परिच्छेद ५० - दक्षिणेश्वर मन्दिर में भक्तों के साथ

मणिमोहन को शिक्षा, ब्रह्मज्ञान के लक्षण। ध्यानयोग

श्रीरामकृष्ण अपनी छोटी खाट पर बैठे मसहरी के भीतर ध्यान कर रहे हैं। रात के सात-आठ बजे होंगे। मास्टर और उनके एक मित्र हरिबाबू जमीन पर बैठे हैं। आज सोमवार, तारीख २० अगस्त १८८३ ई. है।

आजकल हाजरा महाशय यहाँ रहते हैं। राखाल भी प्रायः रहा करते हैं - और कभी कभी अधर के यहाँ रहते हैं। नरेन्द्र, भवनाथ, अधर, बलराम, राम, मनोमोहन, मास्टर आदि प्रायः प्रति सप्ताह आया करते हैं।

हृदय ने श्रीरामकृष्ण की बड़ी सेवा की थी। वे घर पर बीमार हैं, यह सुनकर श्रीरामकृष्ण बहुत चिन्तित हुए हैं। इसीलिए एक भक्त ने राम चटर्जी के हाथ आज दस रुपये भेजे हैं - हृदय को भेजने के लिए। देने के समय श्रीरामकृष्ण वहाँ उपस्थित नहीं थे। वही भक्त एक लोटा भी लाए हैं। श्रीरामकृष्ण ने उनसे कहा था, “यहाँ के लिए एक लोटा लाना; भक्त लोग पानी पीएँगे।”

मास्टर के मित्र हरिबाबू को लगभग ग्यारह वर्ष हुए, पत्नीवियोग हुआ है। फिर उन्होंने विवाह नहीं किया। उनके मातापिता, भाई-बहन, सभी हैं। उन पर उनका बड़ा स्नेह हैं, और उनकी सेवा वे करते हें। उनकी आयु अट्ठाईस-उनतीस वर्ष होगी। भक्तों के आते ही श्रीरामकृष्ण मसहरी से बाहर आए। मास्टर आदि ने उनको भूमिष्ठ हो प्रणाम किया। मसहरी उठा दी गयी। आप छोटे तख्त पर बैठकर बातें करने लगे।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - मसहरी के भीतर ध्यान कर रहा था। फिर सोचा कि यह तो केवल एक रूप की कल्पना ही है।इसीलिए फिर अच्छा न लगा। अच्छा होता यदि ईश्वर बिजली की चमक की तरह अपने आपको झट से प्रकट करते। फिर मैंने सोचा, कौन ध्यान करनेवाला है, और ध्यान करूँ ही किसका?

मास्टर - जी हाँ। आपने कह दिया है कि ईश्वर ही जीव और जगत् आदि सब कुछ हुए हैं। जो ध्यान कर रहा है वह भी तो ईश्वर ही है।

श्रीरामकृष्ण - फिर बिना ईश्वर के कराए तो कुछ होनेवाला नहीं। वे अगर ध्यान कराए, तो ध्यान होगा। इस पर तुम्हारा क्या मत है?

मास्टर - जी, आप के भीतर ‘अहं’ का भाव नहीं है, इसीलिए ऐसा प्रतीत हो रहा है। जहाँ ‘अहं’ नहीं रहता वहाँ ऐसा ही हुआ करता है।

श्रीरामकृष्ण - पर ‘मैं दास हूँ, सेवक हूँ’ - इतना अहंभाव रहना अच्छा है। जहाँ यह बोध रहता है कि मैं ही सब कुछ कर रहा हूँ वहाँ ‘मैं दास हूँ और तुम प्रभु हो’ - यह भाव बहुत अच्छा है। जब सभी कुछ किया जा रहा है, तो सेव्यसेवक-भाव से रहना ही अच्छा है।

मास्टर सदा परब्रह्म के स्वरूप का चिन्तन करते हैं। इसीलिए श्रीरामकृष्ण उनको लक्ष्य करके फिर कह रहे हैं -

“ब्रह्म आकाश की तरह हैं। उनमें कोई विकार नहीं है। जैसे आग के कोई रंग नहीं है। पर हाँ, अपनी शक्ति के द्वारा वे विविध आकार के हुए हैं। सत्त्व, रज, तम - ये तीन गुण शक्ति ही के गुण हैं। आग में यदि सफेद रंग डाल दो, तो वह सफेद दिखेगी। यदि लाल रंग डाल दो, तो वह लाल दिखेगी। यदि काला रंग डाल दो, तो वह काली दिखेगी। ब्रह्म सत्त्व, रज और तम - इन तीनों गुणों से परे हैं। वे यथार्थ में क्या हैं, यह मुँह से नहीं कहा जा सकता। वे वाक्य से परे हैं। ‘नेति नेति’ (ब्रह्म यह नहीं, वह नहीं) करके विचार करते हुए जो बाकी रह जाता है, और जहाँ आनन्द है, वही ब्रह्म हैं।

“एक लड़की का पति आया है। वह अपने बराबरी के युवकों के साथ बाहरवाले कमरे में बैठा है। इधर वह लड़की और उसकी सहेलियाँ खिड़की से देख रही हैं। सहेलियाँ उसके पति को नहीं पहचानतीं। वे उस लड़की से पूछ रही है, ‘क्या वह तेरा पति है?’ लड़की मुसकराकर कहती है, - ‘नहीं।’ एक दूसरे युवक को दिखलाकर वे पूछती हैं, ‘क्या वह तेरा पति है?’ वह फिर कहती है - ‘नहीं।’ एक तीसरे युवक को दिखाकर वे फिर पूछती हैं, ‘क्या वह तेरा पति है?’ वह फिर कहती है - ‘नहीं।’ अन्त में उसके पति की ओर इशारा करके उन्होंने पूछा, ‘क्या वह तेरा पति है?’ तब उसने ‘हाँ’ या ‘नहीं’ कुछ नहीं कहा; केवल मुसकरायी और चुप्पी साध ली! तब सहेलियों ने समझा कि वही इसका पति है। जहाँ ठीक ब्रह्मज्ञान होता है, वहाँ सब चुप हो जाते हैं।

सत्संग। गृहस्थ के कर्तव्य

(मास्टर से) “अच्छा, मैं बकता क्यों हूँ?”

मास्टर - जैसा आपने कहा कि पके हुए घी में अगर कच्ची पूड़ी छोड़ दी जाय, तो फिर आवाज होने लगती है। आप बोलते हैं भक्तों का चैतन्य कराने के लिए।

श्रीरामकृष्ण मास्टर से हाजरा महाशय की चर्चा करते हैं।

श्रीरामकृष्ण - अच्छे मनुष्य का स्वभाव कैसा है, मालूम है? वह किसी को दुःख नहीं देता - किसी को झमेले में नहीं डालता। किसी-किसी का ऐसा स्वभाव है कि कहीं न्यौता खाने गया हो तो शायद कह दिया - मैं अलग बैठूँगा! ईश्वर पर यथार्थ भक्ति रहने से ताल के विरुद्ध पैर नहीं पड़ते - मनुष्य किसी को झूठमूठ कष्ट नहीं देता।

“दुष्ट लोगों का संग करना अच्छा नहीं। उनसे अलग रहना पड़ता है। अपने को उनसे बचाकर चलना पड़ता है। (मास्टर से) तुम्हारा क्या मत है?”

मास्टर - जी, दुष्टों के संग रहने से मन बहुत गिर जाता है। हाँ, जैसा आपने कहा, वीरों की बात दूसरी है।

श्रीरामकृष्ण - कैसे?

मास्टर - कम आग में थोड़ीसी लकड़ी डाल दो तो वह बुझ जाती है। पर धधकती हुई आग में केले का पेड़ भी झोंक देने से आग का कुछ नहीं बिगड़ता। वह पेड़ ही जलकर भस्म हो जाता है।

श्रीरामकृष्ण मास्टर के मित्र हरिबाबू की बात पूछ रहे हैं।

मास्टर - ये आपके दर्शन करने आये हैं। ये बहुत दिनों से विपत्नीक हैं।

श्रीरामकृष्ण (हरिबाबू से) - तुम क्या काम करते हो?

मास्टर ने उनकी ओर से कहा, “ऐसा कुछ नहीं करते, पर अपने माता-पिता, भाई-बहन आदि की बड़ी सेवा करते हैं।”

श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - यह क्या है! तुम तो ‘कुम्हड़ा काटनेवाले जेठजी’ बने! तुम न संसारी हुए, न हरिभक्त। यह अच्छा नहीं। किसी किसी परिवार में एक पुरुष होता है, जो रातदिन लड़के-बच्चों से घिरा रहता है। वह बाहरवाले कमरे में बैठकर खाली तम्बाकू पिया करता है। निकम्मा ही बैठा रहता है। हाँ, कभी कभी अन्दर जाकर कुम्हड़ा काट देता है! स्त्रियों के लिए कुम्हड़ा काटना मना है। इसीलिए वे लड़कों से कहती हैं, ‘जेठजी को यहाँ बुला लाओ, वे कुम्हड़ा काट देंगे।’ तब वह कुम्हड़े के दो दुकड़े कर देता है! बस, यहीं तक मर्द का व्यवहार है। इसलिए उसका नाम ‘कुम्हड़ा काटनेवाले जेठजी’ पड़ा है।

“तुम यह भी करो, वह भी करो। ईश्वर के चरणकमलों में मन रखकर संसार का कामकाज करो। और जब अकेले रहो तब भक्तिशास्त्र पढ़ा करो - जैसे श्रीमद्भागवत या चैतन्यचरितामृत आदि।”

रात के लगभग दस बजे हैं। अभी कालीमन्दिर बन्द नहीं हुआ है। मास्टर ने राम चटर्जी के साथ जाकर पहले राधाकान्त के मन्दिर में और फिर कालीमाता के मन्दिर में प्रणाम किया। चाँद निकला था। श्रावण की कृष्णा द्वितीया थी। आँगन और मन्दिरों के शीर्ष बड़े सुन्दर दिखते थे।

श्रीरामकृष्ण के कमरे में लौटकर मास्टर ने देखा कि वे भोजन करने बैठ रहे हैं। वे दक्षिण की ओर मुँह करके बैठे। थोड़ा सूजी का पायस और एक-दो पतली पूड़ियाँ - बस यही भोजन था। थोड़ी देर बाद मास्टर और उनके मित्र ने श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके बिदा ली। वे उसी दिन कलकत्ते लौट जाएँगे।

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