परिच्छेद २४ - दक्षिणेश्वर में राखाल, राम आदि के साथ

श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में दोपहर को भोजन करके भक्तों के साथ बैठे हुए हैं। आज २५ फरवरी १८८३ ई. है।

राखाल, हरीश, लाटू, हाजरा आजकल श्रीरामकृष्ण के पास ही रहते हैं। कलकत्ते से राम, केदार, नित्यगोपाल, मास्टर आदि भक्त आये हैं और चौधरी भी आये हैं।

अभी अभी चौधरी की पत्नी का स्वर्गवास हो गया है। मन में शान्ति पाने के उद्देश्य से कुछ एक बार वे श्रीरामकृष्ण के दर्शन करने के लिए आ चुके हैं। उन्हें उच्च शिक्षा मिली है, सरकारी पद पर नौकरी करते हैं।

श्रीरामकृष्ण (राम आदि भक्तों से) - राखाल, नरेन्द्र, भवनाथ, ये सब नित्यसिद्ध हैं, जन्म ही से इन्हें चैतन्य प्राप्त है। ये लोकशिक्षा के लिए ही शरीर धारण करते हैं।

“एक श्रेणी के लोग और होते हैं। वे कृपासिद्ध कहलाते हैं। एकाएक उनकी कृपा हुई कि दर्शन हुए और ज्ञानलाभ हुआ। जैसे हजार वर्षों के अँधेरे कमरे में चिराग ले जाओ तो क्षण भर में उजाला हो जाता है - धीरे धीरे नहीं होता।

निर्जन में साधना

“जो लोग संसार में हैं, उन्हें साधना करनी चाहिए। निर्जन में व्याकुल होकर ईश्वर को बुलाना चाहिए।

(चौधरी से) - “पाण्डित्य से वे नहीं मिलते।

“और उन्हें विचार करके समझनेवाला है कौन? उनके पादपद्मों में जिस से भक्ति हो, सब को वही करना चाहिए।

“उनका ऐश्वर्य अनन्त हैं - समझ में क्या आये? और उनके कार्यों को भी कोई क्या समझे?

भीष्मदेव का क्रन्दन

“भीष्मदेव जो साक्षात् अष्टवसुओं में एक हैं, शरशय्या पर रोने लगे; कहा, ‘क्या आश्चर्य! पाण्डवों के साथ सदा स्वयं भगवान् रहते हैं, फिर भी उनके दुःख और विपत्तियों का अन्त नहीं! - भगवान् के कार्यों को कोई क्या समझे!’

“कोई कोई सोचते हैं कि हम भजन-पूजन करते हैं - हम जीत गये। परन्तु हारजीत उनके हाथों में है। यहाँ एक वेश्या मरने के समय ज्ञानपूर्वक गंगा-स्पर्श करके मरी !

चौधरी - किस तरह उनके दर्शन हों?

श्रीरामकृष्ण - इन आँखों से वे नहीं दीख पड़ते। वे दिव्यदृष्टि देते हैं, तब उनके दर्शन होते हैं! अर्जुन को विश्वरूप-दर्शन के समय श्रीभगवान् ने दिव्यदृष्टि दी थी।

“तुम्हारी फिलासफी (Philosophy) में सिर्फ हिसाब-किताब होता है - सिर्फ विचार करते हैं। इससे वे नहीं मिलते।

रागभक्ति अहैतुकी भक्ति

“यदि रागभक्ति - अनुराग के साथ भक्ति - हो तो वे स्थिर नहीं रह सकते।

“भक्ति उनको उतनी ही प्रिय है जितनी बैल को सानी।

“रागभक्ति - शुद्धा भक्ति - अहैतुकी भक्ति। जैसे प्रह्लाद की।

“तुम किसी बड़े आदमी से कुछ चाहते नहीं हो, परन्तु रोज आते हो, उन्हें देखना ही चाहते हो। पूछने पर कहते हो - ‘जी, कोई काम नहीं है, बस दर्शन के लिए आ गया।’ इसे अहैतुकी भक्ति कहते हैं। तुम ईश्वर से कुछ चाहते नहीं, सिर्फ प्यार करते हो।”

यह कहकर श्रीरामकृष्ण गाने लगे। गीत का मर्म यह है : -

“ ‘मैं मुक्ति देने में कातर नहीं होता, किन्तु शुद्धा भक्ति देने में कातर होता हूँ।’

“मूल बात है ईश्वर में रागानुगा भक्ति और विवेक-वैराग्य चाहिए।”

चौधरी - महाराज, गुरु के न होने से क्या नहीं होता?

श्रीरामकृष्ण - सच्चिदानन्द ही गुरु हैं।

“शवसाधना करते समय जब इष्टदर्शन का मौका आता है, तब गुरु सामने आकर कहते हैं, ‘यह देख अपना इष्ट।’ फिर गुरु इष्ट में लीन हो जाते हैं। जो गुरु हैं वे ही इष्ट हैं। गुरु मार्ग पर लगा देते हैं।

“अनन्त का तो व्रत, पर पूजा विष्णु की की जाती है। उसी में ईश्वर का अनन्त रूप विराजमान है।

सर्वधर्मसमन्वय

(राम आदि भक्तों से) “यदि कहो किस मूर्ति का चिन्तन करेंगे, तो जो मूर्ति अच्छी लगे, उसी का ध्यान करना। परन्तु समझना कि सभी एक हैं।

“किसी से द्वेष न करना चाहिए। शिव, काली, हरि - सब एक ही के भिन्न भिन्न रूप हैं। वह धन्य है जिसको उनके एक होने का ज्ञान हो गया है।

“बाहर शैव, हृदय में काली, मुख में हरिनाम।

“कुछ कुछ काम-क्रोधादि के न रहने से शरीर नहीं रहता। परन्तु तुम लोग घटाने ही की चेष्टा करना।”

श्रीरामकृष्ण केदार को देखकर कह रहे हैं -

“ये अच्छे हैं। नित्य भी मानते हैं, लीला भी मानते हैं। एक ओर ब्रह्म और दूसरी ओर देवलीला से लेकर मनुष्यलीला तक!”

केदार कहते हैं कि श्रीरामकृष्ण के रूप में भगवान् मनुष्यदेह धारण कर अवतीर्ण हुए हैं।

संन्यासी तथा कामिनी

नित्यगोपाल को देखकर श्रीरामकृष्ण बोले -

“इसकी अच्छी अवस्था है। (नित्यगोपाल से) तू वहाँ ज्यादा न जाना। कहीं एक-आध बार चले गए। भक्त है तो क्या हुआ - स्त्री है न? इसीलिए सावधान रहना।

“संन्यासी के नियम बड़े कठिन हैं। उसके लिए स्त्रियों के चित्र देखने की भी मनाही है। यह संसारियों के लिए नहीं है।

“स्त्री यदि भक्त भी हो तो भी उससे ज्यादा न मिलना चाहिए।

“जितेन्द्रिय होने पर भी संन्यासी को लोकशिक्षा के लिए यह सब करना पड़ता है।

“साधुपुरुष का सोलहों आना त्याग देखने पर दूसरे लोग त्याग की शिक्षा लेंगे, नहीं तो वे भी डूब जायेंगे। संन्यासी जगद्गुरु हैं।”

अब श्रीरामकृष्ण और भक्तगण उठकर घूमने लगे। मास्टर प्रह्लाद के चित्र के सामने खड़े होकर देख रहे हैं - श्रीरामकृष्ण ने कहा है कि प्रह्लाद की भक्ति अहैतुकी भक्ति है।

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