परिच्छेद ५ - बलराम के मकान पर श्रीरामकृष्ण तथा प्रेमानन्द में नृत्य

(१)

रात के आठ-नौ बजे का समय होगा - होली के सात दिन बाद। राम, मनोमोहन, राखाल, नृत्यगोपाल आदि भक्तगण श्रीरामकृष्ण को घेरकर खड़े हैं। सभी लोग हरिनाम का संकीर्तन करते करते तन्मय हो गए हैं। कुछ भक्तों की भावावस्था हुई है। भावावस्था में नृत्यगोपाल का वक्षःस्थल लाल हो गया है। सब के बैठने पर मास्टर ने श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया। श्रीरामकृष्ण ने देखा राखाल सोए हैं, भावमग्न, बाह्यज्ञान-विहीन। वे उनकी छाती पर हाथ रखकर कह रहे हैं - ‘शान्त हो, शान्त हो।’ राखाल की यह दूसरी बार भावावस्था थी। वे कलकत्ते में अपने पिता के साथ रहते हैं; बीच बीच में श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने आ जाते हैं। इसके पूर्व उन्होंने श्यामपुकुर में विद्यासागर महाशय के स्कूल में कुछ दिन अध्ययन किया था।

श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से दक्षिणेश्वर में कहा था, ‘मैं कलकत्ते में बलराम के घर जाऊँगा, तुम भी आना।’ इसीलिए वे उनका दर्शन करने आए हैं। फाल्गुन कृष्णा सप्तमी, शनिवार, ११ मार्च १८८२ ई. । श्रीयुत बलराम श्रीरामकृष्ण को निमन्त्रण देकर लाए हैं।

अब भक्तगण बरामदे में बैठे प्रसाद पा रहे हैं। दासवत् बलराम खड़े हैं। देखने से समझा नहीं जाता कि वे इस मकान के मालिक हैं।

मास्टर श्रीरामकृष्ण के पास कुछ दिनों से आने लगे हैं। उनका अभी तक भक्तों के साथ परिचय नहीं हुआ है। केवल दक्षिणेश्वर में नरेन्द्र के साथ परिचय हुआ था।

(२)

सर्वधर्मसमन्वय

कुछ दिनों बाद श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर में शिव-मन्दिर की सीढ़ी पर भावाविष्ट होकर बैठे हैं। दिन के चार-पाँच बजे का समय होगा। मास्टर भी पास ही बैठे हैं।

थोड़ी देर पहले श्रीरामकृष्ण, उनके कमरे के फर्श पर जो बिस्तर बिछाया गया है, उस पर विश्राम कर रहे थे। अभी उनकी सेवा के लिए सदैव उनके पास कोई नहीं रहता था। हृदय के चले जाने के बाद से उनको कष्ट हो रहा है। कलकत्ते से मास्टर के आने पर वे उनके साथ बात करते करते श्रीराधाकान्त के मन्दिर के सामनेवाले शिव-मन्दिर की सीढ़ी पर आकर बैठे। मन्दिर देखते ही वे एकाएक भावाविष्ट हो गए हैं।

वे जगन्माता के साथ बातचीत कर रहे हैं। कह रहे हैं, “माँ, सभी कहते हैं, मेरी घड़ी ठीक चल रही है। ईसाई, हिन्दू, मुसलमान सभी कहते हैं मेरा धर्म ठीक है, परन्तु माँ, किसी की भी तो घड़ी ठीक नहीं चल रही है। तुम्हें ठीक ठीक कौन समझ सकेगा, परन्तु व्याकुल होकर पुकारने पर, तुम्हारी कृपा होने पर सभी पथों से तुम्हारे पास पहुँचा जा सकता है। माँ, ईसाई लोग गिर्जाघरों में तुम्हें कैसे पुकारते हैं, एक बार दिखा देना। परन्तु माँ, भीतर जाने पर लोग क्या कहेंगे? यदि कुछ गड़बड़ हो जाय तो? फिर लोग कालीमन्दिर में यदि न जाने दें तो फिर गिर्जाघर के दरवाजे के पास से दिखा देना।”

(३)

भक्तों के साथ भजनानन्द में ‘प्रेम की सुरा’

एक दूसरे दिन श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में छोटी खाट पर बैठे हैं। आनन्दमयी मूर्ति है। सहास्य वदन। श्रीयुत कालीकृष्ण*के साथ मास्टर आ पहुँचे।

कालीकृष्ण जानते न थे कि उनके मित्र उन्हें कहाँ ला रहे हैं। मित्र ने कहा था, कलार की दूकान पर जाओगे तो मेरे साथ आओ। वहाँ पर एक मटकी शराब है। मास्टर ने अपने मित्र से जो कुछ कहा था, प्रणाम करने के बाद श्रीरामकृष्ण को सब कह सुनाया। वे सभी हँसने लगे।

वे बोले, “भजनानन्द, ब्रह्मानन्द, यह आनन्द ही सुरा है, प्रेम की सुरा। मानवजीवन का उद्देश्य है ईश्वर से प्रेम, ईश्वर से प्यार करना। भक्ति ही सार है। ज्ञानविचार करके ईश्वर को जानना बहुत ही कठिन है।” यह कहकर श्रीरामकृष्ण गाना गाने लगे जिसका आशय इस प्रकार है -

“कौन जाने काली कैसी हैं? षड्दर्शन उन्हें देख नहीं सकते। इच्छामयी वे अपनी इच्छा के अनुसार घट घट में विराजमान हैं। यह विराट् ब्रह्माण्डरूपी भाण्ड जो काली के उदर में है उसे कैसा समझते हो? शिव ने काली का मर्म जैसा समझा वैसा दूसरा कौन जानता है? योगी सदा सहस्रार, मूलाधार में मनन करते हैं। काली पद्म-वन में हंस के साथ हंसी के रूप में रमण करती हैं। ‘प्रसाद’ कहता है, लोग हँसते हैं। मेरा मन समझता है, पर प्राण नहीं समझता - वामन होकर चन्द्रमा पकड़ना चाहता है।”

श्रीरामकृष्ण फिर कहते हैं, “ईश्वर से प्यार करना ही जीवन का उद्देश्य है। जिस प्रकार वृन्दावन में गोपगोपीगण, राखालगण श्रीकृष्ण से प्यार करते थे। जब श्रीकृष्ण मथुरा चले गए, राखालगण उनके विरह में रो-रोकर घूमते थे।”

इतना कहकर वे ऊपर की ओर ताकते हुए गाना गाने लगे -

(भावार्थ) - “एक नये राखाल को देख आया जो नये पेड़ की टहनी पकड़े छोटे बछड़े को गोद में लिए कह रहा है, ‘कहाँ हो रे भाई कन्हैया’! फिर ‘क’ कहकर ही रह जाता है, पूरा कन्हैया मुँह से नहीं निकलता। कह रहा है, ‘कहाँ हो रे भाई’ और आँखों से आँसू की धाराएँ निकल रही हैं।”

श्रीरामकृष्ण का प्रेमभरा गाना सुनकर मास्टर की आँखों में आँसू भर आए।

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