परिच्छेद ४ - चतुर्थ दर्शन

(१)

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः। यस्मिन् स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥ (गीता, ६।२२)

नरेन्द्र, भवनाथ आदि के संग आनन्द

उसके दूसरे दिन (६ मार्च को) भी छुट्टी थी। दिन के तीन बजे मास्टर फिर आए। श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में बैठे हैं। फर्श पर चटाई बिछी है। नरेन्द्र, भवनाथ तथा और भी दो एक लोग बैठे हैं। सभी अभी लड़के हैं, उम्र उन्नीस-बीस के लगभग होगी। प्रफुल्लमुख श्रीरामकृष्ण तखत पर बैठे हुए लड़कों से सानन्द वार्तालाप कर रहे हैं।

मास्टर को कमरे में घुसते देख श्रीरामकृष्ण ने हँसते हुए कहा, “यह देखो, फिर आया।” सब हँसने लगे। मास्टर ने भूमिष्ठ हो प्रणाम करके आसन ग्रहण किया। पहले वे खड़े खड़े हाथ जोड़कर प्रणाम करते थे - जैसा अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग करते हैं। पर आज उन्होंने भूमिष्ठ होकर प्रणाम करना सीखा। श्रीरामकृष्ण नरेन्द्रादि भक्तों से कहने लगे, “देखो, एक मोर को किसी ने चार बजे अफीम खिला दी। दूसरे दिन से वह अफीमची मोर ठीक चार बजे आ जाता था! यह भी अपने समय पर आया है।” सब लोग हँसने लगे।

मास्टर सोचने लगे, ये ठीक तो कहते हैं। घर जाता हूँ, पर मन दिन-रात यहीं पड़ा रहता है। कब जाऊँ, कब उन्हें देखूँ इसी विचार में रहता हूँ। यहाँ मानो कोई खींच ले आता है! इच्छा होने पर भी दूसरी जगह जा नहीं पाता, यहीं आना पड़ता है। इधर श्रीरामकृष्ण लड़कों से हँसी-मजाक करने लगे। मालूम होता था कि वे सब मानो एक ही उम्र के हैं। हँसी की लहरें उठने लगीं। मानो आनन्द की हाट लगी हो।

मास्टर यह अद्भुत चरित्र देखते हुए सोचते हैं कि पिछले दिन क्या इन्हीं को समाधि और अपूर्व प्रेमानन्द में मग्न देखा था? क्या ये वे ही मनुष्य हैं, जो आज प्राकृत मनुष्य जैसा व्यवहार कर रहे हैं? क्या इन्हीं ने मुझे पहले दिन उपदेश देते हुए धिक्कारा था? इन्हीं ने मुझे ‘तुम ज्ञानी हो’ कहा था? इन्हीं ने साकार और निराकार दोनों सत्य हैं, कहा था? इन्हीं ने मुझे कहा था कि ईश्वर ही सत्य हैं और सब अनित्य? इन्हीं ने मुझे संसार में दासी की भाँति रहने का उपदेश दिया था?

श्रीरामकृष्ण आनन्द कर रहे हैं और बीच बीच में मास्टर को देख रहे हैं। मास्टर को सविस्मय बैठे हुए देखकर उन्होंने रामलाल से कहा - “इसकी उम्र कुछ ज्यादा हो गयी है न, इसी से कुछ गम्भीर है। ये सब हँस रहे हैं; पर यह चुपचाप बैठा है।”

मास्टर की उम्र उस समय सत्ताईस साल की होगी।

बात ही बात में परम भक्त हनुमान की बात चली। हनुमान का एक चित्र श्रीरामकृष्ण के कमरे की दीवार पर टँगा था। श्रीरामकृष्ण ने कहा, “देखो तो, हनुमान का भाव कैसा है! धन, मान, शरीरसुख कुछ भी नहीं चाहते, केवल भगवान् को चाहते हैं। जब स्फटिक-स्तम्भ के भीतर से ब्रह्मास्त्र निकालकर भागे, तब मन्दोदरी नाना प्रकार के फल लेकर लोभ दिखाने लगी। उसने सोचा कि फल के लोभ से उतरकर शायद ये ब्रह्मास्त्र फेंक दें; पर हनुमान इस भुलावे में कब पड़ने लगे? उन्होंने कहा - मुझे फलों का अभाव नहीं है। मुझे जो फल मिला है, उससे मेरा जन्म सफल हो गया है। मेरे हृदय में मोक्षफल के वृक्ष श्रीरामचन्द्रजी हैं। श्रीराम-कल्पतरु के नीचे बैठा रहता हूँ; जब जिस फल की इच्छा होती है, वही फल खाता हूँ। फल के बारे में कहता हूँ कि तेरा फल मैं नहीं चाहता हूँ। तू मुझे फल न दिखा, मैं इसका प्रतिफल दे जाऊँगा।”

इसी भाव का एक गीत श्रीरामकृष्ण गा रहे हैं। फिर वही समाधि; देह निश्चल, नेत्र स्थिर। बैठे हैं, जैसी मूर्ति फोटोग्राफ में देखने को मिलती है। भक्तगण अभी इतना हँस रहे थे पर अब सब एक दृष्टि से श्रीरामकृष्ण की इस अद्भुत अवस्था का दर्शन करने लगे। मास्टर दूसरी बार यह समाधि-अवस्था देख रहे थे।

बड़ी देर बाद अवस्था का परिवर्तन हो रहा है। देह शिथिल हो गयी, मुख सहास्य हो गया, इन्द्रियाँ फिर अपना अपना काम करने लगीं। नेत्रों से आनन्दाश्रु बहाते हुए ‘राम राम’ उच्चारण कर रहे हैं।

मास्टर सोचने लगे, क्या ये ही महापुरुष लड़कों के साथ दिल्लगी कर रहे थे? तब तो यह जान पड़ता था कि मानो पाँच वर्ष के बालक हैं।

श्रीरामकृष्ण प्रकृतिस्थ होकर फिर प्राकृत मनुष्यों जैसा व्यवहार कर रहे हैं। मास्टर और नरेन्द्र से कहने लगे कि तुम दोनों अंग्रेजी में बातचीत करो, मैं सुनूँगा।

यह सुनकर मास्टर और नरेन्द्र हँस रहे हैं। दोनों परस्पर कुछ बातचीत करने लगे, पर बँगला में। श्रीरामकृष्ण के सामने मास्टर का तर्क करना सम्भव न था; क्योंकि तर्क का तो घर उन्होंने बन्द कर दिया है। अतएव मास्टर अब तर्क कैसे कर सकते हैं! श्रीरामकृष्ण ने फिर कहा, पर मास्टर के मुँह से अंग्रेजी तर्क न निकला।

(२)

त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं, त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्। त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता, सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे॥ (गीता,११।१८)

अन्तरंग भक्तों के संग में। ‘मैं कौन हूँ ’?

पाँच बजे हैं। भक्त लोग अपने अपने घर चले गए। सिर्फ मास्टर और नरेन्द्र रह गए। नरेन्द्र मुँह-हाथ धोने के लिए गए। मास्टर भी बगीचे में इधर-उधर घूमते रहे। थोड़ी देर बाद कोठी की बगल से ‘हंस तालाब’ की ओर आते हुए उन्होंने देखा कि तालाब की दक्षिण तरफवाली सीढ़ी के चबूतरे पर श्रीरामकृष्ण खड़े हैं और नरेन्द्र भी हाथ में गड़ुआ लिए खड़े हैं। श्रीरामकृष्ण कहते हैं, “देख, और जरा ज्यादा आया-जाया करना - तूने हाल ही में आना शुरू किया है न? पहली जान-पहचान के बाद सभी लोग कुछ ज्यादा आया करते हैं, जैसे नया पति। (नरेन्द्र और मास्टर हँसे।) क्यों, आएगा नहीं?” नरेन्द्र ब्राह्मसमाजी लड़के हैं, हँसते हुए कहा, “हाँ, कोशिश करूँगा।”

फिर सभी कोठी की राह से श्रीरामकृष्ण के कमरे की ओर आने लगे। कोठी के पास श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से कहा, “देखो, किसान बाजार से बैल खरीदते हैं। वे जानते हैं कि कौनसा बैल अच्छा है और कौनसा बुरा। वे पूँछ के नीचे हाथ लगाकर परखते हैं। कोई कोई बैल पूँछ पर हाथ लगाने से लेट जाते हैं। वे ऐसे बैल नहीं खरीदते। पर जो बैल पूँछ पर हाथ रखते ही बड़ी तेजी से कूद पड़ता है, उसी बैल को वे चुन लेते हैं। नरेन्द्र इसी बैल की जाति का है। भीतर खूब तेज है।” यह कहकर श्रीरामकृष्ण मुसकराने लगे। “फिर कोई कोई ऐसे होते हैं कि मानो उनमें जान ही नहीं है - न जोर है, न दृढ़ता।”

सन्ध्या हुई। श्रीरामकृष्ण ईश्वर-चिन्तन करने लगे। उन्होंने मास्टर से कहा, “तुम जाकर नरेन्द्र से बातचीत करो, और फिर मुझे बताना कि वह कैसा लड़का है।”

आरती हो चुकी। मास्टर ने बड़ी देर में नरेन्द्र को चाँदनी के पश्चिम की तरफ पाया। आपस में बातचीत होने लगी। नरेन्द्र ने कहा कि मैं साधारण ब्राह्मसमाजी हूँ, कालेज में पढ़ता हूँ, इत्यादि।

रात हो गयी। अब मास्टर घर जाएँगे, पर जाने को जी नहीं चाहता; इसलिए नरेन्द्र से बिदा होकर वे फिर श्रीरामकृष्ण को ढूँढ़ने लगे। उनका गीत सुनकर मास्टर मुग्ध हो गए हैं। जी चाहता है कि फिर उनके श्रीमुख से गीत सुनें। ढूँढ़ते हुए देखा कि कालीमाता के मन्दिर के सामने जो नाट्यमण्डप है, उसी में श्रीरामकृष्ण अकेले टहल रहे हैं। मन्दिर में मूर्ति के दोनों तरफ दीपक जल रहे थे। विस्तृत नाट्यमण्डप में एक लालटेन जल रही थी। रोशनी धीमी थी। प्रकाश और अँधेरे का मिश्रण-सा दीख पड़ता था।

मास्टर श्रीरामकृष्ण का गीत सुनकर मुग्ध हो गए हैं, जैसे साँप मन्त्रमुग्ध हो जाता है। अब बड़े संकोच से उन्होंने श्रीरामकृष्णदेव से पूछा, “क्या आज फिर गाना होगा?” श्रीरामकृष्ण ने जरा सोचकर कहा, “नहीं, आज अब न होगा।” यह कहते ही मानो उन्हें फिर याद आयी और उन्होंने कहा, “हाँ, एक काम करना। मैं कलकत्ते में बलराम के घर जाऊँगा, तुम भी आना, वहाँ गाना होगा।”

मास्टर - आपकी जैसी आज्ञा।

श्रीरामकृष्ण - तुम जानते हो बलराम बसु को?

मास्टर - जी नहीं।

श्रीरामकृष्ण - बलराम बसु - बोसपाड़ा में उनका घर है।

मास्टर - जी मैं पूछ लूँगा।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर के साथ टहलते हुए) - अच्छा, तुमसे एक बात पूछता हूँ - मुझे तुम क्या समझते हो?

मास्टर चुप रहे। श्रीरामकृष्ण ने फिर से पूछा, “तुम्हें क्या मालूम होता है? मुझे कितने आने ज्ञान हुआ है?”

मास्टर - ‘आने’ की बात तो मैं नहीं जानता पर ऐसा ज्ञान, या प्रेमभक्ति, या विश्वास, या वैराग्य, या उदार भाव मैंने और कहीं कभी नहीं देखा।

श्रीरामकृष्ण हँसने लगे।

इस बातचीत के बाद मास्टर प्रणाम करके विदा हुए। फाटक तक जाकर फिर कुछ याद आयी, उल्टे पाँव लौटकर फिर श्रीरामकृष्णदेव के पास नाट्यमण्डप में हाजिर हुए।

उस धीमी रोशनी में श्रीरामकृष्ण अकेले टहल रहे थे - निःसंग - जैसे सिंह वन में अकेला अपनी मौज में फिरता रहता है। आत्माराम, और किसी की अपेक्षा नहीं!

विस्मित होकर मास्टर उन महापुरुष को देखने लगे।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - क्यों जी, फिर क्यों लौटे?

मास्टर - जी, वे अमीर आदमी होंगे - शायद मुझे भीतर न जाने दें - इसीलिए सोच रहा हूँ कि वहाँ न जाऊँगा, यहीं आकर आपसे मिलूँगा।

श्रीरामकृष्ण - नहीं जी, तुम मेरा नाम लेना। कहना कि मैं उनके पास जाऊँगा, बस कोई भी तुम्हें मेरे पास ले आएगा।

“जैसी आपकी आज्ञा” - कहकर मास्टर ने फिर प्रणाम किया और वहाँ से विदा हुए।

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