परिच्छेद १० - दक्षिणेश्वर में अन्तरंग भक्तों के साथ

(१)

श्रीरामकृष्ण की प्रथम प्रेमोन्माद अवस्था

आज श्रीरामकृष्ण बड़े आनन्द में हैं। दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर में नरेन्द्र आए हैं। और भी कुछ अन्तरंग भक्त हैं। नरेन्द्र ने यहाँ आकर स्नान किया और प्रसाद पाया।

आज आश्विन की शुक्ला चतुर्थी है - १६ अक्टूबर १८८२, सोमवार। आगामी गुरुवार को सप्तमी है, दुर्गापूजा होगी।

श्रीरामकृष्ण के पास राखाल, रामलाल और हाजरा हैं। नरेन्द्र के साथ एक-दो और ब्राह्म लड़के आए हैं। आज मास्टर भी आए हैं।

नरेन्द्र ने श्रीरामकृष्ण के पास ही भोजन किया। भोजन हो जाने पर श्रीरामकृष्ण ने अपने कमरे में बिस्तर लगा देने को कहा, जिस पर नरेन्द्र आदि भक्त - विशेषकर नरेन्द्र - आराम करेंगे। चटाई के ऊपर रजाई और तकिये लगाए गए हैं। श्रीरामकृष्ण भी बालक की भाँति नरेन्द्र के पास बिस्तर पर आ बैठे। भक्तों से, विशेषकर नरेन्द्र से, और उन्हीं की ओर मुँह करके, हँसते हुए बड़े आनन्द से बातचीत कर रहे हैं। अपनी अवस्था और अपने चरित्र का बातों बातों में वर्णन कर रहे हैं।

श्रीरामकृष्ण (नरेन्द्र आदि भक्तों से) - मेरी इस अवस्था के बाद मुझे केवल ईश्वरी बातें सुनने की व्याकुलता होती थी। भागवत, अध्यात्मरामायण, महाभारत - कहाँ इनका पाठ हो रहा है, यही सब ढूँढ़ता फिरता था। आरियादह के कृष्णकिशोर के पास अध्यात्मरामायण सुनने जाया करता था।

“कृष्णकिशोर का कैसा विश्वास है! वह वृन्दावन गया था, वहाँ एक दिन उसे प्यास लगी। कुएँ के पास जाकर उसने देखा कि एक आदमी खड़ा है। पूछने पर उसने जवाब दिया, ‘मैं नीच जाति का हूँ और आप ब्राह्मण हैं; मैं कैसे आपको पानी निकाल दूँ?’ कृष्णकिशोर ने कहा, ‘तू कह ‘शिव’। शिव शिव कहने से ही तू शुद्ध हो जाएगा।’ उसने शिव शिव कहकर पानी ऊपर निकाला। वैसा निष्ठावान् ब्राह्मण होकर भी उसने वही जल पिया। कैसा विश्वास है!

“आरियादह के घाट पर एक साधु आया था। हमने सोचा कि एक दिन देखने जाएँगे। कालीमन्दिर में मैंने हलधारी से कहा, ‘कृष्णकिशोर और हम साधु-दर्शन को जाएँगे। तुम चलोगे?’ हलधारी ने कहा, ‘एक मिट्टी का पिंजरा देखने जाने से क्या होगा?’ हलधारी गीता और वेदान्त पढ़ता था न? इसी से उसने साधु-शरीर को ‘मिट्टी का पिंजरा’ बताया! मैंने जाकर कृष्णकिशोर से वह बात कही तो वह बड़े क्रोध में आ गया। उसने कहा, ‘क्या! हलधारी ने ऐसी बात कही है? जो ईश्वर-चिन्तन करता है, राम-चिन्तन करता है, और जिसने उसी उद्देश से सर्वत्याग किया है, क्या उसका शरीर मिट्टी का पिंजरा ठहरा? हलधारी नहीं जानता कि भक्त का शरीर चिन्मय होता है!’ उसे इतना क्रोध आ गया था कि, कालीमन्दिर में फूल तोड़ने आया करता था, पर हलधारी से भेंट होने पर मुँह फेर लेता था। उससे बोलता तक न था।

“उसने मुझसे कहा था, ‘तुमने जनेऊ क्यों फेंक दिया?’ जब मेरी यह अवस्था हुई तब आश्विन की आँधी की तरह एक भाव आकर वह सब कुछ न जाने कहाँ उड़ा ले गया, कुछ पता ही न चला! पहले की एक भी निशानी न रही। होश नहीं थे। जब कपड़ा ही खिसक जाता था, तो जनेऊ कैसे रहे? मैंने कहा, ‘एक बार तुम्हें भी उन्माद हो जाय तो तुम समझो!’

“फिर हुआ भी वैसा! उसे उन्माद हो गया। तब वह केवल ‘ॐ ॐ’ कहा करता और एक कोठरी में चुपचाप बैठा रहता था। यह समझकर कि वह पागल हो गया है, लोगों ने वैद्य बुलाया। नाटागढ़ का राम कविराज आया, कृष्णकिशोर ने उससे कहा, ‘मेरी बीमारी तो अच्छी कर दो, पर देखो मेरे ॐकार को मत छुड़ाना!’ (सब हँसे।)

“एक दिन मैंने जाकर देखा कि वह बैठा सोच रहा है। पूछा ‘क्या हुआ है?’ उसने कहा, ‘टैक्सवाले आए थे, इसीलिए सोच में पड़ा हूँ। उन्होंने कहा है रुपया न देने से घर का माल बेच लेंगे।’ मैंने कहा, ‘तो सोचकर क्या होगा? अगर सब उठा ले जायँ तो ले जाने दो। अगर बाँधकर ही ले जायँ तो तुम्हें थोड़े ही ले जा सकेंगे। तुम तो ‘ख’ (आकाश) हो!’ (नरेन्द्र आदि हँसे।) कृष्णकिशोर कहा करता था कि मैं आकाशवत् हूँ। वह अध्यात्मरामायण पढ़ता था न! बीच बीच में उसे ‘तुम ख हो’ कहकर दिल्लगी करता था। सो हँसते हुए मैंने कहा, ‘तुम ख हो; टैक्स तुम्हें तो खींचकर नहीं ले जा सकेगा।’

“उन्माद की दशा में मैं लोगों से सच सच बातें - स्पष्ट बातें कह देता था। किसी की परवाह न करता था। अमीरों को देखकर मुझे डर नहीं लगता था।

“यदु मल्लिक के बाग में यतीन्द्र आया था। मैं भी वहीं था। मैंने उससे पूछा, ‘कर्तव्य क्या है? क्या ईश्वर का चिन्तन करना ही हमारा कर्तव्य नहीं है?’ यतीन्द्र ने कहा, ‘हम संसारी आदमी हैं। हमारे लिए मुक्ति कैसी! राजा युधिष्ठिर को भी नरक दर्शन करना पड़ा था!’ तब मुझे बड़ा क्रोध आया। मैंने कहा, ‘तुम भला कैसे आदमी हो, युधिष्ठिर का सिर्फ नरकदर्शन ही तुमने याद रखा है? युधिष्ठिर का सत्यवचन, क्षमा, धैर्य, विवेक, वैराग्य, ईश्वर की भक्ति - यह सब बिलकुल याद नहीं आता!’ और भी बहुत कुछ कहने जाता था, पर हृदय ने मेरा मुँह दबा लिया। थोड़ी देर बाद यतीन्द्र यह कहकर कि जरा काम है, चला गया।

“बहुत दिनों बाद मैं कप्तान के साथ सौरीन्द्र ठाकुर के घर गया था। उसे देखकर मैंने कहा, ‘तुम्हें राजा-वाजा कह नहीं सकूँगा, क्योंकि वह झूठ बात होगी।’ उसने मुझसे थोड़ी बातचीत की। फिर मैंने देखा कि साहब लोग आने-जाने लगे। वह रजोगुणी आदमी है, बहुत कामों में लगा रहता है। यतीन्द्र को खबर भेजी गयी। उसने जवाब दिया, ‘मेरे गले में दर्द हुआ है।’

“उस उन्माद की दशा में एक दूसरे दिन वराहनगर के घाट पर मैंने देखा कि जय मुकर्जी जप कर रहा है, पर अनमना होकर। तब मैंने पास जाकर दो थप्पड़ लगा दिए।

“एक दिन रासमणि दक्षिणेश्वर में आयी। कालीमाता के मन्दिर में आयी। वह पूजा के समय आया करती और मुझसे एक दो गीत गाने को कहती थी। मैं गीत गा रहा था, देखा कि वह अनमनी होकर फूल चुन रही है। बस, दो थप्पड़ जमा दिए तब होश सम्हालकर हाथ बाँधे रही।

“हलधारी से मैंने कहा, ‘भैया, यह कैसा स्वभाव हो गया! क्या उपाय करूँ? फिर माँ को पुकारते पुकारते वह स्वभाव दूर हुआ।

काशी में विषयसम्बन्धी चर्चा सुनकर श्रीरामकृष्ण का रुदन

“उस अवस्था में ईश्वरीय प्रसंग के सिवा और कुछ अच्छा नहीं लगता था। वैषयिक चर्चा होते सुनकर मैं बैठा रोया करता था। जब मथुरबाबू मुझे अपने साथ तीर्थों को ले गए, तब थोड़े दिन हम वाराणसी में राजाबाबू के मकान पर रहे। मथुरबाबू के साथ बैठकखाने में मैं बैठा था और राजाबाबू भी थे। मैंने देखा कि वे सांसारिक बातें कह रहे हैं। ‘इतने रुपये का नुकसान हुआ है’ - ऐसी ऐसी बातें। मैं रोने लगा - कहा, ‘माँ, मुझे यह कहाँ लायी! मैं रासमणि के मन्दिर में कहीं अच्छा था। तीर्थ करने को आते हुए भी वे ही कामिनी-कांचन की बातें! पर वहाँ (दक्षिणेश्वर में) तो विषय-चर्चा सुननी नहीं पड़ती थी।’ ”

श्रीरामकृष्ण ने भक्तों से, विशेषकर नरेन्द्र से, जरा आराम लेने के लिए कहा, और आप भी छोटे तखत पर थोड़ा आराम करने चले गए।

(२)

नरेन्द्र आदि के साथ कीर्तनानन्द। नरेन्द्र का प्रेमालिंगन

तीसरा प्रहर हुआ है। नरेन्द्र गाना गा रहे हैं। राखाल, लाटू, मास्टर, नरेन्द्र के ब्राह्म मित्र प्रिय, हाजरा आदि सब हैं।

नरेन्द्र ने कीर्तन गाया, मृदंग बजने लगा -

(भावार्थ) - “ऐ मन, तू चिद्घन हरि का चिन्तन कर। उनकी मोहनमूर्ति की कैसी अनुपम छटा है! - वह श्रीहरी भक्तों का हृदयधन उसकी सौंदर्य सुषमा कोट्यवधि चन्द्रमाओ को लज्जित करेगी! उसके लावण्य दर्शनसे प्राण पुलकित हो जाते हैं। हृत्कमलासन में उसके श्रीचरणों का चिन्तन कर, शान्तिपूर्ण मनसे तथा प्रेमनेत्रों से उस अपरूप प्रियदर्शन का दर्शन कर भक्ति के आवेग से उस चिदानन्द रस में चिरनिमग्न हो जा। . . . ”

नरेन्द्र ने फिर गाया -

(भावार्थ) - “सत्य-शिव-सुन्दर का रूप हृदय-मन्दिर में शोभायमान है, जिसे नित्य देखकर हम उस रूप के समुद्र में डूब जाएँगे। वह दिन कब आएगा? हे प्रभु, मुझ दीन के भाग्य में यह कब होगा? हे नाथ, कब अनन्त ज्ञान के रूप में तुम हमारे हृदय में विराजोगे और हमारा चंचल मन निर्वाक होकर तुम्हारी शरण लेगा? कब अविनाशी आनन्द के रूप में तुम हृदयाकाश में उदित होंगे? चन्द्रमा के उदय होने पर चकोर जैसे उल्लसित होता है, वैसे हम भी तुम्हारे प्रकट होने पर मस्त हो जाएँगे। तुम शान्त, शिव, अद्वितीय और राजराज हो। हे प्राणसखा, तुम्हारे चरणों में हम बिक जाएँगे और अपने जीवन को सफल करेंगे। ऐसा अधिकार और ऐसा जीते जी स्वर्गभोग हमें और कहाँ मिलेगा? तुम्हारा शुद्ध और अपापविद्ध रूप हम देखेंगे। जिस तरह प्रकाश को देखकर अँधेरा जल्द भाग जाता है, उसी तरह तुम्हारे प्रकट होने से पापरूपी अन्धकार भाग जायगा। तुम ध्रुवतारा हो, हे दीनबन्धो, हमारे हृदय में ज्वलन्त विश्वास का संचार कर मन की आशाएँ पूरी कर दो। तुम्हें प्राप्त कर हम अहर्निश प्रेमानन्द में डूबे रहेंगे और अपने आपको भूल जाएँगे। वह दिन कब आएगा, प्रभो?”

(भावार्थ) - “आनन्द से मधुर ब्रह्मनाम का उच्चारण करो। नाम से सुधा का सिन्धु उमड़ आयगा। - उसे लगातार पीते रहो आप पीते रहो और दूसरों को पिलाते रहो। विषयरूपी मृगजल में पड़कर यदि कभी हृदय शुष्क हो जाय तो नामगान करना। प्रेम से हृदय सरस हो उठेगा। देखना, वह महामन्त्र नहीं भूलना। संकट के समय उसे दयालु पिता कहकर पुकारना। हुंकार से पाप का बन्धन तोड़ डालो। जय ब्रह्म कहकर आओ, सब मिलकर ब्रह्मानन्द में मस्त होवें और सब कामनाओं को मिटा दें। प्रेमयोग के योगी बनें।”

मृदंग और करताल के साथ कीर्तन हो रहा है। नरेन्द्र आदि भक्त श्रीरामकृष्ण को घेरकर कीर्तन कर रहे हैं। कभी गाते हैं - ‘प्रेमानन्द-रस में चिरदिन के लिए मग्न हो जा।’ फिर कभी गाते हैं - ‘सत्य-शिव-सुन्दर का रूप हृदय-मन्दिर में शोभायमान है।’

अन्त में नरेन्द्र ने स्वयं मृदंग उठा लिया और मतवाले होकर श्रीरामकृष्ण के साथ गाने लगे - ‘आनन्द से मधुर ब्रह्मनाम का उच्चारण करो।’

कीर्तन समाप्त होने पर श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्र को बार बार छाती से लगाया और कहा - “अहा, आज तुमने मुझे कैसा आनन्द दिया!”

आज श्रीरामकृष्ण के हृदय में प्रेम का स्रोत उमड़ रहा है। रात के आठ बजे होंगे, तो भी प्रेमोन्मत्त होकर बरामदे में अकेले टहल रहे हैं। उत्तरवाले लम्बे बरामदें में आए हैं और अकेले एक छोर से दूसरे छोर तक जल्दी जल्दी टहल रहे हैं। बीच बीच में जगन्माता के साथ कुछ बातचीत कर रहे हैं। एकाएक उन्मत्त की भाँति बोल उठे, “तू मेरा क्या बिगाड़ेगी?”

क्या आप यही कह रहे हैं कि जगन्माता जिसे सहारा दे रही है, माया उसका क्या बिगाड़ सकती है?

नरेन्द्र, प्रिय और मास्टर रात को रहेंगे। नरेन्द्र रहेंगे - बस, श्रीरामकृष्ण फूले नहीं समाते। रात का भोजन तैयार हुआ। श्रीमाताजी* नौबतखाने में हैं - आपने अपने भक्तों के लिए रोटी, दाल आदि बनाकर भेज दिया है। भक्त लोग बीच बीच में रहा करते हैं; सुरेन्द्र प्रतिमास कुछ खर्च देते हैं।

कमरे के दक्षिण-पूर्ववाले बरामदे में भोजन के चौके लगाए जा रहे हैं। पूर्ववाले दरवाजे के पास नरेन्द्र आदि बातचीत कर रहे हैं।

नरेन्द्रादि लोगों को स्कूल तथा अन्य विषय-चर्चा करने का निषेध

नरेन्द्र - आजकल के लड़कों को कैसा देख रहे हैं?

मास्टर - बुरे नहीं, पर धर्म के उपदेश कुछ नहीं पाते हैं।

नरेन्द्र - मैंने खुद जो देखा है उससे तो जान पड़ता है कि सब बिगड़ रहे हैं। चुरुट पीना, ठट्ठेबाजी, ठाटबाट, स्कूल से भागना - ये सब हरदम होते देखे जाते हैं; यहाँ तक कि खराब जगहों में भी जाया करते हैं।

मास्टर - जब हम पढ़ते थे तब तो ऐसा न देखा, न सुना।

नरेन्द्र - शायद आप उतना मिलते-जुलते नहीं थे। मैंने यह भी देखा कि खराब लोग उन्हें नाम से पुकारते हैं। कब उनसे मिले हैं, कौन जाने!

मास्टर - क्या आश्चर्य की बात!

नरेन्द्र - मैं जानता हूँ कि बहुतों का चरित्र बिगड़ गया है। स्कूल के संचालक और लड़कों के अभिभावक इस विषय पर ध्यान दें तो अच्छा हो।

ईश्वर-चर्चा ही असल। “आत्मानं वा विजानीथ अन्यां वाचं विमुञ्चथ।”

इस तरह बातें हो रही थीं कि श्रीरामकृष्ण कोठरी के भीतर से उनके पास आये और हँसते हुए कहते हैं, “भला तुम्हारी क्या बातचीत हो रही है?” नरेन्द्र ने कहा, “इनसे स्कूल की चर्चा हो रही थी। लड़कों का चरित्र ठीक नहीं रहता।” श्रीरामकृष्ण थोड़ी देर तक उन बातों को सुनकर मास्टर से गम्भीर भाव से कहते हैं, “ऐसी बातचीत अच्छी नहीं। ईश्वर की बातों को छोड़ दूसरी बातें अच्छी नहीं। तुम इनसे उम्र में बड़े हो, तुम सयाने हुए हो, तुम्हें ये सब बातें उठने देना उचित न था।”

उस समय नरेन्द्र की उम्र उन्नीस-बीस रही होगी और मास्टर की सत्ताईस-अट्ठाईस।

मास्टर लज्जित हुए, नरेन्द्र आदि भक्त चुप रहे।

श्रीरामकृष्ण खड़े होकर हँसते हुए नरेन्द्र आदि भक्तों को भोजन कराते हैं। आज उनको बड़ा आनन्द हुआ है।

भोजन के बाद नरेन्द्र आदि भक्त श्रीरामकृष्ण के कमरे में फर्श पर बैठे विश्राम कर रहे हैं और श्रीरामकृष्ण से बातें कर रहे हैं। आनन्द का मेला-सा लग गया है। बातों बातों में श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र से कहते हैं - ‘चिदाकाश में पूर्ण प्रेमचन्द्र का उदय हुआ’ जरा इस गाने को तो गा।

नरेन्द्र ने गाना शुरू किया। साथ ही अन्य भक्त मृदंग और करताल बजाने लगे। गीत का आशय इस प्रकार था -

“चिदाकाश में पूर्ण प्रेमचन्द्र का उदय हुआ। क्या ही आनन्दपूर्ण प्रेमसिन्धु उमड़ आया! जय दयामय, जय दयामय, जय दयामय! चारों ओर भक्तरूपी ग्रह जगमगाते हैं। भक्तसखा भगवान भक्तों के संग लीलारसमय हो रहे हैं। जय दयामय! स्वर्ग का द्वार खोल, आनन्द का तूफान उठाते हुए नवविधान* रूपी वसन्त-समीर चल रहा है। उससे लीलारस और प्रेमगन्धवाले कितने ही फूल खिल जाते हैं जिनकी महक से योगीवृन्द योगानन्द में मतवाले हो जाते हैं। जय दयामय! संसार-हृद के जल पर नवविधान-रूपी कमल में आनन्दमयी माँ विराजती हैं, और भावावेश से आकुल भक्तरूपी भौंरे उसमे सुधापान कर रहे हैं। वह देखो माता का प्रसन्न वदन - जिसे देखकर चित्त खिल उठता है और जगत् मुग्ध हो जाता है। और देखो - माँ के श्रीचरणों के पास साधुओं का समूह, वे मस्त होकर नाच-गा रहे हैं। अहा, कैसा अनुपम रूप है - जिसे देखकर प्राण शीतल हो गए। ‘प्रेमदास’ सब के चरण पकड़कर कहता है कि भाई, सब मिलकर माँ की जय गाओ।”

कीर्तन करते करते श्रीरामकृष्ण नृत्य कर रहे हैं। भक्त भी उन्हें घेरकर नाच रहे हैं।

कीर्तन समाप्त होने पर श्रीरामकृष्ण उत्तर-पूर्ववाले बरामदे में टहल रहे हैं। श्रीयुत हाजरा उसी के उत्तर भाग में बैठे हैं। श्रीरामकृष्ण जाकर वहाँ बैठे। मास्टर भी वहीं बैठे हैं और हाजरा से बातचीत कर रहे हैं। श्रीरामकृष्ण ने एक भक्त से पूछा, “क्या तुम कोई स्वप्न भी देखते हो?”

भक्त - एक अद्भुत स्वप्न मैंने देखा हैं - यह जगत् जलमय हो गया है। अनन्त जलराशि! कुछ एक नावें तैर रही थीं, एकाएक बाढ़ से डूब गयीं। मैं और कुछ और आदमी एक जहाज पर चढ़े हैं कि इतने में उस अकूल समुद्र के ऊपर से चलते हुए एक ब्राह्मण दिखायी पड़े। मैंने पूछा, “आप कैसे जा रहे हैं?’ ब्राह्मण ने जरा हँसकर कहा, ‘यहाँ कोई तकलीफ नहीं है; जल के नीचे बराबर पुल है।’ मैंने पूछा, ‘आप कहाँ जा रहे हैं?’ उन्होंने कहा, ‘भवानीपुर जा रहा हूँ।’ मैंने कहा,‘जरा ठहर जाइए; मैं भी आपके साथ चलूँगा।’

श्रीरामकृष्ण - यह सब सुनकर मुझे रोमांच हो रहा है!

भक्त - ब्राह्मण ने कहा, ‘मुझे अब फुरसत नहीं हैं; तुम्हें उतरने में देर लगेगी। अब मैं चलता हूँ। यह रास्ता देख लो, तुम पीछे आना।’

श्रीरामकृष्ण - मुझे रोमांच हो रहा है! तुम जल्दी मन्त्रदीक्षा ले लो।

रात के ग्यारह बज गए हैं। नरेन्द्र आदि भक्त श्रीरामकृष्ण के कमरे में फर्श पर बिस्तर लगाकर लेट गये।

(३)

नींद खुलने पर भक्तों में से कोई कोई देखते हैं कि सबेरा हुआ है (१७ अक्टूबर १८८२ मंगलवार)। श्रीरामकृष्ण बालक की भाँति दिगम्बर हैं, और देव-देवियों के नाम उच्चारण करते हुए कमरे में टहल रहे हैं। आप कभी गंगादर्शन करते हैं, कभी देव-देवियों के चित्रों के पास जाकर प्रणाम करते हैं, और कभी मधुर स्वर में नामकीर्तन करते हैं। कभी कहते हैं - ‘वेद, पुराण, तन्त्र, गीता, गायत्री, भागवत, भक्त, भगवान्। गीता को लक्ष्य करके अनेक बार कहते हैं - ‘त्यागी, त्यागी, त्यागी, त्यागी।’ फिर कभी - ‘तुम्हीं ब्रह्म हो, तुम्हीं शक्ति; तुम्हीं पुरुष हो, तुम्हीं प्रकृति; तुम्हीं विराट हो, तुम्हीं स्वराट् (स्वतन्त्र अद्वितीय सत्ता) - तुम्हीं नित्य हो, तुम्हीं लीलामयी; तुम्हीं (सांख्य के) चौबीस तत्त्व हो।’

इधर कालीमन्दिर और राधाकान्त के मन्दिर में मंगलारती हो रही है और शंखघण्टे बज रहे हैं। भक्त उठकर देखते हैं कि मन्दिर की फुलवाड़ी में देव-देवियों की पूजा के लिए फूल तोड़े जा रहे हैं, और प्रभाती रागों की लहरें फैलाती हुई नौबत बज रही है।

नरेन्द्र आदि भक्त प्रातःक्रिया से निपटकर श्रीरामकृष्ण के पास आए। श्रीरामकृष्ण सहास्यमुख हो उत्तर-पूर्ववाले बरामदे में पश्चिम की ओर खड़े हैं।

नरेन्द्र - मैंने देखा कि पंचवटी में कुछ नानकपन्थी साधु बैठे हैं।

श्रीरामकृष्ण - हाँ, वे कल आए थे। (नरेन्द्र से) तुम सब एक साथ चटाई पर बैठो, मैं देखूँ।

सब भक्तों के चटाई पर बैठने के बाद श्रीरामकृष्ण आनन्द से देखने और उनसे बातचीत करने लगे। नरेन्द्र ने साधना की बात छेड़ी।

वीरभाव की साधना कठिन है। सन्तानभाव अतिशुद्ध है।

श्रीरामकृष्ण (नरेन्द्र आदि से) - भक्ति ही सार वस्तु हैं। ईश्वर को प्यार करने से विवेक-वैराग्य आप ही आप आ जाते हैं।

नरेन्द्र - एक बात पूछूँ - क्या औरतों से मिलकर साधना करना तन्त्रों में कहा गया है?

श्रीरामकृष्ण - वे सब अच्छे रास्ते नहीं; बड़े कठिन हैं, और उनसे प्रायः पतन हुआ करता है। तीन प्रकार की साधनाएँ हैं - वीरभाव, दासीभाव और मातृभाव। मेरी मातृभाव की साधना है। दासीभाव भी अच्छा है। वीरभाव की साधना बड़ी कठिन है। सन्तानभाव बड़ा शुद्ध भाव है।

नानकपन्थी साधुओ ने आकर श्रीरामकृष्ण को ‘नमो नारायण’ कहकर अभिवादन किया। श्रीरामकृष्ण ने उनसे बैठने को कहा।

ईश्वर के लिए सभी कुछ सम्भव है

श्रीरामकृष्ण कहते हैं - “ईश्वर के लिए कुछ भी असम्भव नहीं। उनका यथार्थ स्वरूप कोई नहीं बता सकता। सभी सम्भव है। दो योगी थे, ईश्वर की साधना करते थे। नारद ऋषि जा रहे थे। उनका परिचय पाकर एक ने कहा ‘तुम नारायण के पास से आते हो? वे क्या कर रहे हैं?’ नारदजी ने कहा, ‘मैं देख आया कि वे एक सुई के छेद में ऊँट-हाथी घुसाते हैं और फिर निकालते हैं।’ उस पर एक ने कहा, ‘इसमें आश्चर्य ही क्या है? उनके लिए सभी सम्भव है।’ पर दूसरे ने कहा, ‘भला ऐसा कभी हो सकता है? तुम वहाँ गए ही नहीं।’

दिन के नौ बजे होंगे। श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में बैठे हैं। कोन्नगर से मनोमोहन सपरिवार आए हैं। उन्होंने प्रणाम करके कहा, “इन्हें कलकत्ते ले जा रहा हूँ!” कुशल प्रश्न पूछने के बाद श्रीरामकृष्ण ने कहा, “आज माह का पहला दिन है और तुम तो कलकत्ते जा रहे हो; - क्या जाने कहीं कुछ खराबी न हो!” यह कहकर जरा हँसे और दूसरी बात कहने लगे।

नरेन्द्र को मग्न होकर ध्यान करने का उपदेश

नरेन्द्र और उनके मित्र स्नान करके आए। श्रीरामकृष्ण ने व्यग्र होकर नरेन्द्र से कहा, “जाओ, बट के नीचे जाकर ध्यान करो। आसन दूँ?”

नरेन्द्र और उनके कुछ ब्राह्म मित्र पंचवटी के नीचे ध्यान कर रहे हैं। करीब साढ़े दस बजे होंगे। थोड़ी देर में श्रीरामकृष्ण वहाँ आए; मास्टर भी साथ हैं। श्रीरामकृष्ण कहते हैं -

(ब्राह्म भक्तों से) - “ध्यान करते समय ईश्वर में डूब जाना चाहिए, ऊपर ऊपर तैरने से क्या पानी के नीचेवाले लाल मिल सकते हैं?”

फिर आपने रामप्रसाद का एक गीत गाया जिसका आशय इस प्रकार है - “ऐ मन, काली कहकर हृदयरूपी रत्नाकर के अथाह जल में डुबकी लगा। यदि दो ही चार डुबकियों में धन हाथ न लगा, तो भी रत्नाकर शून्य नहीं हो सकता। पूरा दम लेकर एक ऐसी डुबकी लगा कि तू कुलकुण्डलिनी के पास पहुँच जाय। ऐ मन, ज्ञानसमुद्र में शक्तिरूपी मुक्ताएँ पैदा होती हैं। यदि तू शिव की युक्ति के अनुसार भक्तिपूर्वक ढूँढ़ेगा तो तू उन्हें पा सकेगा। उस समुद्र में काम आदि छः घड़ियाल हैं, जो खाने के लोभ से सदा ही घूमते रहते हैं। तो तू विवेकरूपी हल्दी बदन में चुपड़ ले - उसकी बू से वे तुझे छुएँगे नहीं। कितने ही लाल और माणिक उस जल में पड़े हैं। रामप्रसाद का कहना है कि यदि तू कूद पड़ेगा तो तुझे वे सब के सब मिल जाएँगे।”

ब्राह्मसमाज वक्तृता और समाजसंस्कार (Social Reforms) पहले ईश्वरलाभ, उसके बाद लोकशिक्षा

नरेन्द्र और उनके मित्र पंचवटी के चबूतरे से उतरे और श्रीरामकृष्ण के पास खड़े हुए। श्रीरामकृष्ण दक्षिणमुख होकर उनसे बातचीत करते करते अपने कमरे की तरफ आ रहे हैं।

श्रीरामकृष्ण - गोता लगाने से तुम्हें घड़ियाल पकड़ सकते हैं, पर हल्दी चुपड़ने से वे नहीं छू सकते। हृदयरूपी रत्नाकर के अथाह जल में काम आदि छः घड़ियाल रहते हैं, पर विवेकवैराग्यरूपी हल्दी चुपड़ने से वे फिर तुम्हें नहीं छुएँगे।

“केवल पण्डिताई या लेक्चर से क्या होगा यदि विवेक-वैराग्य न हुआ? ईश्वर सत्य हैं और सब कुछ अनित्य; वे ही वस्तु हैं, शेष सब अवस्तु - इसी का नाम विवेक है।

“पहले हृदय-मन्दिर में उनकी प्रतिष्ठा करो। वक्तृता, लेक्चर आदि जी चाहे तो उसके बाद करना। खाली ‘ब्रह्म ब्रह्म’ कहने से क्या होगा, यदि विवेक-वैराग्य न रहा? वह तो नाहक शंख फूकना हुआ!

“किसी गाँव में पद्मलोचन नाम का एक लड़का था। लोग उसे पदुआ कहकर पुकारते थे। उसी गाँव में एक जीर्ण मन्दिर था। अन्दर देवता का कोई विग्रह न था - मन्दिर की दीवारों पर पीपल और अन्य प्रकार के पेड़-पौधे उग आए थे। मन्दिर के भीतर चमगीदड़ अड्डा जमाये हुए थे। फर्श पर गर्द और चमगीदड़ों की विष्ठा पड़ी रहती थी। मन्दिर में लोगों का समागम नहीं होता था।

“एक दिन सन्ध्या के थोड़ी देर बाद गाँववालों ने शंख की आवाज सुनी। मन्दिर की तरफ से भों भों शंख बज रहा है। गाँववालों ने सोचा कि किसी ने देवता-प्रतिष्ठा की होगी, और सन्ध्या के बाद आरती हो रही है। लड़के, बूढ़े, औरत, मर्द, सब दौड़ते हुए मन्दिर के सामने हाजिर हुए - देवता के दर्शन करेंगे और आरती देखेंगे। उनमें से एक ने मन्दिर का दरवाजा धीरे से खोलकर देखा कि पद्मलोचन एक बगल में खड़ा होकर भों भों शंख बजा रहा है। देवता की प्रतिष्ठा नहीं हुई - मन्दिर में झाड़ू तक नहीं लगाया गया - चमगीदड़ों की विष्ठा पड़ी हुई है। तब वह चिल्लाकर कहता है - ‘तेरे मन्दिर में माधव कहाँ! पदुआ, तूने तो नाहक शंख फूँककर हुल्लड़ मचा दिया है। उसमें ग्यारह, चमगीदड़ रातदिन गश्त लगा रहे हैं -’

“यदि हृदय-मन्दिर में माधव-प्रतिष्ठा की इच्छा हो, यदि ईश्वर का लाभ करना चाहो तो, सिर्फ भों भों शंख फूँकने से क्या होगा! पहले चित्तशुद्धि चाहिए। मन शुद्ध हुआ तो भगवान् उस पवित्र आसन पर आ विराजेंगे। चमगीदड़ की विष्ठा रहने से माधव नहीं लाए जा सकते। ग्यारह चमगीदड़ का अर्थ है ग्यारह इन्द्रियाँ - पाँच ज्ञान की इन्द्रियाँ, पाँच कर्म की इन्द्रियाँ और मन। पहले माधव-प्रतिष्ठा, बाद में इच्छा हो तो वक्तृता, लेक्चर आदि देना।

“पहले डुबकी लगाओ। गोता लगाकर लाल उठाओ, फिर दूसरे काम करो।

“कोई गोता लगाना नहीं चाहता! न साधन, न भजन, न विवेक-वैराग्य - दो-चार शब्द सीख लिए, बस लगे लेक्चर देने! शिक्षा देना कठिन काम है। ईश्वर-दर्शन के बाद यदि कोई उनका आदेश पाए, तो वह लोगों को शिक्षा दे सकता है।”

अविद्या स्त्री। सच्ची भक्ति हो तो सभी वश में आ जाते हैं।

बातें करते हुए श्रीरामकृष्ण उत्तरवाले बरामदे के पश्चिम भाग में आ खड़े हुए। मणि पास खड़े हैं। श्रीरामकृष्ण बारम्बार कह रहे हैं, ‘बिना विवेक-वैराग्य के भगवान् नहीं मिलेंगे।’ मणि विवाह कर चुके हैं इसीलिए व्याकुल होकर सोच रहे हैं कि क्या उपाय होगा। उनकी उम्र अट्ठाईस वर्ष की है, कालेज में पढ़कर उन्होंने कुछ अंग्रेजी शिक्षा पायी है। वे सोच रहे हैं - क्या विवेकवैराग्य का अर्थ कामिनी-कांचन का त्याग है?

मणि (श्रीरामकृष्ण से ) - यदि स्त्री कहे कि आप मेरी देखभाल नहीं करते हैं, मैं आत्महत्या करूँगी, तो कैसा होगा?

श्रीरामकृष्ण (गम्भीर स्वर से) - ऐसे स्त्री को त्यागना चाहिए, जो ईश्वर की राह में विघ्न डालती हो, चाहे वह आत्महत्या करे, चाहे और कुछ।

“जो स्त्री ईश्वर की राह में विघ्न डालती है, वह अविद्या स्त्री है।”

गहरी चिन्ता में डूबे हुए मणि दीवार से टेककर एक तरफ खड़े रहे। नरेन्द्र आदि भक्त भी थोड़ी देर निर्वाक् हो रहे।

श्रीरामकृष्ण उनसे जरा बातचीत कर रहे हैं। एकाएक मणि के पास आकर एकान्त में मृदु स्वर से कहते हैं, “परन्तु जिसकी ईश्वर पर सच्ची भक्ति है, उसके वश में सभी आ जाते हैं - राजा, बुरे आदमी, स्त्री - सब। यदि किसी की भक्ति सच्ची हो तो स्त्री भी क्रम से ईश्वर की राह पर जा सकती है। आप अच्छे हुए तो ईश्वर की इच्छा से वह भी अच्छी हो सकती है।”

मणि की चिन्ताग्नि पर पानी बरसा। वे अब तक सोच रहे थे - स्त्री आत्महत्या कर ले तो करने दो, मैं क्या कर सकता हूँ?

मणि (श्रीरामकृष्ण से) - संसार में बड़ा डर रहता है।

श्रीरामकृष्ण - (मणि और नरेन्द्र से) - इसी से तो चैतन्यदेव ने कहा था, ‘सुनो भाई नित्यानन्द, संसारी जीवों के लिए कोई उपाय नहीं।’

(मणि से, एकान्त में) - “यदि ईश्वर पर शुद्धा भक्ति न हुई तो कोई उपाय नहीं। यदि कोई ईश्वर का लाभ करके संसार में रहे तो उसे कुछ डर नहीं। यदि बीच बीच में एकान्त में साधना करके कोई शुद्धा भक्ति प्राप्त कर सके तो संसार में रहते हुए भी उसे कोई डर नहीं। चैतन्यदेव के संसारी भक्त भी थे। वे तो कहने भर के लिए संसारी थे। वे अनासक्त होकर रहते थे।”

देव-देवियों की भोग-आरती हो चुकी, वैसे ही नौबत बजने लगी। अब उनके विश्राम का समय हुआ। श्रीरामकृष्ण भोजन करने बैठे। नरेन्द्र आदि भक्त आज भी आपके पास प्रसाद पाएँगे।

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