परिच्छेद १५ - सर्कस में श्रीरामकृष्ण

गृहस्थ तथा अन्यान्य कर्मयोगियों की कठिन समस्या

श्रीरामकृष्ण गाड़ी से श्यामपुकुर विद्यासागर स्कूल के फाटक पर आ पहुँचे। दिन के तीन बजे का समय होगा। साथ में उन्होंने मास्टर को भी ले लिया। राखाल तथा अन्य दो एक भक्त गाड़ी में हैं। आज बुधवार, १५ नवम्बर १८८२ ई. , कार्तिक शुक्ला पंचमी है। गाड़ी चितपुर रास्ते से, किले के मैदान की ओर जा रही है।

श्रीरामकृष्ण आनन्दमय हैं। मतवाले की तरह गाड़ी से कभी इस ओर तथा कभी उस ओर मुख करके बालक की तरह देख रहे हैं और पथिकों के सम्बन्ध में भक्तों से बातचीत कर रहे हैं। मास्टर से कह रहे हैं, “देखो सब लोगों को देखता हूँ, कैसे निम्न दृष्टि के हैं। पेट के लिए सब जा रहे हैं। ईश्वर की ओर दृष्टि नहीं है।”

श्रीरामकृष्ण आज किले के मैदान में विल्सन सर्कस देखने जा रहे हैं। मैदान में पहुँचकर टिकट खरीदी गयी। आठ आने की अर्थात् अन्तिम श्रेणी की टिकट। भक्तगण श्रीरामकृष्ण को लेकर ऊँचे स्थान पर जाकर एक बेंच पर बैठे। श्रीरामकृष्ण आनन्द से कह रहे हैं, “वाह! यहाँ से बहुत अच्छा दिखता है।”

सर्कस में तरह तरह के खेल काफी देर तक दिखाए गए। गोलाकार रास्ते पर घोड़ा दौड़ रहा है, घोड़े की पीठ पर एक पैर पर मेम खड़ी है। फिर बीच बीच में सामने बड़े बड़े लोहे के चक्र रखे हैं। चक्र के पास आकर घोड़ा जब उसके नीचे से दौड़ता है, तो मेम घोड़े की पीठ से कूदकर चक्र के बीच में से होकर फिर घोड़े की पीठ पर एक पैर पर खड़ी हो जाती है। घोड़ा बार बार तेजी के साथ उस गोलाकार पथ पर दौड़ने लगा, मेम भी फिर उसी प्रकार पीठ पर खड़ी है!

सर्कस समाप्त हुआ। श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ उतरकर मैदान में गाड़ी के पास आए। ठण्ड पड़ रही थी। हरे रंग की शाल ओढ़कर मैदान में खड़े खड़े बातचीत कर रहे हैं। पास ही भक्तगण खड़े हैं। एक भक्त के साथ में आपके लिए मसाले (लौंग, इलायची आदि) का एक छोटासा बटुआ है। उसमें कुछ मसाला और विशेष रूप से कबाबचीनी है।

पहले साधना, बाद में संसार। अभ्यासयोग।

श्रीरामकृष्ण मास्टर से कह रहे हैं, “देखो, मेम कैसे एक पैर के सहारे घोड़े पर खड़ी है और घोड़ा तेजी से दौड़ रहा है। कितना कठिन काम है! अनेक दिनों तक अभ्यास किया है, तब तो ऐसा सीखा। जरा असावधान होते ही हाथ-पैर टूट जाएँगे और मृत्यु भी हो सकती है। संसार करना इसी प्रकार कठिन है। बहुत साधन-भजन करने के बाद ईश्वर की कृपा से कोई कोई इसमें सफल हुए हैं। अधिकांश लोग असफल हो जाते हैं। संसार करने जाकर और भी बद्ध हो जाते हैं, और भी डूब जाते हैं - मृत्यु-यन्त्रणा होती है! जनक आदि की तरह किसी किसी ने उग्र तपस्या के बल पर संसार किया था। इसलिए साधन-भजन की विशेष आवश्यकता है। नहीं तो संसार में ठीक नहीं रहा जा सकता।”

बलराम के मकान पर श्रीरामकृष्ण

श्रीरामकृष्ण गाड़ी पर बैठे। गाड़ी बागबाजार के बसुपाड़ा में बलराम के मकान के दरवाजे पर आ खड़ी हुई। श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ दुमँजले पर बैठकघर में जा बैठे। सायंकाल है - दिया जलाया गया है। श्रीरामकृष्ण सर्कस की बातें कर रहे हैं। अनेक भक्त एकत्रित हुए हैं। उनके साथ ईश्वर-सम्बन्धी चर्चा हो रही है। मुख में दूसरी कोई भी बात नहीं है, केवल ईश्वर की बात।

जातिभेद तथा अस्पृश्यों की समस्या

जातिभेद के सम्बन्ध में चर्चा चली।

श्रीरामकृष्ण बोले, “एक उपाय से जातिभेद उठ सकता है। वह उपाय है - भक्ति। भक्तों के जाति नहीं है। भक्ति होने से ही देह, मन, आत्मा सब शुद्ध हो जाते हैं। गौर, निताई हरिनाम देने लगे और चाण्डाल तक सभी को गोद में लेने लगे। भक्ति न रहने पर ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं है। भक्ति रहने पर चाण्डाल चाण्डाल नहीं है। अस्पृश्य जाति भक्ति के होने पर शुद्ध पवित्र हो जाती है।”

संसारबद्ध जीव

श्रीरामकृष्ण संसारबद्ध जीवों की बात कर रहे हैं। वे मानो रेशम के कीड़े हैं। चाहें तो कोश को काटकर निकल आ सकते हैं, परन्तु काफी कोशिश से कोश बनाते हैं, छोड़कर आ नहीं सकते। इसी से मरते हैं। फिर मानो जाल में फँसी हुई मछली। जिस रास्ते से गयी है, उसी रास्ते से निकल सकती है, परन्तु जल की मीठी आवाज और दूसरी मछलियों के साथ खेलकूद, - इसी में भूलकर रह जाती है। बाहर निकलने की चेष्टा नहीं करती। बच्चों की अस्फुट बातें मानो जलकल्लोल का मीठा शब्द है। मछली अर्थात् जीव और परिवारवर्ग। परन्तु एक दौड़ से जो भाग जाते हैं उन्हें कहते हैं मुक्त पुरुष।

श्रीरामकृष्ण गाना गा रहे हैं -

(भावार्थ) - “महामाया की विचित्र माया है, कैसा मोहजाल फैला रखा है! जिसके प्रभाव से ब्रह्मा विष्णु भी अचैतन्य हैं, फिर जीव की क्या बात? बिछे हुए जाल में मछली प्रवेश करती है, पर आने-जाने का रास्ता रहते हुए भी फिर उसमें से भाग नहीं सकती।”

श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं, “जीव मानो दाल है। चक्की में पड़े हैं, पिस जाएँगे। परन्तु जो थोड़ेसे दाल के दाने खूँटी को पकड़कर रहते हैं वे नहीं पिसते। इसलिए खूँटी अर्थात् ईश्वर की शरण में जाना चाहिए। उन्हें पुकारो, उनका नाम लो, तब मुक्ति होगी। नहीं तो कालरूपी चक्की में पिस जाओगे।”

श्रीरामकृष्ण फिर गाना गा रहे हैं -

(भावार्थ) - “माँ, भवसागर में पड़कर शरीर-रूपी यह नौका डूब रही है। हे शंकरि, माया की आँधी और मोह का तूफान अधिकाधिक तेज हो रहा है। एक तो मनरूपी माझी अनाड़ी है, उस पर छः खेवैये गँवार हैं। आँधी में मँझधार में आकर डूबा जा रहा हूँ। भक्ति का डाँड़ टूट गया, श्रद्धा का पाल फट गया, नाव काबू से बाहर हो गयी, अब मैं उपाय क्या करूँ? और तो कोई उपाय नहीं दीखता, सोचकर लाचार हो रहा हूँ। तरंग में तैरकर श्रीदुर्गानामरूपी ‘भेले’ को पकड़ता हूँ।”

स्त्री-पुत्रों के प्रति कर्तव्य

विश्वास बाबू बहुत देर से बैठे थे, अब उठकर चले गए। उनके पास काफी धन था, परन्तु चरित्र भ्रष्ट हो जाने से सारा धन उड़ गया। अब स्त्री, कन्या आदि किसी को नहीं देखते हैं। बलराम के उनकी बात उठाने पर श्रीरामकृष्ण बोले, “वह अभागा दरिद्री है। गृहस्थ के कर्तव्य है, ऋण है; देवऋण, पितृऋण, ऋषिऋण - फिर परिवार का ऋण है। सती स्त्री होने पर उसका पालन-पोषण, सन्तान जब तक योग्य नहीं बन जाते हैं, तब तक उनका पालन-पोषण करना पड़ता है।

“साधु ही केवल संचय नहीं करेगा। ‘पंछी और दरवेश’ संचय नहीं करते हैं। परन्तु मादा पक्षी के बच्चा होने पर वह संचय करती है। बच्चे के लिए मुख से उठाकर खाना ले जाती है।”

बलराम - अब विश्वास बाबू की साधुसंग करने की इच्छा है।

श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - साधु का कमण्डलु चार धाम घूमकर आता है, परन्तु वैसा ही कड़ुआ का कड़ुआ रहता है। मलय की हवा जिन पेड़ों को लगती है वे सब चन्दन हो जाते हैं, परन्तु सेमल, बड़ आदि चन्दन नहीं बनते! कोई कोई साधुसंग करते हैं गाँजा पीने के लिए! (हँसी) साधु लोग गाँजा पीते हैं, इसीलिए उनके पास आकर बैठते हैं, गाँजा तैयार कर देते हैं और प्रसाद पाते हैं! (सभी हँस पड़े।)

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