परिच्छेद ६ - शामपुकुर में प्राणकृष्ण के मकान पर श्रीरामकृष्ण

(१)

श्रीरामकृष्ण ने आज कलकत्ते में शुभागमन किया है। श्रीयुत प्राणकृष्ण मुखोपाध्याय के शामपुकुरवाले मकान के दुमँजले पर बैठक-घर में भक्तों के साथ बैठे हैं। अभी अभी भक्तों के साथ बैठकर प्रसाद पा चुके हैं। आज २ अप्रैल, रविवार १८८२ ई. , चैत्र शुक्ला चतुर्दशी है। इस समय दिन के एक-दो बजे होंगे। कप्तान उसी मुहल्ले में रहते हैं। श्रीरामकृष्ण की इच्छा है कि इस मकान में विश्राम करने के बाद कप्तान के घर होकर उनसे मिलकर ‘कमलकुटीर’ नामक मकान में श्री केशव सेन को देखने जाएँ। प्राणकृष्ण बैठक-घर में बैठे हैं। राम, मनोहर, केदार, सुरेन्द्र, गिरीन्द्र (सुरेन्द्र के भाई), राखाल, बलराम, मास्टर आदि भक्तगण उपस्थित हैं।

मुहल्ले के कुछ सज्जन तथा अन्य दूसरे निमन्त्रित व्यक्ति भी आए हैं। श्रीरामकृष्ण क्या कहते हैं - यह सुनने के लिए सभी उत्सुक होकर बैठे हैं।

श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, “ईश्वर और उनका ऐश्वर्य। यह जगत् उनका ऐश्वर्य है। परन्तु ऐश्वर्य देखकर ही सब लोग भूल जाते हैं, जिनका ऐश्वर्य है उनकी खोज नहीं करते। कामिनीकांचन का भोग करने सभी जाते हैं। परन्तु उसमें दुःख और अशान्ति ही अधिक है। संसार मानो विशालाक्षी नदी का भँवर है। नाव भँवर में पड़ने पर फिर उसका बचना कठिन है। गुखरू काँटे की तरह एक छूटता है तो दूसरा जकड़ जाता है। गोरखधन्धे में एक बार घुसने पर निकलना कठिन है। मनुष्य मानो जल-सा जाता है।

एक भक्त - महाराज, तो उपाय?

उपाय साधुसंग और प्रार्थना

श्रीरामकृष्ण - उपाय - साधुसंग और प्रार्थना। वैद्य के पास गए बिना रोग ठीक नहीं होता। साधुसंग एक ही दिन करने से कुछ नहीं होता। सदा ही आवश्यक है। रोग लगा ही है। फिर वैद्य के पास बिना रहे नाड़ीज्ञान नहीं होता। साथ साथ घूमना पड़ता है, तब समझ में आता है कि कौन कफ की नाड़ी है और कौन पित्त की नाड़ी।

भक्त - साधुसंग से क्या उपकार होता है?

श्रीरामकृष्ण - ईश्वर पर अनुराग होता है। उनसे प्रेम होता है। व्याकुलता न आने से कुछ भी नहीं होता। साधुसंग करते करते ईश्वर के लिए प्राण व्याकुल होता है - जिस प्रकार घर में कोई अस्वस्थ होने पर मन सदा ही चिन्तित रहता है और यदि किसी की नौकरी छूट जाती है तो वह जिस प्रकार आफिस आफिस में घूमता रहता है, व्याकुल होता रहता है, उसी प्रकार। यदि किसी आफिस में उसे जवाब मिलता है कि कोई काम नहीं है तो फिर दूसरे दिन आकर पूछता है, ‘क्या आज कोई जगह खाली हुई?’

“एक और उपाय है - व्याकुल होकर प्रार्थना करना। ईश्वर अपने हैं, उनसे कहना पड़ता है, ‘तुम कैसे हो, दर्शन दो - दर्शन देना ही होगा - तुमने मुझे पैदा क्यों किया?’ सिक्खों ने कहा था, ‘ईश्वर दयामय हैं।’ मैंने उनसे कहा था, ‘दयामय क्यों कहूँ? उन्होंने हमें पैदा किया है, यदि वे ऐसा करें जिससे हमारा मंगल हो, तो इसमें आश्चर्य क्या है? माँ-बाप बच्चों का पालन करेंगे ही, इसमें फिर दया की क्या बात है? यह तो करना ही होगा।’ इसीलिए उन पर जबरदस्ती करके उनसे प्रार्थना स्वीकार करानी होगी। वे हमारी माँ, और हमारे बाप जो हैं। लड़का यदि खाना-पीना छोड़ दे तो माँ-बाप उसके बालिग होने के तीन वर्ष पहले ही उसका हिस्सा उसे दे देते हैं। फिर जब लड़का पैसा माँगता और बार बार कहता है, ‘माँ, तेरे पैरों पड़ता हूँ, मुझे दो पैसे दे दे’ तो माँ हैरान होकर उसकी व्याकुलता देख पैसा फेंक ही देती है।

“साधुसंग करने पर एक और उपकार होता है, - सत् और असत् का विचार। सत् नित्यपदार्थ अर्थात् ईश्वर, असत् अर्थात् अनित्य। असत् पथ पर मन जाते ही विचार करना पड़ता है। हाथी जब दूसरों के केले के पेड़ खाने के लिए सूँड़ बढ़ाता है तो उसी समय महावत उसे अंकुश मारता है।”

पड़ोसी - महाराज, पापबुद्धि क्यों होती है?

श्रीरामकृष्ण - उनके जगत् में सभी प्रकार हैं। साधु लोग भी उन्होंने बनाए हैं, दुष्ट लोगों को भी उन्होंने ही बनाया है। सद्बुद्धि भी वे देते हैं और असद्बुद्धि भी।

पाप की जिम्मेदारी और कर्मफल

पड़ोसी - तो क्या पाप करने पर हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं है?

श्रीरामकृष्ण - ईश्वर का नियम है कि पाप करने पर उसका फल भोगना पड़ेगा। मिर्च खाने पर क्या तीखा न लगेगा? सेजो बाबू ने अपनी जवानी में बहुत-कुछ किया था, इसलिए मरते समय उन्हें अनेक प्रकार के रोग हुए। कम उम्र में इतना पता नहीं चलता। कालीबाड़ी में भोजन पकाने के लिए सुन्दरवन की लकड़ी रहती है। वह गीली लकड़ी पहले-पहल अच्छी जलती है। उस समय मालूम भी नहीं होता कि इसके अन्दर जल है। लकड़ी का जलना समाप्त होते समय सारा जल पीछे की ओर आ जाता है और फैंच-फौंच करके चूल्हे की आग बुझा देता है। इसीलिए काम, क्रोध, लोभ - इन सबसे सावधान रहना चाहिए। देखो न, हनुमान ने क्रोध में लंका जला दी थी। अन्त में ख्याल आया, अशोकवन में सीता हैं। तब सटपटाने लगे कि कहीं सीताजी का कुछ न हो जाय।

पड़ोसी - तो ईश्वर ने दुष्ट लोगों को बनाया ही क्यों?

श्रीरामकृष्ण - उनकी इच्छा, उनकी लीला। उनकी माया में विद्या भी है, अविद्या भी। अन्धकार की भी आवश्यकता है। अन्धकार रहने पर प्रकाश की महिमा और भी अधिक प्रकट होती है। काम, क्रोध, लोभादि खराब चीज तो अवश्य हैं, परन्तु उन्होंने ये दिये क्यों? दिये महान् व्यक्तियों को तैयार करने के लिए। मनुष्य इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने से महान् होता है। जितेन्द्रिय क्या नहीं कर सकता? उनकी कृपा से उसे ईश्वरप्राप्ति तक हो सकती है। फिर दूसरी ओर देखो, काम से उनकी सृष्टि की लीला चल रही है।

“दुष्ट लोगों की भी आवश्यकता है। एक गाँव के लोग बहुत उद्दण्ड हो गए थे। उस समय वहाँ गोलोक चौधरी को भेज दिया गया। उसके नाम से लोग काँपने लगे - इतना कठोर शासन था उसका। अतएव अच्छे-बुरे सभी तरह के लोग चाहिए। सीताजी बोलीं, ‘राम, अयोध्या में यदि सभी सुन्दर महल होते तो कैसा अच्छा होता! मैं देख रही हूँ अनेक मकान टूट गए हैं, कुछ पुराने हो गए हैं।’ श्रीराम बोले, ‘सीता, यदि सभी मकान सुन्दर हों तो मिस्त्री लोग क्या करेंगे?’ (सभी हँस पड़े।) ईश्वर ने सभी प्रकार के पदार्थ बनाए हैं - अच्छे पेड़, विषैले पेड़ और व्यर्थ के पौधे भी। जानवरों में भले-बुरे सभी हैं - बाघ, शेर, साँप - सभी हैं।”

संसार में भी ईश्वरप्राप्ति होती है। सभी की मुक्ति होगी।

पड़ोसी - महाराज, संसार में रहकर क्या भगवान् को प्राप्त किया जा सकता है?

श्रीरामकृष्ण - अवश्य किया जा सकता है। परन्तु जैसा कहा, साधुसंग और सदा प्रार्थना करनी पड़ती है। उनके पास रोना चाहिए। मन का सभी मैल धुल जाने पर उनका दर्शन होता है, मन मानो मिट्टी से लिपटी हुई एक लोहे की सुई है -ईश्वर हैं चुम्बक। मिट्टी रहते चुम्बक के साथ संयोग नहीं होता। रोते रोते सुई की मिट्टी धुल जाती है। सुई की मिट्टी अर्थात् काम, क्रोध, लोभ, पापबुद्धि विषयबुद्वि आदि। मिट्टी धुल जाने पर सुई को चुम्बक खींच लेगा अर्थात ईश्वरदर्शन होगा। चित्तशुद्धि होने पर ही उनकी प्राप्ति होती है। ज्वर चढ़ा है, शरीर मानो भुन रहा है, इसमें कुनैन से क्या काम होगा?

“संसार में ईश्वरलाभ होगा क्यों नहीं? वही साधुसंग, रो-रोकर प्रार्थना, बीच बीच में निर्जनवास; चारों ओर कटघरा लगाए बिना रास्ते के पौधों को गाय-बकरियाँ खा जाती हैं।”

पड़ोसी - तो फिर जो लोग संसार में हैं उनकी भी मुक्ति होगी?

श्रीरामकृष्ण - सभी की मुक्ति होगी। परन्तु गुरु के उपदेश के अनुसार चलना पड़ता है, टेढ़े रास्ते से जाने पर फिर सीधे रास्ते पर आने में कष्ट होगा। मुक्ति बहुत देर में होती है। शायद इस जन्म में न भी हो। फिर सम्भव है अनेक जन्मों के पश्चात् हो। जनक आदि ने संसार में भी कर्म किया था। ईश्वर को सिर पर रखकर काम करते थे। नाचनेवाली जिस प्रकार सिर पर बर्तन रखकर नाचती है। और पश्चिम की औरतों को नहीं देखा, सिर पर जल का घड़ा लेकर हँस-हँसकर बातें करती हुई जाती हैं?

पड़ोसी - आपने गुरूपदेश के बारे में बताया, पर गुरु कैसे प्राप्त करूँ?

श्रीरामकृष्ण - हरएक गुरु नहीं हो सकता। कीमती शहतीर पानी में स्वयं भी बहता हुआ चला जाता है और अनेक जीव-जन्तु भी उस पर चढ़कर जा सकते हैं। पर मामूली लकड़ी पर चढ़ने से लकड़ी भी डूब जाती है और जो चढ़ता है वह भी डूब जाता है। इसलिए ईश्वर युग युग में लोकशिक्षा के लिए गुरु-रूप में स्वयं अवतीर्ण होते हैं। सच्चिदानन्द ही गुरु हैं।

“ज्ञान किसे कहते हैं; और मै कौन हूँ? ‘ईश्वर ही कर्ता हैं और सब अकर्ता’ इसी का नाम ज्ञान है। मैं अकर्ता, उनके हाथ का यन्त्र हूँ। इसीलिए मैं कहता हूँ, माँ, तुम यन्त्री हो, मैं यन्त्र हूँ; तुम घरवाली हो, मैं घर हूँ; मैं गाड़ी हूँ, तुम इंजीनियर हो। जैसा चलाती हो वैसा चलता हूँ, जैसा कराती हो वैसा करता हूँ, जैसा बुलवाती हो, वैसा बोलता हूँ; नाहं, नाहं, तू है तू है।”

(२)

‘कमलकुटीर’ में श्रीरामकृष्ण और श्री केशव सेन

श्रीरामकृष्ण कप्तान के घर होकर श्रीयुत केशव सेन के ‘कमलकुटीर’ नामक मकान पर आए हैं। साथ हैं राम, मनोमोहन, सुरेन्द्र, मास्टर आदि अनेक भक्त लोग। सब दुमँजले के हाल में बैठे हैं। श्री प्रताप मजुमदार, श्री त्रैलोक्य आदि ब्राह्मभक्त भी उपस्थित हैं।

श्रीरामकृष्ण केशव को बहुत प्यार करते हैं। जिन दिनों बेलघर के बगीचे में वे शिष्यों के साथ साधन-भजन कर रहे थे तब, अर्थात् १८७५ ई. के माघोत्सव के बाद कुछ दिनों के अन्दर ही, एक दिन श्रीरामकृष्ण ने बगीचे में जाकर उनके साथ साक्षात्कार किया था। साथ था उनका भानजा हृदयराम। बेलघर के इस बगीचे में उन्होंने केशव से कहा था, “तुम्हारी दुम झड़ गयी है, अर्थात् तुम सब कुछ छोड़कर संसार के बाहर भी रह सकते हो और फिर संसार में भी रह सकते हो। जिस प्रकार मेंढक के बच्चे की दुम झड़ जाने पर वह पानी में भी रह सकता है और फिर जमीन पर भी।” इसके बाद दक्षिणेश्वर में, कमलकुटीर में, ब्राह्मसमाज आदि स्थानों में अनेक बार श्रीरामकृष्ण ने वार्तालाप के सिलसिले में उन्हें उपदेश दिया था। “अनेक पन्थों से तथा अनेक धर्मों द्वारा ईश्वर-प्राप्ति हो सकती है। बीच बीच में निर्जन में साधन-भजन करके भक्तिलाभ करते हुए संसार में रहा जा सकता है। जनक आदि ब्रह्मज्ञान प्राप्त करके संसार में रहे थे। व्याकुल होकर उन्हें पुकारना पड़ता है तब वे दर्शन देते हैं। तुम लोग जो कुछ करते हो, निराकार का साधन, वह बहुत अच्छा है। ब्रह्मज्ञान होने पर ठीक अनुभव करोगे कि ईश्वर सत्य है और सब अनित्य; ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है। सनातन हिन्दू धर्म में साकार निराकार दोनों ही माने गए हैं। अनेक भावों से ईश्वर की पूजा होती है। शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य, मधुर। शहनाई बजाते समय एक आदमी केवल पोंऽऽ ही बजाता है, परन्तु उसके बाजे में सात छेद रहते हैं। और दूसरा व्यक्ति, जिसके बाजे में सात छेद हैं, वह अनेक राग-रागिनियाँ बजाता है।

“तुम लोग साकार को नहीं मानते इसमें कोई हानि नहीं; निराकार में निष्ठा रहने से भी हो सकता है। परन्तु साकारवादियों के केवल प्रेम के आकर्षण को लेना। माँ कहकर उन्हें पुकारने से भक्तिप्रेम और भी बढ़ जायगा। कभी दास्य, कभी सख्य, कभी वात्सल्य, कभी मधुर भाव। ‘कोई कामना नहीं है, उन्हें प्यार करता हूँ’, यह बहुत अच्छा भाव है। इसका नाम है अहेतुक भक्ति। रुपया-पैसा, मान-इज्जत कुछ भी नहीं चाहता हूँ, चाहता हूँ केवल तुम्हारे चरण-कमलों में भक्ति। वेद, पुराण, तन्त्र में एक ईश्वर ही की बात है और उनकी लीला की बात। ज्ञान भक्ति दोनों ही हैं। संसार में दासी की तरह रहो। दासी सब काम करती है, पर उसका मन रहता है अपने घर में। मालिक के बच्चों को पालती-पोसती है; कहती है ‘मेरा हरि, मेरा राम।’ परन्तु खूब जानती है, लड़का उसका नहीं है। तुम लोग जो निर्जन में साधना करते हो यह बहुत अच्छा है। उनकी कृपा होगी। जनक राजा ने निर्जन में कितनी साधना की थी! साधना करने पर ही तो संसार में निर्लिप्त होना सम्भव है।

“तुम लोग भाषण देते हो, सभी के उपकार के लिए; परन्तु ईश्वर को प्राप्त करने के बाद तथा उनके दर्शन प्राप्त कर चुकने के बाद ही भाषण देने से उपकार होता है। उनका आदेश न पाकर दूसरों को शिक्षा देने से उपकार नहीं होता। ईश्वर को प्राप्त किए बिना उनका आदेश नहीं मिलता। ईश्वर के प्राप्त होने का लक्षण है - मनुष्य बालक की तरह, जड़ की तरह, उन्मादवाले की तरह, पिशाच की तरह हो जाता है; जैसे शुकदेव आदि। चैतन्यदेव कभी बालक की तरह, कभी उन्मत्त की तरह नृत्य करते थे। हँसते थे, रोते थे, नाचते थे, गाते थे। पुरीधाम में जब थे तब बहुधा जड़ समाधि में रहते थे।”

श्री केशव की हिन्दू धर्म पर उत्तरोत्तर अधिकाधिक श्रद्धा

इस प्रकार अनेक स्थानों में श्रीरामकृष्ण ने वार्तालाप के सिलसिले में श्री केशवचन्द्र सेन को अनेक प्रकार के उपदेश दिए थे। बेलघर के बगीचे में प्रथम दर्शन के बाद केशव ने २८ मार्च १८७५ ई. के. रविवारवाले ‘मिरर’ समाचार-पत्र में लिखा था :-

“हमने थोड़े दिन हुए दक्षिणेश्वर के परमहंस श्रीरामकृष्ण का बेलघर के बगीचे में दर्शन किया है। उनकी गम्भीरता, अन्तर्दृष्टि, बालस्वभाव देख हम मुग्ध हुए हैं। वे शान्तस्वभाव तथा कोमल प्रकृति के हैं और देखने से ऐसे लगते हैं मानो सदा योग में रहते हैं। इस समय हमारा ऐसा अनुमान हो रहा है कि हिन्दू धर्म के गम्भीरतम स्थलों का अनुसन्धान करने पर कितनी सुन्दरता, सत्यता तथा साधुता देखने को मिल सकती है! यदि ऐसा न होता तो परमहंस की तरह ईश्वरी भाव में भावित योगी पुरुष देखने में कैसे आते?”* १८७६ ई. के जनवरी में फिर माघोत्सव आया। उन्होंने टाउनहाल में भाषण दिया। विषय था - ब्राह्म धर्म और हमारा अनुभव (Our Faith and Experiences) इसमें भी उन्होंने हिन्दू धर्म की सुन्दरता के सम्बन्ध में अनेक बातें कही थीं।

श्रीरामकृष्ण उन पर जैसा स्नेह रखते थे, केशव की भी उनके प्रति वैसी ही भक्ति थी। प्रायः प्रतिवर्ष ब्राह्मोत्सव के समय तथा अन्य समय भी केशव दक्षिणेश्वर में जाते थे और उन्हें कमलकुटीर में ले आते थे। कभी कभी अकेले कमलकुटीर के दूसरे मँजले पर उपासनागृह में उन्हें परम अन्तरंग मानते हुए भक्ति के साथ ले जाते तथा एकान्त में ईश्वर की पूजा करते और आनन्द मनाते थे।

१८७९ ई. के भाद्रोत्सव के समय केशव श्रीरामकृष्ण को फिर निमन्त्रण देकर बेलघर के तपोवन में ले गए थे - १५ सितम्बर सोमवार और फिर २१ सितम्बर को कमलकुटीर के उत्सव में सम्मिलित होने के लिए ले गए। इस समय श्रीरामकृष्ण के समाधिस्थ होने पर ब्राह्मभक्तों के साथ उनका फोटो लिया गया। श्रीरामकृष्ण खड़े खड़े समाधिस्थ थे। हृदय उन्हें पकड़कर खड़ा था। २२ अक्टूबर को महाष्टमी-नवमी के दिन केशव ने दक्षिणेश्वर में जाकर उनका दर्शन किया।

२९ अक्टूबर १८७९ बुधवार को शरद पूर्णिमा के दिन के एक बजे के समय केशव फिर भक्तों के साथ दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने गए थे। स्टीमर के साथ सजी-सजायी एक बड़ी नौका, छः अन्य नौकाएँ, और दो छोटी नावें भी थीं। करीब अस्सी भक्तगण थे; साथ में झण्डा, फूल-पत्ते, मृदंग-करताल, भेरी भी थे। हृदय अभ्यर्थना करके केशव को स्टीमर से उतार लाया - गाना गाते गाते। गाने का मर्म इस प्रकार है - ‘सुरधुनी के तट पर कौन हरि का नाम लेता है, सम्भवतः प्रेम देनेवाले निताई आए हैं।’ ब्राह्मभक्तगण भी पंचवटी से कीर्तन करते करते उनके साथ आने लगे, ‘सच्चिदानन्दविग्रहरूपानन्दघन।’ उनके बीच में थे श्रीरामकृष्ण - बीच बीच में समाधिमग्न हो रहे थे। इस दिन सन्ध्या के बाद गंगाजी के घाट पर पूर्णचन्द्र के प्रकाश में केशव ने उपासना की थी।

उपासना के बाद श्रीरामकृष्ण कहने लगे, तुम सब बोलो, ‘ब्रह्म-आत्मा-भगवान्’, ‘ब्रह्म-माया-जीव-जगत्’, ‘भागवत-भक्त-भगवान्’।” केशव आदि ब्राह्मभक्तगण उस चन्द्रकिरण में भागीरथी के तट पर एक स्वर से श्रीरामकृष्ण के साथ साथ उन सब मन्त्रों का भक्ति के साथ उच्चारण करने लगे। श्रीरामकृष्ण फिर जब बोले, “बोलो, ‘गुरु-कृष्ण-वैष्णव” ’, तो केशव ने आनन्द से हँसते हँसते कहा, “महाराज, इस समय इतनी दूर नहीं। यदि हम ‘गुरु-कृष्ण-वैष्णव’ कहें तो लोग हमें कट्टरपन्थी कहेंगे!” श्रीरामकृष्ण भी हँसने लगे और बोले, “अच्छा, तुम (ब्राह्म) लोग जहाँ तक कह सको उतना ही कहो।”

कुछ दिनों बाद १३ नवम्बर १८७९ ई. को श्रीकालीपूजा के बाद राम, मनोमोहन और गोपाल मित्र ने दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण का प्रथम दर्शन किया।

१८८० ई. में एक दिन ग्रीष्मकाल में राम और मनोमोहन कमलकुटीर में केशव के साथ साक्षात्कार करने आए थे। उनकी यह जानने की प्रबल इच्छा हुई कि केशवबाबू की श्रीरामकृष्ण के सम्बन्ध में क्या राय है। उन्होंने केशवबाबू से जब यह प्रश्न किया तो उन्होंने उत्तर दिया, “दक्षिणेश्वर के परमहंस साधारण व्यक्ति नहीं हैं, इस समय पृथ्वी भर में इतना महान् व्यक्ति दूसरा कोई नहीं है। वे इतने सुन्दर, इतने असाधारण व्यक्ति हैं कि उन्हें बड़ी सावधानी के साथ रखना चाहिए। देखभाल न करने पर उनका शरीर अधिक टिक नहीं सकेगा। इस प्रकार की सुन्दर मूल्यवान वस्तु को काँच की आलमारी में रखना चाहिए।”

इसके कुछ दिनों बाद १८८१ ई. के माघोत्सव के समय पर जनवरी के महीने में केशव श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने के लिए दक्षिणेश्वर में गए थे। उस समय वहाँ पर राम, मनोमोहन, जयगोपाल सेन आदि अनेक व्यक्ति उपस्थित थे।

१५ जुलाई १८८१ ई. को केशव फिर श्रीरामकृष्ण को दक्षिणेश्वर से स्टीमर में ले गए।

१८८१ ई. के नवम्बर मास में मनोमोहन के मकान पर जिस समय श्रीरामकृष्ण का शुभागमन तथा उत्सव हुआ था उस समय भी आमन्त्रित होकर केशव उत्सव में सम्मिलित हुए थे। श्री त्रैलोक्य आदि ने भजन गाया था।

१८८१ ई. के दिसम्बर मास में श्रीरामकृष्ण आमन्त्रित होकर राजेन्द्र मित्र के मकान पर गए थे। श्री केशव भी गए। यह मकान ठनठनिया के बेचू चटर्जी स्ट्रीट में है। राजेन्द्र थे राम तथा मनोमोहन के मौसा। राम, मनोमोहन, ब्राह्मभक्त राजमोहन तथा राजेन्द्र ने केशव को समाचार देकर निमन्त्रित किया था।

केशव को जिस समय समाचार दिया गया उस समय वे भाई अघोरनाथ के शोक में अशौच अवस्था में थे। प्रचारक भाई अघोर ने ८ दिसम्बर बृहस्पतिवार को लखनऊ शहर में देहत्याग किया था। सभी ने अनुमान किया कि केशव न आ सकेंगे। समाचार पाकर केशव बोले, “यह कैसे! परमहंस महाशय आएँगे और मै न जाऊँ? अवश्य जाऊँगा! अशौच में हूँ इसलिए मै अलग स्थान पर बैठकर खाऊँगा।”

मनोमोहन की माता परम भक्तिमती श्यामासुन्दरी देवी ने श्रीरामकृष्ण को भोजन परोसा था। राम भोजन के समय पास खड़े थे। जिस दिन राजेन्द्र के घर पर श्रीरामकृष्ण ने शुभागमन किया उस दिन तीसरे पहर सुरेन्द्र ने उन्हें चीनाबाजार में ले जाकर उनका फोटो उतरवाया था। श्रीरामकृष्ण खड़े खड़े समाधिमग्न थे।

उत्सव के दिन महेन्द्र गोस्वामी ने भागवत की कथा की।

जनवरी १८८२ ई. - माघोत्सव के उपलक्ष्य में, शिमुलिया ब्राह्मसमाज के उत्सव में ज्ञान चौधरी के मकान पर श्रीरामकृष्ण और केशव आमन्त्रित होकर उपस्थित थे। आँगन में कीर्तन हुआ। इसी स्थान में श्रीरामकृष्ण ने पहले-पहल नरेन्द्र का गाना सुना और उन्हें दक्षिणेश्वर आने के लिए कहा।

२३ फरवरी १८८२ ई. , बृहस्पतिवार को केशव ने दक्षिणेश्वर में भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण का फिर से दर्शन किया। उनके साथ थे अमेरिकन पादरी जोसेफ कुक तथा कुमारी पिगाट। ब्राह्मभक्तों के साथ केशव ने श्रीरामकृष्ण को स्टीमर पर बैठाया। कुक साहब ने श्रीरामकृष्ण की समाधि-स्थिति देखी थी। उस समय श्री नगेन्द्र उसी जहाज में उपस्थित थे। उनके मुख से समस्त वार्ता सुन १०-१५ दिन के अन्दर मास्टर ने दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण का प्रथम दर्शन किया।

तीन मास बाद - अप्रैल मास में - श्रीरामकृष्ण कमलकुटीर में केशव को देखने आए। उसी का थोड़ासा विवरण निम्नलिखित परिच्छेद में दिया गया है।

श्रीरामकृष्ण का केशव के प्रति स्नेह। जगन्माता के पास नारियल-शक्कर की मन्नत

आज कमलकुटीर के उसी बैठक-घर में श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ बैठे हैं। २ अप्रैल १८८२ ई. , रविवार, दिन के पाँच बजे का समय। केशव भीतर के कमरे में थे। उन्हें समाचार दिया गया। कमीज पहनकर और चद्दर ओढ़कर उन्होंने आकर प्रणाम किया। उनके भक्त मित्र कालीनाथ बसु रुग्ण हैं, वे उन्हें देखने जा रहे हैं। श्रीरामकृष्ण आए हैं, इसलिए केशव नहीं जा सके। श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, “तुम्हें बहुत काम रहता है, फिर अखबार में भी लिखना पड़ता है, वहाँ (दक्षिणेश्वर) जाने का अवसर नहीं रहता। इसलिए मै ही तुम्हें देखने आ गया हूँ। तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है, यह जानकर नारियल-शक्कर की मन्नत मानी थी। माँ से कहा, माँ, यदि केशव को कुछ हो जाय तो फिर कलकत्ता जाकर किसके साथ बात करूँगा?”

श्री प्रताप आदि ब्राह्मभक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण वार्तालाप कर रहे हैं। पास ही मास्टर को बैठे देख वे केशव से कहते हैं, “वे वहाँ पर (दक्षिणेश्वर में) क्यों नहीं जाते हैं, पूछो तो! इतना ये कहते हैं कि स्त्री-बच्चों पर मन नहीं है।” एक मास से कुछ अधिक समय हुआ, मास्टर श्रीरामकृष्ण के पास आया जाया करते हैं। बाद में जाने में कुछ दिनों का विलम्ब हुआ। इसीलिए श्रीरामकृष्ण इस प्रकार कह रहे हैं। उन्होंने कह दिया था, ‘आने में देरी होने पर मुझे पत्र देना।’

ब्राह्मभक्तगण श्री सामाध्यायी को दिखाकर श्रीरामकृष्ण से कह रहे हैं, “आप विद्वान् हैं। वेद शास्त्रादि का आपने अच्छा अध्ययन किया है।” श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, “हाँ, इनकी आँखों में से इनका भीतरी भाग दिखायी दे रहा है। ठीक जैसे खिड़की की काँच में से घर के भीतर की चीजें दिखायी देती हैं।”

श्री त्रैलोक्य गाना गा रहे हैं। गाना हो रहा है। इतने में ही सन्ध्या का दिया जलाया गया। गाना सुनते सुनते श्रीरामकृष्ण एकाएक खड़े हो गए, और ‘माँ’ का नाम लेते लेते समाधिमग्न हो गए। कुछ स्वस्थ होकर स्वयं ही नृत्य करते करते गाना गाने लगे जिसका आशय इस प्रकार है :-

“मैं सुरापान नहीं करता, ‘जय काली’ कहता हुआ सुधा का पान करता हूँ। वह सुधा मुझे इतना मतवाला बना देती है कि लोग मुझे नशाखोर कहते हैं। गुरुजी का दिया हुआ गुड़ लेकर उसमें प्रवृत्ति का मसाला मिलाकर ज्ञानरूपी कलार उससे शराब बनाता है और मेरा मतवाला मन उसे मूलमन्त्ररूपी बोतल में से पीता है। पीने के पहले ‘तारा’ कहकर मैं उसे शुद्ध कर लेता हूँ। ‘रामप्रसाद’ कहता है कि ऐसी शराब पीने पर धर्म-अर्थादि चतुवर्ग की प्राप्ति होती है।”

श्री केशव को श्रीरामकृष्ण स्नेहपूर्ण नेत्रों से देख रहे हैं, मानो अपने निजी हैं। और मानो भयभीत हो रहे हैं कि कहीं केशव किसी दूसरे के अर्थात् संसार के न बन जाएँ। उनकी ओर ताकते हुए श्रीरामकृष्ण ने फिर गाना प्रारम्भ किया, जिसका भावार्थ इस प्रकार का है -

“बात करने से भी डरती हूँ, न करने से भी डरती हूँ। हे राधे, मन में सन्देह होता है कि कहीं तुम जैसी निधि को गवाँ न बैठूँ। हम तुम्हें वह मन्त्र बतलाती हैं जिससे हम विपत्ति से पार हो गयी हैं और जो लोगों को भी विपत्ति से पार कर देता है। अब तुम्हारी जैसी इच्छा।” अर्थात् सब कुछ छोड़ भगवान् को पुकारो, वे ही सत्य हैं और सब अनित्य है। उन्हें प्राप्त किए बिना कुछ भी न होगा - यही महामन्त्र है।

फिर बैठकर भक्तों के साथ वार्तालाप कर रहे हैं।

उनके लिए जलपान की तैयारी हो रही है। हाल के एक कोने में एक ब्राह्मभक्त पियानो बजा रहे हैं। श्रीरामकृष्ण प्रसन्नवदन हो बालक की तरह पियानो के पास खड़े होकर देख रहे हैं। थोड़ी देर बाद उन्हें अन्तःपुर में ले जाया गया, - वहाँ वे जलपान करेंगे और महिलाएँ उन्हें प्रणाम करेंगी।

श्रीरामकृष्ण का जलपान समाप्त हुआ। अब वे गाड़ी में बैठे। ब्राह्मभक्तगण सभी गाड़ी के पास खड़े हैं। कमलकुटीर से गाड़ी दक्षिणेश्वर की ओर चली।

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