परिच्छेद ७ - श्रीरामकृष्ण तथा ईश्वरचन्द्र विद्यासागर

(१)

श्री विद्यासागर का मकान

आज शनिवार है, श्रावण कृष्णा षष्ठी, ५ अगस्त १८८२ ई. । दिन के चार बजे होंगे।

श्रीरामकृष्ण किराये की गाड़ी पर कलकत्ते के रास्ते बादुड़बागान की तरफ जा रहे हैं। भवनाथ, हाजरा और मास्टर साथ में हैं। आप पण्डित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के घर जाएँगे।

श्रीरामकृष्ण की जन्मभूमि जिला हुगली के अन्तर्गत कामारपुकुर गाँव है, जो पण्डित विद्यासागर की जन्मभूमि वीरसिंह गाँव के पास है। श्रीरामकृष्णदेव बाल्यकाल से ही विद्यासागर की दया की चर्चा सुनते आए हैं। दक्षिणेश्वर के कालीमन्दिर में प्रायः उनके पाण्डित्य और दया की बातें सुना करते हैं। यह सुनकर कि मास्टर विद्यासागर के स्कूल में पढ़ाते हैं, आपने उनसे पूछा, “क्या मुझे विद्यासागर के पास ले चलोगे? मुझे उन्हें देखने की बड़ी इच्छा होती है।” मास्टर ने जब विद्यासागर से यह बात कही तो उन्होंने हर्ष के साथ किसी शनिवार को चार बजे उन्हें साथ लाने को कहा। केवल यही पूछा - “कैसे परमहंस हैं? क्या वे गेरुए कपड़े पहनते हैं?” मास्टर ने कहा - “जी नहीं, वे एक अद्भुत पुरुष हैं; लाल किनारीदार धोती पहनते हैं, कुरता पहनते हैं, पालिश किए हुए स्लीपर पहनते हैं, रानी रासमणि के कालीमन्दिर की एक कोठरी में रहते हैं, जिसमें एक तखत है और उस पर बिस्तर और मच्छरदानी, उस बिस्तर पर लेटते हैं। कोई बाहरी भेष तो नहीं है, पर सिवाय ईश्वर के और कुछ नहीं जानते, अहर्निश उन्हीं का चिन्तन किया करते हैं। ”

गाड़ी दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर से चलकर श्यामबाजार होते हुए अब अमहर्स्ट स्ट्रीट में आयी है। भक्त लोग कह रहे हैं कि अब बादुड़बागान के पास आयी है। श्रीरामकृष्ण बालक की भाँति आनन्द से बातचीत करते हुए आ रहे हैं। अमहर्स्ट स्ट्रीट में आकर एकाएक उनका भावान्तर हुआ - मानो ईश्वरावेश होना चाहता है।

गाड़ी राममोहन राय के बाग की बगल से आ रही है। मास्टर ने श्रीरामकृष्ण का भावान्तर नहीं देखा, झट कह दिया - ‘यह राममोहन राय का बाग है।’ श्रीरामकृष्ण नाराज हुए, कहा, ‘अब ये बातें अच्छी नहीं लगतीं।’ आप भावाविष्ट हो रहे हैं।

विद्यासागर के मकान के सामने गाड़ी खड़ी हुई। मकान दुमंजिला है, साहबी ढंग से सजा हुआ है। मकान के चारों ओर खुली जगह है जो दीवार से घिरी हुई है। मकान के पश्चिम की ओर फाटक है। आँगन में बीच बीच में पुष्पवृक्ष लगे हुए हैं। नीचे पश्चिमवाले कमरे में ऊपर चढ़ने के लिए जीना है। विद्यासागर ऊपर रहते हैं। जीने से चढ़कर ऊपर जाते ही उत्तर की ओर एक कमरा है, उसके पूर्व की ओर एक हाल है। हॉल के दक्षिण-पूर्ववाले कमरे में विद्यासागर सोया करते हैं। दक्षिण की ओर और एक कमरा है। ये सारे कमरे कीमती पुस्तकों से भरे हैं। पुस्तकों पर सुन्दर जिल्द लगवाकर उन्हें अच्छी तरह सजाकर रखा गया है। हॉल के पूर्व की ओर मेज और कुर्सी है। यहीं बैठकर विद्यासागर काम किया करते हैं। जो लोग उनसे मिलने आते हैं वे मेज के तीनों ओर रखी हुई कुर्सियों पर बैठा करते हैं। मेज पर कागज, कलम, स्याही आदि लिखने की वस्तुएँ, बहुतसी चिट्ठियाँ, और कुछ पुस्तकें रखी हुई हैं। इस मेज के दक्षिण दिशा के कमरे में एक छोटा बिछौना है। यहींपर आप शयन करते हैं।

मेज पर जो चिट्ठियाँ रखी हुई हैं उनमें क्या लिखा है? शायद किसी विधवा ने लिखा है, ‘मेरा नाबालिग बच्चा अनाथ है, उसकी ओर देखनेवाला कोई नहीं, आप ही को उसकी ओर देखना होगा।’ किसी ने लिखा है, ‘आप कहीं चले गए थे, इसलिए हमें इस माह का पैसा समय पर नहीं मिला, बड़ी तकलीफ हुई।’ किसी गरीब छात्र ने लिखा है, ‘आपके स्कूल में निःशुल्क भरती तो हो गया हूँ, पर मुझमें पुस्तकें खरीदने की भी सामर्थ्य नहीं है।’ किसी ने लिखा है, ‘मेरे परिवार के लोगों को खाने को नहीं मिल रहा है - मुझे एक नौकरी लगवा देनी होगी।’ उनके स्कूल के किसी शिक्षक ने लिखा है, ‘मेरी बहन विधवा हो गयी है, उसका सारा भार मुझ पर आ पड़ा है, इतनी तनख्वाह में मेरा गुजर नहीं हो पाएगा।’ शायद किसी ने विलायत से पत्र लिखा है, ‘मैं यहाँ विपत्ति में पड़ा हूँ; आप दीनबन्धु हैं, कुछ मदद भेजकर इस संकट से मेरी रक्षा करें।’ किसी ने लिखा है, ‘अमुक तारीख को हमारे फैसले का दिन निश्चित हुआ है, उस दिन आप आकर हमारा झगड़ा मिटा दें।’

श्रीरामकृष्णदेव गाड़ी से उतरे। मास्टर राह बताते हुए आपको मकान के भीतर ले जा रहे हैं। आँगन में फूलों के पेड़ हैं। उनके बीच में से जाते हुए श्रीरामकृष्ण बालक की तरह बटन में हाथ लगाकर मास्टर से पूछ रहे हैं, “कुरते के बटन खुले हुए हैं - इसमें कुछ हानि तो न होगी?” बदन पर एक सूती कुरता है और लाल किनारे की धोती पहने हुए हैं, जिसका एक छोर कन्धे पर पड़ा हुआ है। पैरों में स्लीपर है। मास्टर ने कहा - “आप इस सब के लिए चिन्ता न कीजिये, आपकी कहीं कुछ त्रुटि न होगी। आपको बटन नहीं लगाना पड़ेगा।” समझाने पर लड़का जैसे शान्त हो जाता है, आप भी वैसे शान्त हो गए।

विद्यासागर

श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ जीने से चढ़कर पहले कमरे में (जो उत्तर की तरफ था) गए। कमरे में उत्तरी हिस्से में विद्यासागर दक्षिणाभिमुख बैठे हैं। सामने एक चौकोर लम्बी चिकनी मेज है। इसी के पास एक बेंच है। मेज के आसपास कुछ कुर्सियाँ हैं। विद्यासागर दो एक मित्रों से बातचीत कर रहे थे।

श्रीरामकृष्ण के प्रवेश करते ही विद्यासागर ने खड़े होकर उनका स्वागत किया। श्रीरामकृष्ण मेज के पूर्व की ओर खड़े हैं - बायाँ हाथ मेज पर है; पीछे वह बेंच है। विद्यासागर को पूर्वपरिचित की भाँति एकटक देखते हैं और भावावेश में हँसते हैं।

विद्यासागर की उम्र तिरसठ के लगभग होगी। श्रीरामकृष्ण से वे सोलह-सत्रह वर्ष बड़े होंगे। मोटी धोती पहने हुए हैं, पैरों में स्लीपर, और बदन में एक आधी आस्तीन का फलालैन का कुरता। सिर का निचला हिस्सा चारों तरफ उड़िया लोगों की तरह मुँड़ा हुआ है। बोलने के समय उज्ज्वल दाँत नजर आते हैं - सभी दाँत नकली हैं। सिर खूब बड़ा है, ललाट ऊँचा है और कद कुछ छोटा। ब्राह्मण हैं, इसलिए गले में जनेऊ है।

विद्यासागर में अनेक गुण हैं। पहला गुण - विद्यानुराग। एक दिन मास्टर से यह कहते हुए सचमुच ही रो पड़े थे कि मेरी तो तीव्र इच्छा थी कि खूब विद्या-अध्ययन करूँ, पर कुछ न हो सका; संसार में पड़ जाने के कारण बिलकुल समय नहीं मिला। दुसरा गुण - सर्व जीवों पर दया। विद्यासागर दया के सागर हैं। बछड़ों को माँ का दूध नहीं मिलता यह देखकर दूध पीना छोड़ ही दिया था; आखिर कई साल बाद स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने के कारण फिर दूध शुरू करना पड़ा था। गाड़ी में नहीं चढ़ते थे - घोड़ा बेचारा अपना कष्ट जता नहीं सकता, चुपचाप सहता जाता है। एक दिन आपने देखा, एक बोझ ढोनेवाले हम्माल को हैजा हो गया है, वह रास्ते पर पड़ा हुआ है, पास ही उसकी टोकरी पड़ी है। देखते ही आप स्वयं उसे उठाकर अपने घर ले आए और उसकी सेवाशुश्रूषा करने लगे। तीसरा गुण - स्वाधीनताप्रीति। अधिकारियों के साथ एकमत न होने के कारण संस्कृत कालेज के प्रधानाध्यापक (प्रिन्सिपल) का पद छोड़ दिया। चौथा गुण - लोगों की निन्दास्तुति की परवाह नहीं थी। एक शिक्षक पर आपका स्नेह था, उनकी बेटी के विवाह के समय बगल में उसे उपहार देने के लिए नया वस्त्र दाबकर आ खड़े हुए। पाँचवाँ गुण - मातृभक्ति तथा मानसिक बल। माँ ने कहा था, ‘ईश्वर, तुम यदि इस विवाह में (भाई के विवाह में) नहीं आओगे तो मेरे मन में बड़ा दुख होगा।’ इसलिए कलकत्ते से पैदल ही निकल पड़े। राह में दामोदर नदी थी। नाव नहीं थी, - तैरकर ही उस पार चले गए। विवाह की रात्रि को गीले कपड़ों में माँ के सामने जा पहुँचे, कहा, ‘माँ, मैं आ गया।’

विद्यासागर के साथ श्रीरामकृष्ण का वार्तालाप

श्रीरामकृष्ण भावाविष्ट हो रहे हैं और थोड़ी देर के लिए उसी दशा में खड़े हैं। भाव सम्हालने के लिए बीच बीच में कहते हैं कि पानी पीऊँगा। इस बीच में घर के लड़के और आत्मीय बन्धु भी आकर खड़े हो गए।

श्रीरामकृष्ण भावाविष्ट होकर बेंच पर बैठते हैं। एक सत्रह-अठारह वर्ष का लड़का उस पर बैठा है - विद्यासागर के पास सहायता माँगने आया है। श्रीरामकृष्ण भावाविष्ट हैं - ऋषि की अन्तर्दृष्टि लड़के के सब मनोभाव ताड़ गयी। आप कुछ सरककर बैठे और भावावेश में कहने लगे, “माँ इस लड़के की संसार में बड़ी आसक्ति है, और तुम्हारे अविद्या के संसार पर! यह अविद्या का लड़का है।”

जो ब्रह्मविद्या के लिए व्याकुल नहीं है, केवल अर्थकरी विद्या का उपार्जन करना उसके लिए व्यर्थ है - कदाचित् आप यही कह रहे हैं।

विद्यासागर ने व्यग्र होकर किसी से पानी लाने को कहा और मास्टर से पूछा, “कुछ मिठाई लाऊँ, क्या ये खाएँगे?” मास्टर ने कहा, “जी हाँ, ले आइये।” विद्यासागर जल्दी से भीतर जाकर कुछ मिठाइयाँ ले आए और कहा कि ये बर्दवान से आयी हैं। श्रीरामकृष्ण को कुछ खाने को दी गयी; हाजरा और भवनाथ ने भी कुछ पायी। जब मास्टर की बारी आयी तो विद्यासागर ने कहा, “वह तो घर ही का लड़का है, उसके लिए चिन्ता नहीं।” श्रीरामकृष्ण एक भक्त लड़के के बारे में विद्यासागर से कह रहे हैं, जो सामने ही बैठा था। आपने कहा, “यह लड़का बड़ा अच्छा है, और इसके भीतर सार है, जैसे फल्गु नदी; ऊपर तो रेत है, पर थोड़ा खोदने से ही भीतर पानी बहता दिखायी देता है।”

मिठाई पा चुकने के बाद आप हँसते हुए विद्यासागर से बातचीत कर रहे हैं। देखते ही देखते कमरा दर्शकों से भर गया; कोई बैठा है, कोई खड़ा है।

श्रीरामकृष्ण - आज सागर से आ मिला। इतने दिन खाई, सोता और अधिक से अधिक हुआ तो नदी देखी, पर अब सागर देख रहा हूँ। (सब हँसते हैं।)

विद्यासागर - तो थोड़ा खारा पानी लेते जाइये। (हास्य)

श्रीरामकृष्ण - नहीं जी, खारा पानी क्यों? तुम तो अविद्या के सागर नहीं, विद्या के सागर हो! (सब हँसे।) तुम क्षीरसमुद्र हो! (सब हँसे।)

विद्यासागर - आप जो चाहें कह सकते हैं।

सात्त्विक कर्म। दया और सिद्धपुरुष

विद्यासागर चुप रहे। श्रीरामकृष्ण फिर कहने लगे -

“तुम्हारा कर्म सात्त्विक कर्म है। यह सत्त्व का रजस् है। सत्त्वगुण से दया होती है। दया से जो कर्म किया जाता है, वह है तो राजसिक कर्म सही, पर यह रजोगुण सत्त्व का रजोगुण है, इसमें दोष नहीं है। शुकदेव आदि ने लोकशिक्षा के लिए दया रख ली थी - ईश्वर के विषय में शिक्षा देने के लिए। तुम विद्यादान और अन्नदान कर रहे हो - यह भी अच्छा है। निष्काम रीति से कर सको तो इससे ईश्वर-लाभ होगा। कोई करता है नाम के लिए, कोई पुण्य के लिए - उनका कर्म निष्काम नहीं।

“फिर सिद्ध तो तुम हो ही।”

विद्यासागर - महाराज, यह कैसे?

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - आलू-परवल सिद्ध होने से (पक जाने से) नरम हो जाते हैं - सो तुम भी बहुत नर्म हो। तुम्हारी ऐसी दया! (हास्य)

विद्यासागर (सहास्य) - पीसा उरद तो सिद्ध होने पर सख्त हो जाता है। (सब हँसे।)

श्रीरामकृष्ण - तुम वैसे क्यों होने लगे? खाली पण्डित कैसे हैं - मानो एक पके फल का अंश जो अन्त तक कठिन ही रह जाता है। वे न इधर के हैं न उधर के। गीध खूब ऊँचा उड़ता है, पर उसकी नजर हड़ावर पर ही रहती है। जो खाली पण्डित हैं, वे सुनने के ही हैं, पर उनकी कामिनी-कांचन पर आसक्ति होती है - गीध की तरह वे सड़ी लाशें ढूँढ़ते हैं। आसक्ति का घर अविद्या के संसार में है। दया, भक्ति, वैराग्य - ये विद्या के ऐश्वर्य हैं।

विद्यासागर चुपचाप सुन रहे हैं। सभी टकटकी बाँधे इस आनन्दमय पुरुष को देख रहे हैं, उनका वचनामृत पान कर रहे हैं।

(३)

श्रीरामकृष्ण : ज्ञानयोग अथवा वेदान्त-विचार

विद्यासागर बड़े विद्वान् हैं। जब संस्कृत कालेज में पढ़ते थे तब अपनी श्रेणी के सबसे अच्छे छात्र थे। हरएक परीक्षा में प्रथम होते और स्वर्णपदक आदि अथवा छात्रवृत्तियाँ पाते थे। होते होते वे संस्कृत कालेज के प्रधान अध्यापक तक हुए थे। संस्कृत व्याकरण तथा काव्य में उन्होंने विशेष ज्ञान प्राप्त किया था। स्वयं के प्रयत्न से अंग्रेजी सीखी थी।

विद्यासागर किसी को धर्मशिक्षा नहीं देते थे। वे दर्शनादि ग्रन्थ पढ़ चुके थे। मास्टर ने एक दिन उनसे पूछा, “आपको हिन्दू दर्शन कैसे लगते हैं?” उन्होंने जवाब दिया, “मुझे यही मालूम होता है कि वे जो चीज समझाने गए उसे समझा न सके।” वे हिन्दुओं की भाँति श्राद्धादि सब धर्मानुष्ठान करते थे, गले में जनेऊ धारण करते थे, अपनी भाषा में जो पत्र लिखते थे, उनमें सबसे पहले “श्रीश्रीहरिः शरणम्” यह ईश्वरवन्दनात्मक वाक्य लिखते थे।

मास्टर ने और एक दिन उनको ईश्वर के विषय में यह कहते सुना, “ईश्वर को कोई जान तो सकता नहीं। फिर करना क्या चाहिए? मेरी समझ में, हम लोगों को ऐसा होना चाहिए कि यदि सब कोई वैसे हों तो यह पृथ्वी स्वर्ग बन जाय। हरएक को ऐसी चेष्टा करनी चाहिए कि जिससे जगत् का भला हो।”

विद्या और अविद्या की चर्चा करते हुए श्रीरामकृष्ण ब्रह्मज्ञान की बात कह रहे हैं। विद्यासागर बड़े पण्डित हैं - शायद षड्दर्शन पढ़कर उन्होंने देखा है कि ईश्वर के विषय में कुछ भी जानना सम्भव नहीं।

श्रीरामकृष्ण - ब्रह्म विद्या और अविद्या दोनों के परे है, वह मायातीत है।

ब्रह्म निर्लिप्त है दुःखादि का सम्बन्ध जीव से ही है।

“इस जगत् में विद्यामाया और अविद्यामाया दोनों हैं, ज्ञानभक्ति भी हैं, और साथ ही कामिनी-कांचन भी हैं, सत् भी है और असत् भी, भला भी है और बुरा भी, परन्तु ब्रह्म निर्लिप्त है। भला-बुरा जीवों के लिए है, सत्-असत् जीवों के लिए। वह ब्रह्म को स्पर्श नहीं कर सकता।

“जैसे, दीप के सामने कोई भागवत पढ़ रहा है और कोई जाल रच रहा है, पर दीप निर्लिप्त है।

सूर्य शिष्ट पर भी प्रकाश डालता है और दुष्ट पर भी।

“यदि कहो कि दुःख, पाप, अशान्ति ये सब फिर क्या हैं, - तो उसका जवाब यह है कि वे सब जीवों के लिए हैं, ब्रह्म निर्लिप्त है। साँप में विष है; औरों को डसने से वे मर जाते हैं, पर साँप को उससे कोई हानि नहीं होती।”

ब्रह्म अनिर्वचनीय, ‘अव्यपदेश्यम्’ है।

“ब्रह्म क्या है सो मुँह से नहीं कहा जा सकता। सभी चीजें जूठी हो गयी हैं; वेद, पुराण, तन्त्र, षड्दर्शन सब जूठे हो गये हैं। मुँह से पढ़े गए हैं, मुँह से उच्चारित हुए हैं - इसी से जूठे हो गए। पर केवल एक वस्तु जूठी नहीं हुई है - वह वस्तु ब्रह्म है। ब्रह्म क्या है यह आज तक कोई मुँह से नहीं कह सका।”

विद्यासागर (मित्रों से) - वाह! यह तो बड़ी सुन्दर बात हुई! आज मैंने एक नयी बात सीखी।

श्रीरामकृष्ण - एक पिता के दो लड़के थे। ब्रह्मविद्या सीखने के लिए पिता ने लड़कों को आचार्य को सौंपा। कुछ वर्ष बाद वे गुरुगृह से लौटे, आकर पिता को प्रणाम किया। पिता की इच्छा हुई कि देखें इन्हें कैसा ब्रह्मज्ञान हुआ। बड़े बेटे से उन्होंने पूछा, ‘बेटा, तुमने तो सब कुछ पढ़ा है, अब बताओ ब्रह्म कैसा है।’ बड़ा लड़का वेदों से बहुत से श्लोकों की आवृत्ति करते हुए ब्रह्म का स्वरूप समझाने लगा; पिता चुप रहे। जब उन्होंने छोटे लड़के से पूछा तो वह सिर झुकाए चुप रहा, मुँह से बात न निकली; तब पिता ने प्रसन्न होकर छोटे लड़के से कहा, ‘बेटा, तुम्हीं ने कुछ समझा है। ब्रह्म क्या है यह मुँह से नहीं कहा जा सकता।’

“मनुष्य सोचता है कि हम ईश्वर को जान गए। एक चींटी चीनी के पहाड़ के पास गयी थी। एक दाना खाकर उसका पेट भर गया, एक दूसरा दाना मुँह में लिए अपने डेरे को जाने लगी, जाते समय सोच रही है कि अब की बार आकर समूचे पहाड़ को ले जाऊँगी। क्षुद्र जीव यही सब सोचते हैं - वे नहीं जानते कि ब्रह्म वाक्य-मन के अतीत है।

“कोई भी हो - वह कितना ही बड़ा क्यों न हो, ईश्वर को जान थोड़े ही सकता है! शुकदेव आदि मानो बड़े चींटे हैं - चीनी के आठ-दस दाने मुँह में ले लें - और क्या?

ब्रह्म सच्चिदानन्दस्वरूप है

“वेद-पुराणों में जो ब्रह्म के विषय में कहा गया है, वह किस ढंग का कथन है सो सुनो। एक आदमी के समुद्र देखकर लौटने पर यदि कोई उससे पूछे कि समुद्र कैसा देखा, तो वह जैसे मुँह बाये कहता है, ‘आह! क्या देखा! कैसी लहरें! कैसी आवाज!’ बस, ब्रह्म का वर्णन भी वैसा ही है। वेदों में लिखा है - वह आनन्दस्वरूप है - सच्चिदानन्द। शुकदेव आदि ने यह ब्रह्मसागर किनारे पर खड़े होकर देखा और छुआ था। किसी के मतानुसार वे इस सागर में उतरे नहीं। इस सागर में उतरने से फिर कोई लौट नहीं सकता।

निर्विकल्प समाधि तथा ब्रह्मज्ञान

“समाधिस्थ होने से ब्रह्मज्ञान होता है - ब्रह्मदर्शन होता है - उस दशा में विचार बिलकुल बन्द हो जाता है, आदमी चुप हो जाता है। ब्रह्म कैसी वस्तु है, यह मुँह से बताने की सामर्थ्य नहीं रहती।

“एक नमक का पुतला समुद्र नापने गया! (सब हँसे।) पानी कितना गहरा है, उसकी खबर देना चाहता था! पर खबर देना उसे नसीब न हुआ। वह पानी में उतरा कि गल गया! बस फिर खबर कौन दे!”

किसी ने प्रश्न किया, “क्या समाधिस्थ पुरुष जिनको ब्रह्मज्ञान हुआ है, फिर बोलते नहीं?”

श्रीरामकृष्ण (विद्यासागर आदि से) - लोकशिक्षा के लिए शंकराचार्य ने विद्या का ‘अहं’ रखा था। ब्रह्मदर्शन होने से मनुष्य चुप हो जाता है। जब तक दर्शन न हो, तभी तक विचार होता है। घी जब तक पक न जाय, तभी तक आवाज करता है। पके घी से शब्द नहीं निकलता। पर पके घी में कच्ची पूरी छोड़ी जाती है, तो फिर एक बार वैसा ही शब्द निकलता है। जब कच्ची पूरी को पका डाला, तब वह फिर चुप हो जाता है। वैसे ही समाधिस्थ पुरुष लोकशिक्षण के लिए फिर नीचे उतरता है, फिर बोलता है।

“जब तक मधुमक्खी फूल पर नहीं बैठती, तब तक भनभनाती रहती है। फूल पर बैठकर मधु पीना शुरू करने के बाद वह चुप हो जाती है। हाँ, मधुपान के उपरान्त मस्त होकर फिर कभी कभी भनभनाती है।

“तालाब में घड़ा भरते समय भक् भक् आवाज होती है। घड़ा भर जाने के बाद फिर आवाज नहीं होती। (सब हँसे।) हाँ, यदि एक घड़े से पानी दूसरे में डाला जाय, तो फिर शब्द होता है।” (हास्य)

(४)

ज्ञान एवं विज्ञान। अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद तथा द्वैतवाद का समन्वय

श्रीरामकृष्ण - ऋषियों को ब्रह्मज्ञान हुआ था - विषयबुद्धि का लेशमात्र रहते यह ब्रह्मज्ञान नहीं होता। ऋषि लोग कितना परिश्रम करते थे! सबेरे आश्रम से चले जाते थे। दिनभर अकेले ध्यान-चिंतन करते और रात को आश्रम में लौटकर कुछ फलमूल खाते थे। देखना, सुनना, छूना इन सब विषयों से मन को अलग रखते थे; तब कहीं उन्हें ब्रह्म का बोध होता था।

“कलियुग में लोगों के प्राण अन्न पर निर्भर हैं, देहात्मबुद्धि जाती नहीं। इस दशा में ‘सोऽहम्’ - मैं ब्रह्म हूँ - कहना अच्छा नहीं। सभी काम किए जाते हैं, फिर ‘मैं ही ब्रह्म हूँ’ यह कहना ठीक नहीं। जो विषय का त्याग नहीं कर सकते, जिनका अहंभाव किसी तरह जाता नहीं, उनके लिए ‘मैं दास हूँ’, ‘मैं भक्त हूँ’ यह अभिमान अच्छा है। भक्तिपथ में रहने से भी ईश्वर का लाभ होता है।

“ज्ञानी ‘नेति नेति’ - ब्रह्म यह नहीं, वह नहीं, अर्थात् कोई भी ससीम वस्तु नहीं - यह विचार करके सब विषयबुद्धि छोड़े तब ब्रह्म को जान सकता है। जैसे कोई जीने की एक एक सीढ़ी पार करते हुए छत पर पहुँच सकता है। पर विज्ञानी - जिसने विशेष रूप से ईश्वर से मेल-मिलाप किया है - और भी कुछ दर्शन करता है वह देखता है कि जिन चीजों से छत बनी है - उन ईंटों, चूने, सुर्खी से जीना भी बना है। ‘नेति नेति’ करके जिस ब्रह्मवस्तु का ज्ञान होता है, वही जीव और जगत् होती है। विज्ञानी देखता है कि जो निर्गुण है, वही सगुण भी है।

“छत पर बहुत देर तक लोग ठहर नहीं सकते फिर उतर आते हैं। जिन्होंने समाधिस्थ होकर ब्रह्मदर्शन किया है वे भी नीचे उतरकर देखते हैं कि वही जीव-जगत् हुआ है। सा, रे, ग, म, प, ध, नि। ‘नि’ में - चरमभूमि में - बहुत देर तक रहा नहीं जाता। ‘अहं’ नहीं मिटता; तब मनुष्य देखता है कि ब्रह्म ही ‘मैं’, जीव, जगत - सब कुछ हुआ है। इसी का नाम विज्ञान है।

“ज्ञानी की राह भी राह है, ज्ञान-भक्ति की राह भी राह है, फिर भक्ति की भी राह एक राह है। ज्ञानयोग भी सत्य है, और भक्तिपथ भी सत्य है सभी रास्ते से ईश्वर के समीप जाया जा सकता है। ईश्वर जब तक जीवों में ‘मैं’ बोध रखता है, तब तक भक्तिपथ ही सरल है।

“विज्ञानी देखता है कि ब्रह्म अटल, निष्क्रिय, सुमेरुवत् है। यह संसार उसके सत्त्व, रज और तम - इन तीन गुणों से बना है, पर वह निर्लिप्त है।

“विज्ञानी देखता है कि जो ब्रह्म है वही भगवान् है, - जो गुणातीत है वही षडैश्वर्यपूर्ण भगवान् है। ये जीव और जगत्, मन और बुद्धि, भक्ति, वैराग्य और ज्ञान - सब उसके ऐश्वर्य हैं। (सहास्य) जिस बाबू के घरद्वार नहीं है - या तो बिक गया - वह बाबू कैसा! (सब हँसे।) ईश्वर षडैश्वर्यपूर्ण है। यदि उसके ऐश्वर्य न होता तो कौन उसकी परवाह करता? (सब हँसे।)

विभु के रूप में एक किन्तु शक्तिविशेष

“देखो न, यह जगत् कैसा विचित्र है! कितने प्रकार की वस्तुएँ - चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र - कितने प्रकार के जीव इसमें हैं! बड़ा-छोटा, अच्छा-बुरा; किसी में शक्ति अधिक है, किसी में कम।”

विद्यासागर - क्या ईश्वर ने किसी को अधिक शक्ति दी है और किसी को कम?

श्रीरामकृष्ण - वह विभु के रूप में सब प्राणियों में है - चींटियों तक में है। पर शक्ति का तारतम्य होता है; नहीं तो क्यों कोई दस आदमियों को हरा देता है, और कोई एक ही आदमी से भागता है? और ऐसा न हो तो भला तुम्हें ही सब कोई क्यों मानते हैं? क्या तुम्हारे दो सींग निकले हैं? (हास्य।) औरों की अपेक्षा तुममें अधिक दया है, विद्या है, इसीलिए तुमको लोग मानते हैं और देखने आते हैं। क्या तुम यह बात नहीं मानते हो?

विद्यासागर मुसकराते हैं।

केवल पाण्डित्य, पुस्तकी विद्या असार है भक्ति ही सार है।

श्रीरामकृष्ण - केवल पण्डिताई में कुछ नहीं है। लोग किताबें इसलिए पढ़ते हैं कि वे ईश्वरलाभ में सहायता करेंगी - उनसे ईश्वर का पता लगेगा। ‘आपकी पोथी में क्या है?’ - किसी ने एक साधु से पूछा। साधु ने उसे खोलकर दिखाया। हरएक पन्ने में ‘ॐ रामः’ लिखा था, और कुछ नहीं।

“गीता का अर्थ क्या है? उसे दस बार कहने से जो होता है वही। दस बार ‘गीता’ ‘गीता’ कहने से ‘त्यागी’ ‘त्यागी’ निकल आता है। गीता यह शिक्षा दे रही है कि हे जीव, तू सब छोड़कर ईश्वर-लाभ की चेष्टा कर। कोई साधु हो चाहे गृहस्थ, मन से सारी आसक्ति दूर करनी चाहिए।

“जब चैतन्यदेव दक्षिण में तीर्थ-भ्रमण कर रहे थे तो उन्होंने देखा कि एक आदमी गीता पढ़ रहा है। एक दूसरा आदमी थोड़ी दूर बैठ उसे सुन रहा है और सुनकर रो रहा है - आँखों से आँसू बह रहे हैं। चैतन्यदेव ने पूछा, ‘क्या तुम यह सब समझ रहे हो?’ उसने कहा, ‘प्रभु, इन श्लोकों का अर्थ तो मैं नहीं समझता हूँ।’ उन्होंने पूछा, ‘तो रोते क्यों हो?’ भक्त ने जवाब दिया, मैं देखता हूँ कि अर्जुन का रथ है और उसके सामने भगवान् और अर्जुन बातचीत कर रहे हैं। बस, यही देखकर मैं रो रहा हूँ।’ ”

(५)

भक्तियोग का रहस्य

श्रीरामकृष्ण - विज्ञानी क्यों भक्ति लिए रहते हैं? इसका उत्तर यह है कि ‘मैं’ नहीं दूर होता। समाधि-अवस्था में दूर तो होता है, परन्तु फिर आ जाता है। साधारण जीवों का ‘अहम्’ नहीं जाता। पीपल का पेड़ काट डालो, फिर उसके दूसरे दिन अंकुर निकल आता है। (सब हँसे।)

“ज्ञानलाभ के बाद भी, न जाने कहाँ से ‘मैं’ फिर आ जाता है। स्वप्न में तुमने बाघ देखा; इसके बाद जागे, तो भी तुम्हारी छाती धड़कती है। जीवों को जो दुःख होता है, ‘मैं’ से ही होता है। बैल ‘हम्बा, हम्बा’ (हम, हम) करता है, इसी से तो इतनी यातना मिलती है। हल में जोता जाता है, वर्षा और धूप सहनी पड़ती है और फिर कसाई लोग काटते हैं, चमड़े से जूते बनते हैं, ढोल बनता है, - तब खूब पिटता है। (हास्य)

“फिर भी निस्तार नहीं। अन्त में आँतों से ताँत बनती है और उसे धुनिया अपने धनुहे में लगाता है। तब वह ‘मैं’ नहीं कहता, तब कहता है ‘तू-ऊँ, तू-ऊँ’ (अर्थात् तुम, तुम)। जब ‘तुम’ ‘तुम’ कहता है तब निस्तार होता है। हे ईश्वर! मैं दास हूँ, तुम प्रभु हो; मैं सन्तान हूँ, तुम माँ हो।

“राम ने पूछा, हनुमान, तुम मुझे किस भाव से देखते हो? हनुमान ने कहा, राम! जब मुझे ‘मैं’ का बोध रहता है, तब देखता हूँ, तुम पूर्ण हो, मैं अंश हूँ, तुम प्रभु हो, मैं दास हूँ; और राम! जब तत्त्वज्ञान होता है तब देखता हूँ, तुम्हीं ‘मैं’ हो और मैं ही ‘तुम’ हूँ।

“सेव्य-सेवक भाव ही अच्छा है। ‘मैं’ जब कि हटने का ही नहीं तो बना रहने दो साले को ‘दास मैं’।

‘मैं’ और ‘मेरा’ अज्ञान है

“मैं और मेरा - ये दोनों अज्ञान हैं। यह भाव कि मेरा घर है, मेरे रुपये हैं, मेरी विद्या है, मेरा यह सब ऐश्वर्य है - अज्ञान से पैदा होता है और यह भाव ज्ञान से कि हे ईश्वर, तुम कर्ता हो और ये सब तुम्हारी चीजें हैं - घर-परिवार, लड़के-बच्चे, स्वजनवर्ग, बन्धु-बान्धव - ये सब तुम्हारी वस्तुएँ हैं।

“मृत्यु का सर्वदा स्मरण रखना चाहिए। मरने के बाद कुछ भी न रह जाएगा। यहाँ कुछ कर्म करने के लिए आना हुआ है। जैसे कि देहात में घर है, परन्तु काम करने के लिए कलकत्ते आया जाता है। यदि कोई दर्शक बगीचा देखने को आता है तो धनी मनुष्यों के बगीचे का कर्मचारी कहता है - यह बगीचा हमारा है, यह तालाब हमारा है; परन्तु किसी कसूर पर जब वह नौकरी से अलग कर दिया जाता है, तब आम की लकड़ी के बने हुए सन्दूक को ले जाने का भी उसे अधिकार नहीं रह जाता, सन्दूक दरवान के हाथ भेज दिया जाता है। (हास्य)

“भगवान् दो बातों पर हँसते हैं। एक तो जब वैद्य रोगी की माँ से कहता है - माँ, क्या भय है? मैं तुम्हारे लड़के को अच्छा कर दूँगा। उस समय भगवान् यह सोचकर हँसते हैं कि मैं मार रहा हूँ और यह कहता है, मैं बचाऊँगा। वैद्य सोचता है - मैं कर्ता हूँ। ईश्वर कर्ता है - यह वह भूल गया है। दूसरा अवसर वह होता है जब दो भाई रस्सी लेकर जमीन नापते हैं और कहते हैं - इधर की मेरी है, उधर की तुम्हारी। तब ईश्वर और एक बार हँसते हैं; यह सोचकर हँसते हैं कि जगत्-ब्रह्माण्ड मेरा है, पर ये कहते हैं, यह जगह मेरी है और वह तुम्हारी।”

उपाय - विश्वास और भक्ति

श्रीरामकृष्ण - उन्हें क्या कोई विचार द्वारा जान सकता है? दास होकर - शरणागत होकर उन्हें पुकारो।

(विद्यासागर के प्रति, हँसते हुए) - “अच्छा, तुम्हारा भाव क्या है?”

विद्यासागर मुसकरा रहे हैं। कहते हैं, “अच्छा, यह बात आपसे किसी दिन निर्जन में कहूँगा।” (सब हँसे।)

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - उन्हें पाण्डित्य द्वारा विचार करके कोई जान नहीं सकता।

यह कहकर श्रीरामकृष्ण प्रेम से मतवाले होकर गाने लगे। संगीत का मर्म है -

“कौन जानता है कि काली कैसी है? षड्दर्शनों ने उसका दर्शन नहीं पाया। मूलाधार और सहस्रार में योगी लोग सदा उसका ध्यान करते हैं। वह पद्मवन में हंस के साथ हंसी जैसे रमण करती है। वह आत्माराम की आत्मा है, प्रणव का प्रमाण है। वह इच्छामयी अपनी इच्छा के अनुसार घट घट में विराजमान है। माता के जिस उदर में यह ब्रह्माण्ड समाया हुआ है, समझो कि वह कितना बड़ा हो सकता है। काली का माहात्म्य महाकाल ही जानते हैं। वैसा और कोई नहीं समझ सकता। उसको जानने का लोगों का प्रयास देखकर ‘प्रसाद’ हँसता है। अपार सागर क्या कोई तैरकर पार कर सकता है? यह मेरा मन समझ रहा है, परन्तु फिर भी जी नहीं मानता, वामन होकर चन्द्रमा की ओर हाथ बढ़ाता है।’

“सुना? कहते हैं - माता के जिस उदर में ब्रह्माण्ड समाया हुआ है समझो कि वह कितना बड़ा है’ और यह भी कहा है कि षड्दर्शनों ने उसका दर्शन नहीं पाया। पाण्डित्य द्वारा उसे प्राप्त करना असम्भव है।

विश्वास का बल - ईश्वर के प्रति विश्वास तथा महापातक

“विश्वास और भक्ति चाहिए। विश्वास कितना बलवान है, सुनो। किसी मनुष्य को लंका से समुद्र के पार जाना था। विभीषण ने कहा - इस वस्तु को कपड़े के छोर में बाँध लो तो बिना किसी बाधा के पार हो जाओगे, जल के ऊपर से चल कर जा सकोगे; परन्तु खोलकर न देखना, खोलकर देखोगे तो डूब जाओगे। वह मनुष्य आनन्दपूर्वक समुद्र के ऊपर से चला जा रहा था, विश्वास की ऐसी शक्ति है। कुछ रास्ता पार कर वह सोचने लगा कि विभीषण ने ऐसा क्या बाँध दिया, जिसके बल से मैं पानी के ऊपर से चला जा रहा हूँ! यह सोचकर उसने गाँठ खोली और देखा तो एक पत्ते पर केवल ‘रामनाम’ लिखा था! तब वह मन ही मन कहने लगा - अरे, बस यही है! ज्योंही यह सोचा कि डूब गया।

“यह कहावत प्रसिद्ध है कि रामनाम पर हनुमान का इतना विश्वास था कि विश्वास ही के बल से वे समुद्र लाँघ गये, परन्तु स्वयं राम को सेतु बाँधना पड़ा था।

“यदि उन पर विश्वास हो तो चाहे पाप करे और चाहे महापातक ही करे, किन्तु किसी से भय नहीं होता।”

यह कहकर श्रीरामकृष्ण भक्त के भावों से मस्त होकर विश्वास का माहात्म्य गा रहे हैं -

(भावार्थ) - “दुर्गा दुर्गा अगर जपूँ मैं, जब मेरे निकलेंगे प्राण। देखूँ कैसे नहीं तारती, कैसे हो करुणा की खान॥”

(६)

जीवन का उद्देश्य ईश्वरप्रेम

“विश्वास और भक्ति। भक्ति से वे सहज ही में मिलते हैं। वे भाव के विषय हैं।” यह कहते हुए श्रीरामकृष्ण ने फिर भजन आरम्भ किया। भाव यह है -

“मन तू अँधेरे घर में पागल जैसा उसकी खोज क्यों कर रहा है? वह तो भाव का विषय है। बिना भाव के, अभाव द्वारा क्या कोई उसे पकड़ सकता है? पहले अपनी शक्ति द्वारा कामक्रोधादि को अपने वश में करो। उसका दर्शन न तो षड्दर्शनों ने पाया, न निगमागम-तन्त्रों ने। वह भक्तिरस का रसिक है, सदा आनन्दपूर्वक हृदय में विराजमान है। उस भक्तिभाव को पाने के लिए बड़े बड़े योगी युग-युगान्तर से योग कर रहे हैं। जब भाव का उदय होता है, तब भक्त को वह अपनी ओर खींच लेता है। जैसे लोहे को चुम्बक। ‘प्रसाद’ कहता है कि मैं मातृभाव से जिसकी खोज कर रहा हूँ, उसके तत्त्व का भण्डा क्या मुझे चौराहे पर फोड़ना होगा? मन, इशारे से ही समझ लो।”

श्रीरामकृष्ण समाधि में

गाते हुए श्रीरामकृष्ण समाधिस्थ हो गए, हाथों की अंजलि बँध गयी - देह उन्नत और स्थिर, - नेत्र स्पन्दहीन हो गए। पश्चिम की ओर मुँह किये उसी बेंच पर पैर लटकाए बैठे रहे। सभी लोग गर्दन ऊँची करके यह अद्भुत अवस्था देखने लगे। पण्डित विद्यासागर भी चुपचाप एकटक देख रहे हैं।

श्रीरामकृष्ण प्रकृतिस्थ हुए। लम्बी साँस छोड़कर फिर हँसते हुए बातें कर रहे हैं - “भाव भक्ति, इसके माने उन्हें प्यार करना। जो ब्रह्म हैं, उन्हीं को माँ कहकर पुकारते हैं।

“‘प्रसाद कहता है कि मैं मातृभाव से जिसकी खोज कर रहा हूँ उसके तत्त्व का भण्डा क्या मुझे चौराहे पर फोड़ना होगा? मन, इशारे ही से समझ लो।’

“रामप्रसाद मन को इशारे ही से समझने के लिए उपदेश करते हैं। यह समझने को कहते हैं कि वेदों ने जिन्हें ब्रह्म कहा है उन्हीं को मैं माँ कहकर पुकारता हूँ। जो निर्गुण हैं वे ही सगुण हैं; जो ब्रह्म हैं वे ही शक्ति हैं। जब यह बोध होता है कि वे निष्क्रिय हैं तब उन्हें ब्रह्म कहता हूँ और जब यह सोचता हूँ कि वे सृष्टि, स्थिति और प्रलय करते हैं, तब उन्हें आद्याशक्ति काली कहता हूँ।

“ब्रह्म और शक्ति अभेद हैं, जैसे कि अग्नि और उसकी दाहिकाशक्ति। अग्नि कहते ही दाहिकाशक्ति का ज्ञान होता है और दाहिकाशक्ति कहने से अग्नि का ज्ञान। एक को मानिए तो दूसरा भी साथ मान लिया जाता है।

“उन्हीं को भक्तजन माँ कहकर पुकारते हैं। माँ बड़े प्यार की वस्तु है न। ईश्वर को प्यार करने से वे प्राप्त होते हैं; भाव, भक्ति, प्रीति और विश्वास चाहिए। एक गाना और सुनो -

भाव और विश्वास

(भावार्थ) - “‘चिन्तन करने से भाव का उदय होता है। जैसा भाव होगा, लाभ भी वैसा होगा, मूल है प्रत्यय। काली के चरण-सुधासागर में यदि चित्त डूब जाय तो पूजा-होम, याग-यज्ञ - कुछ भी आवश्यक नहीं।’

“चित्त को उन पर लगाना चाहिए, उन्हें प्यार करना चाहिए। वे सुधासागर हैं; अमृतसिन्धु हैं; इसमें डूबने से मनुष्य मरता नहीं, अमर हो जाता है। किसी किसी का यह विचार है कि ईश्वर को ज्यादा पुकारने से मस्तिष्क बिगड़ जाता है, पर बात ऐसी नहीं। यह तो सुधासमुद्र है, अमृतसिन्धु है। वेदों में इसे अमृत कहा है। इसमें डूब जाने से कोई मरता नहीं, अमर हो जाता है।

निष्काम कर्म तथा जगत्कल्याण

“पूजा, होम, याग, यज्ञ - ये कुछ नहीं हैं। यदि ईश्वर पर प्रीति पैदा हो जाय तो इन कर्मों की अधिक आवश्यकता नहीं। जब तक हवा नहीं बहती तभी तक पंखे की जरूरत होती है। यदि दक्षिणी हवा आप ही आने लगे तो पंखा रख देना पड़ता है। फिर पंखे का क्या काम?

“तुम जो काम कर रहे हो, ये सब अच्छे कर्म हैं। यदि ‘मैं कर्ता हूँ’ इस भाव को छोड़कर निष्काम भाव से कर्म कर सको तो और भी अच्छा है। यह कर्म करते करते ईश्वर पर भक्ति और प्रीति होगी। इस प्रकार निष्काम कर्म करते जाओ तो ईश्वर-लाभ भी होगा।

“उन पर जितनी ही भक्ति-प्रीति होगी, उतने ही तुम्हारे काम घटते जाएँगे। गृहस्थ की बहू जब गर्भिणी होती है, तब उसकी सास उसका काम कम कर देती है। नौ महीने पूरे होने पर बिलकुल काम छूने नहीं देती। उसे डर रहता है कि कहीं बच्चे को कोई हानि न पहुँचे, सन्तान-प्रसव में कोई विपत्ति न हो। (हास्य) तुम जो काम कर रहे हो, उससे तुम्हारा ही उपकार है। निष्काम भाव से कर्म कर सकोगे तो चित्त की शुद्धि होगी, ईश्वर पर तुम्हारा प्रेम होगा। प्रेम होते ही तुम उन्हें प्राप्त कर लोगे। संसार का उपकार मनुष्य नहीं करता, वे ही करते हैं जिन्होंने चन्द्र-सूर्य की सृष्टि की, माता-पिता को स्नेह दिया, सत्पुरुषों में दया का संचार किया और साधु-भक्तों को भक्ति दी। जो मनुष्य कामनाशून्य होकर कर्म करेगा वह अपना ही हित करेगा।

निष्काम कर्म का उद्देश्य ईश्वरदर्शन

“भीतर सुवर्ण है, अभी तक तुम्हें पता नहीं चला। ऊपर कुछ मिट्टी पड़ी है। यदि एक बार पता चल जाय तो अन्य काम घट जाएँगे। गृहस्थ की बहू के लड़का होने से वह लड़के ही को लिए रहती है, उसी को उठाती बैठाती है। फिर उसकी सास उसे घर के काम में हाथ नहीं लगाने देती। (सब हँसे)

“और भी ‘आगे बढ़ो।’ लकड़हारा लकड़ी काटने गया था; ब्रह्मचारी ने कहा - आगे बढ़ जाओ। उसने आगे बढ़कर देखा तो चन्दन के पेड़ थे! फिर कुछ दिन बाद उसने सोचा कि ब्रह्मचारी ने बढ़ जाने को कहा था, सिर्फ चन्दन के पेड़ तक तो जाने को कहा नहीं। आगे चलकर देखा तो चाँदी की खान थी।

फिर कुछ दिन बीतने पर और आगे बढ़ा और देखा तो सोने की खान मिली। फिर क्रमशः हीरे की - मणियों की। वह सब लेकर वह मालामाल हो गया।

“निष्काम कर्म कर सकने से ईश्वर पर प्रेम होता है। क्रमशः उनकी कृपा से उन्हें लोग पाते भी हैं। ईश्वर के दर्शन होते हैं, उनसे बातचीत होती है जैसे कि मैं तुमसे वार्तालाप कर रहा हूँ।” (सब निःशब्द हैं।)

(७)

अहेतुक कृपासिन्धु श्रीरामकृष्ण

सब की जबान बन्द हैं। लोग चुपचाप बैठे ये बातें सुन रहे हैं। श्रीरामकृष्ण की जिह्वा पर मानो साक्षात् वाग्वादिनी बैठी हुई जीवों के हित के लिए विद्यासागर से बातें कर रही हैं। रात हो रही है - नौ बजने को है। श्रीरामकृष्ण अब चलनेवाले हैं।

श्रीरामकृष्ण (विद्यासागर से, सहास्य) - यह सब जो कहा, वह तो ऐसे ही कहा। आप सब जानते हैं, किन्तु अभी आपको इसकी खबर नहीं। (सब हँसे।) वरुण के भण्डार में कितने ही रत्न पड़े हैं, परन्तु वरुण महाराज को कोई खबर नहीं।

विद्यासागर (हँसते हुए) - यह आप कह सकते हैं।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - हाँ जी, अनेक बाबू नौकरों के नाम तक नहीं जानते! (सब हँसते हैं।) घर में कहाँ कौनसी कीमती चीज पड़ी है, वे नहीं जानते।

वार्तालाप सुनकर लोग आनन्दित हो रहे हैं। थोड़ी देर के लिए सब लोग शांत हो गए। श्रीरामकृष्ण विद्यासागर से फिर प्रसंग उठाते हैं।

श्रीरामकृष्ण (हँसमुख) - एक बार बगीचा देखने जाइए, रासमणि का बगीचा। बड़ी अच्छी जगह है।

विद्यासागर - जरूर जाऊँगा। आप आए और मैं न जाऊँगा?

श्रीरामकृष्ण - मेरे पास? राम राम

विद्यासागर - यह क्या! ऐसी बात आपने क्यों कही? मुझे समझाइए।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - हम लोग छोटी छोटी किश्तियाँ हैं जो खाई, नाले और बड़ी नदियों में भी जा सकती हैं। परन्तु आप हैं जहाज; कौन जानता है, जाते समय रेत में लग जाय! (सब हँसते हैं।)

विद्यासागर प्रफुल्लमुख किन्तु चुपचाप बैठे हैं। श्रीरामकृष्ण हँसते हैं।

श्रीरामकृष्ण - पर हाँ, इस समय जहाज भी जा सकता है।

विद्यासागर - (हँसते हुए) - हाँ, ठीक है, यह वर्षाकाल है। (लोग हँसे।)

मास्टर (स्वगत) - नवानुराग की वर्षा, नवानुराग जब होता है, तब मान-अपमान का बोध क्या रह सकता है।

श्रीरामकृष्ण उठे। भक्तजन भी उठे। विद्यासागर आत्मीयों के साथ खड़े हैं, श्रीरामकृष्ण को गाड़ी पर चढ़ाने जाएँगे।

श्रीरामकृष्ण अब भी खड़े हैं। करजाप कर रहे हैं। जपते हुए भाव के आवेश में आ गए, मानो विद्यासागर के आत्मिक हित के लिए परमात्मा से प्रार्थना करते हों।

भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण उतर रहे हैं। एक भक्त हाथ पकड़े हुए हैं। विद्यासागर स्वजन-बन्धुओं के साथ आगे आगे जा रहे हैं, हाथ में बत्ती लिए रास्ता दिखाते हुए। सावन की कृष्णपक्ष की षष्ठी है, अभी चन्द्रोदय नहीं हुआ है। अँधेरे से ढकी हुई उद्यान-भूमि को बत्ती के मन्द प्रकाश के सहारे किसी तरह पार कर लोग फाटक की ओर आ रहे हैं।

भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण फाटक के पास ज्योंही पहुँचे त्योंही एक सुन्दर दृश्य ने सब को चकित कर दिया। सामने एक दाढ़ीवाले, गौरवर्ण पुरुष खड़े थे। उम्र छत्तीससैंतीस वर्ष की होगी। बंगालियों की तरह पोशाक थी पर सिर पर सिक्खों की तरह शुभ्र साफा बँधा था। उन्होंने श्रीरामकृष्ण को देखते ही भूमि पर मस्तक रखकर प्रणाम किया। उनके उठ खड़े होने पर श्रीरामकृष्ण ने कहा, “बलराम तुम हो? इतनी रात को?”

बलराम (हँसकर) - मैं बड़ी देर से आया हूँ।

श्रीरामकृष्ण - भीतर क्यों नहीं गए?

बलराम - जी, लोग आपका वार्तालाप सुन रहे थे। बीच में पहुँचकर क्यों शान्ति भंग करूँ, यह सोचकर नहीं गया।

यह कहकर बलराम हँसने लगे।

श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ गाड़ी पर बैठ गए।

विद्यासागर (मास्टर से धीमी आवाज में) - गाड़ी का किराया क्या दे दें?

मास्टर - जी नहीं, दे दिया गया है।

विद्यासागर और अन्यान्य लोगों ने श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया।

गाड़ी उत्तर की ओर चलने लगी, दक्षिणेश्वर काली मन्दिर को जाएगी। सब लोग गाड़ी की ओर देखते हुए खड़े हैं। सोच रहे हैं - ये महापुरुष कौन हैं? ये ईश्वर पर कितना प्रेम करते हैं फिर जीवों के घर घर जाकर कहते हैं कि ईश्वर पर प्रेम करना ही जीवन का उद्देश्य है।

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