परिच्छेद २२ - राखाल, प्राणकृष्ण, केदार आदि भक्तों के साथ

(१)

समाधि में

श्रीरामकृष्ण कालीमन्दिर के अपने कमरे में भक्तों के साथ बैठे हैं। दिनरात भगवत्प्रेम में - ब्रह्ममयी माता के प्रेम में - मस्त रहते हैं।

फर्श पर चटाई बिछी है। आप उसी पर आकर बैठ गए। सामने हैं प्राणकृष्ण और मास्टर। श्री राखाल* भी कमरे में बैठे हुए हैं। हाजरा महाशय घर के बाहर दक्षिणपूर्ववाले बरामदे में बैठे हुए है।

जाड़े का मौसम है - पूस का महीना। सोमवार, दिन के आठ बजे हैं। पहली जनवरी १८८३। श्रीरामकृष्ण शाल ओढ़े हुए हैं।

इस समय श्रीरामकृष्ण के अनेक अन्तरंग भक्त आने-जाने लगे हैं। लगभग सालभर से नरेन्द्र, राखाल, भवनाथ, बलराम, मास्टर, बाबूराम, लाटू आदि भक्त सदा आते-जाते रहते हैं। इनके आने के सालभर पूर्व से राम, मनोमोहन, सुरेन्द्र और केदार आया करते हैं।

लगभग पाँच महीने हुए होंगे, जब श्रीरामकृष्ण विद्यासागर के ‘बादुड़बागान’ वाले मकान में पधारे थे। दो महीने पूर्व आप श्री केशव सेन के साथ विजय आदि ब्राह्मभक्तों को लेकर नाव पर आनन्द करते हुए कलकत्ता गए थे।

श्री प्राणकृष्ण मुखोपाध्याय कलकत्ते के श्यामपुकुर मुहल्ले में रहते हैं। पहले इनका जनाई मौजे में निवास था। ये ‘एक्सचेंज’ विभाग के बड़े बाबू हैं। नीलाम के काम की देखरेख करते हैं। पहली पत्नी के कोई सन्तान न होने के कारण उनकी सम्मति से उन्होंने दूसरी बार विवाह किया था। दूसरी पत्नी के एक पुत्र हुआ है। वही इनकी इकलौती सन्तान है। श्रीरामकृष्ण पर इनकी बड़ी भक्ति है। शरीर कुछ स्थूल होने के कारण कभी कभी श्रीरामकृष्ण इन्हें ‘मोटा ब्राह्मण’ कहकर पुकारते थे। ये बड़े सज्जन व्यक्ति हैं। लगभग नौ महीने हुए होंगे, श्रीरामकृष्ण ने भक्तों के साथ इनका निमन्त्रण स्वीकार किया था। इन्होंने बड़े आदर से सब को भोजन कराया था।

श्रीरामकृष्ण जमीन पर बैठे हुए हैं। पास ही टोकरीभर जलेबियाँ रखी हैं - किसी भक्त ने लायी हैं। आपने जलेबी का एक टुकड़ा तोड़कर खाया।

श्रीरामकृष्ण (प्राणकृष्ण आदि से हँसते हुए) - देखा, मैं माता का नाम जपता हूँ, इसीलिए ये सब चीजें खाने को मिलती हैं। (हास्य)

“परन्तु वे लौकी-कोहड़े जैसे फल नहीं देती - वे देतीं हैं अमृतफल - ज्ञान, प्रेम, विवेक, वैराग्य!”

कमरे में छः-सात साल की उम्र का एक लड़का आया। इधर श्रीरामकृष्ण की भी बालकों जैसी अवस्था है। जैसे एक बालक किसी दूसरे बालक को देखकर खाने की चीज छिपा लेता है जिससे वह छीनाझपटी न करे, वैसे ही श्रीरामकृष्ण की अवस्था उस बालक को देखकर होने लगी। वे उस जलेबियों की टोकरी को हाथों से ढककर छिपाने लगे। फिर धीरे से उन्होंने उसे एक ओर हटाकर रख दिया।

प्राणकृष्ण गृहस्थ तो हैं परन्तु वे वेदान्तचर्चा भी करते हैं, कहते हैं, “ब्रह्म ही सत्य है, संसार मिथ्या; मैं वही हूँ - सोऽहम्।” श्रीरामकृष्ण उन्हें समझाते हैं - “कलिकाल में प्राण अन्नगत है, कलिकाल में नारदीय भक्ति चाहिए।

“वह विषय भाव का है, बिना भाव के कौन उसे पा सकता है?”

बालकों की तरह हाथों से जलेबियों की टोकरी छिपाते हुए श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हो गये।

(२)

भावराज्य व रूपदर्शन

श्रीरामकृष्ण समाधि में मग्न हैं। काफी समय हुआ, भाव के आवेश में पूर्ण बने बैठे हैं। न देह डुलती है, न पलकें गिरती हैं; साँस भी चलती है या नहीं, जान नहीं पड़ता।

बड़ी देर बाद आपने एक लम्बी साँस छोड़ी - मानो इन्द्रियराज्य में फिर लौट रहे हैं।

श्रीरामकृष्ण (प्राणकृष्ण से) - वे केवल निराकार नहीं, साकार भी हैं। उनके रूप के दर्शन होते हैं। भाव और भक्ति से उनके अनुपम रूप के दर्शन मिलते हैं। माँ अनेक रूपों में दर्शन देती हैं।

“कल माँ को देखा, गेरुए रंग का अँगरखा पहने हुए। मेरे साथ बातें कर रही थीं।

“और एक दिन मुसलमान लड़की के रूप में मेरे पास आयी थीं। कपाल पर तिलक, पर शरीर पर कपड़ा नहीं। - छ :- सात साल की बालिका, मेरे साथ साथ घूमने और मुझसे हँसी-ठठ्टा करने लगी।

गौरांग-दर्शन रति की माँ के वेष में माँ

“जब मैं हृदय के घर पर था तब गौरांग के दर्शन हुए थे, वे काली धारीदार धोती पहने थे।

“हलधारी कहता था, वे भाव और अभाव से परे हैं। मैंने माँ से जाकर कहा, ‘माँ’, हलधारी ऐसी बात कह रहा है, तो क्या रूप आदि मिथ्या हैं?’ माँ रति की माँ के रूप में मेरे पास आयीं और बोलीं, ‘तू भाव में ही रह।’ मैंने भी हलधारी से यही कहा।

“कभी कभी यह बात भूल जाता हूँ, इसलिए कष्ट भोगना पड़ता है। भाव में न रहने के कारण दाँत टूट गए। अतएव ‘दैववाणी’ या ‘प्रत्यक्ष’ न होने तक भाव में ही रहूँगा - भक्ति ही लेकर रहूँगा। क्यों - तुम क्या कहते हो?”

प्राणकृष्ण - जी हाँ।

भक्ति का अवतार क्यों? राम की इच्छा

श्रीरामकृष्ण - और तुम्हीं से क्यों पूछूँ? इसके भीतर कोई एक रहता है। वही मुझे इस तरह चला रहा है। कभी कभी मुझमें देवभाव का आवेश होता था, तब बिना पूजा किये चित्त शान्त न होता था।

“मैं यन्त्र हूँ, और वे यन्त्री। वे जैसा कराते हैं, वैसा ही करता हूँ। जो कुछ बुलवाते हैं, वही बोलता हूँ।”

श्रीरामकृष्ण ने भक्त रामप्रसाद के एक गीत की पंक्तियाँ उदाहरण के लिए कहीं; उसका अर्थ यह है -

‘भवसागर में अपना डोंगा बहाकर उस पर बैठा हुआ हूँ। जब ज्वार आयगी, तब पानी के साथ साथ मैं भी चढ़ता जाऊँगा और जब भाटा हो जायगा, तब उतरता जाऊँगा।’

श्रीरामकृष्ण - जूठी पत्तल हवा के झोंके से उड़कर कभी तो अच्छी जगह पर गिरती हैं, कभी नाली में गिर जाती है - हवा जिधर ले जाती है उधर ही चली जाती है।

“जुलाहे ने कहा - राम की मर्जी से डाका डाला गया, राम ही की मर्जी से मुझे छोड़ दिया।

“हनुमान ने कहा - हे राम, मैं शरणागत हूँ, शरणागत हूँ; - यही आशीर्वाद दीजिये कि आपके पादपद्मों में मेरी शुद्धा भक्ति हो, फिर कभी आपकी भुवनमोहिनी माया में मुग्ध न होऊँ।

“मेढक मरते हुए बोला - राम, जब साँप पकड़ता है, तब तो ‘राम, रक्षा करो’ कहकर चिल्लाता हूँ, परन्तु अब जब कि राम ही के धनुष से बिंधकर मर रहा हूँ, तो चुप्पी साधनी ही पड़ी।

“पहले प्रत्यक्ष दर्शन होते थे - इन्हीं आँखों से, जैसे तुम्हें देख रहा हूँ। अब भावावेश में दर्शन होते हैं।

“ईश्वर-लाभ होने पर बालकों का-सा स्वभाव हो जाता है। जो जिसका चिन्तन करता है, वह उसकी सत्ता को भी पाता है। ईश्वर का स्वभाव बालकों जैसा है। खेलते हुए बालक जैसे घरौंदा बनाते, बिगाड़ते और उसे फिर से बनाते हैं, उसी तरह वे भी सृष्टि, स्थिति और प्रलय कर रहे हैं। बालक जैसे किसी गुण के वश में नहीं है, उसी प्रकार वे भी सत्त्व, रज और तम तीनों गुणों से परे हैं।

“इसीलिए जो परमहंस होते हैं, वे दस-पाँच बालक अपने साथ रखते हैं - अपने पर उनके स्वभाव का आरोप करने के लिए।”

आगरपाड़ा से एक बीस-बाईस साल का लड़का आया हुआ है। जब यह आया है, श्रीरामकृष्ण को इशारा करके एकान्त में ले जाता है और वहीं चुपचाप अपने मन की बात कहता है। यह अभी हाल ही में आने-जाने लगा है। आज वह निकट आकर फर्श पर बैठा।

प्रकृतिभाव तथा कामजय। सरलता और ईश्वरलाभ

श्रीरामकृष्ण (उसी लड़के से) - आरोप करने पर भाव बदल जाता है। प्रकृति के भाव का आरोप करो तो धीरे धीरे कामादि रिपु नष्ट हो जाते हैं। ठीक स्त्रियों के-से हाव-भाव हो जाते हैं। नाटक में जो लोग स्त्रियों का काम करते हैं, उन्हें नहाते समय देखा है, - स्त्रियों की ही तरह दाँत माँजते और बातचीत करते हैं।

“तुम किसी शनिवार या मंगलवार को आओ।”

(प्राणकृष्ण से) - “ब्रह्म और शक्ति अभिन्न हैं। शक्ति न मानो तो संसार मिथ्या हो जाता है; हम, तुम, घर, परिवार - सब मिथ्या हो जाते हैं। आद्याशक्ति के रहने ही के कारण संसार का अस्तित्व है। बिना आधार के कोई चीज कभी ठहर सकती है? बिना खूँटियों के न तो ढाँचा खड़ा रह सकता है और न उस पर सुन्दर मूर्ति ही बन सकती है।

“विषयबुद्धि का त्याग किये बिना चैतन्य नहीं होता है - ईश्वर नहीं मिलते। उसके रहने ही से कपटता आ जाती है। बिना सरल हुए कोई उन्हें पा नहीं सकता।

‘ऐसी भक्ति करो घट भीतर, छोड़ कपट चतुराई।

सेवा बन्दी और अधीनता, सहज मिलें रघुराई॥’

“जो लोग विषयकर्म करते हैं, आफिस का काम या व्यवसाय करते हैं, उन्हें भी सचाई से रहना चाहिए। सच बोलना कालिकाल की तपस्या है।

प्राणकृष्ण - “अस्मिन् धर्मे महेशि स्यात् सत्यवादी जितेन्द्रियः। परोपकारनिरतो निर्विकारः सदाशयः॥’

“यह महानिर्वाणतन्त्र में लिखा है।”

श्रीरामकृष्ण - हाँ, इसकी धारणा करनी चाहिए।

(३)

श्रीरामकृष्ण का यशोदा-भाव तथा समाधि

श्रीरामकृष्ण अपनी छोटी खाट पर जा बैठे हैं। भाव में तो सदा ही पूर्ण रहते हैं। भावनेत्रों से राखाल को देख रहे हैं। देखते देखते हृदय में वात्सल्यरस उमड़ने लगा, अंग पुलकित होने लगे। क्या यशोदामाता इन्हीं नेत्रों से गोपाल को देखा करती थीं?

देखते ही देखते फिर आप समाधिलीन हो गए। कमरे के भीतर जितने भक्त बैठे हुए थे, वे सभी आश्चर्य से चकित और स्तब्ध होकर श्रीरामकृष्ण के भाव की यह अद्भुत अवस्था देख रहे हैं।

श्रीरामकृष्ण कुछ प्रकृतिस्थ होकर कहते हैं, - “राखाल को देखकर इतनी उद्दीपना क्यों होती हैं? जितना ही ईश्वर की ओर बढ़ते जाओगे, ऐश्वर्य की मात्रा उतनी ही घटती जाएगी। साधक पहले दशभुजा मूर्ति देखता है। वह ईश्वरी मूर्ति है। इसमें ऐश्वर्य का प्रकाश अधिक रहता है। इसके बाद द्विभुजा मूर्ति देखता है। तब दस हाथ नहीं रहते - इतने अस्त्र-शस्त्र नहीं रहते। इसके बाद गोपाल-मूर्ति के दर्शन होते हैं, कोई ऐश्वर्य नहीं - केवल एक छोटे बच्चे की मूर्ति। इससे भी परे है - केवल ज्योति-दर्शन।

यथार्थ ब्रह्मज्ञान की अवस्था विचार और आसक्ति का त्याग

“उन्हें प्राप्त कर लेने पर, उनमें समाधिमग्न हो जाने पर, फिर ज्ञान-विचार नहीं रह जाता।

“ज्ञान-विचार तो तभी तक है, जब तक अनेक वस्तुओं की धारणा रहती है - जब तक जीव, जगत्, हम, तुम, यह ज्ञान रहता है। जब एकत्व का यथार्थ ज्ञान हो जाता है, तब चुप हो जाना पड़ता है। जैसे त्रैलंगस्वामी।

“ब्रह्मभोज के समय नहीं देखा? पहले खूब गुलगपाड़ा मचता है। ज्यों-ज्यों पेट भरता जाता है, त्यों-त्यों आवाज घटती जाती है। जब दही आया, तब सुप्-सुप्, बस और कोई शब्द नहीं। इसके बाद ही निद्रा - समाधि! तब आवाज जरा भी नहीं रह जाती!

(मास्टर और प्राणकृष्ण से) - “कितने ही ऐसे हैं जो ब्रह्मज्ञान की डींग मारते हैं परन्तु नीचे स्तर की वस्तुएँ लेकर मग्न रहते हैं। - घर-द्वार, धनमान, इन्द्रियसुख। मोनूमेण्ट (Monument) के नीचे जब तक रहा जाता है, तब तक गाड़ी, घोड़ा, साहब, मेम - यही सब दीख पड़ते हैं। ऊपर चढ़ने पर सिर्फ आकाश, समुद्र लहराता हुआ दीख पड़ता है। तब घर-द्वार, घोड़ा-गाड़ी, आदमी - इन पर मन नहीं रमता, ये सब चींटी जैसे नजर आते हैं।

“ब्रह्मज्ञान होने पर संसार की आसक्ति चली जाती है, काम-कांचन के लिए उत्साह नहीं रहता - सब शान्त हो जाता है। काठ जब जलता है तब उसमें चटाचट आवाज होती है और कड़ुआ धुआँ भी निकलता है। जब सब जलकर खाक हो जाता है, तब फिर शब्द नहीं होता। आसक्ति के जाते ही उत्साह भी चला जाता है। अन्त में केवल शान्ति रह जाती है।

“ईश्वर की ओर कोई जितना ही बढ़ता है, उतनी ही शान्ति मिलती है। शान्तिः शान्तिः शान्तिः प्रशान्तिः। गंगा के निकट जितना ही जाया जाता है, उतना ही शीतलता का अनुभव होता जाता है। नहाने पर और भी शान्ति मिलती है।

“परन्तु जीव, जगत, चौबीस तत्त्व, इनकी सत्ता उन्हीं की सत्ता से भासित हो रही है। उन्हें छोड़ देने पर कुछ भी नहीं रह जाता। एक के बाद शून्य रखने से संख्या बढ़ जाती है। एक को निकाल डालो तो शून्य का कोई अर्थ नहीं रह जाता।”

प्राणकृष्ण पर कृपा करने की लिए श्रीरामकृष्ण अपनी अवस्था के सम्बन्ध में कह रहे हैं।

ब्रह्मज्ञान के उपरान्त ‘भक्ति का मैं’

श्रीरामकृष्ण - ब्रह्मज्ञान के पश्चात् समाधि के पश्चात्, कोई कोई नीचे उतरकर ‘विद्या का मैं’, ‘भक्ति का मैं’ लेकर रहते हैं। हाट का क्रय-विक्रय समाप्त हो जाने पर भी कुछ लोग अपनी इच्छानुसार हाट में ही रह जाते हैं, जैसे नारद आदि। वे ‘भक्ति का मैं’ लेकर लोकशिक्षा के लिए संसार में रहते हैं। शंकराचार्य ने लोकशिक्षा के लिए ‘विद्या का मैं’ रखा था।

“आसक्ति का नाममात्र भी रहते वे नहीं मिल सकते। सूत के रेशे निकले हुए हों तो वह सुई के भीतर नहीं जा सकता।

“जिन्होंने ईश्वर को प्राप्त कर लिया है, उनके काम-क्रोध नाममात्र के हैं, जैसे जली रस्सी, - रस्सी का आकार तो है परन्तु फूकने से ही उड़ जाती है।

“मन से आसक्ति के चले जाने पर उनके दर्शन होते हैं। शुद्ध मन से जो निकलेगी, वह उन्हीं की वाणी है। शुद्ध मन जो है, शुद्ध बुद्धि भी वही है और शुद्ध आत्मा भी वही है; क्योंकि उन्हें छोड़ कोई दूसरा शुद्ध नहीं है।

“परन्तु उन्हें पा लेने पर लोग धर्माधर्म को पार कर जाते हैं।”

इतना कहकर श्रीरामकृष्ण मधुर कण्ठ से भक्त रामप्रसाद का एक गीत गाने लगे। उसका मर्म यह है -

“मन, चल, सैर करने चले। कालीरूपी कल्पलता के नीचे तुझे चारों फल मिल जायेंगे। अपनी प्रवृत्ति और निवृत्ति, इन दो पत्नियों में से तू निवृत्ति को साथ लेना और उसी के पुत्र विवेक से तत्त्व की बातें पूछना।”

(४)

श्रीरामकृष्ण का श्रीराधा-भाव

श्रीरामकृष्ण दक्षिण-पूर्ववाले बरामदे में आकर बैठे हैं। प्राणकृष्ण आदि भक्त भी साथ साथ आये हैं। हाजरा महाशय बरामदे में बैठे हुए हैं। श्रीरामकृष्ण हँसते हुए प्राणकृष्ण से कह रहे हैं -

“हाजरा कुछ कम नहीं है। अगर यहाँ (स्वयं को लक्ष्य करके) कोई बड़ी दरगाह हो तो हाजरा छोटी दरगाह है!” (सब हँसते हैं।)

नवकुमार आकर बरामदे के दरवाजे में खड़े हुए और भक्तों को देखते ही चले गये। उन्हें देखकर श्रीरामकृष्ण ने कहा - “अहंकार की मूर्ति है!”

दिन के आठ बज चुके हैं। प्राणकृष्ण ने प्रणाम करके चलने की आज्ञा ली; उन्हें कलकत्ते के मकान में लौट जाना है।

एक वैरागी गोपीयन्त्र (एकतारे की सूरत-शकल का) लेकर श्रीरामकृष्ण के कमरे में गा रहे हैं। गीतों का आशय यह है -

(१) “नित्यानन्द का जहाज आया है। तुम्हें पार जाना हो तो इस पर आ जाओ। छः गोरे इसमें सदा पहरा देते हैं। उनकी पीठ ढाल से घिरी हुई है और कमर में तलवार लटक रही है। सदर दरवाजा खोलकर वे धनरत्न लुटा रहे हैं।”

(२) “इस समय घर छा लेना। इस बार वर्षा जोरों की होगी, सावधान हो जाओ, अदरक का पानी पीकर अपने काम पर डट जाओ। जब श्रावण लग जायगा तब कुछ भी न सूझेगा। छप्पर का टाट सड़ जायगा। फिर तुम घर न छा सकोगे। जब झकोरे लगेंगे, तब छप्पर उड़ जायगा। घर वीरान हो जायगा। तुम्हें भी फिर स्थान बदलना ही पड़ेगा।”

(३) “किसके भाव में नदिये में आकर दीन वेश धारण कर तुम स्वयं हरि होते हुए भी हरिनाम गा रहे हो? किसका भाव लेकर तुमने यह भाव और ऐसा स्वभाव धारण किया? कुछ समझ में नहीं आता।”

श्रीरामकृष्ण गाना सुन रहे हैं, इसी समय श्री केदार चटर्जी आये और उन्होंने प्रणाम किया। वे आफिस की पोशाक में - चोगा, अचकन पहने और घड़ी चेन लगाये हुए आये हैं। परन्तु ईश्वरचर्चा होती है तो आपकी आँखों से आँसुओ की झड़ी लग जाती है। आप बड़े प्रेमी हैं। हृदय में गोपीभाव विराजमान है।

केदार को देखकर श्रीरामकृष्ण के मन में वृन्दावन की लीला का उद्दीपन होने लगा। आप प्रेमोन्मत्त हो गये। खड़े होकर केदार को सुनाते हुए इस मर्म का गाना गाने लगे -

“क्यों सखि, वह वन अभी कितनी दूर है जहाँ मेरे श्यामसुन्दर हैं? अब तो चला नहीं जाता!”

श्रीराधिका के भावावेश में गाते ही गाते श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हो गये। चित्रवत् खड़े हैं। नेत्रों के दोनों कोरों से आनन्दाश्रु लुढक रहे हैं।

भूमिष्ठ होकर श्रीरामकृष्ण के चरणों का स्पर्श करके केदार उनकी स्तुति करने लगे-

“हृदयकमलमध्ये निर्विशेषं निरीहं हरिहरविधिवेद्यं योगिभिर्ध्यानगम्यम्। जननमरणभीतिभ्रंशि सच्चित्स्वरूपं सकलभुवनबीजं ब्रह्मचैतन्यमीडे॥”

कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण प्रकृतिस्थ हुए। केदार को अपने घर हालीशहर से कलकत्ते में काम पर जाना था। रास्ते में दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर में श्रीरामकृष्ण के दर्शन करके जा रहे हैं। कुछ देर विश्राम करने के पश्चात् केदार ने बिदाई ली।

इसी तरह भक्तों से वार्तालाप करते हुए दोपहर का समय हो गया। श्री रामलाल श्रीरामकृष्ण के लिए थाली में कालीमाता का प्रसाद ले आये। कमरे में आसन पर दक्षिणास्य बैठकर श्रीरामकृष्ण ने प्रसाद पाया। बालकों की तरह भोजन किया - थोड़ा थोड़ा सभी कुछ खाया।

भोजन करके श्रीरामकृष्ण उसी छोटी खाट पर विश्राम करने लगे। कुछ समय पश्चात् मारवाड़ी भक्तों का आगमन हुआ।

(५)

अभ्यासयोग। दो पथ विचार और भक्ति

दिन के तीन बजे हैं। मारवाड़ी भक्त जमीन पर बैठे हुए श्रीरामकृष्ण से प्रश्न कर रहे हैं। कमरे में मास्टर, राखाल और दूसरे भक्त भी हैं।

मारवाड़ी भक्त - महाराज, उपाय क्या है?

श्रीरामकृष्ण - उपाय दो हैं। विचार-मार्ग और अनुराग अथवा भक्ति का मार्ग।

“सत्-असत् का विचार। एकमात्र सत् या नित्य वस्तु ईश्वर हैं, और सब कुछ असत् या अनित्य है। इन्द्रजाल दिखलानेवाला ही सत्य है, इन्द्रजाल मिथ्या है। यही विचार है।

“विवेक और वैराग्य। इस सत्-असत् विचार का नाम विवेक है। वैराग्य अर्थात् संसार की वस्तुओं से विरक्ति। यह एकाएक नहीं होता - प्रतिदिन अभ्यास करना चाहिए। कामिनी-कांचन का त्याग पहले मन से करना पड़ता है। फिर तो उनकी इच्छा होते ही वह मन से त्याग कर सकता है और बाहर से भी त्याग कर सकता है। पर कलकत्ते के आदमियों से क्या मजाल जो कहा जाय कि ईश्वर के लिए सब कुछ छोड़ो! उनसे यही कहना पड़ता है कि मन ही में त्याग करो। अभ्यासयोग से कामिनी-कांचन में आसक्ति का त्याग होता है - यह बात गीता में है। अभ्यास से मन में असाधारण शक्ति आ जाती है। तब इन्द्रियसंयम करने और काम-क्रोध को वश में लाने में कष्ट नहीं उठाना पड़ता। जैसे कछुआ पैर समेट लेने पर फिर बाहर नहीं निकालना चाहता - कुल्हाड़ी से टुकड़े टुकड़े कर डालने पर भी बाहर नहीं निकालता।”

मारवाड़ी भक्त - महाराज, आपने दो रास्ते बतलाये। दूसरा कौनसा है?

श्रीरामकृष्ण - वह अनुराग या भक्ति का मार्ग है। व्याकुल होकर एक बार निर्जन में अकेले में दर्शन की प्रार्थना करते हुए रोओ।

“ऐ मन, जैसे पुकारा जाता है उस तरह तुम पुकारो तो सही, फिर देखो भला तुम्हें छोड़कर माँ श्यामा कैसे रह सकती हैं?”

मारवाड़ी भक्त - महाराज, साकार-पूजा का क्या अर्थ है? और निराकार-निर्गुण का क्या मतलब है?

श्रीरामकृष्ण - जैसे पिता का फोटोग्राफ देखने से पिता की याद आती है, वैसे ही प्रतिमा की पूजा करते करते सत्य के रूप की उद्दीपना होती है।

“साकार रूप कैसा है जानते हो? जैसे जलराशि से बुलबुले निकलते हैं, वैसा ही। महाकाश चिदाकाश से एक एक रूप आविर्भूत होते हुए दीख पड़ते हैं। अवतार भी एक रूप ही है। अवतार-लीला भी आद्याशक्ति ही की क्रीड़ा है।

पाण्डित्य - मैं कौन? मैं ही तुम

“पाण्डित्य में क्या रखा है? व्याकुल होकर पुकारने पर वे मिलते हैं। नाना विषयों का ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं।

“जो आचार्य हैं उन्हीं को कई विषयों का ज्ञान रखना चाहिए। दूसरों को मारने के लिए ढाल-तलवार की जरूरत होती है, परन्तु अपने को मारने के लिए एक सुई या नहरनी ही से काम चल सकता है।

“मैं कौन हूँ, इसकी ढूँढ़-तलाश करने के लिए चलो तो उन्हीं के निकट जाना पड़ता है। क्या मैं मांस हूँ? या हाड़, रक्त या मज्जा हूँ? मन या बुद्धि हूँ? अन्त में विचार करते हुए देखा जाता है कि मैं यह सब कुछ नहीं हूँ। ‘नेति’ ‘नेति’। आत्मा वह चीज नहीं कि पकड़ में आ जाय। वह निर्गुण और निरुपाधि है।

“परन्तु भक्तिमत से वे सगुण हैं। चिन्मय श्याम, चिन्मय धाम - सब चिन्मय!”

मारवाड़ी भक्तगण प्रणाम करके बिदा हुए।

दक्षिणेश्वर में सन्ध्या और आरती

सन्ध्या हो गयी। श्रीरामकृष्ण गंगा-दर्शन कर रहे हैं। कमरे में दीपक जलाया गया। श्रीरामकृष्ण जगन्माता का नामस्मरण कर रहे हैं और अपनी खाट पर बैठे हुए उन्हीं के ध्यान में मग्न हैं!

श्रीमन्दिर में अब आरती होने लगी। जो लोग इस समय भी गंगा के किनारे या पंचवटी में घूम रहे हैं, वे दूर से आरती की मधुर घण्टाध्वनि सुन रहे हैं। ज्वार आ गयी है, भागीरथी कलकल स्वर से उत्तर की ओर बह रही हैं। आरती का मधुर शब्द इस ‘कल-कल’ ध्वनि से मिलकर और भी मधुर हो गया है। इस माधुर्य के भीतर प्रेमोन्मत्त श्रीरामकृष्ण बैठे हुए हैं। सब कुछ मधुर है! हृदय भी मधुमय हो रहा है!

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