परिच्छेद ४६ - भक्तों के साथ

(१)

कलकत्ते की राह पर

श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर से गाड़ी पर कलकत्ते की ओर जा रहे हैं। साथ में रामलाल और दो-एक भक्त हैं। फाटक से निकलते ही आपने देखा कि मणि हाथ में चार फजली आम लिए हुए पैदल आ रहे हैं। मणि को देखकर गाड़ी को रोकने के लिए कहा। मणि ने गाड़ी पर सिर टेककर प्रणाम किया।

आज शनिवार, २१ जुलाई १८८३ ई. , आषाढ़ कृष्ण प्रतिपदा है। दिन के चार बजे हैं। श्रीरामकृष्ण अधर के मकान पर जाएँगे, उसके बाद यदु मल्लिक के घर और फिर खेलात घोष के यहाँ जाएँगे।

श्रीरामकृष्ण (मणि से हँसते हुए) - तुम भी आओ न, हम अधर के यहाँ जा रहेहै।

मणि - ‘जैसी आपकी आज्ञा’ कहकर गाड़ी पर बैठ गये।

मणि - अंग्रेजी पढ़े-लिखे हैं, इसी से संस्कार नहीं मानते थे पर कुछ दिन हुए श्रीरामकृष्ण के पास यह स्वीकार कर गए थे कि अधर के संस्कार थे, इसी से वे उनकी इतनी भक्ति करते हैं। घर लौटकर विचार करने पर मास्टर ने देखा कि संस्कार के बारे में अभी तक उनको पूर्ण विश्वास नहीं हुआ। यही कहने के लिए आज श्रीरामकृष्ण से मिलने आए हैं। श्रीरामकृष्ण बातें करने लगे।

श्रीरामकृष्ण - अच्छा, अधर को तुम कैसा समझते हो?

मणि - उनमें बहुत अनुराग है।

श्रीरामकृष्ण - अधर भी तुम्हारी बड़ी प्रशंसा करता है।

मणि - कुछ देर तक चुप रहे, फिर पूर्वजन्म के संस्कार की बात उठायी।

ईश्वर के कार्य समझना असम्भव है

मणि - मुझे ‘पूर्वजन्म’ और ‘संस्कार’ आदि पर उतना विश्वास नहीं है; क्या इससे मेरी भक्ति में कोई बाधा आएगी?

श्रीरामकृष्ण - ईश्वर की सृष्टि में सब कुछ हो सकता है - यह विश्वास ही पर्याप्त है। मैं जो सोचता हूँ वही सत्य है, और सब का मत मिथ्या है - ऐसा भाव मन में न आने देना। बाकी ईश्वर ही समझा देंगे।

“ईश्वर के कार्यों को मनुष्य क्या समझेगा? उनके कार्य अनन्त हैं! इसलिए मैं इनको समझने का थोड़ा भी प्रयत्न नहीं करता। मैंने सुन रखा है कि उनकी सृष्टि में सब कुछ हो सकता है। इसीलिए मैं इन सब बातों की चिन्ता न कर केवल ईश्वर ही की चिन्ता करता हूँ। हनुमान से पूछा गया था, आज कौनसी तिथि है; हनुमान ने कहा था, मैं तिथि, नक्षत्र आदि नहीं जानता, केवल एक राम की चिन्ता करता हूँ।

“ईश्वर के कार्य क्या समझ में आ सकते हैं? वे तो पास ही हैं - पर यह समझना कितना कठिन है! बलराम कृष्ण को भगवान् नहीं जानते थे।”

मणि - जी हाँ! जैसे आपने भीष्मदेव की बात कही थी।

श्रीरामकृष्ण - हाँ, हाँ! क्या कहा था, कहो तो!

मणि - भीष्मदेव शरशय्या पर पड़े रो रहे थे। पाण्डवों ने श्रीकृष्ण से कहा, ‘भाई, यह कैसा आश्चर्य है! पितामह इतने ज्ञानी होकर भी मृत्यु का विचार कर रो रहे है!’ श्रीकृष्ण ने कहा, ‘उनसे पूछो न, क्यों रोते हैं।’ भीष्मदेव बोले, ‘मैं यह विचार कर रोता हूँ कि भगवान् के कार्य को कुछ भी न समझ सका। हे कृष्ण, तुम इन पाण्डवों के साथ साथ फिरते हो, पग पग पर इनकी रक्षा करते हो, फिर भी इनकी विपद् का अन्त नहीं!’

श्रीरामकृष्ण - ईश्वर ने अपनी माया से सब कुछ ढक रखा है - कुछ जानने नहीं देते। कामिनी और कांचन ही माया है। इस माया को हटाकर जो ईश्वर के दर्शन करता है, वही उन्हें देख पाता है। एक आदमी को समझाते समय मुझे ईश्वर ने एक अद्भुत दृश्य दिखलाया। अचानक सामने देखा उस देश का एक तालाब, और एक आदमी ने काई हटाकर उससे जल पी लिया। जल स्फटिक की तरह साफ था। इससे यह सूचित हुआ कि वह सच्चिदानन्द मायारूपी काई से ढका हुआ है, - जो काई हटाकर जल पीता है, वही पाता है।

“सुनो, तुमसे बड़ी गूढ़ बातें कहता हूँ। झाउओ के तले बैठे हुए देखा कि चोर दरवाजे का-सा एक दरवाजा सामने है। कोठरी के अन्दर क्या है, यह मुझे दिखायी नहीं पड़ा। मैं एक नहरनी से छेद करने लगा, पर कर न सका। मैं छेदता रहा, पर वह बार बार भर जाता था। परन्तु एक बार इतना बड़ा छेद बना!”

यह कहकर श्रीरामकृष्ण चुप रहे। फिर बोलने लगे - “ये सब बड़ी ऊँची बातें हैं। यह देखो, कोई मानो मेरा मुँह दबा देता है।

“योनि में ईश्वर का वास प्रत्यक्ष देखा था! - कुत्ता और कुत्तिया के समागम के समय देखा था।

“ईश्वर के चैतन्य से जगत् चैतन्यमय है। कभी कभी देखता हूँ कि छोटी छोटी मछलियों में वही चैतन्य खेल रहा है।”

गाड़ी शोभाबाजार के चौराहे पर से दरमाहट्टा के निकट पहुँची। श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं -

“कभी कभी देखता हूँ कि वर्षा में जिस प्रकार पृथ्वी जल से ओतप्रोत रहती है, उसी प्रकार इस चैतन्य से जगत् ओतप्रोत है।

“इतना सब दिखलायी तो पड़ता है, पर मुझे अभिमान नहीं होता।”

मणि (सहास्य) - आपका अभिमान कैसा!

श्रीरामकृष्ण - शपथ खाकर कहता हूँ, थोड़ा भी अभिमान नहीं होता।

मणि - ग्रीस देश में सुकरात नाम का एक आदमी था। यह दैववाणी हुई थी कि सब लोगों में वही ज्ञानी है। उसे आश्चर्य हुआ। बहुत देर तक निर्जन में चिन्ता करने पर उसे भेद मालूम हुआ। तब उसने अपने मित्रों से कहा, ‘केवल मुझे ही मालूम हुआ है कि मैं कुछ नहीं जानता; पर दूसरे सब लोग कहते हैं कि हमें खूब ज्ञान हुआ है। परन्तु वास्तव में सभी अज्ञान हैं।’

श्रीरामकृष्ण - मैं कभी कभी सोचता हूँ कि मै जानता ही क्या हूँ कि इतने लोग यहाँ आते हैं! वैष्णवचरण बड़ा पण्डित था। वह कहता था कि तुम जो कुछ कहते हो वह सब शास्त्रों में पाया जाता है। तो फिर तुम्हारे पास क्यों आता हूँ? तुम्हारे मुँह से वही सब सुनने के लिए।

मणि - आपकी सब बातें शास्त्र से मिलती हैं। नवद्वीप गोस्वामी भी उस दिन पानीहाटी में यही बात कहते थे। आपने कहा कि ‘गीता’ ‘गीता’ बार बार कहने से ‘त्यागी’ ‘त्यागी’ हो जाता है। वास्तव में ‘तागी’ होता है, परन्तु नवद्वीप गोस्वामी ने कहा कि ‘तागी’ और ‘त्यागी’ दोनों का एक ही अर्थ है; ‘तग्’ एक धातु है, उसी से ‘तागी’ बनता है।

श्रीरामकृष्ण - मेरे साथ क्या दूसरों का कुछ मिलता-जुलता है ? किसी पण्डित या साधु का?

मणि - आपको ईश्वर ने स्वयं अपने हाथों से बनाया है। और दूसरों को मशीन में डालकर। - जैसे नियम के अनुसार सृष्टि होती है।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य, रामलाल आदि से) - अरे, कहता क्या है!

श्रीरामकृष्ण की हँसी रुकती ही नहीं। अन्त में उन्होंने कहा, “शपथ खाता हूँ, मुझे तनिक भी अभिमान नहीं होता।”

मणि - विद्या से एक लाभ होता है। उससे यह मालूम हो जाता है कि मैं कुछ नहीं जानता, और मैं कुछ नहीं हूँ।

श्रीरामकृष्ण - ठीक है, ठीक है। मैं कुछ नहीं हूँ मैं कुछ नहीं हूँ! अच्छा, अंग्रेजी ज्योतिष पर तुम्हें विश्वास है?

मणि - उन लोगों के नियम के अनुसार नये आविष्कार हो सकते हैं; यूरेनस (Uranus) ग्रह की अनियमित चाल देखकर उन्होंने दूरबीन से पता लगाकर देखा कि एक नया ग्रह (Neptune) चमक रहा है। फिर उससे ग्रहण की गणना भी हो सकती है।

श्रीरामकृष्ण - हाँ, सो तो होती है।

गाड़ी चल रही है - प्रायः अधर के मकान के पास आ गयी है। श्रीरामकृष्ण मणि से कहते हैं, “सत्य में रहना, तभी ईश्वर मिलेंगे।”

मणि - एक और बात आपने नवद्वीप गोस्वामी से कही थी - ‘हे ईश्वर, मैं तुम्हीं को चाहता हूँ। देखना, अपनी भुवनमोहिनी माया के ऐश्वर्य से मुझे मुग्ध न करना। मैं तुम्हीं को चाहता हूँ।’

श्रीरामकृष्ण - हाँ, यह दिल से कहना होगा।

(२)

अधर सेन के मकान पर, कीर्तनानन्द में

श्रीरामकृष्ण अधर के मकान पर आए हैं। बैठकखाने में रामलाल, मास्टर, अधर तथा कुछ और भक्त आपके पास बैठे हुए हैं। मुहल्ले के दो-चार लोग श्रीरामकृष्ण को देखने आए हैं। राखाल के पिता कलकत्ते में रहते हैं - राखाल वहीं हैं।

श्रीरामकृष्ण (अधर के प्रति) -क्यों, राखाल को खबर नहीं दी?

अधर - जी, उन्हें खबर दी है।

राखाल के लिए श्रीरामकृष्ण को व्यग्र देखकर अधर ने राखाल को लिवा लाने के लिए एक आदमी के साथ अपनी गाड़ी भिजवा दी।

अधर श्रीरामकृष्ण के पास आ बैठे। आप के दर्शन के लिए अधर आज व्याकुल हो रहे थे। आज आपके यहाँ आने के बारे में पहले से कुछ निश्चित नहीं था। ईश्वर की इच्छा से ही आप आ पहुँचे हैं।

अधर - बहुत दिन हुए आप नहीं आए थे। मैंने आज आपको पुकारा था, - यहाँ तक कि आँखों से आँसू भी गिरे थे।

श्रीरामकृष्ण (प्रसन्न होकर हँसते हुए) - क्या कहते हो!

शाम हुई। बैठकखाने में बत्ती जलायी गयी। श्रीरामकृष्ण ने हाथ जोड़कर जगज्जननी को प्रणाम कर मन ही मन शायद मूलमन्त्र का जाप किया। अब मधुर स्वर से नाम-उच्चारण कर रहे हैं - ‘गोविन्द! गोविन्द! सच्चिदानन्द! हरि बोल! हरि बोल!’ आप इतना मधुर नाम-उच्चारण कर रहे हैं कि मानो मधु बरस रहा है! भक्तगण निर्वाक् होकर उस नामसुधा का पान कर रहे हैं।

रामलाल गाना गा रहे हैं -

(भावार्थ) - “हे माँ हरमोहिनी, तूने संसार को भुलावे में डाल रखा है। मूलाधार महाकमल में तू वीणावादन करती हुई चित्तविनोदन करती है। महामन्त्र का अवलम्बन कर तू शरीररूपी यन्त्र के सुषुम्नादि तीन तारों में तीन गुणों के अनुसार तीन ग्रामों में संचरण करती है। मूलाधारचक्र में तू भैरव राग के रूप में अवस्थित है; स्वाधिष्ठानचक्र के षड्दल कमल में तू श्री राग तथा मणिपूरचक्र में मल्हार राग है। तू वसन्त राग के रूप में हृदयस्थ अनाहतचक्र में प्रकाशित होती है। तू विशुद्धचक्र में हिण्डोल तथा आज्ञाचक्र में कर्णाटक राग है। तान-मान-लय-सुर के सहित तू मन्द्र-मध्य-तार इन तीन सप्तकों का भेदन करती है। हे महामाया, तूने मोहपाश के द्वारा सब को अनायास बाँध लिया है। तत्त्वाकाश में तू मानो स्थिर सौदामिनी की तरह विराजमान है। ‘नन्दकुमार’ कहता है कि तेरे तत्त्व का निश्चय नहीं किया जा सकता। तीन गुणों के द्वारा तूने जीव की दृष्टि को आच्छादित कर रखा है।”

रामलाल ने फिर गाया -

(भावार्थ) - “हे भवानी, मैंने तुम्हारा भयहर नाम सुना है, इसीलिए तो अब मैंने तुम पर अपना भार सौंप दिया है। अब तुम मुझे तारो या न तारो! माँ, तुम ब्रह्माण्डजननी हो, ब्रह्माण्डव्यापिनी हो। तुम काली हो या राधिका - यह कौन जाने! हे जननी, तुम घट घट में विराजमान हो। मूलाधारचक्र के चतुर्दल कमल में तुम कुलकुण्डलिनी के रूप में विद्यमान हो। तुम्हीं सुषुम्ना मार्ग से ऊपर उठती हुई स्वाधिष्ठानचक्र के षड्दल तथा मणिपूरचक्र के दशदल कमल में पहुँचती हो। हे कमलकामिनी, तुम ऊर्ध्वोर्ध्व कमलों में निवास करती हो। हृदयस्थित अनाहतचक्र के द्वादशदल कमल को अपने पादपद्म के द्वारा प्रस्फुटित कर तुम हृदय के अज्ञानतिमिर का विनाश करती हो। इसके ऊपर कण्ठस्थित विशुद्धचक्र में धूम्रवर्ण षोडशदल कमल है। इस कमल के मध्यभाग में जो आकाश है, वह यदि अवरुद्ध हो जाय तो सर्वत्र आकाश ही रह जाता है। इसके ऊपर ललाट में अवस्थित आज्ञाचक्र के द्विदल कमल में पहुँचकर मन आबद्ध हो जाता है - वह वहीं रहकर मजा देखना चाहता है, और ऊपर नहीं उठना चाहता। इससे ऊपर मस्तक में सहस्रारचक्र है। वहाँ अत्यन्त मनोहर सहस्रदल कमल है, जिसमें परमशिव स्वयं विराजमान हैं। हे शिवानी, तुम वहीं शिव के निकट जा विराजो! हे माँ, तुम आद्याशक्ति हो। योगी तथा मुनिगण तुम्हारा नगेन्द्रनन्दिनी उमा के रूप में ध्यान करते है। तुम शिव की शक्ति हो। तुम मेरी वासनाओं का हरण करो ताकि मुझे फिर इस भवसागर में पतित न होना पड़े। माँ, तुम्हीं पंचतत्त्व हो, फिर तुम तत्त्वों के अतीत हो। तुम्हें कौन जान सकता है! हे माँ, संसार में भक्तों के हेतु तुम साकार बनी हो, परन्तु पंचेन्द्रियाँ पंचतत्त्व में विलीन हो जाने पर तुम्हारे निराकार स्वरूप का ही अनुभव होता है।”

रामलाल जिस समय गा रहे थे - ‘इसके ऊपर कण्ठस्थित विशुद्धचक्र में धूम्रवर्ण षोडशदल कमल है। इस कमल के मध्यभाग में जो आकाश है वह यदि अवरुद्ध हो जाय तो सर्वत्र आकाश ही रह जाता है’ - उस समय श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से कहा -

“यह सुनो, इसी का नाम है निराकार सच्चिदानन्द-दर्शन। विशुद्धचक्र का भेदन होने पर ‘सर्वत्र आकाश ही रह जाता है।’ ”

मास्टर - जी हाँ।

श्रीरामकृष्ण - इस मायामय जीव-जगत् के पार हो जाने पर तब कहीं नित्य स्वरूप में पहुँचा जा सकता है। नादभेद होने पर ही समाधि लगती है। ओंकार-साधना करते करते नादभेद होता है और समाधि लगती है।

अधर ने फलमिष्टान्न आदि के द्वारा श्रीरामकृष्ण की सेवा की। श्रीरामकृष्ण ने कहा, “आज यदु मल्लिक के यहाँ जाना पड़ेगा।”

(३)

यदु मल्लिक के मकान पर

श्रीरामकृष्ण यदु मल्लिक के मकान पर आए। कृष्णा प्रतिपदा है। चाँदनी रात है।

जिस कमरे में सिंहवाहिनी देवी की नित्यसेवा होती है उस कमरे में श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ उपस्थित हुए। सचन्दन पुष्पों और मालाओं द्वारा पूजित और विभूषित होकर देवी ने अपूर्व शोभा धारण की है। सामने पुजारी बैठे हुए हैं। प्रतिमा के सम्मुख दीप जल रहा है। सहचरों में से एक को श्रीरामकृष्ण ने रुपया चढ़ाकर प्रणाम करने कहा, क्योंकि देवता के दर्शन के लिए आने पर कुछ प्रणामी चढ़ानी चाहिए।

श्रीरामकृष्ण सिंहवाहिनी के सामने हाथ जोड़कर खड़े हैं। आपके पीछे भक्तगण हाथ जोड़कर खड़ें हैं। श्रीरामकृष्ण बड़ी देर तक दर्शन कर रहे हैं।

क्या आश्चर्य है! दर्शन करते हुए आप सहसा समाधिमग्न हो गए! पत्थर की मूर्ति की तरह निःस्तब्ध खड़े हैं! नेत्र निष्पलक हैं।

काफी समय के बाद आपने लम्बी साँस छोड़ी। समाधि छूटी। नशे में मस्त हुए-से कह रहे हैं - “माँ चलता हूँ!” परन्तु चल नहीं पाते - उसी प्रकार खड़े हैं।

फिर रामलाल से कहा, “तुम वह गाना गाओ - तभी मैं ठीक होऊँगा।”

रामलाल गाने लगे - “हे माँ हरमोहिनी, तूने संसार को भुलावे में डाल रखा है।”

गीत समाप्त हुआ। अब श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ बैठकखाने की ओर आ रहे हैं। चलते हुए बीच बीच में कहते हैं - “माँ, मेरे हृदय में रहो, माँ।”

यदु मल्लिक अपने लोगों के साथ बैठकखाने में बैठे हैं। श्रीरामकृष्ण भावावस्था में ही हैं। आकर गा रहे हैं -

(भावार्थ) - “हे माँ, तुम आनन्दमयी होते हुए मुझे निरानन्द मत करना।”

गीत समाप्त होने पर भावोन्मत्त होकर यदु से कहते हैं, “क्यों बाबू, क्या गाऊँ? ‘माँ, आमिकि आटाशे छेले’ - यह गाना गाऊँ?” यह कहकर आप गाने लगे -

(भावार्थ) - “माँ, क्या मैं तेरा अठवाँसा* बालक हूँ? तेरे आँखें तरेरने से मैं नहीं डरता। शिव जिन्हें अपने हृदयकमल पर धारण करते हैं वे तेरे आरक्त चरण मेरी सम्पदा हैं। . . . ”

भाव का किंचित उपशम होने पर श्रीरामकृष्ण कहते हैं, “माँ का प्रसाद खाऊँगा।” तब आपको सिंहवाहिनी का प्रसाद ला दिया गया।

यदु मल्लिक बैठे हैं। पास ही कुछ मित्र बैठे हुए हैं; कुछ खुशामद करनेवाले मुसाहब भी हैं।

यदु मल्लिक की ओर मुँह कर श्रीरामकृष्ण कुर्सी पर बैठे हैं और हँसते हुए बातचीत कर रहे हैं। श्रीरामकृष्ण के साथ आये हुए भक्तों में से कोई कोई बाजू के कमरे में हैं। मास्टर तथा और दो-एक भक्त श्रीरामकृष्ण के पास ही बैठे हैं।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - अच्छा, तुम मुसाहब क्यों रखते हो?

यदु (सहास्य) - मुसाहब रखने में क्या हर्ज है! क्या तुम उद्धार नहीं करोगे?

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - शराब की बोतलों के आगे गंगा भी हार मानती है!

यदु ने श्रीरामकृष्ण के सम्मुख घर में चण्डी-गान का आयोजन करने का वचन दिया था। बहुत दिन बीत गये, पर चण्डी-गान नहीं हुआ।

श्रीरामकृष्ण - क्यों जी, चण्डी-गान का क्या हुआ?

यदु - कई तरह के काम-काज थे, इसीलिए इतने दिन नहीं हो पाया।

श्रीरामकृष्ण - यह क्या! मर्द आदमी की एक जबान चाहिए! ‘पुरुष की बात, हाथी का दाँत।’ मर्द की जबान एक चाहिए - क्यों, ठीक है न?

यदु (सहास्य) - सो तो ठीक है।

श्रीरामकृष्ण - तुम बड़े हिसाबी आदमी हो। बहुत हिसाब करके काम करते हो। ब्राह्मण की गाय - खाये कम, गोबर ज्यादा करे, और धर-धर दूध दे! (सब हँसते हैं।)

कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण यदु से कहते हैं, “समझ गया। तुम रामजीवनपुर की सिल के जैसे हो - आधी गरम, आधी ठण्डी। तुम्हारा मन ईश्वर की भी ओर है, और संसार की भी ओर।

श्रीरामकृष्ण ने एक-दो भक्तों के साथ यदु के मकान पर फल, मिष्टान्न, खीर आदि प्रसाद ग्रहण किया। अब आप खेलात घोष के यहाँ जायेंगे।

(४)

खेलात घोष के मकान पर

श्रीरामकृष्ण खेलात घोष के मकान में प्रवेश कर रहे हैं। रात के दस बजे होंगे। मकान और बड़ा आँगन चन्द्र के प्रकाश से आलोकित हो रहा है। भीतर प्रवेश करते हुए श्रीरामकृष्ण भावाविष्ट हो गए। साथ में रामलाल, मास्टर तथा और भी एक-दो भक्त हैं। मकान बहुत बड़ा और पक्का है। दुमँजले पर पहुँचने पर बरामदे से दक्षिण की ओर बहुत लम्बा जाकर, फिर पूर्व की ओर मुडकर फिर उत्तर की ओर लम्बा रास्ता चलकर मकान के भीतरी हिस्से में पहुँचने पर ऐसा मालूम होने लगा कि मानो घर में कोई नहीं है - बड़े बड़े कमरे और सामने लम्बा बरामदा - सब खाली पड़ा है।

श्रीरामकृष्ण को उत्तर-पूर्व ओर के एक कमरे में बैठाया गया। आप अब भी भावमग्न हैं। घर के जिन भक्त ने आपको बुला लाया है, उन्होंने आकर स्वागत किया। ये वैष्णव हैं। देह पर तिलक की छाप है और हाथ में जपमाला की गोमुखी। ये प्रौढ़ हैं।खेलात घोष के सम्बन्धी हैं। ये बीच बीच में दक्षिणेश्वर जाकर श्रीरामकृष्ण के दर्शन कर आते हैं। परन्तु किसी किसी वैष्णव का भाव अत्यन्त संकीर्ण होता है। वे शाक्तों या ज्ञानियों की बड़ी निन्दा किया करते हैं। श्रीरामकृष्ण अब वार्तालाप कर रहे हैं।

श्रीरामकृष्ण का सर्वधर्मसमन्वय

श्रीरामकृष्ण (भक्तों के प्रति) - मेरा धर्म ठीक है और दूसरों का गलत - यह मत अच्छा नहीं। ईश्वर एक ही हैं, दो नहीं। उन्हीं को भिन्न भिन्न व्यक्ति भिन्न भिन्न नामों से पुकारते हैं। कोई कहता है गाड तो कोई अल्लाह, कोई कहता है कृष्ण, कोई शिव तो कोई ब्रह्म। जैसे तालाब में जल है। एक घाट पर लोग उसे कहते हैं, ‘जल’, दूसरे घाट पर कहते हैं ‘वाटर’, और तीसरे घाट पर ‘पानी’। हिन्दू कहते हैं ‘जल’, ख्रिश्चन कहते हैं ‘वाटर’ और मुसलमान ‘पानी’ - परन्तु वस्तु एक ही है। मत तो पथ हैं। एक-एक धर्ममत एक-एक पथ है जो ईश्वर की ओर ले जाता है। जैसे नदियाँ नाना दिशाओं से आकर सागर में मिल जाती हैं।

“वेद, पुराण, तन्त्र - सब का प्रतिपाद्य विषय वही एक सच्चिदानन्द है। वेदों में सच्चिदानन्द ब्रह्म, पुराणों में सच्चिदानन्द कृष्ण, तन्त्रों में सच्चिदानन्द शिव कहा है। सच्चिदानन्द ब्रह्म, सच्चिदानन्द कृष्ण, सच्चिदानन्द शिव - एक ही हैं।”

सब चुप हैं।

वैष्णव भक्त - महाराज, ईश्वर का चिन्तन भला क्यों करें?

जीवन्मुक्त।उत्तम भक्त।ईश्वरदर्शन के लक्षण

श्रीरामकृष्ण - यह बोध यदि रहे तो फिर वह जीवनमुक्त ही है। परन्तु सब में यह विश्वास नहीं होता, केवल मुँह से कहते हैं। ईश्वर हैं, उन्हीं की इच्छा से सब कुछ हो रहा है - यह विषयासक्त लोग सुन भर लेते हैं, इस पर विश्वास नहीं रखते।

“विषयासक्त लोगों का ईश्वर कैसा होता है, जानते हो? जैसे माँ-काकी का झगड़ा सुनकर बच्चे भी झगड़ते हुए कहते हैं, मेरे ईश्वर हैं।

“क्या सभी लोग ईश्वर की धारणा कर सकते हैं? उन्होंने भले आदमी भी बनाए हैं और बुरे आदमी भी, भक्त भी बनाए हैं और अभक्त भी, विश्वासी भी बनाए हैं और अविश्वासी भी। उनकी लीला में सर्वत्र विविधता है। उनकी शक्ति कहीं अधिक प्रकाशित है तो कहीं कम। सूर्य का तेज मिट्टी की अपेक्षा जल में अधिक प्रकाशित होता है, फिर जल की अपेक्षा दर्पण में अधिक प्रकाशित होता है।

“फिर भक्तों के बीच अलग अलग श्रेणियाँ हैं - उत्तम भक्त, मध्यम भक्त, अधम भक्त। गीता में ये सब बातें हैं।”

वैष्णव भक्त - जी हाँ।

श्रीरामकृष्ण - अधम भक्त कहता है, - ईश्वर बहुत दूर आकाश में हैं। मध्यम भक्त कहता है, - ईश्वर सर्वभूतों में चेतना के रूप में, प्राण के रूप में विद्यमान हैं उत्तम भक्त कहता है, - ईश्वर स्वयं ही सब कुछ हुए हैं; जो भी कुछ दीख पड़ता है वह उन्हीं का एक एक रूप है; वे ही माया, जीव, जगत् आदि बने हैं; उनके सिवा दूसरा कुछ भी नहीं है।

वैष्णव भक्त - क्या ऐसी अवस्था किसी को प्राप्त होती है?

श्रीरामकृष्ण - उनके दर्शन हुए बिना ऐसी अवस्था नहीं हो सकती। परन्तु दर्शन हुए हैं या नहीं इसके लक्षण हैं। दर्शन होने पर मनुष्य कभी उन्मत्तवत् हो जाता है - हँसता, रोता, नाचता, गाता है। फिर कभी बालकवत् हो जाता है - पाँच साल के बच्चे जैसी अवस्था! सरल, उदार, अहंकार नहीं, किसी चीज पर आसक्ति नहीं, किसी गुण का वशीभूत नहीं, सदा आनन्दमय अवस्था है! कभी वह पिशाचवत् बन जाता है - शुचि-अशुचि का भेद नहीं रहता, आचार अनाचार सब एक हो जाता है। फिर कभी वह जड़वत् हो जाता है - मानो कुछ देखकर स्तब्ध हो गया है! इसी से किसी भी प्रकार का कर्म, किसी भी प्रकार की चेष्टा नहीं कर सकता।

क्या श्रीरामकृष्ण स्वयं की ही अवस्थाओं की ओर संकेत कर रहे हैं ?

श्रीरामकृष्ण (वैष्णव भक्त से) - ‘तुम और तुम्हारा’ - यह ज्ञान है; ‘मैं और मेरा’ - यह अज्ञान।

“हे ईश्वर, तुम कर्ता हो, मैं अकर्ता’ - यही ज्ञान है। ‘हे ईश्वर, सब कुछ तुम्हारा है; देह, मन, घर, परिवार, जीव, जगत् - यह सब तुम्हारा ही है, मेरा कुछ नहीं’ - इसी का नाम ज्ञान है।

“जो अज्ञानी है, वही कहता है कि ईश्वर ‘वहाँ’ - बहुत दूर हैं। जो ज्ञानी है, वह जानता है कि ईश्वर ‘यहाँ’ - अत्यन्त निकट, हृदय के बीच अन्तर्यामी के रूप में विराजमान हैं, फिर उन्होंने स्वयं भिन्न भिन्न रूप भी धारण किये हैं।”

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