परिच्छेद ३९ - मणिरामपुर तथा बेलघर के भक्तों के साथ

(१)

श्रीमुख-कथित चरितामृत

श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर के अपने कमरे में कभी खड़े होकर, कभी बैठकर भक्तों के साथ वार्तालाप कर रहे हैं। आज रविवार, १० जून १८८३ ई. , ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी है। दिन के दस बजे का समय होगा। राखाल, मास्टर, लाटू, किशोरी, रामलाल, हाजरा आदि अनेक व्यक्ति उपस्थित हैं।

श्रीरामकृष्ण स्वयं अपने चरित्र का वर्णन कर अपनी पूर्वकथा सुना रहे हैं।

श्रीरामकृष्ण (भक्तों के प्रति) - उस देश में बचपन में मुझे स्त्री-पुरुष सभी चाहते थे। सभी मेरा गाना सुनते थे। फिर मैं लोगों की नकल उतार सकता था - लोग मेरा नकल उतारना देखते और सुनते थे। उनके घर की बहू-बेटियाँ मेरे लिए खाने की चीजें रख देती थीं। कोई मुझ पर अविश्वास न करता था। सभी घर के लड़के जैसा मानते थे।

“परन्तु मैं सुख पर लट्टू था। अच्छा सुखी घर देखकर आया-जाया करता था। जिस घर पर दुःख-विपत्ति देखता था, वहाँ से भाग जाता था।

“लड़कों में किसी को भला देखने पर उससे प्रेम करता था। और किसी किसी के साथ गहरी मित्रता जोड़ता था। परन्तु अब वे घोर संसारी बन गए हैं। अब उनमें से कोई कोई यहाँ पर आते हैं, आकर कहते हैं, ‘वाह खूब! पाठशाला में भी जैसा देखा, यहाँ पर भी वैसा ही देख रहे हैं।’

“पाठशाला में हिसाब देखकर सिर चकराता था, परन्तु चित्र अच्छा खींच सकता था और अच्छी मूर्तियाँ गढ़ सकता था।

“जहाँ भी सदावर्त, धर्मशाला देखता था वहीं पर जाता था - जाकर बहुत देर तक खड़ा देखता रहता था।

“कहीं पर रामायण या भागवत की कथा होने पर बैठकर सुनता था, परन्तु यदि कोई मुँह-हाथ बनाकर पढ़ता, तो उसकी नकल उतारता था और लोगों को सुनाता था।

“औरतों का चालचलन खूब समझ सकता था। उनकी बातें, स्वर आदि की नकल उतारता था।

“बदचलन औरतों को पहचान सकता था। विधवा है - पर सिर पर सीधी माँग है और बड़ी लगन से शरीर पर तेल की मालिश कर रही है। लज्जा कम, बैठने का ढंग ही दूसरा है।

“रहने दो विषयी लोगों की बातें!”

रामलाल को गाना गाने के लिए कह रहे हैं। रामलाल गा रहे हैं -

(भावार्थ) - “रणांगण में यह कौन मेघवर्ण नारी नाच रही है? मानो रुधिर-सरोवर में नवीन नलिनी तैर रही हो।”

अब रामलाल रावण-वध के बाद मन्दोदरी के विलाप का गाना गा रहे हैं -

(भावार्थ) - “हे कान्त, अबला के प्राणप्रिय, यह तुमने क्या किया! प्राणों का अन्त हुए बिना तो अब शान्ति नहीं मिलेगी! स्वर्णपुरी के सम्राट् होते हुए भी तुम आज धरती पर लेटे हो - यह देखकर भला तुम्हारी भार्या कैसे धीरज धर सकती है! स्वयं यमराज जहाँ दासत्व करें इतना बड़ा आधिपत्य स्वर्ग, मर्त्य, पाताल में और किसी का देखा गया है? जो इन्द्रादि की भी अधिश्वरी थी, वह तुम्हारी रानी आज संसार में भिखारिन बन गयी! उन नवीन जटाधारी वनविहारी को मनुष्य समझने के कारण तुमने सब कुछ खो डाला। स्वयं ब्रह्मा और ईशान जिनके चरणों की अभिलाषा रखते हैं, उन राम को हे राजा, तुमने माना ही नहीं। तुमने तो सुना था कि उनके चरण-स्पर्श से पाषाण भी नारी बन जाता है।”

आखिर का गाना सुनते सुनते श्रीरामकृष्ण आँसू बहा रहे हैं और कह रहे हैं - “मैंने झाऊतल्ले में शौच जाते समय सुना था, नाव के माँझी नाव में यही गाना गा रहे हैं। वहाँ जब तक बैठा रहा, केवल रो रहा था। लोग पकड़कर मुझे कमरे में लाए थे।”

फिर गाना चलने लगा -

(भावार्थ) - “सुना है राम तारकब्रह्म हैं, जटाधारी राम मनुष्य नहीं हैं। हे पिताजी, क्या वंश का नाश करने के लिए उनकी सीता को चुराया है?”

अक्रूर श्रीकृष्ण को रथ पर बैठाकर मथुरा ले जा रहे हैं। यह देख गोपियों ने रथचक्रों को जकड़कर पकड़ लिया है और उनमें से कोई कोई रथचक्र के सामने लेट गयी हैं। वे अक्रूर पर दोषारोपण कर रही हैं। वे नहीं जानतीं कि श्रीकृष्ण अपनी ही इच्छा से जा रहे हैं।

(भावार्थ) - “रथचक्र को न पकड़ो, न पकड़ो। क्या रथ चक्र से चलता है? जिनके चक्र से जगत् चलता है वे हरि ही इस चक्र के चक्री है।”

श्रीरामकृष्ण (भक्तों के प्रति) - अहा, गोपियों का यह कैसा प्रेम! श्रीमती राधिका ने अपने हाथ से श्रीकृष्ण का चित्र अंकित किया है, परन्तु पैर नहीं बनाया, कहीं वे वृन्दावन से मथुरा न भाग जाएँ!

“मैं इन सब गानों को बचपन में खूब गाता था। एक एक नाटक सारा का सारा गा सकता था। कोई कहता था कि मै कालीयदमन नाटक-दल में था।”

एक भक्त नयी चद्दर ओढ़कर आए हैं। राखाल का बालक जैसा स्वभाव है - कैंची लाकर उनकी चद्दर के किनारे के सूतों को काटने जा रहे हैं। श्रीरामकृष्ण बोले, “क्यों काटता है? रहने दे। शाल की तरह अच्छा दिखायी देता है। हाँ जी, इसका क्या दाम है?” उन दिनों विलायती चद्दरों का दाम कम था। भक्त ने कहा, “एक रुपया छः आना जोड़ी।” श्रीरामकृष्ण बोले, “क्या कहते हो! जोड़ी! एक रुपया छः आना जोड़ी!”

थोड़ी देर बाद श्रीरामकृष्ण भक्त से कह रहे हैं, “जाओ, गंगा स्नान कर लो! अरे, इन्हें तेल दो तो थोड़ा”!

स्नान के बाद जब वे लौटे तो श्रीरामकृष्ण ने ताक पर से एक आम लेकर उन्हे दिया। कहा, “यह आम इन्हें देता हूँ। तीन डिग्रियाँ पास हैं ये! अच्छा, तुम्हारा भाई अब कैसा है?”

भक्त - हाँ, दवा तो ठीक हो रही है, अब असर ठीक हो तो ठीक है!

श्रीरामकृष्ण - उसके लिए किसी नौकरी की व्यवस्था कर सकते हो? बुरा क्या है, तुम मुखिया बनोगे!

भक्त - स्वस्थ होने पर सभी सुविधाएँ हो जाएँगी।

(२)

साधन-भजन करो और व्याकुल होओ

श्रीरामकृष्ण भोजन के उपरान्त छोटे तख्त पर जरा बैठे हैं - अभी विश्राम करने का समय नहीं हुआ था। भक्तों का समागम होने लगा। पहले मणिरामपुर से भक्तों का एक दल आकर उपस्थित हुआ। एक व्यक्ति पी. डब्ल्यू. डी. में काम करते थे। इस समय पेन्शन पाते हैं। एक भक्त उन्हें लेकर आए हैं। धीरे धीरे बेलघर से भक्तों का एक दल आया। श्री मणि मल्लिक आदि भक्तगण भी धीरे धीरे आ पहुँचे।

मणिरामपुर के भक्तों ने कहा, “आपके विश्राम में विघ्न हुआ।”

श्रीरामकृष्ण बोले, “नहीं, नहीं, यह तो रजोगुण की बातें हैं कि वे अब सोएँगे।”

चाणक मणिरामपुर का नाम सुनकर श्रीरामकृष्ण को अपने बचपन के मित्र श्रीराम का स्मरण हुआ। श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, “श्रीराम की दूकान तुम्हारे वहीं पर है। श्रीराम मेरे साथ पाठशाला में पढ़ता था। थोड़े दिन हुए यहाँ पर आया था।”

मणिरामपुर के भक्तगण कह रहे हैं, “दया करके हमें जरा बता दीजिए कि किस उपाय से ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है।”

श्रीरामकृष्ण - थोड़ा साधन-भजन करना होता है। ‘दूध में मक्खन है’ केवल कहने से ही नहीं होता, दूध से दही बनाकर, मथन करके मक्खन उठाना पड़ता है। परन्तु बीच बीच में जरा निर्जन में रहना चाहिए।* कुछ दिन निर्जन में रहकर भक्ति प्राप्त करके उसके बाद फिर कहीं भी रहो। पैर में जूता पहनकर काँटेदार जंगल में भी आसानी से जाया जा सकता है।

“मुख्य बात है विश्वास। जैसा भाव वैसा लाभ, मूल बात है विश्वास। विश्वास हो जाने पर फिर भय नहीं होता।”

मणिरामपुर के भक्त - महाराज, गुरु क्या आवश्यक ही है?

श्रीरामकृष्ण - अनेकों के लिए आवश्यक है। परन्तु गुरुवाक्य में विश्वास करना पड़ता है। गुरु को ईश्वर मानना पड़ता है। तभी लाभ होता है। इसीलिए वैष्णव भक्त कहते हैं, - गुरु-कृष्ण-वैष्णव।

“उनका नाम सदा ही लेना चाहिए। कलि में नाम का माहात्म्य है। प्राण अन्नगत है, इसीलिए योग नहीं होता। उनका नाम लेकर ताली बजाने से पापरूपी पक्षी भाग जाते हैं।

“सत्संग सदा ही आवश्यक है। गंगाजी के जितने ही निकट जाओगे, उतनी ही ठण्डी हवा पाओगे। आग के जितने ही निकट जाओगे उतनी ही गर्मी होगी।

“सुस्ती करने से कुछ नहीं होगा। जिनकी सांसारिक विषयभोग की इच्छा है, वे कहते हैं, ‘होगा! कभी न कभी ईश्वर को प्राप्त कर लेंगे।’

“मैंने केशव सेन से कहा था, पुत्र को व्याकुल देखकर उसके पिता उसके बालिग होने के तीन वर्ष पहले ही उसका हिस्सा छोड़ देते हैं।

“माँ भोजन बना रही है, गोदी का बच्चा सो रहा है। माँ मुँह में चूसनी दे गयी है। जब चूसनी छोड़कर चीत्कार करके बच्चा रोता है, तब माँ हण्डी उतारकर बच्चे को गोदी में लेकर स्तनपान कराती है। ये सब बातें मैंने केशव सेन से कही थीं।

“कहते हैं, कलियुग में एक दिन एक रात भर रोने से ईश्वर का दर्शन होता है।

“मन में अभिमान करो और कहो, ‘तुमने मुझे पैदा किया है - दर्शन देना ही होगा!’

“गृहस्थी में रहो, अथवा कहीं भी रहो, ईश्वर मन को देखते हैं। विषयबुद्धिवाला मन मानो भीगी दियासलाई है, चाहे जितना रगड़ो कभी नहीं जलेगी। एकलव्य ने मिट्टी के बने द्रोण अर्थात् अपने गुरु की मूर्ति को सामने रखकर बाण चलाना सीखा था।

“कदम बढ़ाओ, - लकड़हारे ने आगे बढ़कर देखा था चन्दन की लकड़ी, चाँदी की खान, सोने की खान, और आगे बढ़कर देखा हीरा-मणि!

“जो लोग अज्ञानी हैं, वे मानो मिट्टी की दीवालवाले कमरे के भीतर हैं। भीतर भी रोशनी नहीं है और बाहर की किसी चीज को भी देख नहीं सकते! ज्ञान प्राप्त करके जो लोग संसार में रहते हैं वे मानो काँच के बने कमरे के भीतर हैं। भीतर रोशनी, बाहर भी रोशनी; भीतर की चीजों को भी देख सकते हैं और बाहर की चीजों को भी!

ब्रह्म और जगन्माता एक हैं

“एक के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। वे परब्रह्म जब तक ‘मैं-पन’ को रखते हैं, तब तक दिखाते हैं कि वे आद्याशक्ति के रूप में सृष्टि, स्थिति व प्रलय कर रहे हैं।

“जो ब्रह्म हैं, वे ही आद्याशक्ति हैं। एक राजा ने कहा था कि उसे एक ही बात में ज्ञान देना होगा। योगी ने कहा, ‘अच्छा, तुम एक ही बात में ज्ञान पाओगे।’ थोड़ी देर बाद राजा के यहाँ अकस्मात् एक जादूगर आ पहुँचा। राजा ने देखा, वह आकर सिर्फ दो उँगलियों को घुमा रहा है, कह रहा है, ‘राजा यह देख, यह देख।’ राजा विस्मित होकर देख रहा है! थोड़ी ही देर में दो उँगलियों की जगह एक ही उँगली रह गयी है। जादूगर एक उँगली घुमाता हुआ कह रहा है, ‘राजा, यह देख, यह देख।’ अर्थात् ब्रह्म और आद्याशक्ति पहले-पहल दो समझे जाते हैं, परन्तु ब्रह्मज्ञान होने पर फिर दो नहीं रह जाते। अभेद! एक! एक! अद्वितीय! अद्वैत!”

(३)

माया तथा मुक्ति

बेलघर से गोविन्द मुखोपाध्याय आदि भक्तगण आए है। श्रीरामकृष्ण जिस दिन उनके मकान पर पधारे थे, उस दिन गायक का “जागो, जागो, जननि” यह गाना सुनकर समाधिस्थ हुए थे। गोविन्द उस गायक को भी लाए हैं। श्रीरामकृष्ण गायक को देख आनन्दित हुए हैं और कह रहे हैं, “तुम कुछ गाना गाओ।” गायक इस आशय के गीत गा रहे हैं -

(१) “दोष किसी का नहीं है, माँ! मैं अपने ही खोदे हुए कुएँ के जल में डूबकर मर रहा हूँ।”

(२) “रे यम! मुझे न छूना, मेरी जात बिगड़ गयी है। यदि पूछता है कि मेरी जात कैसी बिगड़ी तो सुन, - उस सत्यानासी काली ने मुझे संन्यासी बना दिया है।”

(३) “जागो, जागो, जननि! कितने ही दिनों से कुलकुण्डलिनी मूलाधार में सो रही है। माँ, अपना काम साधने के लिए मस्तक में चलो, जहाँ पर सहस्रदल-पद्म में परमशिव विराजमान हैं। षट्चक्र को भेदकर, हे चैतन्यरूपिणि, मन के दुःख को मिटा दो।”

श्रीरामकृष्ण - इस गीत में षट्चक्र-भेद की बात है। ईश्वर बाहर भी हैं, भीतर भी हैं। वे भीतर से मन में अनेक प्रकार की लहरें उत्पन्न कर रहे हैं। षट्चक्र का भेद होने पर माया का राज्य छोड़, जीवात्मा परमात्मा के साथ एक हो जाता है। इसी का नाम है ईश्वरदर्शन।

“माया के रास्ता न छोड़ने पर ईश्वर का दर्शन नहीं होता। राम, लक्ष्मण और सीता एक साथ जा रहे हैं। सबसे आगे राम, बीच में सीता और पीछे लक्ष्मण हैं। जिस प्रकार सीता के बीच में रहने से लक्ष्मण राम को नहीं देख सकते, उसी प्रकार बीच में माया के रहने से जीव ईश्वर का दर्शन नहीं कर सकता। (मणि मल्लिक के प्रति) परन्तु ईश्वर की कृपा होने पर माया दरवाजे से हट जाती है, जिस प्रकार दरवान लोग कहते हैं, ‘साहब की आज्ञा हो तो इसे अन्दर जाने दूँ।’*

“दो मत हैं - वेदान्त मत और पुराण मत। वेदान्त मत में कहा है, ‘यह संसार धोखे की टट्टी है’ अर्थात् जगत् भूल है, स्वप्न की तरह है; परन्तु पुराण मत या भक्तिशास्त्र कहता है कि ईश्वर ही चौबीस तत्त्व बनकर विद्यमान हैं। भीतर-बाहर उन्हीं की पूजा करो।

“जब तक उन्होंने ‘मैं’-पन को रखा है, तब तक सभी हैं। फिर स्वप्नवत् कहने का उपाय नहीं है। नीचे आग जल रही है, इसीलिए बर्तन में दाल, चावल और आलू उबल रहे हैं, कूद रहे हैं और मानो कह रहे हैं, ‘मैं हूँ’ ‘मैं कूद रहा हूँ’। यह शरीर मानो बर्तन है, मन-बुद्धि जल है, इन्द्रियों के विषय मानो दाल, चावल और आलू हैं, ‘अहं’ मानो उनका अभिमान है कि मैं उबल रहा हूँ और सच्चिदानन्द अग्नि हैं।

“इसीलिए भक्तिशास्त्र में इस संसार को ‘मजे की कुटिया’ कहा है। रामप्रसाद के गाने में है, ‘यह संसार धोखे की टट्टी है।’ इसीलिए एक ने जवाब दिया था, ‘यह संसार मजे की कुटिया है।’ ‘काली का भक्त जीवन्मुक्त है, नित्यानन्दमय है।’ भक्त देखता है, जो ईश्वर हैं, वे ही माया बने हैं, वे ही जीव-जगत् बने हैं। भक्त ईश्वर-मायाजीव-जगत् सब को एक देखता है। कोई कोई भक्त सभी कुछ राममय देखते हैं। राम ही सब बने हैं। कोई राधाकृष्णमय देखते हैं। कृष्ण ही ये चौबीस तत्त्व बने हुए हैं, जिस प्रकार हरा चश्मा पहनने पर सभी कुछ हरा हरा दिखायी देता है।

“भक्ति के मत में, शक्ति के प्रकाश की न्यूनाधिकता होती है। राम ही सब कुछ बने हुए हैं, परन्तु कहीं पर अधिक शक्ति है और कहीं पर कम। अवतार में उनका एक प्रकार का प्रकाश है और जीव में दूसरे प्रकार का। अवतार को भी देह और बुद्धि है। माया के कारण ही शरीर धारण कर सीता के लिए राम रोए थे। परन्तु अवतार जान-बूझकर अपनी आँखों पर पट्टी बाँधते हैं, जैसे लड़के चोर-चोर खेलते हैं और माँ के पुकारते ही खेल बन्द कर देते हैं। जीव की बात अलग है। जिस कपड़े से आँखों पर पट्टी बँधी हुई है, वह कपड़ा पीछे से आठ गाँठों से बड़ी मजबूती से बँधा हुआ है। अष्ट पाश!* लज्जा, घृणा, भय, जाति, कुल, शील, शोक, जुगुप्सा (निन्दा) - ये आठ पाश हैं।*जब तक गुरु खोल नहीं देते, तब तक कुछ नहीं होता।”

(४)

सच्चे भक्त के लक्षण। व्याकुल होकर प्रार्थना करो। हठयोग : तथा राजयोग

बेलघर के भक्त - आप हम पर कृपा कीजिये।

श्रीरामकृष्ण - सभी के भीतर वे विद्यमान हैं, परन्तु गैस कम्पनी में अर्जी दो - तुम्हारे घर के साथ संयोग हो जाएगा।

“परन्तु व्याकुल होकर प्रार्थना करनी होगी। कहावत है, तीन प्रकार के प्रेम के आकर्षण एक साथ होने पर ईश्वर का दर्शन होता है, - सन्तान पर माता का प्रेम, सती स्त्री का स्वामी पर प्रेम और विषयी जीवों का विषय पर प्रेम।

“सच्चे भक्त के कुछ लक्षण हैं। वह गुरु का उपदेश सुनकर स्थिर हो जाता है; सँपेरे के संगीत को साधारण विषधर साँप स्थिर होकर सुनता है, परन्तु नाग नहीं। और दूसरा लक्षण, - सच्चे भक्त की धारणा-शक्ति होती है। केवल काँच पर चित्र खींचा नहीं जाता, किन्तु रसायनयुक्त काँच पर खींचा जाता है। जैसा फोटोग्राफ। भक्ति है वह रायायनिक द्रव्य।

“एक लक्षण और है। सच्चा भक्त जितेन्द्रिय होता है, कामजयी होता है। गोपियों में काम का संचार नहीं होता था।

“तुम लोग गृहस्थी में हो, रहो न, इससे साधन-भजन में और भी सुविधा है, मानो किले में से युद्ध करना। जिस समय शवसाधन करते हैं उस समय बीच बीच में शव मुँह खोलकर डराता है। इसलिए भुना हुआ चावल-चना रखना पड़ता है और उसके मुख में बीच बीच में देना पड़ता है। शव के शान्त होने पर निश्चिन्त होकर जप कर सकोगे। इसलिए घरवालों को शान्त रखना चाहिए। उनके खाने-पीने की व्यवस्था कर देनी पड़ती है, तब साधन-भजन की सुविधा होती है।

“जिनका भोग अभी कुछ बाकी है, वे गृहस्थी में रहकर ही ईश्वर का नाम लेंगे। नित्यानन्द कहा करते थे, ‘मागुर माछेर झोल, युवती नारीर कोल, बोल हरि बोल!’ - हरिनाम लेने से मागुर मछली की रसदार तरकारी तथा युवती नारी तुम्हें मिलेगी।

“सच्चे त्यागी की बात अलग है। मधुमक्खी फूल के अतिरिक्त और किसी पर भी नहीं बैठेगी। चातक की दृष्टि में सभी जल निःस्वाद हैं। वह दूसरे किसी भी जल को नहीं पीएगा, केवल स्वाति नक्षत्र की वर्षा के लिए ही मुँह खोले रहेगा। सच्चा त्यागी अन्य कोई भी आनन्द नहीं लेगा, केवल ईश्वर का आनन्द। मधुमक्खी केवल फूल पर बैठती है। सच्चे त्यागी साधु मधुमक्खी की तरह होते है। गृही भक्त मानो साधारण मक्खियाँ हैं। मिठाई पर भी बैठती हैं और फिर सड़े घाव पर भी।

“तुम लोग इतना कष्ट करके यहाँ पर आए हो, तुम ईश्वर को ढूँढ़ते फिर रहे हो। अधिकांश लोग बगीचा देखकर ही सन्तुष्ट रहते हैं, मालिक की खोज बिरले ही लोग करते हैं। जगत् के सौन्दर्य को ही देखते हैं, इसके मालिक को नहीं ढूढ़ँते।”

श्रीरामकृष्ण (गानेवाले को दिखाकर) - इन्होंने षट्चक्र का गाना गाया। वह सब योग की बातें हैं। हठयोग और राजयोग। हठयोगी कुछ शारीरिक कसरतें करता है; सिद्धियाँ प्राप्त करना, लम्बी उम्र प्राप्त करना तथा अष्ट-सिद्धि प्राप्त करना, ये सब उद्देश्य हैं। राजयोग का उद्देश्य है भक्ति, प्रेम, ज्ञान, वैराग्य। राजयोग ही अच्छा है।

“वेदान्त की सप्तभूमि और योगशास्त्र के षट्चक्र आपस में बहुतकुछ मिलतेजुलते हैं। वेद की प्रथम तीन भूमियाँ और योगशास्त्र के मूलाधार, स्वाधिष्ठान तथा मणिपुर चक्र एक हैं। इन तीन भूमियों में - गुह्य, लिंग तथा नाभि में - मन का निवास है। जिस समय मन चौथी भूमि पर अर्थात् अनाहत पर उठता है, उस समय जीवात्मा का शिखा की तरह देदीप्यमान रूप में दर्शन होता है, और ज्योति का दर्शन होता है। साधक कह उठता है - ‘यह क्या! यह क्या!’

“मन के पाँचवीं भूमि में उठने पर केवल ईश्वर की ही बात सुनने की इच्छा होती है। यहाँ पर विशुद्ध चक्र है। षष्ठ भूमि और आज्ञा चक्र एक ही हैं। वहाँ पर मन के जाने से ईश्वर का दर्शन होता है। परन्तु वह उसी प्रकार होता है जिस प्रकार लालटेन के भीतर रोशनी रहती है - छू नहीं सकते, क्योंकि बीच में काँच रहता है।

“जनक राजा पंचम भूमि पर से ब्रह्मज्ञान का उपदेश देते थे। वे कभी पंचम भूमि पर और कभी षष्ठ भूमि पर रहते थे।

“षट्चक्रभेद के बाद सप्तम भूमि है। मन वहाँ जाने पर लीन हो जाता है। जीवात्मा परमात्मा एक हो जाते हैं; समाधि हो जाती है। देहबुद्धि चली जाती है, बाह्यज्ञान नहीं रहता, अनेकत्व का बोध नष्ट हो जाता है और विचार बन्द हो जाता है।

“त्रैलंग स्वामी ने कहा था, विचार करते समय ही अनेकता तथा विभिन्नता का बोध होता है। समाधि के बाद अन्त में इक्कीस दिन में मृत्यु हो जाती है।

“परन्तु कुण्डलिनी न जागने पर चैतन्य प्राप्त नहीं होता।

ईश्वर-दर्शन के लक्षण

“जिसने ईश्वर को प्राप्त किया है, उसके कुछ लक्षण हैं। वह बालक की तरह, उन्मत्त की तरह, जड़ की तरह, या पिशाच की तरह बन जाता है और उसे सच्चा अनुभव होता है कि ‘मैं यन्त्र हूँ और वे यन्त्री हैं। वे ही कर्ता हैं, और सभी अकर्ता हैं।’ जिस प्रकार सिक्खों ने कहा था, पत्ता हिल रहा है, वह भी ईश्वर की इच्छा है। राम की इच्छा से ही सब कुछ हो रहा है - यह ज्ञान होता है। जैसे जुलाहे ने कहा था, ‘राम की इच्छा से ही कपड़े का दाम एक रुपया छः आना है; राम की इच्छा से ही डकैती हुई; राम की इच्छा से ही डाकू पकडे गये; राम की इच्छा से ही पुलिसवाले मुझे ले गए और फिर राम की ही इच्छा से मुझे छोड़ दिया।”

सन्ध्या निकट थी, श्रीरामकृष्ण ने थोड़ा भी विश्राम नहीं किया। भक्तों के साथ लगातार हरिकथा हो रही है। अब मणिरामपुर और बेलघर के तथा अन्य भक्तगण भूमिष्ठ होकर उन्हें प्रणाम कर देवालय में देवदर्शन के बाद अपने अपने स्थानों को लौटने लगे।

Last updated