परिच्छेद ११ - दक्षिणेश्वर में भक्तों से वार्तालाप

(१)

श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर में विराजमान हैं। दिन के नौ बजे होंगे। अपनी छोटी खाट पर वे विश्राम कर रहे हैं। फर्श पर मणि बैठे हैं। उनसे श्रीरामकृष्ण वार्तालाप कर रहे हैं।

आज विजया-दशमी है; रविवार, २२ अक्टूबर १८८२। आजकल राखाल श्रीरामकृष्ण के पास रहते हैं। नरेन्द्र और भवनाथ कभी कभी आया करते हैं। श्रीरामकृष्ण के साथ उनके भतीजे रामलाल और हाजरा महाशय रहते हैं। राम, मनोमोहन, सुरेश, मास्टर और बलराम प्रायः हर हप्ते श्रीरामकृष्ण के दर्शन कर जाते हैं। बाबूराम अभी एक-दो ही बार दर्शन कर गए हैं।

श्रीरामकृष्ण - तुम्हारी पूजा की छुट्टी हो गयी?

मणि - जी हाँ। मैं सप्तमी, अष्टमी और नवमी को प्रतिदिन केशव सेन के घर गया था।

श्रीरामकृष्ण - क्या कहते हो?

मणि - दुर्गापूजा की अच्छी व्याख्या सुनी।

श्रीरामकृष्ण - कैसी, कहो तो।

मणि - केशव सेन के घर में रोज सुबह को उपासना होती है; - दस-ग्यारह बजे तक। उसी उपासना के समय उन्होंने दुर्गापूजा की व्याख्या की थी। उन्होंने कहा, यदि माता दुर्गा को कोई प्राप्त कर सके - यदि माता को कोई हृदय-मन्दिर में ला सके, तो लक्ष्मी, सरस्वती, कार्तिक, गणेश स्वयं आते हैं। लक्ष्मी अर्थात् ऐश्वर्य; सरस्वती - ज्ञान; कार्तिक - विक्रम; गणेश - सिद्धि; ये सब आप ही मिल जाते हैं - यदि माँ आ जायँ तो।

श्रीरामकृष्ण के अन्तरंग भक्त

श्रीरामकृष्ण सारा वर्णन सुन गए। बीच बीच में केशव की उपासना के सम्बन्ध में प्रश्न करने लगे। अन्त में कहा - “तुम यहाँ-वहाँ न जाया करो, यहीं आना।

“जो अन्तरंग हैं वे केवल यहीं आएँगे। नरेन्द्र, भवनाथ, राखाल हमारे अन्तरंग भक्त हैं, सामान्य नहीं। तुम एक दिन इन्हें भोजन कराना। नरेन्द्र को तुम कैसा समझते हो?”

मणि - जी, बहुत अच्छा।

श्रीरामकृष्ण - देखो नरेन्द्र में कितने गुण हैं, - गाता है, बजाता है, विद्वान् है और जितेन्द्रिय है, कहता है - विवाह न करूँगा; बचपन से ही ईश्वर में मन है।

साकार अथवा निराकार चिन्मय मूर्तिध्यान मातृध्यान

श्रीरामकृष्ण (मणि से) - आजकल तुम्हारे ईश्वर-स्मरण का क्या हाल है? मन साकार पर जाता है या निराकार पर?

मणि - जी, अभी तो मन साकार पर नहीं जाता। और इधर निराकार में मन को स्थिर नहीं कर सकता।

श्रीरामकृष्ण - देखो, निराकार में तत्काल मन स्थिर नहीं होता। पहले पहले तो साकार अच्छा है।

मणि - मिट्टी की इन सब मूर्तियों की चिन्ता करना?

श्रीरामकृष्ण - नहीं नहीं, चिन्मयी मूर्ति की।

मणि - तो भी हाथ-पैर तो सोचने ही पड़ेंगे। परन्तु यह भी सोचता हूँ कि पहली अवस्था में किसी रूप की चिन्ता किए बिना मन स्थिर न होगा, यह आपने कह भी दिया है। अच्छा वे तो अनेक रूप धारण कर सकते हैं; तो क्या अपनी माता के स्वरूप का ध्यान किया जा सकता है?

श्रीरामकृष्ण - हाँ। वे (माँ) गुरु तथा ब्रह्ममयी हैं।

मणि चुप बैठे रहे। कुछ देर बाद, फिर श्रीरामकृष्ण से पूछने लगे।

मणि - अच्छा, निराकार में क्या दिखता है? क्या इसका वर्णन नहीं किया जा सकता?

श्रीरामकृष्ण (कुछ सोचकर) - वह कैसा है बताऊँ? -

यह कहकर श्रीरामकृष्ण कुछ देर चुप बैठे रहे। फिर साकार और निराकार दर्शन में कैसा अनुभव होता है, इस सम्बन्ध की एक बात कह दी और फिर चुप हो रहे।

श्रीरामकृष्ण - देखो, इसको ठीक ठीक समझने के लिए साधना चाहिए। यदि घर के भीतर के रत्न देखना चाहते हो और लेना चाहते हो, तो मेहनत करके कुंजी लाकर दरवाजे का ताला खोलो और रत्न निकालो। नहीं तो घर में ताला लगा हुआ है और द्वार पर खड़े हुऐ सोच रहे हैं, - ‘लो, हमने दरवाजा खोला, सन्दूक का ताला तोड़ा, अब यह रत्न निकाल रहे हैं।’ सिर्फ खड़े खड़े सोचने से काम न चलेगा। साधना करनी चाहिए।

(२)

अनन्त श्रीरामकृष्ण तथा अनन्त ईश्वर! सभी मार्ग हैं - श्रीवृन्दावन-दर्शन ज्ञानी तथा अवतारवाद

श्रीरामकृष्ण - ज्ञानी निराकार का चिन्तन करते हैं। वे अवतार नहीं मानते। अर्जुन ने श्रीकृष्ण की स्तुति में कहा, तुम पूर्णब्रह्म हो। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि आओ, देखो, हम पूर्णब्रह्म हैं या नहीं। यह कहकर श्रीकृष्ण अर्जुन को एक जगह ले गए और पूछा, तुम क्या देखते हो? अर्जुन बोला, मैं एक बड़ा पेड़ देख रहा हूँ जिसमें जामुन के से गुच्छे के गुच्छे फल लगे हैं। श्रीकृष्ण ने कहा कि और भी पास आकर देखो; वे काले फल नहीं, गुच्छे के गुच्छे अनगिनती कृष्ण फले हुए हैं - मुझ जैसे। अर्थात् उस पूर्णब्रह्मरूपी वृक्ष से करोड़ों अवतार होते हैं और चले जाते हैं।

“कबीरदास का रुख निराकार की ओर था। श्रीकृष्ण की चर्चा होती तो कबीरदास कहते, ‘उसे क्या भजूँ? - गोपियाँ तालियाँ पीटती थीं और वह बन्दर की तरह नाचता था।’ (हँसते हुए) मैं साकारवादियों के निकट साकार हूँ और निराकारवादियों के निकट निराकार।”

मणि (हँसकर) - जिनकी बात हो रही है वे (ईश्वर) जैसे अनन्त हैं आप भी वैसे ही अनन्त हैं! - आपका अन्त ही नहीं मिलता।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - वाह रे, तुम तो समझ गए! सुनो एक बार सब धर्म कर लेने चाहिए; सब मार्गों से आना चाहिए। खेलने की गोटी सब घर बिना पार किए कहीं लाल होती है? गोटी जब लाल होती है, तब कोई उसे नहीं छू पाता।

मणि - जी हाँ।

कुटीचक। तीर्थयात्रा का उद्देश्य

श्रीरामकृष्ण - योगी दो प्रकार के हैं - बहूदक और कुटीचक। जो साधु तीर्थों में घूम रहा है, जिसके मन को अभी तक शान्ति नहीं मिली, उसे बहूदक कहते हैं, और जिसने चारों ओर घूमकर मन को स्थिर कर लिया है - जिसे शान्ति मिल गयी है - वह किसी एक जगह आसन जमा देता है, फिर नहीं हिलता। उसी एक ही जगह बैठे उसे आनन्द मिलता है। उसे तीर्थ जाने की कोई आवश्यकता नहीं। यदि वह तीर्थ जाए तो केवल उद्दीपना के लिए जाता है।

“मुझे एक बार सब धर्म करने पड़े थे, - हिन्दू, मुसलमान, क्रिस्तान, - इधर शाक्त, वैष्णव, वेदान्त, इन सब रास्तों से भी आना पड़ा है। ईश्वर वही एक हैं - उन्हीं की ओर सब चल रहे हैं, भिन्न भिन्न मार्गों से।

“तीर्थ करने गया तो कभी कभी बड़ी तकलीफ होती थी। काशी में मथुरबाबू आदि के साथ राजाबाबुओं की बैठक में गया। वहाँ देखा - सभी लोग विषयों की बातों में लगे हैं! रुपया, जमीन, यही सब बातें। उनकी बातें सुनकर मैं रो पड़ा। माँ से कहा - माँ! तू मुझे कहाँ लायी? दक्षिणेश्वर में तो मैं बहुत अच्छा था। प्रयाग में देखा, - वही तालाब, वही दूब, वही पेड़, वही इमली के पत्ते!

“परन्तु तीर्थ में उद्दीपन अवश्य होता है। मथुरबाबू के साथ वृन्दावन गया। मथुरबाबू के घर की स्त्रियाँ भी थीं; हृदय भी था। कालीयदमन घाट देखते ही उद्दीपना होती थी, - मैं विह्वल हो जाता था! हृदय मुझे यमुना के घाट में बालक की तरह नहलाता था।

“सन्ध्या को यमुना के तट पर घूमने जाया करता था। यमुना के कछार से उस समय गायें चरकर लौटती थीं। देखते ही मुझे कृष्ण की उद्दीपना हुई, पागल की तरह दौड़ने लगा, ‘कहाँ कृष्ण, कृष्ण कहाँ,’ कहते हुए।

“पालकी पर चढ़कर श्यामकुण्ड और राधाकुण्ड के रास्ते जा रहा था, गोवर्धन देखने के लिए उतरा, गोवर्धन देखते ही बिलकुल विह्वल हो गया, दौड़कर गोवर्धन पर चढ़ गया; बाह्य ज्ञान जाता रहा। तब व्रजवासी जाकर मुझे उतार लाए। श्यामकुण्ड और राधाकुण्ड के मार्ग का मैदान, पेड़-पौधे, हरिण और पक्षियों को देख विकल हो गया था; आसुओं से कपड़े भीग गए थे; मन में यह आता था कि ऐ कृष्ण, यहाँ सभी कुछ है, केवल तू ही नहीं दिखायी पड़ता। पालकी के भीतर बैठा था, परन्तु एक बात कहने की भी शक्ति नहीं थी, चुपचाप बैठा था। हृदय पालकी के पीछे आ रहा था। कहारों से उसने कह दिया था, खूब होशियार रहना।

“गंगामाई मेरी खूब देखभाल करती थी। उम्र बहुत थी। निधुवन के पास एक कुटी में अकेली रहती थी। मेरी अवस्था और भाव देखकर कहती थी, ये साक्षात् राधिका हैं - शरीर धारण करके आए हैं मुझे दुलारी कहकर बुलाती थी। उसे पाते ही मैं खाना-पीना, घर लौटना सब भूल जाता था। कभी कभी हृदय वहीं भोजन ले जाकर मुझे खिला आता था। वह भी खाना पकाकर खिलाती थी।

“गंगामाई को भावावेश होता था। उसका भाव देखने के लिए लोगों की भीड़ जम जाती थी। भावावेश में एक दिन हृदय के कन्धे पर चढ़ी थी।

“गंगामाई के पास से देश लौटने की मेरी इच्छा न थी। वहाँ सब ठीक हो गया; मैं सिद्ध (भुँजिया) चावल का भात खाऊँगा, गंगामाई का बिस्तरा घर में एक ओर लगेगा, मेरा दूसरी ओर। सब ठीक हो गया। तब हृदय बोला, तुम्हें पेट की शिकायत है, कौन देखेगा? गंगामाई बोली, क्यों, मैं देखूँगी, मैं सेवा करूँगी। एक हाथ पकड़कर हृदय खींचने लगा और दूसरा हाथ पकड़कर गंगामाई। ऐसे समय माँ की याद आ गयी! माँ अकेली कालीमन्दिर के नौबतखाने में है। फिर न रहा गया, तब कहा - नहीं, मुझे जाना होगा।

“वृन्दावन का भाव बड़ा सुन्दर है। नये यात्री जाते हैं तो व्रज के लड़के कहा करते हैं, ‘हरि बोलो, गठरी खोलो’।”

दिन के ग्यारह बजे बाद श्रीरामकृष्ण ने काली का प्रसाद पाया। दोपहर को कुछ आराम करके धूप ढलने पर फिर भक्तों के साथ वार्तालाप करने लगे। बीच बीच में रह-रहकर प्रणव-नाद या ‘हा चैतन्य’ उच्चारण कर रहे हैं।

कालीमन्दिर में सन्ध्यारती होने लगी। आज विजया दशमी है, श्रीरामकृष्ण कालीघर में आए हैं। कालीमाता को प्रणाम करके भक्तजन श्रीरामकृष्ण की पदधूलि ग्रहण करने लगे। रामलाल ने कालीजी की आरती की है। श्रीरामकृष्ण रामलाल को बुलाने लगे - “कहाँ हो रामलाल!”

कालीजी को ‘विजया’ निवेदित की गयी है। श्रीरामकृष्ण उस प्रसाद को छूकर उसे देने के लिए ही रामलाल को बुला रहे हैं। अन्य भक्तों को भी कुछ कुछ देने को कह रहे हैं।

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