परिच्छेद १३ - केशवचन्द्र सेन के साथ श्रीरामकृष्ण का नौका विहार, आनन्द और वार्तालाप

(१)

समाधि में

आज शरत्-पूर्णिमा है। लक्ष्मीजी की पूजा है। शुक्रवार, २७ अक्टूबर १८८२। श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर के उसी पूर्व-परिचित कमरे में बैठे हैं। विजय गोस्वामी और हरलाल से बातचीत कर रहे हैं। एक आदमी ने आकर कहा, ‘केशव सेन जहाज पर चढ़कर घाट पर आए हैं।’ केशव के शिष्यों ने प्रणाम करके कहा, ‘महाराज, जहाज आया है। आपको चलना होगा; चलिए, जरा घूम आइएगा। केशवबाबू जहाज में हैं, हमें भेजा है।’

शाम के चार बज गए हैं। श्रीरामकृष्ण नाव पर होते हुए जहाज पर चढ़ रहे हैं। साथ विजय हैं। नाव पर चढ़ते ही बाह्यज्ञानरहित समाधिमग्न हो गए।

मास्टर जहाज में खड़े खड़े यह समाधिचित्र देख रहे हैं। वे दिन के तीन बजे केशव के साथ जहाज पर चढ़कर कलकत्ते से आए हैं। बड़ी इच्छा है, श्रीरामकृष्ण और केशव का मिलन, उनका आनन्द देखेंगे और उनकी बातें सुनेंगे। केशव ने अपने साधुचरित्र और वक्तृता के बल से मास्टर जैसे अनेक वंगीय युवकों का मन हर लिया है। अनेकों ने उन्हें अपना परम आत्मीय जानकर अपने हृदय का प्रेम समर्पित कर दिया है। केशव अंग्रेजी जानते हैं, अंग्रेजी दर्शन और साहित्य जानते है, फिर बहुत बार देव-देवियों की पूजा को पौत्तलिकता भी कहते हैं। इस प्रकार के मनुष्य श्रीरामकृष्ण को भक्ति और श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं। और बीच बीच में दर्शन करने आते हैं, यह बात अवश्य विस्मयजनक है। उनके मन में मेल कहाँ और किस प्रकार हुआ, यह रहस्य-भेद करने के लिए मास्टर आदि अनेकों को कौतूहल हुआ है। श्रीरामकृष्ण निराकारवादी तो हैं, किन्तु साकारवादी भी हैं। ब्रह्म का चिन्तन करते हैं, और फिर देव-देवियों के सामने पुष्प-चन्दन से पूजा और प्रेम से मतवाले होकर नृत्यगीत भी करते हैं। खाट और बिछौने पर बैठते हैं, लाल धारीदार धोती, कुर्ता, मोजा, जूता पहनते है; परन्तु संसार से स्वतन्त्र हैं। सारे भाव संन्यासियों के से हैं, इसीलिए लोग परमहंस कहते है। इधर केशव निराकारवादी है; स्त्री-पुत्रवाले गृही हैं; अंग्रेजी में व्याख्यान देते हैं; अखबार लिखते हैं; विषयकर्मों की देखरेख भी करते हैं।

केशव आदि ब्राह्मभक्त जहाज पर से मन्दिर की शोभा देख रहे हैं। जहाज के पूर्व ओर पास ही बँधा घाट और मन्दिर का चाँदनीमण्डप है। बायीं ओर - चाँदनीमण्डप के उत्तर, बारह शिवमन्दिर में से छः मन्दिर हैं; दक्षिण की ओर भी छः मन्दिर है। शरद् के नील आकाश की पृष्ठभूमि पर भवतारिणी के मन्दिर का कलश तथा उत्तर की ओर पंचवटी और देवदार वृक्षों के शिरोभाग दीखते हैं। एक नौबतखाना बकुलतला के पास है और कालीमन्दिर के दक्षिण प्रान्त में एक और नौबतखाना है। दोनों नौबतखानों के बीच में बगीचे का रास्ता है जिसके दोनों ओर कतार के कतार फूलों के पेड़ लगे हैं। शरत्-काल के आकाश की नीलिमा श्रीगंगा के वक्ष पर पड़कर अपूर्व शोभा दे रही है। बाहरी संसार में भी कोमल भाव है और ब्राह्मभक्तों के हृदय में भी कोमल भाव है। ऊपर सुन्दर नीला अनन्त आकाश है, सामने सुन्दर ठाकुरबाड़ी है, नीचे पवित्रसलिला गंगा हैं जिनके किनारे आर्यऋषियों ने परमात्मा का स्मरण-मनन किया है। फिर एक महापुरुष आये हैं, जो साक्षात् सनातन धर्म हैं! इस प्रकार के दर्शन मनुष्यों को सर्वदा नहीं होते। ऐसे समाधिमग्न महापुरुष पर किसकी भक्ति नहीं होगी, ऐसा कौन कठोर मनुष्य है जो द्रवीभूत न होगा?

(२)

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥ (गीता, २-२२)

समाधि में। आत्मा अविनश्वर है। पवहारी बाबा

नाव आकर जहाज से लगी। सभी श्रीरामकृष्ण को देखने के लिए उत्सुक हो रहे हैं। अच्छी भीड़ है। श्रीरामकृष्ण को निर्विघ्न उतारने के लिए केशव आदि व्यग्र हो रहे हैं। बड़ी मुश्किल से उन्हें होश में लाकर कमरे के भीतर ले गए। अभी तक भावस्थ है, एक भक्त का सहारा लेकर चल रहे हैं। सिर्फ पैर हिल रहे हैं। कैबिन-घर में आपने प्रवेश किया। केशव आदि भक्तों ने प्रणाम किया किन्तु आपको होश नहीं। कमरे के भीतर एक मेज और कुछ कुर्सियाँ हैं। एक कुर्सी पर श्रीरामकृष्ण बैठाए गए, एक पर केशव बैठे। विजय बैठे। दूसरे भक्त फर्श पर जहाँ जगह मिली वहीं बैठ गए। अनेक मनुष्यों को जगह नहीं मिली। वे सब बाहर से झाँक-झाँककर देखने लगे। श्रीरामकृष्ण बैठे हुए फिर समाधिस्थ हो गए, - सम्पूर्ण बाह्यज्ञानशून्य। सभी एक नजर से देख रहे हैं।

केशव ने देखा कि कमरे के भीतर बहुत आदमी हैं और श्रीरामकृष्ण को तकलीफ हो रही है। विजय केशव को छोड़कर साधारण ब्राह्मसमाज में चले गए हैं और उनकी कन्या के विवाह आदि के विरुद्ध उन्होंने कितनी वक्तृताएँ दी हैं; इसलिए विजय को देखकर केशव कुछ अप्रतिभ हो गए। वे आसन छोड़कर उठे, कमरे के झरोखे खोल देने के लिए।

ब्राह्मभक्त टकटकी लगाए श्रीरामकृष्ण को देख रहे हैं। श्रीरामकृष्ण की समाधि छूटी, परन्तु अभी तक भाव पूरी मात्रा में वर्तमान है। श्रीरामकृष्ण आप ही आप अस्फुट स्वरों में कहते हैं - ‘माँ, मुझे यहाँ क्यों लायी? मैं क्या इन लोगों की घेरे के भीतर से रक्षा कर सकूँगा?’

श्रीरामकृष्ण शायद देख रहे हैं कि संसारी जीव घेरे के भीतर बन्द हैं, बाहर नहीं आ सकते, बाहर का उजेला भी नहीं देख पाते, सब के हाथ-पैर सांसारिक कामों से बँधे हैं। केवल घर के भीतर की वस्तु उन्हें देखने को मिलती है। वे सोचते हैं कि जीवन का उद्देश्य केवल शरीर-सुख और विषय-कर्म - काम और कांचन - है। क्या इसीलिए श्रीरामकृष्ण ने कहा, ‘माँ, मुझे यहाँ क्यों लायी? मैं क्या इन लोगों की घेरे के भीतर से रक्षा कर सकूँगा?’

धीरे धीरे श्रीरामकृष्ण को बाह्यज्ञान हुआ। गाजीपुर के नीलमाधव बाबू और एक ब्राह्मभक्त ने पवहारी बाबा की बात चलायी।

ब्राह्मभक्त - महाराज, इन लोगों ने पवहारी बाबा को देखा है। वे गाजीपुर में रहते हैं, आपकी तरह एक और हैं।

श्रीरामकृष्ण अभी तक बातचीत नहीं कर पा रहे हैं, सुनकर सिर्फ मुसकराए।

ब्राह्मभक्त (श्रीरामकृष्ण से) - महाराज, पवहारी बाबा ने अपने कमरे में आपका फोटोग्राफ रखा है।

श्रीरामकृष्ण जरा हँसकर अपनी देह की ओर उँगली दिखाकर बोले - “यह गिलाफ !”

(३)

यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते। एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति॥ (गीता, ५।५)

ज्ञानयोग, भक्तियोग तथा कर्मयोग का समन्वय

‘तकिया और उसका गिलाफ।’ देही और देह। क्या श्रीरामकृष्ण कहते हैं कि देह नश्वर है, नहीं रहेगी? देह के भीतर जो देही है वह अविनाशी है, अतएव देह का फोटोग्राफ लेकर क्या होगा? देह अनित्य वस्तु है, इसके आदर से क्या होगा? बल्कि जो भगवान् अन्तर्यामी हैं, मनुष्य के हृदय में विराजमान हैं, उन्हीं की पूजा करनी चाहिए।

श्रीरामकृष्ण कुछ प्रकृतिस्थ हुए। वे कह रहे हैं - “परन्तु एक बात है। भक्तों का हृदय उनका निवासस्थान है। भक्तों के हृदय में वे विशेष रूप से रहते हैं। जैसे कोई जमींदार अपनी जमींदारी में सभी जगह रह सकता है, परन्तु वे अमुक बैठक में प्रायः रहते हैं, यही लोग कहा करते हैं। भक्तों का हृदय भगवान् का बैठकघर है। (सब लोग आनन्दित हुए।)

“जिन्हें ज्ञानी ब्रह्म कहते हैं, योगी उन्हीं को आत्मा कहते हैं और भक्त उन्हें भगवान् कहते हैं।

“एक ही ब्राह्मण है। जब पूजा करता है, तब उसका नाम पुजारी है, जब भोजन पकाता है, तब उसे रसोइया कहते हैं। जो ज्ञानी है, ज्ञानयोग जिसका अवलम्बन है, वह ‘नेति नेति’ विचार कहता है, - ब्रह्म न यह है, न वह; न जीव है, न जगत्। विचार करते करते जब मन स्थिर होता है, मन का नाश होता है, समाधि होती है, तब ब्रह्मज्ञान होता है। ब्रह्मज्ञानी की सत्यधारणा है कि ब्रह्म सत्य, जगत् मिथ्या नामरूप स्वप्नतुल्य है; ब्रह्म क्या है यह मुँह से नहीं कहा जा सकता; वे व्यक्ति (Personal God) हैं यह भी नहीं कहा जा सकता।

“ज्ञानी इसी प्रकार कहते हैं - जैसे वेदान्तवादी। परन्तु भक्तगण सभी अवस्थाओं को लेते हैं। वे जाग्रत् अवस्था को भी सत्य कहते हैं; जगत् को स्वप्नवत् नहीं कहते। भक्त कहते है, यह संसार भगवान् का ऐश्वर्य है; आकाश, नक्षत्र, चन्द्र, सूर्य, पर्वत, समुद्र, जीव-जन्तु आदि सभी भगवान् की सृष्टि है, उन्हीं का ऐश्वर्य है। वे हृदय के भीतर हैं और बाहर भी। उत्तम भक्त कहता है, वे स्वयं ही ये चौबीस तत्त्व - जीवजगत् - बने हैं। भक्त की इच्छा चीनी खाने की है, चीनी होने की नहीं। (सब हँसते हैं।)

“भक्त का भाव कैसा है, जानते हो? ‘हे भगवन्, तुम प्रभु हो, मैं तुम्हारा दास हूँ, ‘तुम माता हो, मैं तुम्हारी सन्तान हूँ; और यह भी कि ‘तुम मेरे पिता या माता हो’, ‘तुम पूर्ण हो, मैं तुम्हारा अंश हूँ’। भक्त यह कहने की इच्छा नहीं करता कि मैं ब्रह्म हूँ।

“योगी भी परमात्मा के दर्शन करने की चेष्टा करता है। उद्देश्य जीवात्मा और परमात्मा का योग है। योगी विषयों से मन को खींच लेता है और परमात्मा में मन लगाने की चेष्टा करता है। इसीलिए पहले-पहल निर्जन में स्थिर आसन साधकर अनन्य मन से ध्यान-चिन्तन करता है।

“परन्तु वस्तु एक ही है। केवल नाम का भेद है। जो ब्रह्म है, वही आत्मा है, वही भगवान् है। ब्रह्मज्ञानियों के लिए ब्रह्म, योगियों के लिए परमात्मा और भक्तों के लिए भगवान्।”

(४)

त्वमेव सूक्ष्मा त्वं स्थूला व्यक्ताव्यक्तस्वरूपिणी। निराकारापि साकारा कस्त्वां वेदितुमर्हति॥ (महानिर्वाण तन्त्र, ४।१५)

वेद तथा तन्त्र का समन्वय। आद्याशक्ति का ऐश्वर्य

इधर जहाज कलकत्ते की ओर जा रहा है, उधर कमरे के भीतर जो लोग श्रीरामकृष्ण के दर्शन कर रहे हैं और उनकी अमृतमयी वाणी सुन रहे है, उन्हें सुध नही कि जहाज चल रहा है या नहीं। भौंरा फूल पर बैठने पर फिर क्या भनभनाता है?

धीरे धीरे जहाज दक्षिणेश्वर छोड़कर देवालयों के चित्ताकर्षक दृश्यों के बाहर हो गया। चलते हुए जहाज से मथा हुआ गंगाजल फेनमय तरंगों से भर गया और उससे आवाज होने लगी। परन्तु यह आवाज भक्तों के कानों तक नहीं पहुँची। वे तो मुग्ध होकर देखते हैं केवल हँसमुख, आनन्दमय, प्रेमरंजित नेत्रवाले एक अपूर्व प्रियदर्शन योगी को! वे मुग्ध होकर देखते हैं सर्वत्यागी एक प्रेमी विरागी को, जो ईश्वर को छोड़ और कुछ नहीं जानते। श्रीरामकृष्ण वार्तालाप कर रहे हैं।

श्रीरामकृष्ण - वेदान्तवादी ब्रह्मज्ञानी कहते हैं, सृष्टि, स्थिति, प्रलय, जीव, जगत् यह सब शक्ति का खेल है। विचार करने पर यह सब स्वप्नवत् जान पड़ता है; ब्रह्म ही वस्तु है और सब अवस्तु; शक्ति भी स्वप्नवत् अवस्तु है।

“परन्तु चाहे लाख विचार करो, बिना समाधि में लीन हुए शक्ति के इलाके के बाहर जाने की सामर्थ्य नहीं। मैं ध्यान कर रहा हूँ, मैं चिन्तन कर रहा हूँ, - यह सब शक्ति के इलाके के अन्दर है - शक्ति के ऐश्वर्य के भीतर है।

“इसलिए ब्रह्म और शक्ति अभिन्न हैं। एक को मानो तो दूसरे को भी मानना पड़ता है। जैसे अग्नि और उसकी दाहिका शक्ति। अग्नि को मानो तो दाहिका शक्ति को भी मानना पड़ेगा। बिना दाहिका शक्ति के अग्नि का विचार नहीं किया जा सकता, फिर अग्नि को छोड़कर दाहिका शक्ति का विचार नहीं किया जा सकता। सूर्य को अलग करके उसकी किरणों की कल्पना नहीं की जा सकती, न किरणों को छोड़कर कोई सूर्य को ही सोच सकता है।

“दूध कैसा है? सफेद। दूध को छोड़कर दूध की धवलता नहीं सोची जा सकती और न बिना धवलता के दूध ही सोचा जा सकता है।

“इसीलिए ब्रह्म को छोड़कर न शक्ति को कोई सोच सकता है और न शक्ति को छोड़ ब्रह्म को। उसी प्रकार नित्य* को छोड़कर न लीला को कोई सोच सकता है और न लीला को छोड़कर नित्य को।

“आद्याशक्ति लीलामयी हैं। वे सृष्टि, स्थिति और प्रलय करती हैं। उन्हीं का नाम काली है। काली ही ब्रह्म हैं, ब्रह्म ही काली हैं। एक ही वस्तु है। वे निष्क्रिय हैं, सृष्टिस्थिति-प्रलय का कोई काम नहीं करते, यह बात जब सोचता हूँ तब उन्हें ब्रह्म कहता हूँ और जब वे ये सब काम करते हैं, तब उन्हें काली कहता हूँ - शक्ति कहता हूँ। एक ही व्यक्ति है, भेद सिर्फ नाम और रूप में है।

“जिस प्रकार ‘जल’, ‘वाटर’ और ‘पानी’। एक तालाब में तीन-चार घाट हैं। एक घाट में हिन्दू पानी पीते हैं, वे ‘जल’ कहते हैं;* और एक घाट में मुसलमान पानी पीते हैं, वे ‘पानी’ कहते हैं; और एक घाट में अंग्रेज पानी पीते हैं, वे ‘वाटर’ कहते हैं। तीनों एक हैं, भेद केवल नामों में है। उन्हें कोई ‘अल्लाह’ कहता है, कोई ‘गाड’, कोई ‘ब्रह्म’ कहता है, कोई ‘काली’; कोई राम, हरि, ईसा, दुर्गा आदि।”

केशव (सहास्य) - यह कहिए कि काली कितने भावों से लीला कर रही हैं।

महाकाली तथा सृष्टिप्रकरण

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - वे नाना भावों से लीला कर रही हैं। वे ही महाकाली, नित्यकाली, श्मशानकाली, रक्षाकाली और श्यामाकाली है। महाकाली और नित्यकाली की बात तन्त्रों में हैं। जब सृष्टि हुई नहीं थी, सूर्य-चन्द्र, ग्रह-पृथ्वी आदि नहीं थे, - घोर अन्धकार था, तब केवल निराकार महाकाली महाकाल के साथ अभेद रूप से विराज रही थीं।

“श्यामाकाली का बहुत कुछ कोमल भाव है, - वराभयदायिनी हैं। गृहस्थों के घर उन्हीं की पूजा होती है। जब अकाल, महामारी, भूकम्प, अनावृष्टि, अतिवृष्टि होती है, तब रक्षाकाली की पूजा की जाती है। श्मशानकाली की संहारमूर्ति है, शव-शिवाडाकिनी-योगिनियों के बीच, श्मशान में रहती हैं। रुधिरधारा, गले में मुण्डमाला, कटि में नरहस्तों का कमरबन्द। जब संसार का नाश होता है, महाप्रलय होता है तब माँ सृष्टि के बीज इकट्ठे कर लेती हैं। घर की गृहिणी के पास जिस प्रकार एक हण्डी रहती है और उसमें तरह तरह की चीजें रखी रहती हैं।” (केशव तथा और लोग हँसते हैं।)

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - हाँ जी, गृहिणियों के पास इस तरह की हण्डी रहती है। उसमें वे समुद्रफेन, नील का डला, खीरे, कोहड़े आदि के बीज छोटी छोटी गठरियों में बाँधकर रख देती हैं और जरूरत पड़ने पर निकालती है। माँ ब्रह्ममयी सृष्टिनाश के बाद इसी प्रकार सब बीज इकट्ठे कर लेती हैं। सृष्टि के बाद आद्याशक्ति संसार के भीतर ही रहती हैं। वे संसार प्रसव करती हैं; फिर संसार के भीतर रहती हैं। वेदों में ‘ऊर्णनाभ’ की बात है; मकड़ी और उसका जाला। मकड़ी अपने भीतर से जाला निकालती है और उसी के ऊपर रहती भी है। ईश्वर संसार के आधार और आधेय दोनों हैं।

कालीब्रह्म काली निर्गुणा और सगुणा

“काली का रंग काला थोड़े ही है! दूर है, इसी से काला जान पड़ता है; समझ लेने पर काला नहीं रहता।

“आकाश दूर से नीला दिखायी पड़ता है। पास जाकर देखो तो कोई रंग नहीं। समुद्र का पानी दूर से नीला जान पड़ता है, पास जाकर चुल्लू में लेकर देखो, कोई रंग नहीं।”

यह कहकर श्रीरामकृष्ण प्रेम से मतवाले होकर गाने लगे। भाव यह है - “मेरी माँ क्या काली है? दिगम्बरी का काला रूप हृदयपद्म को प्रकाशपूर्ण करता है।”

(५)

त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्। मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम्॥ (गीता, ७।१३)

यह संसार क्यों है?

श्रीरामकृष्ण (केशव आदि से) - बन्धन और मुक्ति दोनों ही की कर्त्री वे हैं। उनकी माया से संसारी जीव काम-कांचन में बँधा है और फिर उनकी दया होते ही वह छूट जाता है। वे ‘भवबन्धन की फाँस काटनेवाली तारिणी’ हैं।

यह कहकर गन्धर्वकण्ठ से भक्त रामप्रसाद का गीत गाने लगे जिसका आशय यह है :-

“श्यामा माँ, संसार-रूपी बाजार के बीच तू पतंग उड़ा रही है। यह आशा-वायु के सहारे उड़ती है। इसमें माया की डोर लगी हुई है। विषयों के माँझे से यह कर्री हो गयी है। लाखों में से दो ही एक (पतंगें) कटती हैं और तब तू हँसकर तालियाँ पीटती है। . . . ’

“वे लीलामयी हैं। यह संसार उनकी लीला है। वे इच्छामयी, आनन्दमयी हैं, लाख आदमियों में कहीं एक को मुक्त करती हैं।”

ब्राह्मभक्त - महाराज, वे चाहें तो सभी को मुक्त कर सकती हैं, तो फिर क्यों हम लोगों को संसार में बाँध रखा है?

श्रीरामकृष्ण - उनकी इच्छा! उनकी इच्छा कि वे यह सब लेकर खेल करें। छुई-छुऔअल खेलनेवाले सभी लड़के अगर ढाई को दौड़कर छू लें तो खेल ही बन्द हो जाय! और यदि सभी छू लें तो ढाई नाराज भी होती है। खेल चलता है तो ढाई खुश रहती है। इसीलिए कहते हैं - लाखों में से दो ही एक कटते हैं और तब तू हँसकर तालियाँ पीटती है। (सब प्रसन्न होते हैं।)

“उन्होंने मन को आँखों के इशारे कह दिया है - ‘जा, संसार में विचर।’ मन का क्या कसूर है? वे यदि फिर कृपा करके मन को फेर दें तो विषय-बुद्धि से छुटकारा मिले; तब फिर उनके पादपद्मों में मन लगे।”

श्रीरामकृष्ण संसारियों के भाव में माँ के प्रति अभिमान करके गाने लगे -

(भावार्थ) - “‘मैं यह खेद करता हूँ कि तुम जैसी माँ के रहते, मेरे जागते हुए भी, घर में चोरी हो! मन में होता है कि तुम्हारा नाम लूँ, परन्तु समय टल जाता है। मैंने समझा है, जाना है और मुझे आशय भी मिला है कि यह सब तुम्हारी ही चातुरी है। तुमने न कुछ दिया, न पाया; न लिया, न खाया; यह क्या मेरा ही कसूर है? यदि देतीं तो पातीं, लेतीं और खातीं, मैं भी तुम्हारा ही तुम्हें देता और खिलाता। यश अपयश, सुरस कुरस, सभी रस तुम्हारे हैं। रसेश्वरी! रस में रहकर यह रसभंग क्यों? ‘प्रसाद’ कहता है - तुम्हीं ने मन को पैदा करते समय इशारा कर दिया है। तुम्हारी यह सृष्टि किसी की कुदृष्टि से जल गयी है, पर हम उसे मीठी समझकर भटक रहे हैं।’

“उन्हीं की माया से भूलकर मनुष्य संसारी हुआ है। ‘प्रसाद’ कहता है, तुम्हीं ने मन को पैदा करते समय इशारा कर दिया है।”

कर्मयोग। संसार तथा निष्काम कर्म

ब्राह्मभक्त - महाराज, बिना सब त्याग किए क्या ईश्वर नहीं मिलते?

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - नहीं जी, तुम लोगों को सब कुछ क्यों त्याग करना होगा? तुम लोग तो बड़े अच्छे हो, इधर भी हो और उधर भी, आधा खाँड़ और आधा शिरा! (लोग हँसते हैं।) बड़े आनन्द में हो। नक्स का खेल जानते हो? मैं ज्यादा काटकर जल गया हूँ। तुम लोग बड़े सयाने हो, कोई दस में हो, कोई छः में, कोई पाँच में। तुमने ज्यादा नहीं काटा इसलिए मेरी तरह जल नहीं गए। खेल चल रहा है। यह तो अच्छा है। (सब हँसे।)

“सच कहता हूँ, तुम लोग गृहस्थी में हो, इसमें कोई दोष नहीं। पर मन ईश्वर की ओर रखना चाहिए। नहीं तो न होगा। एक हाथ से काम करो और एक हाथ से ईश्वर को पकड़े रहो। काम खतम हो जाने पर दोनों हाथों से ईश्वर को पकड़ लेना।”

“सब कुछ मन पर निर्भर है। मन ही से बद्ध है और मन ही से मुक्त। मन पर जो रंग चढ़ाओगे उसी से वह रँग जायगा। जैसे रँगरेज के घर के कपड़े, लाल रंग से रँगो तो लाल; हरे से रँगो तो हरे; सब्ज से रँगो, सब्ज; जिस रंग से रँगो वही रंग चढ़ जायगा। देखो न, अगर कुछ अंग्रेजी पढ़ लो तो मुँह में अंग्रेजी शब्द आ जाते हैं - फुट-फट् इट्-मिट्। (सब हँसे।) और पैरों में बूट-जूता, सीटी बजाकर गाना - ये सब आ जाते हैं। और पण्डित संस्कृत पढ़े तो श्लोक आवृत्ति करने लगता है! मन को यदि कुसंग में रखो तो वैसी ही बातचीत, वैसी ही चिन्ता हो जाएगी। यदि भक्तों के साथ रखो तो ईश्वरचिन्तन, भगवत्प्रसंग - ये सब होंगे।

“मन ही को लेकर सब कुछ है। एक ओर स्त्री है और एक ओर सन्तान। स्त्री को एक भाव से और सन्तान को दूसरे भाव से प्यार करता है, किन्तु है एक ही मन।”

(६)

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥ (गीता, १८।६६)

ईसाई धर्म, ब्राह्मसमाज और पापवाद

श्रीरामकृष्ण (ब्राह्मभक्तों के प्रति) - मन ही में बन्धन है और मन ही में मुक्ति। मैं मुक्तपुरुष हूँ; चाहे संसार में रहूँ, चाहे अरण्य में, मुझे बन्धन कैसा? मैं ईश्वर की सन्तान हूँ; राजाधिराज का बेटा; मुझे भला कौन बाँध सकता है? साँप के काटने पर यदि दृढ़ता के साथ यह कहा जाय कि ‘विष नहीं है’ तो सचमुच विष उतर जाता है! उसी प्रकार दृढ़ता के साथ यह कहते कहते कि ‘मैं बद्ध नहीं, मैं मुक्त हूँ’, वास्तव में वैसा ही हो जाता है। मनुष्य मुक्त ही हो जाता है।

“किसी ने ईसाईयों की एक किताब दी थी; मैंने पढ़कर सुनाने के लिए कहा। उसमें केवल ‘पाप’ ‘पाप’ ही भरा था। (केशव के प्रति) तुम्हारे ब्राह्मसमाज में भी केवल ‘पाप’ ‘पाप’ही सुनायी देता है। जो व्यक्ति बार बार ‘मैं बद्ध हूँ’ ‘मैं बद्ध हूँ’ कहता रहता है वह बद्ध ही हो जाता है, जो दिन-रात ‘मैं पापी हूँ’ ‘मैं पापी हूँ’ यही रटता रहता है, वह सचमुच पापी ही बन जाता है।

“ईश्वर के नाम पर इस प्रकार का ज्वलन्त विश्वास होना चाहिए - ‘क्या! मैंने उनका नाम लिया है, अब भी मुझमें पाप रह सकता है! मुझमें भला पाप कैसा! मुझे भलाबन्धन कैसा!’ कृष्णकिशोर सनातनी हिन्दू था - सदाचारनिष्ठ ब्राह्मण! एक बार वह वृन्दावन गया था। एक दिन घूमते घूमते उसे प्यास लगी। उसने एक कुएँ के पास जाकर देखा, एक आदमी खड़ा है। उसने उससे कहा, ‘क्यों रे तू मुझे एक लोटा पानी पिला सकता है? तू कौन जात है?’ वह बोला, ‘महाराज, मैं नीची जाति का हूँ - चमार हूँ।’ कृष्णकिशोर ने कहा, ‘तू शिव शिव कह। ले, अब पानी खींच दे।’

“भगवान् का नाम लेने से मनुष्य का शरीर, मन - सब कुछ शुद्ध हो जाता है।

“केवल ‘पाप’ ‘नरक’ यही सब बातें क्यों? एक बार कहो कि जो कुछ अयोग्य काम किए हैं, उन्हें फिर नहीं करूँगा, और उनके नाम पर विश्वास रखो।”

श्रीरामकृष्ण प्रेमोन्मत्त होकर नाममाहात्म्य गाने लगे -

(भावार्थ) - “दुर्गा दुर्गा अगर जपूँ मैं जब मेरे निकलेंगे प्राण। देखूँ कैसे नहीं तारती, कैसे हो करुणा की खान॥”

“मैंने माँ के निकट केवल भक्ति माँगी थी। हाथ में फूल लेकर माँ के पादपद्मों में चढ़ाया था; कहा था, ‘माँ, यह लो तुम्हारा पाप, यह लो तुम्हारा पुण्य, मुझे शुद्ध भक्ति दो; यह लो तुम्हारा ज्ञान, यह लो तुम्हारा अज्ञान, मुझे शुद्ध भक्ति दो; यह लो तुम्हारी शुचिता, यह लो तुम्हारी अशुचिता, मुझे शुद्ध भक्ति दो; यह लो तुम्हारा धर्म, यह लो तुम्हारा अधर्म, मुझे शुद्ध भक्ति दो।’

(ब्राह्मभक्तों के प्रति) - “एक रामप्रसाद का गीत सुनो -

(भावार्थ) - “चल मन घूमने चलें। कालीरूपी कल्पतरु के नीचे तुझे (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) चारों फल पड़े मिल जाएँगे। अपनी प्रवृत्ति और निवृत्ति इन दो पत्नियों में से तू केवल निवृत्ति को ही साथ ले। उसके विवेक नामक बेटे से तत्त्वज्ञान की बातें पूछना। शुचि अशुचि दोनों को साथ लेकर तू दिव्यगृह में कब सोएगा? जब इन दो सौतों में प्रीति स्थापित होगी तभी तू श्यामा माँ को पाएगा। अहंकार और अविद्या तेरे पिता और माता हैं - दोनों को भगा दे। यदि मोह तुझे पकड़कर खींचे तो तू धैर्यरूपी खूँटे को पकड़े रह। धर्म अधर्म इन दो बकरों को उपेक्षारूपी खूँटी से बाँधे रख। यदि वे नहीं मानें तो ज्ञानखड्ग के द्वारा उनका बलिदान कर देना। प्रवृत्ति नामक पहली पत्नी की सन्तानों को दूर ही से समझाना। यदि वे न मानें तो उन्हें ज्ञानसिन्धु में डुबो देना। रामप्रसाद कहता है, ऐसा करने पर तू यम को सही जवाब दे सकेगा और तभी तू सच्चा मन होगा।”

गाना समाप्त कर श्रीरामकृष्ण बोले - “संसार में रहकर ईश्वरलाभ क्यों नहीं होगा? जनक राजा को हुआ था। रामप्रसाद ने कहा था, यह संसार ‘धोखे की जगह’ है। परन्तु ईश्वर के चरणकमलों में भक्ति होने पर -

“ ‘यह संसार मौज की जगह है। मैं यहाँ खाता, पीता और मौज उड़ाता हूँ। जनक राजा महातेजस्वी था, उसकी किसी बात में कसर नहीं थी। उसने यह और वह - दोनों बाजू सम्हालकर दूध का प्याला पिया था।’ (सब हँसने लगे)

गृहस्थ के लिए उपाय एकान्तवास तथा विवेक

“परन्तु कोई एकदम फट से जनक राजा नहीं बन जाता। जनक राजा ने निर्जन में बहुत तपस्या की थी। संसार में रहते हुए भी बीच बीच में एकान्तवास करना चाहिए। गृहस्थी से बाहर निकलकर एकान्त में अकेले रहकर अगर भगवान् के लिए तीन दिन ही रोया जाय तो वह भी अच्छा है। यहाँ तक कि यदि अवसर पाकर एक ही दिन निर्जन में रहकर भगवच्चिन्तन किया जाए तो वह भी अच्छा है। लोग स्त्री-पुत्रों के लिए रोकर लोटाभर आँसू बहाते हैं, ईश्वर के लिए भला कौन रोता है? बीच बीच में निर्जन में रहकर भगवत्प्राप्ति के लिए साधना करनी चाहिए। संसार के भीतर, विशेषकर कामकाज की झंझट में रहकर प्रथम अवस्था में मन को स्थिर करते समय अनेक बाधाएँ आती हैं। जैसे रास्ते के किनारे लगाया हुआ पेड़; जिस समय वह पौधे की स्थिति में रहता है, उस समय घेरा न लगाने पर गाय-बकरियाँ खा जाती हैं। प्रथम अवस्था में घेरा। किन्तु बादमें तना मजबूत होने पर घेरेकी आवश्यकता नही रहती। फिर उसे हाथी बांधनेपर भी कुछ नहीं होता।

“रोग तो हुआ है सन्निपात का। पर जिस कमरे में सन्निपात का रोगी है, उसी कमरे में पानी का घड़ा और इमली का अचार रखा है। अगर रोगी को आराम पहुँचाना चाहते हो तो पहले उसे उस कमरे से हटाना होगा। संसारी जीव मानो सन्निपात का रोगी है; और विषय है पानी का घड़ा। विषयभोगतृष्णा मानो जलतृष्णा है। इमली, अचार की बात सिर्फ सोचते ही मुँह में पानी आ जाता है, वे चीजें पास नहीं लानी पड़तीं। ऐसी चीज रोगी के कमरे में ही रखी है। संसार में स्त्री-सहवास ऐसी ही चीज है। इसीलिए निर्जन में जाकर चिकित्सा कराना आवश्यक है।

“विवेक-वैराग्य प्राप्त करके संसार में प्रवेश करना चाहिए। संसारसमुद्र में काम-क्रोधादि मगर हैं। बदन में हलदी मलकर पानी में उतरने पर मगर का डर नहीं रहता। विवेक-वैराग्य ही हलदी है। सदसत्-विचार का नाम विवेक है। ईश्वर ही सत् हैं, नित्यवस्तु हैं बाकी सब असत् अनित्य, दो दिन के लिए है - यह बोध ही विवेक है। और ईश्वर के प्रति अनुराग चाहिए, प्रेम, आकर्षण चाहिए - जैसा गोपियों का कृष्ण के प्रति था। एक गाना सुनो -

(भावार्थ) - “विपिन में बंसी बज उठी। मुझे तो जाना ही होगा, श्याम मेरी राह देख रहा है। तुम लोग चलोगी या नहीं, बताओ। तुम लोगों के लिए श्याम एक नाम है, पर सखि, मेरे लिए श्याम हृदय की व्यथा है। बंसी तुम्हारे कान में बजती है, पर मेरे तो वह हृदय में बजती है। श्याम की बंसी बज रही है। हे राधे, अब चलो, तुम्हारे बिना कुंज में शोभा नहीं आती।”

श्रीरामकृष्ण ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से यह गीत गाते गाते केशव आदि भक्तों से कहा, “राधाकृष्ण को मानो या न मानो, पर उनके इस आकर्षण को तो ग्रहण करो! ईश्वर के लिए इस प्रकार की व्याकुलता हो, इसके लिए प्रयत्न करो। व्याकुलता के आते ही उन्हें प्राप्त किया जा सकता है।”

(७)

संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः। ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥ (गीता, १२।४)

भाटा शुरू हो गया। जहाज कलकत्ते की ओर द्रुतगति से बढ़ रहा है। इसलिए पुल पार कर कम्पनी के बगीचे की ओर और थोड़ी दूर तक ले जाने के लिए कप्तान को आदेश दिया गया। जहाज कितनी दूर आ पहुँचा है, इसकी अधिकांश लोगों को सुध नहीं है। वे मग्न होकर श्रीरामकृष्ण की बातें सुन रहे हैं। समय कैसे चला जा रहा है, इसका होश नहीं है।

अब मुरमुरे और नारियल के टुकड़े बाँटे गए। सब ने थोड़ा थोड़ा लेकर खाना शुरू किया। आनन्द की हाट लगी है। केशव ने मुरमुरे आदि लाने की व्यवस्था की थी। ऐसे समय श्रीरामकृष्ण के ध्यान में आया कि विजय और केशव दोनों ही संकुचित होकर बैठे हुए हैं। तब जिस प्रकार दो नादान बच्चों में झगड़ा हो जाने पर कोई बड़ा व्यक्ति समझौता करा देता है, उसी प्रकार श्रीरामकृष्ण उन दोनों के बीच समझौता कराने लगे। ‘सर्वभूतहिते रत।’

श्रीरामकृष्ण (केशव के प्रति) - अजी! ये विजय आए हैं। तुम लोगों का झगड़ाविवाद मानो शिव और राम की लड़ाई है। राम के गुरु शिव हैं। दोनों में युद्ध भी हुआ, फिर सन्धि भी हो गयी। पर शिव के भूतप्रेत और राम के बन्दर ऐसे थे कि उनका झगड़ना किचकिचाना रुकता ही न था। (सब जोर से हँस पड़े।)

“अपने ही लोग हैं। ऐसा होता ही है। लव-कुश ने भी राम के साथ युद्ध किया था। फिर जानते हो न माँ और बेटी अलग से मंगलवार का व्रत रखती हैं, मानो माँ का मंगल और बेटी का मंगल अलग अलग है। परन्तु वास्तव में तो माँ के मंगल से बेटी का मंगल होता है और बेटी के मंगल से माँ का। इसी तरह तुममें से एक के एक समाज है, अब दूसरे को भी एक चाहिए। (सब हँसते हैं।) पर यह सब जरूरी है। तुम कहोगे कि जहाँ भगवान् ने स्वयं लीला की, वहाँ जटिला-कुटिला की क्या जरूरत थी? पर जटिला-कुटिला के सिवा लीला पुष्ट नहीं हो पाती। बिना उनके रंग नहीं चढ़ता। (सब जोर से हँसते हैं।)

‘रामानुज विशिष्टाद्वैतवादी थे। उनके गुरु थे अद्वैतवादी। आखिर दोनों में अनबन होने लगी। गुरु-शिष्य आपस में एक दूसरे के मत का खण्डन करने लगे। ऐसा हुआ करता है। चाहे जो कुछ हो, फिर भी हैं तो अपने ही।”

(८)

पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्। न त्वत्समोस्त्यऽभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव॥ (गीता,११।४३)

गुरुगिरी और ब्राह्मसमाज। एक सच्चिदानन्द ही गुरु हैं।

सब लोग आनन्दित हैं। श्रीरामकृष्ण केशव से कहते हैं, “तुम स्वभाव परखकर शिष्य नहीं बनाते, इसीलिए आपस में इस तरह की फूट हुआ करती है।

“सभी मनुष्य दिखने में एक सरीखे हैं, पर हर एक का स्वभाव भिन्न है। किसी के भीतर सत्त्वगुण अधिक है, किसी के भीतर रजोगुण तो किसी के भीतर तमोगुण। गुझियाँ बाहर से एक-सी दिखायी देती हैं पर किसी के भीतर खोया, किसी के भीतर नारियल तो किसी के भीतर उड़द की दाल होती है। (सब हँसते हैं।)

“मेरा भाव क्या है, जानते हो? मैं खाता, पीता और मजे में रहता हूँ, बाकी की सब माँ ही जाने। तीन बातों से मेरी देह में मानो काँटा चूभ जाता है - गुरु, कर्ता और बाबा।

“गुरु एकमात्र सच्चिदानन्द ही हैं। वे ही सब को शिक्षा देंगे। मेरा सन्तानभाव है। वैसे मनुष्य-गुरु तो लाखों मिलते हैं। सभी गुरु बनना चाहते हैं। शिष्य कौन बनना चाहता है?

“लोकशिक्षा देना बड़ा कठिन है। यदि ईश्वर का साक्षात्कार हो और वे आदेश दें, तो यह सम्भव हो सकता है। नारद, शुकदेव आदि को आदेश हुआ था, शंकराचार्य को आदेश हुआ था। आदेश न मिलने से तुम्हारी बात कौन सुनेगा? कलकत्ते के लोगों की हुल्लड़बाजी तो जानते ही हो! जब तक नीचे लकड़ी जलती है तब दूध उफनकर ऊपर आता है। लकड़ी को खींच लेते ही सब कुछ शान्त हो जाता है। कलकत्ते के लोग हुल्लड़बाज हैं। अभी एक जगह कुआँ खोद रहे हैं - पानी चाहिए। वहाँ पत्थर निकलने लगे कि खोदना छोड़ दिया! और एक जगह खोदना शुरू किया। वहाँ रेती निकलने लगी कि वह जगह भी छोड़ दी। फिर दूसरी जगह खोदने ही लगे। यही तो उनका हाल है।

“परन्तु आदेश मिला है यह केवल मन में सोच लेने से नहीं चलता। ईश्वर सचमुच ही दर्शन देते हैं और बातचीत करते हैं। इसी अवस्था में आदेश प्राप्त हो सकता है। इस प्रकार आदेशप्राप्त व्यक्ति की बातों में कितना जोर होता है! पर्वत भी टल जाता है। सिर्फ लेक्चर से क्या होगा? लोक कुछ दिन सुनेंगे, फिर भूल जाएँगे; उसके अनुसार नहीं चलेंगे।

पूर्वकथा - भावनेत्रोंसे हालदारपुकुर का दर्शन

“उस ओर हालदारपुकुर नाम का एक तालाब है। कुछ लोग उसके किनारे रोज सबेरे पाखाना फिरा करते थे। जो लोग सबेरे स्नानादि के लिए आते वे यह देखकर उनके नाम से खूब चिल्लाते, खूब कोसते। पर दूसरे दिन फिर वही हाल! पाखाना फिरना बन्द नहीं होता था। तब लोगों ने कम्पनी को यह बात जतायी। कम्पनीवालों ने एक चपरासी को भेजा। जब उस चपरासी ने आकर एक कागज चिपका दिया - ‘यहाँ पाखाना न फिरें’ - तब सब बन्द हो गया। (सब हँसते हैं)

“लोकशिक्षा देना हो तो चपरास चाहिए। नहीं तो वह हास्यास्पद बात हो जाती है। खुद को ही नहीं मिली, दूसरों को देने चला। एक अन्धा दूसरे अन्धे को राह बताते हुए ले चला है। (हास्य) इससे हित होने के बजाय विपरीत ही होता है। ईश्वरलाभ होने पर अन्तर्दृष्टि प्राप्त होती है, उसी समय किसे कौनसा रोग है यह समझ में आता है, योग्य उपदेश दिया जा सकता है।

“अहंकारविमूढात्मा कर्ताऽहं इति मन्यते”

“आदेश न मिलने पर ‘मैं लोगों को शिक्षा दे रहा हूँ’ इस प्रकार का अहंकार होता है। अहंकार होता है अज्ञान के कारण। अज्ञान से ऐसा लगता है कि मैं कर्ता हूँ। ईश्वर ही कर्ता हैं, ईश्वर सब कुछ कर रहे हैं, मै कुछ नहीं कर रहा हूँ - यह बोध हो जाने पर तो मनुष्य जीवन्मुक्त हो गया। ‘मैं कर्ता हूँ’ इस बोध के कारण ही इतना दुःख, इतनी अशान्ति पैदा होती है ।

(९)

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर। असक्तो ह्याचरन् कर्म परमाप्नोति पूरुषः॥ (गीता, ३।१२)

केशवादि ब्राह्मभक्तों को कर्मयोगसम्बन्धी उपदेश

श्रीरामकृष्ण (केशवादि से) - तुम लोग ‘दुनिया का भला’ करने की बातें करते हो। क्या दुनिया इतनी छोटी है और तुम कौन हो दुनिया का भला करनेवाले? साधना के द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार कर लो, उनका लाभ कर लो। वे यदि शक्ति दें तो सब का हित कर सकोगे, अन्यथा नहीं।

एक भक्त - जब तक ईश्वरलाभ न हो जाय तब तक क्या सब कर्म त्याग दें?

श्रीरामकृष्ण - नहीं, कर्मों का त्याग क्यों करोगे? ईश्वर का चिन्तन, उनका नामगुणगान, नित्यकर्म - यह सब करना पड़ेगा।

ब्राह्मभक्त - संसार का कर्म? वैषयिक कर्म?

श्रीरामकृष्ण - हाँ, वह भी करो, संसारयात्रा के निर्वाह के लिए जितना आवश्यक हो उतना ही। परन्तु निर्जन में रो-रोकर ईश्वर से प्रार्थना करनी होगी, ताकि इन कर्मों को निष्काम भाव से किया जा सके। कहो, ‘हे ईश्वर, मेरे विषय-कर्म कम कर दो, क्योंकि प्रभो, मैं देख रहा हूँ कि ज्यादा कामकाज के आ पड़ने से मैं तुम्हें भूल जाता हूँ। सोचता हूँ कि मैं निष्काम कर्म कर रहा हूँ पर वह सकाम हो जाता है।’ दान-धर्म आदि अधिक करने गए कि नाम कमाने की इच्छा आ जाती है।

पूर्वकथा - शम्भु मल्लिक के साथ दानादि कर्मकाण्ड-सम्बन्ध में वार्तालाप

“शम्भु मल्लिक अस्पताल, दवाखाना, स्कूल, रास्ते, तालाब आदि बनवाने की बात कह रहा था। मैंने कहा, जो काम सामने आ पड़ा है, किए बिना नहीं चल सकता, उसी को निष्काम होकर करना चाहिए। जान-बूझकर ज्यादा कामों में उलझना ठीक नहीं - इससे ईश्वर का विस्मरण हो जाता है। कालीघाट में जाकर दान ही करने लग गए, काली के दर्शन हुए ही नहीं! (हास्य) पहले किसी तरह धक्काधुक्की खाकर भी कालीदर्शन कर लेना चाहिए, उसके बाद चाहे जितना दान करो या न करो, इच्छा हो तो खूब करो। ईश्वरलाभ के लिए ही कर्म है। इसीलिए शम्भु को कहा, अगर ईश्वर के दर्शन हों तो क्या तुम उनसे कहोगे कि कुछ अस्पताल और दवाखाने बनवा दो? (हास्य) भक्त कभी इस प्रकार नहीं कहेगा। बल्कि वह तो कहेगा, ‘प्रभो, मुझे अपने पादपद्मो में आश्रय दो, सदा अपने साथ रखो, अपने चरणकमलों के प्रति शुद्ध भक्ति दो’।

“कर्मयोग बड़ा कठिन है। शास्त्र में जिन कर्मों के बारे में कहा गया है, कलिकाल में उन्हें करना बड़ा कठिन है। लोग अन्नगतप्राण हैं - जीवन अन्न पर ही निर्भर है। अधिक कर्म करना सम्भव नहीं। बुखार होने पर यदि वैद्यजी से चिकित्सा करवाने जायँ तो इधर रोगी खत्म हो जाता है। अधिक देरी सहन नहीं होती। आजकल डी. गुप्त का जमाना है। कलियुग में उपाय है भक्तियोग - भगवान् का नामगुणगान और प्रार्थना। भक्तियोग ही युगधर्म है। (ब्राह्मभक्तों के प्रति) तुम लोगों का मार्ग भी भक्तिमार्ग ही है, तुम लोग हरिनामसंकीर्तन करते हो, जगदम्बा का नामगुणगान करते हो, तुम धन्य हो! तुम्हारा भाव बहुत अच्छा है। वेदान्तवादियों की तरह तुम लोग संसार को स्वप्नवत् नहीं मानते। तुम उस तरह के ब्रह्मज्ञानी नहीं हो, तुम भक्त हो। तुम ईश्वर को व्यक्ति (Person) मानते हो, यह भी अच्छा भाव है। तुम लोग भक्त हो। व्याकुल होकर ईश्वर को पुकारने से उनके दर्शन अवश्य पाओगे।”

(१०)

सुरेन्द्र के मकान पर नरेन्द्र आदि के साथ

अब जहाज कोयलाघाट लौट आया। सब लोग उतरने की तैयारी करने लगे। कमरे से बाहर निकलते ही सब ने देखा, कोजागरी पौर्णिमा का पूर्णचन्द्र हँस रहा है, भागीरथी के जल पर मानो उसकी ज्योत्स्ना का लीलाविलास चल रहा है। श्रीरामकृष्ण के लिए गाड़ी मँगवायी गयी। कुछ देर बाद मास्टर और एक-दो भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण गाड़ी में बैठे। केशव के भतीजे नन्दलाल भी गाड़ी में बैठे, थोड़ी दूर तक साथ जाएँगे।

जब सब जन गाड़ी में बैठ गए तब श्रीरामकृष्ण ने पूछा, “वे कहाँ हैं?” अर्थात् केशव कहाँ हैं? देखते ही देखते केशव आ खड़े हुए। चेहरे पर मुसकान थी। आकर पूछा, “कौन कौन साथ जा रहे हैं?” गाड़ी में सब के बैठ जाने पर केशव ने भूमिष्ठ होकर श्रीरामकृष्ण की पदधूलि ग्रहण की। श्रीरामकृष्ण ने भी स्नेहपूर्ण शब्दों में विदा ली।

गाड़ी चलने लगी। यह अंग्रेजों का मुहल्ला है। सुन्दर राजमार्ग है। दोनों ओर सुन्दर सुन्दर इमारतें हैं। पूर्णचन्द्र उदित हुआ है; इमारतें मानो चन्द्र की विमल, शीतल किरणों में विश्राम कर रही हैं। दरवाजों पर गैसबत्तियाँ, कमरों के भीतर दीपमालाएँ जगमगा रही हैं। जगह जगह पर हार्मोनियम-पियानो के साथ अंग्रेज महिलाएँ गा रही हैं। श्रीरामकृष्ण आनन्द से मृदु हास्य करते हुए जा रहे हैं। एक जगह एकाएक बोल उठे, “मुझे प्यास लग रही है, क्या किया जाय?” नन्दलाल ने इण्डिया क्लब के पास गाड़ी रुकवायी और ऊपर जाकर काँच के गिलास में पानी ले आए। श्रीरामकृष्ण ने मुसकराते हुए पूछा, “गिलास धोया है न?” नन्दलाल के “हाँ” कहने पर श्रीरामकृष्ण ने उस गिलास का पानी पी लिया।

आपका बालक जैसा स्वभाव है। गाड़ी के चलने लगते ही बाहर झाँककर आसपास के मनुष्य, गाड़ी-घोड़े, चाँदनी आदि देखने लगे। हर एक बात में आनन्दित हो रहे हैं।

नन्दलाल कलुटोला में उतरे। श्रीरामकृष्ण की गाड़ी सिमुलिया स्ट्रीट में श्री सुरेश मित्र के मकान के सामने आ पहुँची। श्रीरामकृष्ण इन्हें सुरेन्द्र कहा करते थे। सुरेन्द्र श्रीरामकृष्ण के परम भक्त हैं।

परन्तु सुरेन्द्र घर में नहीं हैं। अपने नये बगीचे में गए हैं। घर के लोगों ने बैठने के लिए नीचे का कमरा खोल दिया। गाड़ी का किराया देना होगा। कौन देगा? अगर सुरेन्द्र होते तो वे ही देते। श्रीरामकृष्ण ने एक भक्त से कहा, “किराया घर की स्त्रियों से माँग लो न! क्या वे नहीं जानतीं कि उनके पति वहाँ आया-जाया करते हैं?” (सब हँसते हैं।)

नरेन्द्र उसी मुहल्ले में रहते हैं। श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्र को बुला लाने कहा। घरवालों ने श्रीरामकृष्ण को दूसरे मँजले पर ले जाकर बैठाया। कमरे की फर्श पर बिछायत बिछी हुई है, उस पर दो-चार तकिये रखे हैं। दीवार पर सुरेन्द्र के द्वारा विशेष प्रयत्नपूर्वक बनावाया हुआ तैलचित्र है, जिसमें श्रीरामकृष्ण केशव को हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, बौद्ध आदि सब धर्म तथा वैष्णव, शाक्त, शैव आदि सब सम्प्रदायों का समन्वय दिखला रहे हैं।

श्रीरामकृष्ण प्रसन्न बैठकर मुसकराते हुए बातचीत कर रहे हैं। इतने में नरेन्द्र आ पहुँचे। अब तो श्रीरामकृष्ण का आनन्द मानो द्विगुणित हो उठा। आपने कहा, “आज केशव सेन के साथ जहाज में बैठकर घूमने गया था। विजय था, ये सब लोग थे।” मास्टर को निर्देशित करते हुए कहा, “इनसे पूछो, विजय और केशव को मैंने कैसे माँ-बेटी का मंगलवार, जटिला-कुटिला के बिना लीला की पुष्टि नहीं होती - ये सब बातें कहीं। (मास्टर से) क्यों जी?”

मास्टर - जी हाँ।

रात हो गयी पर अब भी सुरेन्द्र नहीं लौटे। श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर जाएँगे, अब अधिक देर नहीं की जा सकती, रात के साढ़े दस बज गए हैं। राह में चन्द्रमा का प्रकाश छाया है।

गाड़ी आयी। श्रीरामकृष्ण चढ़े। नरेन्द्र और मास्टर ने उन्हें प्रणाम किया और दोनों कलकत्ते में अपने अपने घर लौटे।

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