैंने कहा, जो भगवान् हैं वे ही दूसरे रूप में भक्त हैं, फिर वे ही एक दूसरे रूप में भागवत हैं। तुम लोग कहो, भागवत-भक्त-भगवान्। केशव ने और साथ ही भक्तों ने भी कहा, भागवत-भक्त-भगवान्। फिर जब मैंने कहा, कहो, गुरु-कृष्ण-वैष्णव, तब केशव ने कहा, महाराज, अभी इतनी दूर बढ़ना ठीक नहीं। लोग मुझे कट्टर कहेंगे।

माया का खेल देख श्रीरामकृष्ण की मूर्च्छा

“त्रिगुणातीत होना बड़ा कठिन है। ईश्वरलाभ किए बिना वह सम्भव नहीं। जीव माया के राज्य में रहता है। यही माया ईश्वर को जानने नहीं देती। इसी माया ने मनुष्य को अज्ञानी बना रखा है। हृदय एक बछड़ा लाया था। एक दिन मैंने देखा कि उसे उसने बाग में बाँध दिया है, चारा चुगाने के लिए। मैंने पूछा, ‘हृदय, तू रोज उसे वहाँ क्यों बाँध रखता है?’ हृदय ने कहा, ‘मामा, बछड़े को घर भेजूँगा। बड़ा होने पर वह हल में जोता जाएगा।’ ज्योंही उसने यह कहा, मैं मूर्च्छित हो गिर पड़ा। सोचा, कैसा माया का खेल है! कहाँ तो कामारपुकुर सिहोड़ और कहाँ कलकत्ता! यह बछड़ा उतना रास्ता चलकर जाएगा, वहाँ बढ़ता रहेगा, फिर कितने दिन बाद हल खींचेगा! इसी का नाम संसार है - इसीका मायाहै।”

“बड़ी देर बाद मेरी मूर्च्छा टूटी थी।”

(३)

समाधि में

श्रीरामकृष्ण प्रायः रातदिन समाधिस्थ रहते हैं - उनका बाहरी ज्ञान नहीं के बराबर होता है, केवल बीच बीच में भक्तों के साथ ईश्वरीय प्रसंग और संकीर्तन करते हैं। करीब तीन-चार बजे मास्टर ने देखा कि वे अपने छोटे तख्त पर बैठे हैं - भावाविष्ट हैं। थोड़ी देर बाद जगन्माता से बातें करते हैं।

माता से वार्तालाप करते हुए एक बार उन्होंने कहा, “माँ, उसे एक कला भर शक्ति क्यों दी?” थोड़ी देर चुप रहने के बाद फिर कहते हैं, “माँ, समझ गया, एक कला ही पर्याप्त होगी। उसी से तेरा काम हो जाएगा - जीवशिक्षण होगा।”

क्या श्रीरामकृष्ण इसी तरह अपने अन्तरंग भक्तों में शक्तिसंचार कर रहे हैं? क्या यह सब तैयारी इसीलिए हो रही है कि आगे चलकर वे जीवों को शिक्षा देंगे?

मास्टर के अलावा कमरे में राखाल भी बैठे हुए हैं। श्रीरामकृष्ण अब भी भावमग्न हैं, राखाल से कहते हैं, “तू नाराज हो गया था? मैंने तुझे क्यों नाराज किया, इसका कारण है; दवा अपना ठीक असर करेगी समझकर। पेट में तिल्ली अधिक बढ़ जाने पर मदार के पत्ते आदि लगाने पड़ते हैं।”

कुछ देर बाद कहते हैं, “हाजरा को देखा, शुष्क काष्ठवत् है। तब यहाँ रहता क्यों है? इसका कारण है, जटिला कुटिला* के रहने से लीला की पुष्टि होती है।

(मास्टर के प्रति) “ईश्वर का रूप मानना पड़ता है। जगद्धात्री रूप का अर्थ जानते हो? जिन्होंने जगत् को धारण कर रखा है - उनके धारण न करने से, उनके पालन न करने से जगत् नष्टभ्रष्ट हो जाय। मनरूपी हाथी को जो वश में कर सकता है, उसी के हृदय में जगद्धात्री उदित होती हैं।”

राखाल - मन मतवाला हाथी है।

श्रीरामकृष्ण - सिंहवाहिनी का सिंह इसीलिए हाथी को दबाये हुए है।

सन्ध्यासमय मन्दिर में आरती हो रही है। श्रीरामकृष्ण भी अपने कमरे में ईश्वर का नाम ले रहे हैं। कमरे में धूनी दी गयी। श्रीरामकृष्ण हाथ जोड़कर छोटे तख्त पर बैठे हैं - माता का चिन्तन कर रहे हैं। बेलघरिया के गोविन्द मुकर्जी और उनके कुछ मित्रों ने आकर उनको प्रणाम किया और जमीन पर बैठे। मास्टर और राखाल भी बैठे हैं।

बाहर चाँद निकला हुआ है। जगत् चुपचाप हँस रहा है। कमरे के भीतर सब लोग चुपचाप बैठे श्रीरामकृष्ण की शान्त मूर्ति देख रहे हैं। आप भावमग्न हैं। कुछ देर बाद बातें की। अब भी भावाविष्ट हैं।

श्यामारूप। उत्तम भक्त। विचारपथ

श्रीरामकृष्ण (भावमग्न) - तुम लोगों को कोई शंका हो तो पूछो। मैं समाधान करता हूँ।

गोविन्द तथा अन्यान्य भक्त लोग सोचने लगे।

गोविन्द - महाराज, श्यामारूप क्यों हुआ?

श्रीरामकृष्ण - वह तो सिर्फ दूर से वैसा दिखता है। पास जाने पर कोई रंग ही नहीं! तालाब का पानी दूर से काला दिखता है। पास जाकर हाथ से उठाकर देखो, कोई रंग नहीं। आकाश दूर से नीले रंग का दिखता है। पास के आकाश को देखो, कोई रंग नहीं। ईश्वर के जितने ही समीप जाओगे उतनी ही धारणा होगी कि उनके नाम-रूप नहीं। कुछ दूर हट आने से फिर वही ‘मेरी श्यामा माता’। जैसे घासफूल का रंग।

“श्यामा पुरुष है या प्रकृति? किसी भक्त ने पूजा की थी। कोई दर्शन करने आया तो उनसे देवी के गले में जनेऊ देखकर कहा, ‘तुमने माता के गले में जनेऊ पहनाया है!’ भक्त ने कहा, ‘भाई, तुम्हीं ने माता को पहचाना है। मैं अब तक नहीं पहचान सका कि वे पुरुष है या प्रकृति! इसीलिए जनेऊ पहना दिया था।’

“जो श्यामा हैं वे ही ब्रह्म हैं। जिनका रूप है वे ही रूपहीन भी हैं। जो सगुण हैं वे ही निर्गुण हैं। ब्रह्म ही शक्ति है और शक्ति ही ब्रह्म। दोनों में कोई भेद नहीं। एक सच्चिदानन्दमय है और दूसरी सच्चिदानन्दमयी।”

गोविन्द - योगमाया क्यों कहते हैं?

श्रीरामकृष्ण - योगमाया अर्थात् पुरुष-प्रकृति का योग। जो कुछ देखते हो वह सब पुरुष-प्रकृति का योग है। शिव-काली की मूर्ति में शिव के ऊपर काली खड़ी हैं। शिव शव की भाँति पड़े हैं, काली शिव की ओर देख रही हैं, - यह सब पुरुष-प्रकृति का योग है। पुरुष निष्क्रिय है, इसीलिए शिव शव हो रहे हैं। पुरुष के योग से प्रकृति सब काम करती है -सृष्टि, स्थिति, प्रलय करती है।

“राधाकृष्ण की युगलमूर्ति का भी यही अभिप्राय है। इसी योग के लिए वक्रभाव है। और यही योग दिखाने के लिए श्रीकृष्ण की नाक में मुक्ता और श्रीमती की नाक में नीलम है। श्रीमती का रंग गोरा, मुक्ता जैसा उज्ज्वल है। श्रीकृष्ण का रंग साँवला है, इसीलिए श्रीमती नीलम धारण करती है। फिर श्रीकृष्ण के वस्त्र पीले और श्रीमती के नीले हैं।

“उत्तम भक्त कौन है? जो ब्रह्मज्ञान के बाद देखता है कि ईश्वर ही जीव, जगत् और चौबीस तत्त्व हुए हैं। पहले ‘नेति नेति’ (यह नहीं, यह नहीं) करके विचार करते हुए छत पर पहुँचना पडता है। फिर वही आदमी देखता है कि छत जिन चीजों - ईंट, चूने और सुरखी - से बनी है, सीढ़ी भी उन्हीं से बनी है। तब वह देखता है कि ब्रह्म ही जीव, जगत और सब कुछ है।

“केवल शुष्क विचार! मैं उस पर थूकता हूँ। (आप जमीन पर थूकते हैं।)

“क्यों विचार कर शुष्क बना रहूँगा! जब तक ‘मैं’ और ‘तुम’ है, तब तक प्रार्थना है कि ईश्वर के चरणकमलों में शुद्धा भक्ति बनी रहे।

(गोविन्द से) “कभी कहता हूँ, तुम्हीं ‘मैं’ हो और ‘मैं’ ही ‘तुम’ हूँ। फिर कभी ‘तुम्हीं तुम हो’ - ऐसा हो जाता है! इस समय अपने अहं को ढूँढ़ नहीं पाता।

“शक्ति का ही अवतार होता है। एक मत से राम और कृष्ण चिदानन्द समुद्र की दो लहरें हैं।

“अद्वैतज्ञान के बाद चैतन्य होता है। तब मनुष्य देखता है कि ईश्वर ही सब प्राणियों में चैतन्य रूप से विद्यमान हैं। चैतन्यलाभ के बाद आनन्द होता है - ‘अद्वैतचैतन्य-नित्यानन्द’।*

(मास्टर से) “और तुमसे कहता हूँ - ईश्वर के रूप पर अविश्वास मत करना। यह विश्वास करना कि ईश्वर के रूप हैं, फिर जो रूप तुम्हें पसन्द हो उसी का ध्यान करना।

(गोविन्द से) “बात यह है कि जब तक भोग-वासना बनी रहती है, तब तक ईश्वर को जानने या उनके दर्शन करने के लिए प्राण व्याकुल नहीं होते। बच्चा खेल में मग्न रहता है। मिठाई देकर बहलाओ तो थोड़ीसी खा लेगा। जब उसे न खेल अच्छा लगता है न मिठाई, तब वह कहता है, ‘माँ के पास जाऊँगा।’ फिर वह मिठाई नहीं चाहता। अगर कोई आदमी, जिसे उसने न कभी देखा है और न पहचानता है, आकर कहे, ‘आ, तुझे माँ के पास ले चलूँ’, तो वह उसके साथ चला जाएगा। जो कोई उसे गोद में बिठाकर ले जायगा, वह उसी के साथ जाएगा।

“संसार के भोग समाप्त हो जाने के बाद ईश्वर के लिए प्राण व्याकुल होते हैं। उस समय केवल एक चिन्ता रहती है कि किस तरह उन्हें पाऊँ। उस समय जो जैसा बताता है, मनुष्य वैसा ही करने लगता है।”

मास्टर (स्वगत) - भोगवासना समाप्त हो चुकने के बाद ही ईश्वर के लिए प्राण व्याकुल होते हैं।

(४)

समाधि में जगन्माता के साथ वार्तालाप

एक दूसरे दिन श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर में अपने कमरे के दक्षिणपूर्ववाले बरामदे की सीढ़ी पर बैठै हैं। साथ में राखाल, मास्टर तथा हाजरा हैं। श्रीरामकृष्ण हँसी हँसी में बचपन की अनेक बातें कह रहे हैं।

सायंकाल हुआ। श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हैं। अपने कमरे में छोटे तख्त पर बैठे जगन्माता के साथ वार्तालाप कर रहे हैं। कह रहे हैं, “माँ, तू इतना झमेला क्यों करती है? माँ, क्या मैं वहाँ पर जाऊँ? यदि तू ले जाएगी तो जाऊँगा।”

श्रीरामकृष्ण का किसी भक्त के घर पर जाना तय हुआ था। क्या वे इसीलिए जगन्माता की आज्ञा के लिए इस प्रकार कह रहे हैं?

जगन्माता के साथ श्रीरामकृष्ण फिर वार्तालाप कर रहे हैं। सम्भव है अब किसी अन्तरंग भक्त के लिए प्रार्थना कर रहे हैं। कह रहे हैं, “माँ, उसे शुद्ध बना दो। अच्छा माँ, उसे एक कला क्यों दी?”

श्रीरामकृष्ण कुछ देर चुप हैं। फिर कह रहे हैं, “ओफ! समझा। इसी से तेरा काम होगा।” सोलह कलाओ में से एक कला शक्ति द्वारा तेरा काम अर्थात् लोकशिक्षा होगी - क्या श्रीरामकृष्ण यही कह रहे हैं?

अब भावविभोर स्थिति में मास्टर आदि से आद्याशक्ति तथा अवतार-तत्त्व के सम्बन्ध में कह रहे हैं -

“जो ब्रह्म है, वही शक्ति है। मैं उन्हीं को माँ कहकर पुकारता हूँ। जब वे निष्क्रिय रहते हैं तब उन्हें ब्रह्म कहते हैं, और जब वे सृष्टि, स्थिति, संहार कार्य करते हैं, तब उन्हें शक्ति कहते हैं। जिस प्रकार स्थिर जल और हिलता-डुलता जल। शक्ति की लीला से ही अवतार होते हैं। अवतार प्रेम-भक्ति सिखाने आते हैं। अवतार मानो गाय का स्तन है। दूध स्तन से ही मिलता है। मनुष्य रूप में वे अवतीर्ण होते हैं।”

कोई कोई भक्त सोच रहे हैं, क्या श्रीरामकृष्ण अवतारी पुरुष हैं, जैसे श्रीकृष्ण, चैतन्यदेव, ईसा?

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