परिच्छेद ४२ - पानीहाटी महोत्सव में

(१)

कीर्तनानन्द में

श्रीरामकृष्ण पानीहाटी के महोत्सव में राजपथ पर बहुत लोगों से घिरे हुए संकीर्तनदल के बीच में नृत्य कर रहे हैं। दिन का एक बजा है। आज सोमवार, ज्येष्ठ शुक्ला त्रयोदशी तिथि है। तारीख १८ जून १८८३ ई. ।

संकीर्तन के बीच में श्रीरामकृष्ण के दर्शन करने के लिए चारों ओर लोग कतार बाँधकर खड़े हैं। श्रीरामकृष्ण प्रेम में मतवाले हो नाच रहे हैं। कोई कोई सोच रहे हैं कि क्या श्रीगौरांग फिर प्रकट हुए हैं! चारों ओर हरि-ध्वनि सागर की तरंगों के समान उमड़ रही है। चारों ओर से लोग फूल बरसा रहे हैं और बतासे लुटा रहे हैं।

श्री नवद्वीप गोस्वामी संकीर्तन करते हुए राघव पण्डित के मन्दिर की ओर आ रहे थे कि एकाएक श्रीरामकृष्ण दौड़कर उनसे आ मिले और नाचने लगे।

यह राघव पण्डित का ‘चिउड़े का महोत्सव’ है। शुक्लपक्ष की त्रयोदशी तिथि पर प्रतिवर्ष महोत्सव होता है। इस महोत्सव को पहले दास रघुनाथ ने किया था। उसके बाद राघव पण्डित प्रतिवर्ष करते थे। दास रघुनाथ से नित्यानन्द ने कहा था, “अरे, तू घर से केवल भाग-भागकर आता है, और हमसे छिपाकर प्रेम का स्वाद लेता रहता है! हमें पता तक नहीं लगने देता! आज तुझे दण्ड दूँगा; तू चिउड़े का महोत्सव करके भक्तों की सेवा कर।” श्रीरामकृष्ण प्रायः प्रतिवर्ष यहाँ आते हैं, आज भी यहाँ राम आदि भक्तों के साथ आनेवाले थे। राम सबेरे मास्टर के साथ कलकत्ते से दक्षिणेश्वर आये। श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर वहीं उत्तरवाले बरामदे में उन्होंने प्रसाद पाया। राम कलकत्ते से जिस गाड़ी पर आये थे, उसी पर श्रीरामकृष्ण पानीहाटी आये। राखाल, मास्टर, राम, भवनाथ तथा और भी दो-एक भक्त उनके साथ थे।

गाड़ी मैगजीन रोड से होकर चानक के बड़े रास्ते पर आयी। जाते जाते श्रीरामकृष्ण बालक भक्तों से विनोद करने लगे।

पानीहाटी के महोत्सव-स्थल पर गाड़ी पहुँचते ही राम आदि भक्त यह देखकर विस्मित हुए कि श्रीरामकृष्ण जो अभी गाड़ी में विनोद कर रहे थे, एकाएक अकेले ही उतरकर बड़े वेग से दौड़ रहे हैं। बहुत ढूँढ़ने पर उन्होंने देखा कि वे नवद्वीप गोस्वामी के संकीर्तन के दल में नृत्य कर रहे हैं और बीच बीच में समाधिस्थ भी हो रहे हैं। समाधि की दशा में कहीं वे गिर न पड़ें, इसलिए नवद्वीप गोस्वामी उन्हें बड़े यत्न से सम्हाल रहे हैं। चारों ओर भक्तगण हरि-ध्वनि कर उनके चरणों पर फूल और बतासे चढ़ा रहे हैं और एक बार उनके दर्शन पाने के लिए धक्कमधक्का कर रहे हैं।

श्रीरामकृष्ण अर्धबाह्य दशा में नृत्य कर रहे हैं। फिर बाह्य दशा में आकर वे गाने लगे-

(भावार्थ) - “हरि का नाम लेते ही जिनकी आँखों से आँसुओं की झड़ी लग जाती है, वे दोनों भाई आये हैं; जो स्वयं नाचकर जगत् को नचाते हैं, वे दोनों भाई आये हैं जो स्वयं रोकर जगत् को रुलाते हैं, और जो मार खाकर भी प्रेम की याचना करते हैं, वे आये हैं”!

श्रीरामकृष्ण के साथ सब उन्मत्त हो नाच रहे हैं, और अनुभव कर रहे हैं कि गौरांग और निताई हमारे सामने नाच रहे हैं।

श्रीरामकृष्ण फिर गाने लगे -

(भावार्थ) - “गौरांग के प्रेम के हिलोरों से नवद्वीप डाँवाडोल हो रहा है।”

संकीर्तन की तरंग राघव के मन्दिर की ओर बढ़ रही है। वहाँ परिक्रमा और नृत्य आदि करने के बाद श्रीविग्रह को प्रणाम कर वह तरंगायित जनसंघ गंगातट पर अवस्थित श्रीराधाकृष्ण के मन्दिर की ओर बढ़ रहा है।

संकीर्तनकारों में से कुछ ही लोग श्रीराधाकृष्ण के मन्दिर में घुस पाये हैं। अधिकांश लोग दरवाजे से ही एक दूसरे को ढकेलते हुए झाँक रहे हैं।

श्रीरामकृष्ण श्रीराधाकृष्ण के आँगन में फिर नाच रहे हैं। कीर्तनानन्द में बिलकुल मस्त हैं! बीच बीच में समाधिस्थ हो रहे हैं और चारों ओर से फूल-बतासे चरणों पर पड़ रहे हैं। आँगन के भीतर बारम्बार हरि-ध्वनि हो रही है। वही ध्वनि सड़क पर आते ही हजारों कण्ठों से उच्चारित होने लगी। गंगा पर नावों से आने-जानेवाले लोग चकित होकर इस सागर-गर्जन के समान उठती हुई ध्वनि को सुनने लगे और वे स्वयं भी ‘हरिबोल’ ‘हरिबोल’ कहने लगे।

पानीहाटी के महोत्सव में एकत्रित हजारों नर-नारी सोच रहे है कि इन महापुरुष के भीतर निश्चित ही श्रीगौरांग का आविर्भाव हुआ है। दो-एक आदमी यह विचार कर रहे हैं कि शायद ये ही साक्षात् गौरांग हों।

छोटेसे आँगन में बहुतसे लोग एकत्रित हुए हैं। भक्तगण बड़े यत्न से श्रीरामकृष्ण को बाहर लाये।

श्रीरामकृष्ण श्री मणि सेन की बैठक में आकर बैठे। इन्हीं सेन परिवारवालों की ओर से पानीहाटी में श्रीराधाकृष्ण की सेवा होती है। वे ही प्रतिवर्ष महोत्सव का आयोजन करते हैं और श्रीरामकृष्ण को निमन्त्रण देते हैं।

श्रीरामकृष्ण के कुछ विश्राम करने के बाद मणि सेन और उनके गुरुदेव नवद्वीप गोस्वामी ने उनको अलग ले जाकर प्रसाद लाकर भोजन कराया। कुछ देर बाद राम, राखाल, मास्टर, भवनाथ आदि भक्त एक दूसरे कमरे में बिठाये गये। भक्तवत्सल श्रीरामकृष्ण स्वयं खड़े हो आनन्द करते हुए उनको खिला रहे हैं।

(२)

श्रीगौरांग का महाभाव, प्रेम और तीन अवस्थाएँ।

दोपहर का समय है। राखाल, राम आदि भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण मणि सेन की बैठक में विराजमान हैं। नवद्वीप गोस्वामी भोजन करके श्रीरामकृष्ण के पास आ बैठे हैं।

मणि सेन ने श्रीरामकृष्ण को गाड़ी का किराया देना चाहा। श्रीरामकृष्ण बैठक में एक कोच पर बैठै हैं, “और कहते हैं गाड़ी का किराया वे लोग (राम आदि) क्यों लेंगे? वे तो पैसा कमाते हैं।”

अब श्रीरामकृष्ण नवद्वीप गोस्वामी से ईश्वरी प्रसंग करने लगे।

श्रीरामकृष्ण (नवद्वीप से) - भक्ति के परिपक्व होने पर भाव होता है, फिर महाभाव, फिर प्रेम, फिर वस्तु (ईश्वर) का लाभ होता है।

“गौरांग को महाभाव और प्रेम हुआ था।

“इस प्रेम के होने पर मनुष्य जगत् को तो भूल ही जाता है, बल्कि अपना शरीर, जो इतना प्रिय है, उसकी भी सुधि नहीं रहती। गौरांग को यह प्रेम हुआ था। समुद्र को देखते ही यमुना समझकर वे उसमें कूद पड़े!

“जीवों को महाभाव या प्रेम नहीं होता, उनको भाव तक ही होता है। फिर गौरांग को तीन अवस्थाएँ होती थीं।”

नवद्वीप - जी हाँ। अन्तर्दशा, अर्धबाह्य दशा और बाह्य दशा।

श्रीरामकृष्ण - अन्तर्दशा में वे समाधिस्थ रहते थे, अर्धबाह्य दशा में केवल नृत्य कर सकते थे, और बाह्य दशा में नामसंकीर्तन करते थे।

नवद्वीप ने अपने लड़के को लाकर श्रीरामकृष्ण से परिचित करा दिया। वे तरुण हैं - शास्त्र का अध्ययन करते हैं। उन्होंने श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया।

नवद्वीप - यह घर में शास्त्र पढ़ता है। इस देश में वेद एक प्रकार से अप्राप्य ही थे। मैक्समूलर ने उन्हें छपवाया, इसी से तो लोग अब उनको पढ़ सकते है।

पाण्डित्य और शास्त्र

श्रीरामकृष्ण - अधिक शास्त्र पढ़ने से और भी हानि होती है।

“शास्त्र का सार जान लेना चाहिए। फिर ग्रन्थ की क्या आवश्यकता है?

“शास्त्र का सार जान लेने पर डुबकी लगानी चाहिए - ईश्वर का लाभ करने के लिए।

“मुझे माँ ने बतला दिया है कि वेदान्त का सार है - ‘ब्रह्म सत्य और जगत् मिथ्या।’ गीता का सार क्या है? दस बार ‘गीता’ शब्द कहने से जो हो वही - अर्थात् त्यागी, त्यागी।

नवद्वीप - ठीक ‘त्यागी’ नहीं बनता, ‘तागी’ होता है। फिर उसका भी अर्थ वही है। ‘तग्’ धातु और ‘घञ्’ प्रत्यय =ताग उस पर ‘इन्’ प्रत्यय लगाने पर ‘तागी’ बनता है। ‘त्यागी’ का अर्थ जो है, ‘तागी’ का भी वही है।

श्रीरामकृष्ण - गीता का सार यही है कि हे जीव, सब त्यागकर भगवान का लाभ करने के लिए साधना करो।

नवद्वीप - त्याग की ओर तो मन नहीं जाता!

श्रीरामकृष्ण - तुम लोग गोस्वामी हो, तुम्हारे यहाँ देवसेवा होती है, - तुम्हारे संसार-त्याग करने पर काम नहीं चलेगा। ऐसा करने से देवसेवा कौन करेगा? तुम लोग मन से त्याग करना।

“ईश्वर ही ने लोकशिक्षा के लिए तुम लोगों को संसार में रखा है। तुम हजार संकल्प करो, त्याग नहीं कर सकोगे। उन्होंने तुम्हें ऐसी प्रकृति दी है कि तुम्हें संसार का कामकाज करना ही पड़ेगा।

“श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा - ‘युद्ध नहीं करूँगा’ यह तुम क्या कह रहे हो? इच्छा करने ही से तुम युद्ध से निवृत्त न हो सकोगे। तुम्हारी प्रकृति तुमसे युद्ध करायेगी।”

श्रीकृष्ण अर्जुन से बातें कर रहे हैं - यह कहते ही श्रीरामकृष्ण फिर समाधिस्थ हो रहे हैं। बात ही बात में सब अंग स्थिर हो गये। आँखें एकटक हो गयीं। साँस चल रही है कि नहीं - जान नहीं पड़ता।

नवद्वीप गोस्वामी, उनके लड़के और भक्तगण निर्वाक् हो यह दृश्य देख रहे हैं।

कुछ प्रकृतिस्थ हो श्रीरामकृष्ण नवद्वीप से कहते हैं -

“योग और भोग। तुम लोग गोस्वामी वंश के हो, तुम लोगों के लिए दोनों हैं।

“अब केवल प्रार्थना, हार्दिक प्रार्थना करो कि हे ईश्वर, तुम्हारी इस भुवनमोहिनी माया के ऐश्वर्य को मैं नहीं चाहता, - मैं तुम्हें चाहता हूँ।

“ईश्वर तो सब प्राणियों में हैं। फिर भक्त किसे कहते हैं? जो ईश्वर में रहता है, जिसका मन, प्राण, अन्तरात्मा - सब कुछ उसमें लीन हो गया है।”

अब श्रीरामकृष्ण सहज दशा में आ गये हैं। नवद्वीप से कहते हैं -

“मुझे यह जो अवस्था (समाधि-अवस्था) होती है, इसे कोई कोई रोग कहते हैं। इस पर मेरा कहना यह है कि जिसके चैतन्य से जगत् चैतन्यमय है उसकी चिन्ता कर कोई अचैतन्य कैसे हो सकता है?”

मणि सेन अभ्यागत ब्राह्मणों और वैष्णवों को बिदा कर रहे हैं - उनकी मर्यादा के अनुसार किसी को एक रुपया, किसी को दो रुपये बिदाई देते हैं। श्रीरामकृष्ण को पाँच रुपये देने आये। आप बोले, “मुझे रुपये न लेने चाहिए।” तो भी मणि सेन नहीं मानते। तब श्रीरामकृष्ण ने कहा, “यदि रुपये दोगे तो तुम्हें तुम्हारे गुरु की शपथ है।” मणि सेन इतने पर भी देने आये। तब श्रीरामकृष्ण ने अधीर होकर मास्टर से कहा, “क्यों जी, लेना चाहिए?” मास्टर ने बड़ी आपत्ति करते हुए कहा, “जी नहीं! किसी हालत में न लें!”

मणि सेन के घरवालों ने तब आम और मिठाई खरीदने के नाम पर राखाल के हाथ में रुपये दिए।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - मैंने गुरु की शपथ दी है - मैं अब मुक्त हूँ। राखाल ने रुपये लिए हैं - अब वह जाने!

श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ गाड़ी पर बैठे - दक्षिणेश्वर लौट जाएँगे।

निराकार ध्यान और श्रीरामकृष्ण

मार्ग में मोती शील का मन्दिर है। श्रीरामकृष्ण बहुत दिनों से मास्टर से कहते आए हैं कि एक साथ आकर इस मन्दिर की झील को देखेंगे - यह सिखलाने के लिए कि निराकार ध्यान कैसे करना चाहिए।

श्रीरामकृष्ण को खूब सर्दी हुई है, तथापि भक्तों के साथ मन्दिर देखने के लिए गाड़ी से उतरे।

मन्दिर में श्रीगौरांग की पूजा होती है। अभी सन्ध्या होने में कुछ देर है। श्रीरामकृष्ण ने भक्तों के साथ गौरांग-मूर्ति के सम्मुख भूमिष्ठ होकर प्रणाम किया।

अब मन्दिर के पूर्व की ओर जो झील है, उसके घाट पर आकर झील का पानी और मछलियों को देख रहे हैं। कोई इन मछलियों की हिंसा नहीं करता। कुछ चारा फेंकने पर बड़ी बड़ी मछलियाँ झुण्ड के झुण्ड सामने आकर खाने लगती हैं - फिर निर्भय होकर आनन्द से पानी में घूमती-फिरती हैं।

श्रीरामकृष्ण मास्टर से कहते हैं, “यह देखो कैसी मछलियाँ हैं! चिदानन्द-सागर में इन मछलियों की तरह आनन्द से विचरण करो।”

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