परिच्छेद १८ - मणि मल्लिक के ब्राह्मोत्सव में श्रीरामकृष्ण

श्रीरामकृष्ण ने कलकत्ते में श्री मणिलाल मल्लिक के सिन्दुरियापट्टीवाले मकान पर भक्तों के साथ शुभागमन किया है। वहाँ पर ब्राह्मसमाज का प्रतिवर्ष उत्सव होता है। दिन के चार बजे का समय होगा। यहाँ पर आज ब्राह्मसमाज का वार्षिकोत्सव है। २६ नवम्बर १८८२ ई. । श्री विजयकृष्ण गोस्वामी तथा अनेक ब्राह्मभक्त और श्री प्रेमचन्द्र बड़ाल तथा गृहस्वामी के अन्य मित्रगण आए हैं। मास्टर आदि साथ हैं।

श्री मणिलाल ने भक्तों की सेवा के लिए अनेक प्रकार का आयोजन किया है। प्रह्लाद-चरित्र की कथा होगी, उसके बाद ब्राह्मसमाज की उपासना होगी, अन्त में भक्तगण प्रसाद पायेंगे।

श्री विजय अभी तक ब्राह्मसमाज में ही हैं। वे आज की उपासना करेंगे। उन्होंने अभी तक गैरिक वस्त्र धारण नहीं किया है।

कथक महाशय प्रह्लाद-चरित्र की कथा कह रहे हैं। पिता हिरण्यकशिपु हरि की निन्दा करते हुए पुत्र प्रह्लाद को बार बार क्लेशित कर रहे हैं। प्रह्लाद हाथ जोड़कर हरि से प्रार्थना कर रहे हैं और कह रहे हैं, “हे हरि, पिता को सद्बुद्धि दो ।” श्रीरामकृष्ण इस बात को सुनकर रो रहे हैं। श्री विजय आदि भक्तगण श्रीरामकृष्ण के पास बैठे हैं। श्रीरामकृष्ण को भावावस्था हो गयी है।

श्री विजय गोस्वामी प्रभृति ब्राह्मभक्तों को उपदेश। ईश्वर दर्शन और आदेश प्राप्ति, तब लोकशिक्षा॥

कुछ देर बाद विजय आदि भक्तों से कह रहे हैं, “भक्ति ही सार है। उनके नामगुण का कीर्तन सदा करते करते भक्ति प्राप्त होती है। अहा, शिवनाथ की कैसी भक्ति है! मानो, रस में पड़ा हुआ रसगुल्ला।

“ऐसा समझना ठीक नहीं कि मेरा धर्म ही ठीक है तथा दूसरे सभी का धर्म असत्य है। सभी पथों से उन्हें प्राप्त किया जा सकता है। हृदय में व्याकुलता रहनी चाहिए। अनन्त पथ, अनन्त मत।

“देखो, ईश्वर को देखा जा सकता है। वेद में कहा है, ‘अवाङ्मानसगोचरम्।’ इसका अर्थ यह है कि वे विषयासक्त मन के अगोचर हैं। वैष्णवचरण कहा करता था, ‘वे शुद्ध मन, शुद्ध बुद्धि द्वारा प्राप्त करने योग्य हैं।’* इसीलिए साधुसंग, प्रार्थना, गुरु का उपदेश - यह सब आवश्यक है। तभी चित्तशुद्धि होती है, तब उनका दर्शन होता है। मैले जल में निर्मली डालने से वह साफ होता है, तब मुँह देखा जाता है। मैले आईने में भी मुँह नहीं देखा जा सकता।

“चित्तशुद्धि के बाद भक्ति प्राप्त करने पर, उनकी कृपा से उनका दर्शन होता है। दर्शन के बाद ‘आदेश’ पाने पर तब लोकशिक्षा दी जा सकती है। पहले से ही लेक्चर देना ठीक नहीं है। एक गाने में कहा है - ‘मन अकेले बैठे क्या सोच रहे हो? क्या कभी प्रेम के बिना ईश्वर मिल सकता है?’

“फिर कहा है, ‘तेरे मन्दिर में माधव नहीं हैं। शंख बजाकर तूने हल्ला मचा दिया। उसमें तो ग्यारह चमगीदड़ रातदिन मँडराते रहते हैं।’

“पहले हृदय-मन्दिर को साफ करना होता है। ठाकुरजी की प्रतिमा को लाना होता है। पूजा की तैयारी करनी होती है। कोई तैयारी नहीं, भों भों करके शंख बजाने से क्या होगा?”

अब श्री विजय गोस्वामी वेदी पर बैठे ब्राह्मसमाज की पद्धति के अनुसार उपासना कर रहे हैं। उपासना के बाद वे श्रीरामकृष्ण के पास आकर बैठे।

श्रीरामकृष्ण (विजय के प्रति) - अच्छा, तुम लोगों ने उतना पाप, पाप क्यों कहा? सौ बार ‘मैं पापी हूँ, मैं पापी हूँ’, ऐसा कहने से वैसा ही हो जाता है। ऐसा विश्वास करना चाहिए कि उनका नाम लिया - है, मेरा फिर पाप कैसा? वे हमारे माँ-बाप हैं; उनसे कहो कि पाप किया है, अब कभी नहीं करूँगा। और उनका नाम लो। सब मिलकर उनके नाम से देहमन को पवित्र करो - जिह्वा को पवित्र करो।

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