परिच्छेद ४९ - दक्षिणेश्वर में भक्तों के साथ

(१)

वेदान्तवादियों का मत। माया अथवा दया?

आज रविवार का दिन है। श्रावण कृष्णा प्रतिपदा, १९ अगस्त १८८३ ई. । अभी कुछ ही देर पहले देवी का भोग लगा और आरती हुई। अब मन्दिर बन्द हो गया है। श्रीरामकृष्ण देवी का प्रसाद पाने के बाद कुछ आराम कर रहे थे। विश्राम के बाद - अभी दोपहर का समय ही है - वे अपने कमरे में तख्त पर बैठे हुए हैं। इसी समय मास्टर ने आकर उन्हें प्रणाम किया। थोड़ी देर बाद उनके साथ वेदान्त-सम्बन्धी चर्चा होने लगी।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - देखो, ‘अष्टावक्र-संहिता’ में आत्मज्ञान की बातें हैं। आत्मज्ञानी कहते हैं, ‘सोऽहम्’ अर्थात् मैं ही वह परमात्मा हूँ। यह वेदान्तवादी संन्यासियों का मत है। सांसारिक व्यक्तियों के लिए यह मत ठीक नहीं है। सब कुछ किया जा रहा है, फिर भी ‘मैं ही वह निष्क्रिय परमात्मा हूँ’ यह कैसे हो सकता है? वेदान्तवादी कहते हैं कि आत्मा निर्लिप्त है। सुख-दुःख, पाप-पुण्य - ये सब आत्मा का कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते; परन्तु देहाभिमानी व्यक्तियों को कष्ट दे सकते हैं। धुआँ दीवार को मैला करता है, पर आकाश का कुछ नहीं कर सकता। कृष्णकिशोर ज्ञानियों की तरह कहा करता था कि मैं ‘ख’ अर्थात् आकाशवत् हूँ। वह परम भक्त था; उसके मुँह में यह बात भले ही शोभा दे, पर सब के मुँह में यह शोभा नहीं देती।

“पर ‘मैं मुक्त हूँ’ यह अभिमान बड़ा अच्छा है। ‘मैं मुक्त हूँ’ कहते रहने से कहनेवाला मुक्त हो जाता है। और ‘मैं बद्ध हूँ’ कहते रहने से कहनेवाला बद्ध ही रह जाता है। जो केवल यह कहता है कि ‘मैं पापी हूँ’ वही सचमुच गिरता है। कहते यही रहना चाहिए - ‘मैंने उनका नाम लिया है, अब मेरे पाप कहाँ? मेरा बन्धन कैसा?’

“देखो, मेरा चित्त बड़ा अप्रसन्न हो रहा है। हृदय* ने चिट्ठी लिखी है कि वह बहुत बीमार है। यह क्या है - माया या दया?”

मास्टर भी क्या कहें - मौन रह गये।

श्रीरामकृष्ण - माया किसे कहते हैं, पता है? माता-पिता, भाई-बहन, स्त्री-पुत्र, भानजे-भानजी, भतीजे-भतीजी आदि आत्मीयजनों के प्रति प्रेम - यही माया है। और प्राणिमात्र से प्रेम का नाम दया है। मुझे यह क्या हुई - माया या दया! हृदय ने मेरे लिए बहुत-कुछ किया था - बड़ी सेवा की थी - अपने हाथों मेरा मैला तक साफ किया था; पर अन्त में उसने उतना ही कष्ट भी दिया था। वह इतना अधिक कष्ट देता था, कि एक बार मैं बाँध पर जाकर गंगा में डूबकर देहत्याग करने तक को तैयार हो गया था। पर फिर भी उसने मेरा बहुत-कुछ किया था। इस समय यदि उसे कुछ रुपये मिल जाते, तो मेरा चित्त स्थिर हो जाता। पर मैं किस बाबू से कहूँ! कौन कहता फिरे!

(२)

‘मृण्मयी आधार में चिन्मयी देवी’ विष्णुपुर में मृण्मयी का दर्शन

लगभग दो या तीन बजे होंगे। इसी समय भक्तवीर अधर सेन तथा बलराम आ पहुँचे और भूमिष्ठ हो प्रणाम कर बैठ गए। उन्होंने पूछा, “आपकी तबीयत कैसी है?” श्रीरामकृष्ण ने कहा, “हाँ, शरीर तो अच्छा ही है, पर मेरे मन में थोड़ी व्यथा हो रही है।” इस अवसर पर हृदय की तकलीफ के सम्बन्ध में कोई बात ही नहीं उठायी।

बड़ा बाजार (कलकत्ते) के मल्लिक-घराने की सिंहवाहिनी देवी की चर्चा छिड़ी।

श्रीरामकृष्ण - मैं भी सिंहवाहिनी के दर्शन करने गया था। चासाधोबीपाड़ा के एक मल्लिक के यहाँ देवी विराजमान थीं। मकान टूटा-फूटा था, क्योंकि मालिक गरीब हो गये थे। कहीं कबूतर की विष्ठा पड़ी थी, कहीं काई जम गयी थी, और कहीं छत से सुरखी और रेत ही झर-झरकर गिर रही थी। दूसरे मल्लिक घरानेवालों के मकान में जो श्री देखी वह श्री इसमें नहीं थी।

(मास्टर से) - “अच्छा, इसका क्या अर्थ है, बतलाओ तो सही।”

मास्टर चुप्पी साधे बैठे रहे।

श्रीरामकृष्ण - बात यह है कि जिसके कर्म का जैसा भोग है, उसे वैसा ही भोगना पड़ता है। संस्कार, प्रारब्ध आदि बातें माननी ही पड़ती हैं।

“उस टूटे-फूटे मकान में भी मैंने देखा कि सिंहवाहिनी का चेहरा जगमगा रहा है! आविर्भाव मानना ही पड़ता है।

“मैं एक बार विष्णुपुर गया था। वहाँ राजासाहब के अच्छे अच्छे मन्दिर आदि हैं। वहाँ मृण्मयी नाम की भगवती की एक मूर्ति है। मन्दिर के पास ही कृष्णबाँध, लालबाँध नाम के बड़े बड़े तालाब हैं। तालाब में मुझे उबटन के मसाले की गन्ध मिली! भला ऐसा क्यों हुआ? मुझे तो मालूम भी नहीं था कि स्त्रियाँ जब मृण्मयी देवी के दर्शन के लिए जाती हैं तो उन्हें वे वह मसाला चढ़ाती हैं! तालाब के पास मेरी भाव-समाधि हो गयी। उस समय तक विग्रह नहीं देखा था - भावावेश में मुझे वहीं पर मृण्मयी देवी के दर्शन हुए - कटि तक।”

भक्त का सुख-दुःख

इसी बीच में दूसरे भक्त आ जुटे और काबुल के विद्रोह तथा लड़ाई की बातें होने लगीं। किसी एक ने कहा कि याकूब खाँ (काबुल के अमीर) राजसिंहासन से उतार दिये गये हैं। श्रीरामकृष्णदेव को सम्बोधन करके उन्होंने कहा कि याकूब खाँ भी ईश्वर का एक बड़ा भक्त है।

श्रीरामकृष्ण - बात यह है कि सुख-दुःख देह के धर्म हैं। कविकंकण-चण्डी में लिखा है कि कालूवीर को कैद की सजा हुई थी और उसकी छाती पर पत्थर रखा गया था। कालूवीर भगवती का वरपुत्र था फिर भी उसे यह दुःख भोगना पड़ा। देहधारण करने से ही सुख-दुःख का भोग करना पड़ता है।

“श्रीमन्त भी तो बड़ा भक्त था। उसकी माँ खुल्लना को भगवती कितना अधिक चाहती थीं! पर देखो, उस श्रीमन्त पर कितनी विपत्ति पड़ी! यहाँ तक कि वह श्मशान में काट डालने के लिए ले जाया गया।”

“एक लकड़हारा परम भक्त था। उसे भगवती के साक्षात् दर्शन हुए, उन्होंने उसे खूब चाहा और उस पर अत्यन्त कृपा की, परन्तु इतने पर भी उसका लकड़हारे का काम नहीं छूटा! उसे पहले की तरह लकड़ी काटकर ही रोटी कमानी पड़ी। कारागार में देवकी को चतुर्भुज शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी भगवान् के दर्शन हुए, पर तो भी उनका कारावास नहीं छूटा।”

मास्टर - केवल कारावास ही क्यों? शरीर ही तो सारे अनर्थ का मूल है। उसी को छूट जाना चाहिए था।

श्रीरामकृष्ण - बात यह है कि प्रारब्ध कर्मों का भोग होता ही है। जब तक वह हैं, तब तक देहधारण करना ही पड़ेगा। एक काने आदमी ने गंगास्नान किया। उसके सारे पाप तो छूट गए, पर कानापन दूर नहीं हुआ! (सभी हँसे।) उसे अपना पूर्वजन्म का फल भोगना था, वही वह भोगता रहा।

मास्टर - जो बाण एक बार छोड़ा जा चुका उस पर फिर किसी तरह का वश नहीं रहता।

श्रीरामकृष्ण - देह का सुख-दुःख चाहे जो कुछ हो, पर भक्त को ज्ञान-भक्ति का ऐश्वर्य रहता है। वह ऐश्वर्य कभी नष्ट नहीं होता। देखो, पाण्डवों पर कितनी विपत्ति पड़ी, पर इतने पर भी उनका चैतन्य एक बार भी नष्ट नहीं हुआ। उनकी तरह ज्ञानी, उनकी तरह भक्त कहाँ मिल सकते हैं?

(३)

कप्तान और नरेन्द्र का आगमन

इसी समय नरेन्द्र और विश्वनाथ उपाध्याय आये। विश्वनाथ नेपालराजा के वकील थे - राजप्रतिनिधि थे। श्रीरामकृष्ण इन्हें कप्तान कहा करते थे। नरेन्द्र की आयु लगभग इक्कीस वर्ष की है - इस समय वे बी. ए. में पढ़ते हैं। बीच बीच में, विशेषतः रविवार को दर्शन के लिए आ जाते हैं।

जब वे प्रणाम करके बैठ गए तो श्रीरामकृष्णदेव ने नरेन्द्र से गाना गाने के लिए कहा। कमरे के पश्चिम ओर एक तम्बूरा लटका हुआ था। यन्त्रों का सुर मिलाया जाने लगा। सब लोग एकाग्र होकर गवैये की ओर देखने लगे कि कब गाना आरम्भ होता है।

श्रीरामकृष्ण (नरेन्द्र से) - देख, यह अब वैसा नहीं बजता।

कप्तान - यह पूर्ण होकर बैठा है, इसी से इसमें शब्द नहीं होता! (सब हँसे।) पूर्णकुम्भ है!

श्रीरामकृष्ण (कप्तान से) - पर नारदादि कैसे बोले?

कप्तान - उन्होंने दूसरों के दुःख से कातर होकर उपदेश दिए थे।

श्रीरामकृष्ण - हाँ, नारद, शुकदेव आदि समाधि के बाद नीचे उतर आए थे। दया के कारण, दूसरों के हित की दृष्टि से उन्होंने उपदेश दिए थे।

नरेन्द्र ने गाना शुरू किया। गाने का आशय इस प्रकार था - “सत्य-शिव-सुन्दर का रूप हृदय-मन्दिर में चमक रहा है। उसे देख-देखकर हम उस रूप के समुद्र में डूब जायेंगे। वह दिन कब होगा? हे नाथ, जब अनन्त ज्ञान के रूप में तुम हमारे हृदय में प्रवेश करोगे, तब हमारा अस्थिर मन निर्वाक् होकर तुम्हारे चरणों मे शरण लेगा। आनन्द और अमृतत्व के रूप में जब तुम हमारे हृदयाकाश में उदित होगे, तब चन्द्रोदय में जैसे चकोर उमंग से खेलता फिरता है, वैसे हम भी, नाथ, तुम्हारे प्रकाशित होने पर आनन्द मनाएगे।” इत्यादि।

‘आनन्द और अमृतत्व के रूप में’ ये शब्द सुनते ही श्रीरामकृष्ण गम्भीर समाधि में मग्न हो गए। आप हाथ बाँधे पूर्व की ओर मुँह किए बैठे हैं। देह सरल और निश्चल है। आनन्दमयी के रूपसमुद्र में आप डूब गए हैं। बाह्यज्ञान बिलकुल नहीं है। साँस अत्यन्त मन्द चल रही है। नेत्र पलकहीन हैं। आप चित्रवत् बैठे हैं। मानो इस राज्य को छोड़ कहीं और चले गये हैं।

(४)

सच्चिदानन्द-लाभ का उपाय। ज्ञानी और भक्त में अन्तर

समाधि टूटी। इसी बीच में नरेन्द्र उन्हें समाधिस्थ देखकर कमरे से बाहर पूर्ववाले बरामदे में चले गए हैं। वहाँ हाजरा महाशय एक कम्बल के आसन पर हरिनाम की माला हाथ में लिए बैठे हैं। नरेन्द्र उनसे बातें कर रहे हैं। इधर कमरा दर्शकों से भरा है। समाधि-भंग के बाद श्रीरामकृष्ण ने भक्तों की ओर दृष्टि डाली तो देखा कि नरेन्द्र वहाँ नहीं हैं। तम्बूरा सूना पड़ा है। सब भक्त उनकी ओर उत्सुक होकर देख रहे हैं।

श्रीरामकृष्ण - आग लगा गया है, अब चाहे वह रहे या न रहे!

(कप्तान आदि से) “चिदानन्द का आरोप करो तो तुम्हें भी आनन्द मिलेगा। चिदानन्द तो है ही, - केवल आवरण और विक्षेप है।* विषय पर आसक्ति जितनी घटेगी, उतनी ही ईश्वर पर रुचि बढ़ेगी।

कप्तान - कलकत्ते के घर की ओर जितना ही बढ़ोगे, वाराणसी से उतनी ही दूर होते जाओगे।

श्रीरामकृष्ण - श्रीमती (राधिका) कृष्ण की ओर जितना बढ़ती थीं उतनी ही कृष्ण की देहगन्ध उन्हें मिलती जाती थी। मनुष्य जितना ही ईश्वर के पास जाता है उतनी ही उसकी उन पर भाव-भक्ति होती जाती है। नदी जितनी ही समुद्र के समीप होती है उतना ही उसमें ज्वार-भाटा होता है।

“ज्ञानी के भीतर मानो गंगा एक-सी बहती रहती है। उसके लिए सभी स्वप्नवत् है। वह सदा स्व-स्वरूप में स्थित रहता है। पर भक्त की गंगा एक गति से नहीं बहती। भक्त कभी हँसता, कभी रोता है; कभी नाचता और कभी गाता है। भक्त ईश्वर के साथ विलास करना चाहता है - वह कभी तैरता है, कभी डूबता है और कभी फिर ऊपर आता है - जैसे बर्फ का टुकड़ा पानी में कभी ऊपर और कभी नीचे आता-जाता रहता है! (हँसी)

ब्रह्म और शक्ति अभिन्न हैं

“ज्ञानी ब्रह्म को जानना चाहता है। भक्त के लिए भगवान् - सर्वशक्तिमान् षड़ैश्वर्यपूर्ण भगवान् हैं। परन्तु वास्तव में ब्रह्म और शक्ति अभिन्न हैं। जो सच्चिदानन्दमय हैं वे ही सच्चिदानन्दमयी हैं। जैसे मणि और उसकी ज्योति। मणि की ज्योति कहने से ही मणि का बोध होता है और मणि कहने से ही उसकी ज्योति का। बिना मणि को सोचे उसकी ज्योति की धारणा नहीं हो सकती, वैसे ही बिना मणि की ज्योति को सोचे मणि को भी सोचा नहीं जा सकता।

“एक ही सच्चिदानन्द का शक्ति के भेद से उपाधिभेद होता है। इसलिए उनके विविध रूप होते हैं। ‘तारा, वह तो तुम्हीं हो।’ जहाँ कहीं कार्य (सृष्टि, स्थिति, प्रलय) हैं वहीं शक्ति है। परन्तु जल स्थिर रहने पर भी जल है और हिलोरें, बुलबुले आदि उठने पर भी जल ही है। सच्चिदानन्द ही आद्याशक्ति हैं - जो सृष्टि, स्थिति, प्रलय करती हैं। जैसे कप्तान जब कोई काम नहीं करते तब भी वही हैं, जब पूजा करते हैं तब भी वही हैं, और जब वे लाटसाहब के पास जाते हैं तब भी वही हैं, केवल उपाधि का भेद है।”

कप्तान - जी हाँ।

श्रीरामकृष्ण - मैंने यही बात केशव सेन से कही थी।

कप्तान - केशव सेन भ्रष्टाचार, स्वेच्छाचार हैं; वे बाबू हैं, साधु नहीं।

श्रीरामकृष्ण (भक्तों से) - कप्तान मुझे केशव सेन के यहाँ जाने को मना करता है।

कप्तान - महाराज, आप तो जाएँगे ही, भला उस पर मैं क्या करूँ?

श्रीरामकृष्ण (नाराज होकर) - तुम लाटसाहब के पास रुपये के लिए जा सकते हो, और मैं केशव सेन के पास नहीं जा सकता? वह तो ईश्वरचिन्तन करता है, हरि का नाम लेता है। इधर तुम्हीं तो कहते हो, ‘ईश्वर ही अपनी माया से जीव और जगत् हुए हैं।’

(५)

ज्ञानयोग और भक्तियोग का समन्वय

यह कहकर श्रीरामकृष्ण एकाएक कमरे से उत्तर-पूर्ववाले बरामदे में चले गये। कप्तान और अन्य भक्त कमरे में ही बैठे उनकी प्रतीक्षा करने लगे। मास्टर भी उनके साथ बरामदे में आये। बरामदे में नरेन्द्र हाजरा से बातें कर रहे थे। श्रीरामकृष्ण जानते थे कि हाजरा को शुष्क ज्ञानविचार बड़ा प्यारा है; वे कहा करते हैं, ‘जगत् स्वप्नवत् है, पूजा और चढ़ावा आदि सब मन का भ्रम है, केवल अपने यथार्थ रूप की चिन्ता करना ही हमारा लक्ष्य है, और मैं ही वह परमात्मा हूँ - सोऽहम्।’

श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - तुम लोगों की क्या बातचीत हो रही है?

नरेन्द्र (हँसते हुए) - कितनी लम्बी लम्बी बातें हो रही हैं।

श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - किन्तु शुद्ध ज्ञान और शुद्धा भक्ति एक ही है। शुद्ध ज्ञान जहाँ ले जाता है वहीं शुद्धा भक्ति भी ले जाती है। भक्ति का मार्ग बड़ा सरल है।

नरेन्द्र - ‘ज्ञानविचार का और प्रयोजन नहीं माँ, अब मुझे पागल बना दो!’ (मास्टर से) देखिये, हैमिल्टनकीएककिताबमेंमैंनेपढ़ा -‘A learned ignorance is the end of Philosophy and beginning of Religion.’

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - इसका अर्थ क्या है?

नरेन्द्र - दर्शनशास्त्रों का पठन समाप्त होने पर मनुष्य पण्डितमूर्ख बन बैठता है; और ‘धर्म धर्म’ करने लगता है। तब धर्म का आरम्भ होता है।

श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - थैंक यू, थैंक यू (धन्यवाद, धन्यवाद)। (सब लोग हँसे।)

(६)

नरेन्द्र के अनेक गुण

थोड़ी देर में सन्ध्या होते देखकर अधिकांश लोग अपने अपने घर लौटे। नरेन्द्र ने भी बिदा ली।

दिन ढलने लगा। सन्ध्या होने ही वाली है। देवस्थान में चारों ओर बत्तियाँ जलाने का प्रबन्ध होने लगा। कालीमन्दिर और विष्णुमन्दिर के पुजारी गंगाजी में अर्धनिमग्न होकर अन्तरबाह्य शुद्धि कर रहे हैं - शीघ्र ही आरती करनी होगी तथा देवताओं को रात्रिकालीन नैवेद्य चढ़ाना होगा। दक्षिणेश्वर ग्राम के निवासी युवकगण बगीचे में टहलने आए हुए हैं - किसी के हाथ में छड़ी है, तो कोई मित्रों के साथ घूम रहा है। वे लोग गंगा के किनारे पुश्ते पर टहल रहे हैं तथा पुष्पों की सुगन्ध से भरे निर्मल सन्ध्या-समीरण का आनन्द लेते हुए श्रावण की गंगा के तरंगमय प्रवाह को देख रहे हैं। उनमें से जो कुछ चिन्तनशील हैं वे पंचवटी की निर्जन भूमि में अकेले टहल रहे हैं। भगवान् श्रीरामकृष्ण भी पश्चिमवाले बरामदे से थोड़ी देर के लिए गंगादर्शन करने लगे।

सन्ध्या हुई। नौकर बत्तियाँ जला गया। दासी ने श्रीरामकृष्ण के कमरे में दीप जलाकर धूनी दी। बारह शिवमन्दिरों में आरती होते ही विष्णु तथा काली के मन्दिर में आरती होने लगी। घण्टा, घड़ियाल आदि का मधुर गम्भीर नाद उठने लगा - मन्दिर के निकट ही बहती हुई गंगा का कलकलनिनाद तो गूँज ही रहा था।

श्रावण की कृष्णा प्रतिपदा है। थोड़ी ही देर में चाँद निकला। विशाल प्रांगण तथा उद्यान के वृक्ष धीरे धीरे चन्द्रकिरण से आप्लावित हो गए। ज्योत्स्ना के स्पर्श से भागीरथी का जल मानो प्रफुल्लित होकर बह रहा है।

सन्ध्या होते ही श्रीरामकृष्ण जगन्माता को प्रणाम करके तालियाँ बजाते हुए हरिध्वनि करने लगे। कमरे में बहुतसे देवदेवियों की तस्वीरें थी - जैसे ध्रुव और प्रह्लाद की, राजाराम की, कालीमाता की, राधाकृष्ण की - आपने सभी देवताओं को उनके नाम ले-लेकर प्रणाम किया। फिर कहने लगे, ‘ब्रह्म-आत्मा, भगवान् भागवत-भक्त-भगवान्, ब्रह्म-शक्ति, शक्ति-ब्रह्म; वेद-पुराण-तन्त्र; गीता-गायत्री; मैं शरणागत हूँ, शरणागत हूँ; नाहं नाहं (मैं नहीं, मैं नहीं), तू ही, तू ही; मैं यन्त्र हूँ, तुम यन्त्री हो’; इत्यादि।

नामोच्चारण के बाद श्रीरामकृष्ण हाथ जोड़कर जगन्माता का चिन्तन करने लगे। सन्ध्या समय दो-चार भक्त बगीचे में गंगा के किनारे टहल रहे थे। आरती के बाद वे एक-एक करके श्रीरामकृष्ण के कमरे में इकट्ठे होने लगे।

श्रीरामकृष्ण तख्त पर बैठे हैं। मास्टर, अधर, किशोरी आदि नीचे, उनके सामने बैठे हैं।

श्रीरामकृष्ण (भक्तों से) - नरेन्द्र, भवनाथ, राखाल ये सब नित्यसिद्ध और ईश्वरकोटि के हैं। इनकी जो शिक्षा होती है वह बिना प्रयोजन के ही होती है। तुम देखते नहीं, नरेन्द्र किसी की ‘केयर’ (परवाह) नहीं करते? मेरे साथ वह कप्तान की गाड़ी पर जा रहा था। कप्तान ने उसे अच्छी जगह पर बैठने को कहा, परन्तु उसने उस तरफ देखा तक नहीं। वह मेरा ही मुँह नहीं ताकता। फिर जितना जानता है उतना प्रकट नहीं करता - कहीं मैं लोगों से कहता न फिरूँ कि नरेन्द्र इतना विद्वान् है। उसके माया-मोह नहीं हैं - मानो कोई बन्धन ही नहीं है। बड़ा अच्छा आधार है। एक ही आधार में बहुत से गुण रखता है - गाने-बजाने, लिखने-पढ़ने सब में बहुत प्रवीण है। इधर जितेन्द्रिय भी है - कहता है, विवाह नहीं करूँगा! नरेन्द्र और भवनाथ इन दोनों में बड़ा मेल है - जैसा स्वामी-स्त्री में होता है। नरेन्द्र यहाँ ज्यादा नहीं आता। यह अच्छा है। ज्यादा आने से मैं विव्हल हो जाता हूँ।

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