परिच्छेद २९ - दक्षिणेश्वर में भक्तों के साथ

(१)

मणिलाल और काशीदर्शन

चलो भाई, आज फिर भगवान् श्रीरामकृष्ण के दर्शन करने दक्षिणेश्वर मन्दिर चलें। देखें, किस तरह वे भक्तों के साथ आनन्दविलास कर रहे हैं, और किस तरह सदा ईश्वरी भाव में मस्त होकर समाधिमग्न हो रहे हैं। हम देखेंगे, कभी वे समाधिमग्न हैं, कभी कीर्तन के आनन्द में मतवाले बने हुए हैं, तो कभी प्राकृत मनुष्यों की तरह भक्तों से वार्तालाप करते हैं। मुख में ईश्वरी प्रसंग के सिवा दूसरा विषय ही नहीं। मन सदा अन्तर्मुख है। हर एक श्वास के साथ माँ का नाम जप रहे हैं। व्यवहार पाँच वर्ष के बालक की तरह है। अभिमान कहीं छू तक नहीं गया है। किसी विषय में आसक्ति नहीं, सदानन्द, सरल और उदार स्वभाव है। “ईश्वर ही सत्य हैं, और सब अनित्य, दो दिन का।” - यही एक वाणी है। चलो, उस प्रेमोन्मत्त बालक को देखने चलें। वे महायोगी हैं। अनन्त सागर के किनारे एकाकी विचरण कर रहे हैं। उस अनन्त सच्चिदानन्द सागर में मानो कुछ देख रहे हैं और देखकर प्रेमोन्मत्त बने घूम रहे हैं।

आज चैत्र की शुक्ला प्रतिपदा है। रविवार, ८ अप्रैल १८८३। कल शनिवार को अमावस्या थी। श्रीरामकृष्ण कल बलराम बाबू के घर गए थे। अमानिशा के घोर अन्धकार में महाकाली एकाकी महाकाल के साथ लीलाविलास करती हैं। इसीलिए श्रीरामकृष्ण अमावस्या के दिन स्थिर नहीं रह पाते। बालकों की-सी स्थिति है। जो दिनरात निरन्तर माँ के दर्शन कर रहा हो, माँ के बिना जो क्षण भर रह नहीं सकता, वह बालक ही तो है।

प्रातःकाल का समय है। श्रीरामकृष्ण बच्चे की तरह बैठे हुए हैं। पास ही बालकभक्त राखाल बैठे हुए हैं। मास्टर ने आकर भूमिष्ठ हो प्रणाम किया। श्रीरामकृष्ण के भतीजे रामलाल भी हैं। किशोरी तथा और भी कुछ भक्त आ गये! थोड़ी देर में पुराने ब्राह्मभक्त श्री मणिलाल मल्लिक भी आए और भूमिष्ठ हो श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया।

मणिलाल काशी गए थे। व्यवसायी आदमी है काशी में उनकी कोठी है।

श्रीरामकृष्ण - क्यों जी, काशी गये थे, कुछ साधु-महात्मा भी देखे?

मणिलाल - जी हाँ, त्रैलंगस्वामी, भास्करानन्द, इन सब को देखने गया था।

श्रीरामकृष्ण - कहो, इन सब को कैसे देखा?

मणिलाल - त्रैलंगस्वामी उसी ठाकुरबाड़ी में हैं, मणिकर्णिका घाट पर वेणीमाधव के पास। लोग कहते है, पहले उनकी बड़ी ऊँची अवस्था थी। बड़े बड़े चमत्कार दिखला सकते थे। अब बहुत-कुछ घट गया है।

श्रीरामकृष्ण - यह सब विषयी लोगों की निन्दा है।

मणिलाल - भास्करानन्द सबसे मिलते जुलते हैं, वे त्रैलंगस्वामी की तरह नहीं है कि एकदम बोलना ही बन्द।

श्रीरामकृष्ण - भास्करानन्द से तुम्हारी कोई बातचीत हुई?

मणिलाल - जी हाँ, बहुत बातें हुई। उनसे पापपुण्य की भी बात चली थी। उन्होंने कहा, पापमार्ग का त्याग करना, पाप की चिन्ता न करना, ईश्वर यही सब चाहते हैं। जिन कामों के करने से पुण्य होता है, उन्हीं कामों को करना चाहिए।

सिद्धों की दृष्टि में ‘ईश्वर ही कर्ता है’

श्रीरामकृष्ण - हाँ, यह एक तरह की बात है। - ऐहिक इच्छाएँ रखनेवालों के लिए। परन्तु जिनमें चैतन्य का उदय हुआ है, जिन्हें यह बोध हो गया है कि ईश्वर ही सत्य हैं, और सब असत्, अनित्य, उनका भाव एक दूसरी तरह का होता है। वे जानते हैं कि ईश्वर ही एकमात्र कर्ता हैं और सब अकर्ता हैं। जिन्हें चैतन्य हुआ है, उनके पैर बेताल नहीं पड़ते। उन्हें हिसाब-किताब करके पाप का त्याग नहीं करना पड़ता। ईश्वर पर उनका इतना अनुराग होता है कि जो कर्म वे करते हैं, वही सत्कर्म हो जाता है! परन्तु वे जानते हैं कि इन सब कर्मों का कर्ता मैं नहीं हूँ; मैं तो उनका दास हूँ। मैं यन्त्र हूँ, वे यन्त्री हैं। वे जैसा कराते हैं, वैसा ही करता हूँ; जैसा कहलाते हैं, वैसा ही कहता हूँ; जैसा चलाते हैं, वैसा ही चलता हूँ।

“जिन्हें चैतन्य हुआ है, वे पापपुण्य के पार चले गए हैं। वे देखते हैं, ईश्वर ही सब कुछ कर रहे हैं। कहीं एक मठ था। मठ के साधु-महात्मा रोज भिक्षा के लिए जाया करते थे। एक दिन एक साधु ने देखा कि एक जमींदार किसी किसान को पीट रहा है। साधु बड़े दयालु थे। बीच में पड़कर उन्होंने जमींदार को मारने से मना किया। जमींदार उस समय मारे गुस्से के आगबबूला हो रहा था। उसने दिल का सारा बुखार महात्माजी पर ही उतारा; उन्हें इतना पीटा कि वे बड़ी देर तक बेहोश पड़े रहे। किसी ने मठ में जाकर खबर दी कि तुम्हारे किसी साधु को जमींदार ने बहुत मारा। मठ के साधु दौड़ते हुए आए और देखा तो वे साधु बेहोश पड़े हैं। तब उन्होंने उन्हें उठाकर मठ में लाया और एक कमरे में सुला दिया। साधु बेहोश थे, चारों ओर से लोग उन्हें घेरे दुःखित भाव से बैठे थे। कोई कोई पंखा झल रहे थे। एक ने कहा ‘मुँह में जरा दूध डालकर तो देखो।’ मुँह में दूध डालने पर उन्हें होश आया। आँखें खोलकर ताकने लगे। किसी ने कहा, ‘अब यह देखना चाहिए कि इन्हें इतना ज्ञान है या नहीं कि आदमी पहचान सकें।’ यह कहकर उसने ऊँची आवाज लगाकर पूछा ‘क्यों महाराज, आपको दूध कौन पिला रहा है?’ साधु ने धीमे स्वर में कहा, ‘भाई! जिसने मुझे मारा था वही अब दूध पिला रहा है।’

“ईश्वर को बिना जाने ऐसी अवस्था नहीं होती।”

मणिलाल - जी हाँ, पर आपने यह जो कहा यह बड़ी ऊँची अवस्था की बात है। भास्करानन्द के साथ ऐसी ही कुछ बातें हुई थीं।

श्रीरामकृष्ण - वे किसी मकान में रहते हैं?

मणिलाल - जी हाँ, एक आदमी के मकान में रहते हैं।

श्रीरामकृष्ण - उम्र क्या है?

मणिलाल - पचपन की होगी।

श्रीरामकृष्ण - कुछ और भी बातें हुई?

मणिलाल - मैंने पूछा, भक्ति कैसे हो? उन्होंने बतलाया, नाम जपो, राम राम कहो।

श्रीरामकृष्ण - यह बड़ी अच्छी बात हैं।

(२)

गृहस्थ और कर्मयोग

मन्दिर में भवतारिणी, राधाकान्त और द्वादश शिवों की पूजा समाप्त हो गयी। अब उनकी भोगारती के बाजे बज रहे है। चैत का महीना, दोपहर का समय है। अभी अभी ज्वार का चढ़ना आरम्भ हुआ है। दक्षिण की ओर से बड़े जोरों की हवा चल रही है। पूतसलिला भागीरथी अभी अभी उत्तरवाहिनी हुई हैं। श्रीरामकृष्ण भोजन के बाद कमरे में विश्राम कर रहे हैं।

राखाल बसीरहाट में रहते हैं। वहाँ गर्मी के दिनों में पानी के अभाव से लोगों को बड़ा कष्ट होता है।

श्रीरामकृष्ण (मणिलाल से) - देखो, राखाल कहता था, उसके देश में लोगों को पानी बिना बड़ा कष्ट होता है। तुम वहाँ एक तालाब क्यों नहीं खुदवा देते? इससे लोगों का कितना उपकार होगा! (हँसते हुए) तुम्हारे पास तो बहुत रुपये हैं, इतने रुपये रखकर क्या करोगे? वैसे सुना है, तेली लोग बड़े हिसाबी होते हैं। (श्रीरामकृष्ण के साथ दूसरे भक्त भी हँस पड़े)।

मणिलाल कलकत्ते की सिंदूरियापठ्टी में रहते हैं। सिंदूरियापठ्टी के ब्राह्मसमाज का अधिवेशन उन्हीं के यहाँ होता है। ब्राह्मसमाज के वार्षिक उत्सव में वे बहुतसे लोगों को आमन्त्रित करते हैं। श्रीरामकृष्ण को भी आमन्त्रण देते हैं। वराहनगर में मणिलाल का एक बगीचा है। वहाँ वे बहुधा अकेले आया करते हैं और उस समय श्रीरामकृष्ण के दर्शन कर जाया करते हैं। वे सचमुच बड़े हिसाबी हैं। रास्ते भर के लिए किराये की गाड़ी नहीं करते। पहले ट्राम में चढ़कर शोभाबाजार तक आते हैं; फिर वहाँ से कुछ आदमियों के साथ हिस्से में किराया देकर घोड़ागाड़ी पर चढ़कर वराहनगर आते हैं। परन्तु रुपये की कमी नहीं है। कुछ साल बाद गरीब विद्यार्थियों के लिए उन्होंने एक ही किश्त में पचीस हजार रुपये देने का बन्दोबस्त कर दिया था।

मणिलाल चुप बैठे रहे। कुछ देर इधर उधर की बातें करके बोले, “महाराज! आप तालाब खुदवाने की बात कह रहे थे। उतना कहने ही से काम हो जाता, ऊपर से तेली-तमोली कहने की क्या जरूरत थी?”

श्रीरामकृष्ण, कोई कोई भक्त मुख दबाकर हँस रहे हैं। मुसकरा भी रहे हैं।

(३)

दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण तथा ब्राह्मभक्त। प्रेमतत्त्व

कुछ देर बाद कलकत्ते से कुछ पुराने ब्राह्मभक्त आ पहुँचे। उनमें एक श्री ठाकुरदास सेन भी थे। कमरे में कितने ही भक्तों का समागम हुआ है। श्रीरामकृष्ण अपने छोटे तख्त पर बैठे हुए है। सहास्यवदन, बालक की-सी मूर्ति, उत्तरास्य होकर बैठे हैं। ब्राह्मभक्तों के साथ आनन्द से वार्तालाप कर रहे हैं।

श्रीरामकृष्ण (ब्राह्म तथा दूसरे भक्तों से ) - तुम लोग ‘प्रेम, प्रेम’, चिल्लाते हो, पर प्रेम को क्या ऐसी साधारण वस्तु समझ लिया है? प्रेम चैतन्यदेव को हुआ था। प्रेम के दो लक्षण हैं। पहला, संसार भूल जाता है। ईश्वर पर इतना प्यार होता है कि संसार का कोई ज्ञान ही नहीं रह जाता। चैतन्यदेव वन देखकर वृन्दावन सोचते थे और समुद्र देखकर यमुना सोचते थे। दूसरा लक्षण यह है कि अपनी देह जो इतनी प्यारी वस्तु है, उस पर भी ममता नहीं रह जाती। देहात्मबोध समूल नष्ट हो जाता है।

“ईश्वर के दर्शन हुए बिना प्रेम नहीं होता।

“ईश्वरप्राप्ति के कुछ लक्षण हैं। जिसके भीतर अनुराग के ऐश्वर्य प्रकाशित हो रहे हैं, उसके लिए ईश्वरप्राप्ति में अधिक देर नहीं है।

“अनुराग के ऐश्वर्य क्या हैं, सुनोगे? विवेक, वैराग्य, जीवों पर दया, साधुसेवा, साधुसंग, ईश्वर का नाम-गुणकीर्तन, सत्यवचन, यह सब।

“अनुराग के ये सब लक्षण देखने पर ठीक ठीक कहा जा सकता है कि ईश्वरप्राप्ति में अब बहुत देर नहीं है। यदि मालिक का किसी नौकर के घर जाना ठीक हो जाए तो नौकर के घर की दशा देखकर यह बात समझ में आ जाती है। पहले घासफूस की कटाई होती है, घर का जाला झाड़ा जाता है, घर बुहारा जाता है। बाबू खुद अपने यहाँ से दरी, हुक्का वगैरह भेज देते हैं। यह सब सामान जब उसके घर आने लगता है, तब लोगों के समझने में कुछ बाकी नहीं रहता कि अब बाबूजी आना ही चाहते हैं।”

एक भक्त - क्या पहले विचार करके इन्द्रियनिग्रह करना चाहिए?

श्रीरामकृष्ण - वह भी एक रास्ता है - विचारमार्ग। भक्तिमार्ग से अन्तरिन्द्रियनिग्रह आप ही आप हो जाता है और सहज ही हो जाता है। ईश्वर पर प्यार जितना ही बढ़ता जाता है, उतना ही इन्द्रियसुख अलोना मालूम पड़ता है।

“जिस रोज लड़का मर जाता है उस रोज क्या स्त्री-पुरुष का मन देहसुख की ओर जा सकता है?”

एक भक्त - उन्हें प्यार कर कहाँ सकते हैं?

नाममाहात्म्य

श्रीरामकृष्ण - उनका नाम लेते रहने से सब पाप कट जाते हैं। काम, क्रोध, शरीरसुख की इच्छा, ये सब दूर हो जाते हैं।

एक भक्त - उनके नाम में रुचि नहीं होती।

श्रीरामकृष्ण - व्याकुल होकर उनसे प्रार्थना करो जिससे उनके नाम में रुचि हो। वे ही तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करेंगे।

यह कहकर श्रीरामकृष्ण देवदुर्लभ कण्ठ से गाने लगे। जीवों के दुःख से कातर होकर माँ से अपने हृदय का दुःख कह रहे हैं। अपने पर प्राकृत जीवों की अवस्था का आरोप करके माँ को जीवों का दुःख गाकर सुना रहे हैं। गीत का आशय यह है -

“माँ श्यामा! दोष किसी का नहीं, मैं अपने ही हाथों से खोदे हुए कुएँ के पानी में डूब रहा हूँ। माँ कालमनोरमा, षड्रिपुओं की कुदाल लेकर, मैंने पुण्यक्षेत्र पर कूप खोदा, जिसमें अब कालरूपी पानी बढ़ रहा है। तारिणि, त्रिगुणधारिणी माँ, मेरे ही गुणों ने विगुण कर दिया है, अब मेरी क्या दशा होगी? इस वारि का निवारण कैसे करूँ यह सोचते हुए ‘दाशरथि’ की आँखों से निरन्तर वारिधारा बह रही है। पहले पानी कमर तक था, वहाँ से छाती तक आया। इस पानी में मेरे जीवन की रक्षा कैसे होगी? माँ, मुझे तेरी ही अपेक्षा है। मुझे तू मुक्तिभिक्षा दे, कृपाकटाक्ष करके पार कर दे।”

फिर गाने लगे। उनके नाम पर रुचि होने से जीवों का विकार दूर हो जाता है - इसी भाव का गीत है।

(भावार्थ) - “हे शंकरि यह कैसा विकार है? तुम्हारी कृपाऔषधि मिलने पर ही यह दूर होगा। मिथ्या गर्व से मेरा सर्वांग जल रहा है। मुझे यह कैसा मोह हो गया है! धन-जन की तृष्णा छूटती ही नहीं, अब मैं कैसे जीवित रह सकता हूँ? सर्वमंगले, जो कुछ कहता हूँ सब अनित्य प्रलाप है। आँखों से माया की नींद किसी तरह नहीं छूटती। पेट में हिंसा की कृमि हो गयी है। व्यर्थ कामों में घूमते रहने का भ्रमरोग हो गया है। जब तुम्हारे नाम ही पर अरुचि है, तब भला इस रोग से मैं कैसे बच सकूँगा?”

श्रीरामकृष्ण - उनके नाम में अरुचि। रोग में यदि अरुचि हो गयी तो फिर बचने की राह नहीं रह जाती। यदि जरा भी रुचि हो तो बचने की बहुत-कुछ आशा है। इसीलिए नाम में रुचि होनी चाहिए। ईश्वर का नाम लेना चाहिए - दुर्गानाम, कृष्णनाम, शिवनाम, चाहे जिस नाम से पुकारो। यदि नाम लेने में दिनदिन अनुराग बढ़ता जाय, आनन्द हो तो फिर कोई भय नहीं, - विकार दूर होगा ही, उनकी कृपा अवश्य होगी ।

आन्तरिक भक्ति तथा दिखावटी भक्ति। भगवान मन देखते हैं।

“जैसा भाव होता है लाभ भी वैसा ही होता है। रास्ते से दो मित्र जा रहे थे। एक जगह भागवत पाठ चल रहा था। एक मित्र ने कहा, “आओ भाई, जरा भागवत सुने। दूसरे ने जरा झाँककर देखा। फिर वहाँ से वेश्या के घर चला गया। वहाँ कुछ देर बाद उसके मन में बड़ी विरक्ति हो आयी। वह आप ही आप कहने लगा, ‘मुझे धिक्कार है! मेरा मित्र तो भागवत सुन रहा है और मैं यहाँ कहाँ पड़ा हूँ!’ इधर जो व्यक्ति भागवत सुन रहा था वह भी अपने मन को धिक्कार रहा था। वह कह रहा था, मैं कैसा मूर्ख हूँ! यह पण्डित न जाने क्या बक रहा है और मैं यहाँ बैठा हुआ हूँ! मेरा मित्र वहाँ कैसे आनन्द में होगा!’ जब ये दोनों मरे तब जो भागवत सुन रहा था, उसे तो यमदूत ले गए और जो वेश्या के घर गया था, उसे विष्णु के दूत वैकुण्ठ में ले गए।

“भगवान् मन देखते हैं। कौन क्या कर रहा है, कहाँ पड़ा हुआ है, यह नहीं देखते। ‘भावग्राही जनार्दनः।’

“कर्ताभजा सम्प्रदाय के लोग मन्त्रदीक्षा देने के समय कहते हैं, ‘अब मन तेरा है’। अर्थात् अब सब कुछ तेरे मन पर निर्भर है ।

“वे कहते हैं, जिसका मन ठीक है, उसका करण ठीक है, वह अवश्य ईश्वर को प्राप्त करेगा।

“मन के ही गुण से हनुमान समुद्र पार कर गए। ‘मैं श्रीरामचन्द्र का दास हूँ, मैंने रामनाम उच्चारण किया है, मैं क्या नहीं कर सकता’ - विश्वास इसे कहते है।

ईश्वरदर्शन क्यों नहीं होते? अहंभाव के कारण

“जब तक अहंकार है तब तक अज्ञान है। अहंकार के रहते मुक्ति नहीं होती।

“गौएँ ‘हम्मा’ ‘हम्मा’ करती है और बकरे ‘में’ ‘में’ करते हैं। इसीलिए उनको इतना कष्ट भोगना पड़ता है। कसाई काटते है, चमड़े से जूते बनते हैं, ढोल मढ़ा जाता है - दुःख की पराकाष्ठा हो जाती है। हिन्दी में अपने को ‘हम’ कहते हैं और ‘मैं’ भी कहते हैं। ‘मैं’ ‘मैं’ करने के कारण कितने कर्म भोगने पड़ते हैं! अन्त में आँतों से धनुहे की ताँत बनायी जाती है। घनुहे के हाथ में जब वह पड़ती है, तब ‘तू’ ‘तू’ कहती है। ‘तू’ कहने के बाद निस्तार होता है। फिर दुःख नहीं उठाना पड़ता।

“हे ईश्वर, तुम कर्ता हो और मैं अकर्ता हूँ, इसी का नाम ज्ञान है।

“नीचे आने से ही ऊँचे उठा जाता है। चातक पक्षी का घोसला नीचे रहता है, परन्तु वह बहुत ऊँचे उड़ जाता है। ऊँची जमीन में कृषि नहीं होती। नीची जमीन चाहिए। पानी उसी में रुकता है। तभी कृषि होती है।

साधुसंग तथा प्रार्थना

“कुछ कष्ट उठाकर सत्संग करना चाहिए। घर में तो केवल विषय-चर्चा होती है, रोग लगा ही रहता है। जब चिड़िया सीखचे पर बैठती है तभी ‘राम राम’ बोलती है, जब वन में उड़ जाती है तब वही ‘टें टें’ करने लगती है।

“धन होने से ही कोई बड़ा आदमी नहीं हो जाता। बड़े आदमी के घर का यह लक्षण है कि सब कमरों में दिये जलते रहते हैं। गरीब तेल नहीं खर्च कर सकते; इसीलिए दिये का वैसा बन्दोबस्त नहीं कर सकते। यह देहमन्दिर अँधेरे में न रखना चाहिए, ज्ञानदीप जला देना चाहिए! ‘ज्ञानदीप जलाकर ब्रह्ममयी का मुँह देखो।’

“ज्ञान सभी को हो सकता है। जीवात्मा और परमात्मा। प्रार्थना करो, उस परमात्मा के साथ सभी जीवों का योग हो सकता है। गैस का नल सब घरों में लगाया हुआ है और गैस गैसकम्पनी के यहाँ मिलती है। अर्जी भेजो, गैस का बन्दोबस्त हो जायगा, घर में गैसबत्ती जल जायगी। सियालदह में आफिस है। (सब हँसते हैं।)

“किसी किसी को चैतन्य हुआ है इसके लक्षण भी हैं। ईश्वरी प्रसंग को छोड़ और कुछ सुनने को उसका जी नहीं चाहता। ईश्वरी प्रसंग के सिवा कोई दूसरी बात करना उसे अच्छा नहीं लगता। जैसे सातों समुद्र, गंगा-यमुना और सब नदियों में पानी है, परन्तु चातक को वर्षा की बूँदों की ही रट रहती है। चाहे मारे प्यास के छाती फट जाय, परन्तु वह दूसरा पानी कभी नहीं पीता।”

(४)

गोपीप्रेम। ‘अनुरागरूपी बाघ’

श्रीरामकृष्ण ने कुछ गाने के लिए कहा। रामलाल और कालीमन्दिर के एक ब्राह्मण कर्मचारी गाने लगे। ठेका लगाने के लिए एक बायाँ मात्र था। कुछ भजन गाये गये।

श्रीरामकृष्ण (भक्तों से) - बाघ जैसे दूसरे पशुओं को खा जाता है, वैसे ‘अनुरागरूपी बाघ’ काम-क्रोध आदि रिपुओं को खा जाता है। एक बार ईश्वर पर अनुराग होने से फिर काम-क्रोध आदि नहीं रह जाते। गोपियों की ऐसी ही अवस्था हुई थी। श्रीकृष्ण पर उनका ऐसा ही अनुराग था।

“और है ‘अनुराग-अंजन।’ श्रीमती (राधा) कहती है - ‘सखियों, मैं चारों ओर कृष्ण ही देखती हूँ।’ उन लोगों ने कहा - ‘सखि, तुमने आँखों में अनुराग-अंजन लगा लिया है, इसीलिए ऐसा देखती हो।’

“इस प्रकार लिखा है कि मेढक का सिर जलाकर उसका अंजन आँखों में लगाने से चारों ओर साँप ही साँप दीख पड़ते हैं।

“जो लोग केवल कामिनी-कांचन में पड़े हुए हैं, कभी ईश्वर का स्मरण नहीं करते, वे बद्ध जीव हैं। उन्हें लेकर क्या कभी महान् कार्य हो सकता है? जैसे कौंए का चोंच मारा हुआ आम ठाकुरसेवा में लगाने की क्या, खाने में भी हिचकिचाहट होती है।

“संसारी जीव, बद्धजीव, ये रेशम के कीड़े हैं। यदि चाहें तो कोश को काटकर बाहर निकल सकते हैं; परन्तु खुद जिस घर को बनाया है, उसे छोड़ने में बड़ा मोह होता है। फल यह होता है कि उसी में उनकी मृत्यु हो जाती है।

“जो मुक्त जीव हैं, वे कामिनी-कांचन के वशीभूत नहीं होते। कोई कोई कीड़े (रेशम के) जिस कोये को इतने प्रयत्न से बनाते हैं, उसे काटकर निकल भी आते हैं। परन्तु ऐसे एक ही दो होते हैं।

“माया मोह में डाले रहती है। दो एक मनुष्यों को ज्ञान होता है। वे माया के भुलावे में नहीं आते-कामिनी-कांचन के वशीभूत नहीं होते।

“साधनसिद्ध और कृपासिद्ध। कोई कोई बड़े परिश्रम से खेत में पानी खींचकर लाते हैं। यदि ला सकें तो फसल भी अच्छी होती है। किसी किसी को पानी सींचना ही नहीं पड़ा, वर्षा के जल से खेत भर गया। उसे पानी सींचने के लिए कष्ट नहीं उठाना पड़ा। माया के हाथ से रक्षा पाने के लिए कष्टसाध्य साधनभजन करना पड़ता है। कृपासिद्ध को कष्ट नहीं उठाना पड़ता। परन्तु ऐसे दो ही एक मनुष्य होते हैं।

“और हैं नित्यसिद्ध। इनका ज्ञान - चैतन्य - जन्म-जन्मान्तरों में बना ही रहता है। मानो फौआरे की कल बन्द है, मिस्त्री ने इसे उसे खोलते हुए उसको भी खोल दिया और उससे फर्र से पानी निकलने लगा। जब नित्यसिद्ध का प्रथम अनुराग मनुष्य देखते हैं तब आश्चर्य से कहने लगते हैं - ‘इतनी भक्ति, इतना वैराग्य, इतना प्रेम इसमें कहाँ था?’ ”

श्रीरामकृष्ण गोपियों के अनुराग की बात कह रहे हैं। फिर गाना होने लगा। रामलाल गाने लगे। गीत का आशय यह है -

“हे नाथ! तुम्ही हमारे सर्वस्व हो, तुम्ही हमारे प्राणों के आधार हो और सब वस्तुओ में सार पदार्थ भी तुम्ही हो। तुम्हे छोड़ तीनों लोक में अपना और कोई नहीं। सुख, शान्ति, सहाय, सम्बल, सम्पद्, ऐश्वर्य, ज्ञान, बुद्धि, बल, वासगृह, आरामस्थल, आत्मीय, मित्र, परिवार सब कुछ तुम्हीं हो। तुम्हीं हमारे इहकाल हो और तुम्हीं परकाल हो, तुम्हीं परित्राण हो और तुम्हीं स्वर्गधाम हो, शास्त्रविधि और कल्पतरू गुरु भी तुम्हीं हो; तुम्हीं हमारे अनन्त सुख के आधार हो। हमारे उपाय, हमारे उद्देश्य तुम्ही हो। तुम्हीं स्रष्टा, पालनकर्ता और उपास्य हो! दण्डदाता पिता, स्नेहमयी माता और भवार्णव के कर्णधार भी तुम्हीं हो।”

श्रीरामकृष्ण (भक्तों से) - अहा! कैसा गीत है! - ‘तुम्हीं हमारे सर्वस्व हो।’ अक्रूर के आने पर गोपियों ने श्रीराधा से कहा, ‘राधे! यह तेरे सर्वस्व-धन का हरण करने के लिए आया है।’ प्यार यह है। ईश्वर के लिए व्याकुलता इसे कहते हैं।

फिर गाना होने लगा -

(भावार्थ) - “रथचक्र को न पकड़ो न पकड़ो। क्या रथ चक्र से चलता है! जिनके चक्र से जगत् चलता है! वे हरि ही इस चक्र के चक्री हैं।”

गीत सुनते सुनते श्रीरामकृष्ण गम्भीर समाधि-सागर में डूब गये। भक्तगण श्रीरामकृष्ण को चुपचाप टकटकी लगाये देख रहे हैं। कमरे मे सन्नाटा छाया हुआ है। श्रीरामकृष्ण हाथ जोड़े हुए समाधिस्थ बैठे हैं - वैसे ही जैसे फोटोग्राफ में दिखायी देते हैं। नेत्रों से आनन्दधारा बह रही है।

बड़ी देर बाद श्रीरामकृष्ण प्रकृतिस्थ हुए। परन्तु अभी उन्हीं से वार्तालाप कर रहे हैं, जिन्हें समाधि-अवस्था में देख रहे थे। कोई कोई शब्द सुन पड़ता है। श्रीरामकृष्ण आप ही आप कह रहे हैं - “तुम्हीं मैं हो, मैं ही तुम हूँ ।. . . खूब करते हो परन्तु”

“यह मुझे पीलिया रोग तो नहीं हो गया? - चारों ओर तुम्हीं को देख रहा हूँ।

“हे कृष्ण, दीनबन्धु! प्राणवल्लभ! गोविन्द!”

‘प्राणवल्लभ! गोविन्द!’ कहते हुए श्रीरामकृष्ण फिर समाधिमग्न हो गये। भक्तगण महाभावमय श्रीरामकृष्ण को बार बार देख रहे हैं, किन्तु फिर भी नेत्रों की तृप्ति नहीं होती।

(५)

श्रीरामकृष्ण का ईश्वरावेश। उनके मुख से ईश्वरवाणी

श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हैं। अपनी छोटी खाट पर बैठे हुए हैं। चारों ओर भक्तगण बैठे हैं। श्री अधर सेन कुछ मित्रों के साथ आये है। अधर डिप्टी मैजिस्ट्रेट हैं। इन्होंने श्रीरामकृष्ण को पहले एक बार देखा है - आज दूसरी बार देख रहे हैं। इनकी उम्र लगभग उनतीस-तीस वर्ष की होगी। इनके मित्र सारदाचरण को मृत पुत्र का शोक है। ये स्कूलों के डिप्टी इन्स्पेक्टर रह चुके हैं। अब पेन्शन ले ली है। साधन-भजन पहले ही से कर रहे हैं। बड़े लड़के का देहान्त हो जाने से किसी तरह मन को सान्त्वना नहीं मिलती। इसीलिए अधर उन्हें श्रीरामकृष्ण के पास ले आये हैं। बहुत दिनों से अधर स्वयं भी श्रीरामकृष्ण को देखना चाहते थे।

श्रीरामकृष्ण की समाधि छूटी। आँखें खोलकर आपने देखा, कमरे भर के लोग आपकी ओर ताक रहे हैं। उस समय आप अपने आप कुछ कहने लगे।

क्या श्रीरामकृष्ण के मुँह से ईश्वर स्वयं उपदेश दे रहे हैं!

श्रीरामकृष्ण - “कभी कभी विषयी मनुष्यों मे ज्ञान का उन्मेष होता है, वह दीपशिखा की तरह दीख पड़ता है, - नहीं नहीं, सूर्य की किरण की तरह; छेद के भीतर से मानो किरण निकल रही है। विषयी मनुष्य और ईश्वर का नाम! उसमें अनुराग नहीं होता। जैसे बालक कहता है, तुझे भगवान् की कसम है। घर की स्त्रियों का झगड़ा सुनकर ‘भगवान् की कसम’ याद कर ली है।

“विषयी मनुष्यों में निष्ठा नहीं होती। हुआ हुआ, न हुआ तो न सही। पानी की जरूरत है, कुआँ खोद रहा है। खोदते खोदते जैसे ही कंकड़ निकला कि बस छोड़ दी वह जगह, दूसरी जगह खोदने लगा। लो, वहाँ भी बालू ही बालू निकलती है! बस वहाँ से भी अलग हुआ। जहाँ खोदना आरम्भ किया है, वहीं जब खोदता रहे तभी तो पानी मिलेगा।

“जीव जैसे कर्म करता है वैसे ही फल भी पाता है।

“इसीलिए गाने में कहा है -

(भावार्थ) - “ ‘माँ श्यामा! दोष किसी का नहीं, मैं अपने ही हाथों खोदे हुए कुएँ के पानी में डूब रहा हूँ।’

“ ‘मैं’ ओर ‘मेरा’ अज्ञान है। विचार तो करो, देखोगे जिसे ‘मैं’ कह रहे हो, वह आत्मा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। विचार करो - तुम शरीर हो या हाड़ हो या मांस या और कुछ? तब देखोगे, तुम कुछ नहीं हो। तुम्हारी कोई उपाधि नहीं। तब कहोगे, मैंने कुछ भी नहीं किया; मेरे न दोष हैं, न गुण; न पाप है, न पुण्य।

“यह सोना है और यह पीतल, ऐसे विचार को अज्ञान कहते हैं और सब कुछ सोना है, इसे ज्ञान।

“ईश्वरदर्शन होने पर विचार बन्द हो जाता है। फिर ऐसा भी है कि कोई ईश्वरलाभ करके भी विचार करता है। कोई भक्ति लेकर रहता है, उनका गुणगान करता है।

“बच्चा तभी तक रोता है जब तक उसे माता का दूध पीने को नहीं मिलता। मिला कि रोना बन्द हो गया। तब आनन्दपूर्वक पीता रहता है। परन्तु एक बात है। कभी कभी वह दूध पीते पीते खेलता भी है और आनन्द से किलकारियाँ भरता है।

“वे ही सब कुछ हुए हैं। परन्तु मनुष्य में उनका प्रकाश अधिक है। जहाँ शुद्धसत्त्व बालकों का-सा स्वभाव है कि कभी हँसता है, कभी रोता है, कभी नाचता है, कभी गाता है, वहाँ वे प्रत्यक्ष भाव से रहते हैं।”

श्रीरामकृष्ण अधर का कुशलसमाचार ले रहे हैं। अधर ने अपने मित्र के पुत्रशोक का हाल कहा। श्रीरामकृष्ण अपने ही भाव में गाने लगे -

(भावार्थ) - “ ‘जीव! समर के लिए तैयार हो जाओ। रण के वेश में काल तुम्हारे घर में घुस रहा है। भक्ति-रथ पर चढ़कर, ज्ञान-तूण लेकर रसना-धनुष में प्रेम गुण लगा, ब्रह्ममयी के नामरूपी ब्रह्मास्त्र का सन्धान करो। लड़ाई के लिए एक युक्ति और है। तुम्हें रथ-रथी की आवश्यकता न होगी यदि भागीरथी के तट पर तुम्हारी यह लड़ाई हो।’

“क्या करोगे? इस काल के लिए तैयार हो जाओ। काल घर में घुस रहा है। उनका नामरूपी अस्त्र लेकर लड़ना होगा। कर्ता वे ही हैं। मैं कहता हूँ,‘जैसा कराते हो, वैसा ही करता हूँ। जैसा कहाते हो, वैसा ही कहता हूँ। मैं यन्त्र हूँ, तुम यन्त्री; मैं घर हूँ, तुम घर के मालिक; मैं गाड़ी हूँ, तुम इंजिनियर।’

“आममुख्तार उन्हीं को बनाओ। काम का भार अच्छे आदमी को देने से कभी अमंगल नहीं होता। उनकी जो इच्छा हो, करे।

“शोक भला क्यों नहीं होगा। आत्मज है न। रावण मरा तो लक्ष्मण दौड़े हुए गए, देखा, उसके हाड़ो में ऐसी जगह नहीं थी जहाँ छेद न रहे हो। लौटकर राम से बोले - भाई, तुम्हारे बाणों की बड़ी महिमा है, रावण की देह में ऐसी जगह नहीं है जहाँ छेद न हों! राम बोले - हाड के भीतरवाले छेद हमारे बाणों के नहीं है, मारे शोक के उसके हाड़ जर्जर हो गए है। वे छेद शोक के ही चिह्न हैं।

“परन्तु है यह सब अनित्य। गृह, परिवार, सन्तान, सब दो दिन के लिए है। ताड़ का पेड़ ही सत्य है। दो एक फल गिर जाते हैं। इसके लिए दुःख क्यों?

“ईश्वर तीन काम करते हैं, - सृष्टि, स्थिति और प्रलय। मृत्यु है ही। प्रलय के समय सब ध्वंस हो जाएगा, कुछ भी न रह जाएगा। माँ केवल सृष्टि के बीज बीनकर रख देंगी। फिर नयी सृष्टि होने के समय उन्हें निकालेंगी। घर की स्त्रियों के जैसे हण्डी रहती है जिसमें वे खीरे-कोहड़े के बीज, समुद्रफेन, नील का डला आदि छोटी छोटी पोटलियों में बाँधकर रख देती हैं।” (सब हँसते हैं।)

(६)

अधर को उपदेश

श्रीरामकृष्ण अधर के साथ अपने कमरे के उत्तरीं ओर के बरामदे में खड़े होकर बातचीत कर रहे हैं।

श्रीरामकृष्ण (अधर से) - तुम डिप्टी हो। यह पद भी ईश्वर के ही अनुग्रह से मिला है। उन्हें न भूलना, समझना, सब को एक ही रास्ते से जाना है, यहाँ सिर्फ दो दिन के लिए आना हुआ है।

“संसार कर्मभूमि है। यहाँ कर्म करने के लिए आना हुआ है, जैसे देहात में घर है और कलकत्ते में काम करने के लिए आया जाता है।

“कुछ काम करना आवश्यक है। यह साधन है। जल्दी जल्दी सब काम समाप्त कर लेना चाहिए। जब सुनार सोना गलाते हैं, तब धौकनी, पंखा, फूँकनी आदि से हवा करते हैं, जिससे आग तेज हो और सोना गल जाय। सोना गल जाता है, तब कहते हैं, चिलम भरो। अब तक पसीने पसीने हो रहे थे पर काम करके ही तम्बाकू पीएँगे।

“पूरी जिद चाहिए; साधना तभी होती है। दृढ़ प्रतिज्ञा होनी चाहिए।

“उनके नाम-बीज में बड़ी शक्ति है। वह अविद्या का नाश करता है। बीज कितना कोमल है और अंकुर भी कितना नरम होता है, परन्तु मिट्टी कैसी ही कड़ी क्यों न हो, वह उसे पार कर ही जाता है - मिट्टी फट जाती है।

“कामिनी-कांचन के भीतर रहने से वे मन को खींच लेते हैं। सावधानी से रहना चाहिए। त्यागियों के लिए विशेष भय की बात नहीं। यथार्थ त्यागी कामिनी-कांचन से अलग रहता है। साधना के बल से सदा ईश्वर पर मन रखा जा सकता है।

“जो यथार्थ त्यागी हैं वे सर्वदा ईश्वर पर मन रख सकते हैं; वे मधुमक्खी की तरह केवल फूल पर बैठते हैं; मधु ही पीते हैं। जो लोग संसार में कामिनी-कांचन के भीतर है उनका मन ईश्वर में लगता तो है, पर कभी कभी कामिनी-कांचन पर भी चला जाता है; जैसे साधारण मक्खियाँ बर्फी पर भी बैठती हैं और सड़े घाव पर भी बैठती हैं। हाँ, विष्ठा पर भी बैठती हैं।

“मन सदा ईश्वर पर रखना। पहले कुछ मेहनत करनी पड़ेगी; फिर पेन्शन पा जाओगे।”

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