परिच्छेद १ - प्रथम दर्शन
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तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम्। श्रवणमंगलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ये भूरिदा जनाः॥
(श्रीमद्भागवत, १०।३१।९)
श्रीगंगाजी के पूर्वतट पर कलकत्ते से कोई छः मील दूर दक्षिणेश्वर में श्रीकालीजी का मन्दिर है। यहीं भगवान् श्रीरामकृष्णदेव रहते हैं। वसन्त ऋतु है। १८८२ ईसवीं का फरवरी माह। श्रीरामकृष्ण के जन्मोत्सव के बाद कुछ दिन बीत चुके हैं। श्री केशवचन्द्र सेन और जोसेफ कुक के साथ २३ फरवरी, बृहस्पतिवार के दिन श्रीरामकृष्ण जहाज में बैठकर घूमने गए थे। इसके कुछ ही दिन बाद (२६ फरवरी) की घटना है।
सन्ध्या का समय था। मास्टर ने श्रीरामकृष्ण के कमरे में प्रवेश किया। इसी समय उन्होंने श्रीरामकृष्णदेव के प्रथम बार दर्शन किए। उन्होंने देखा, कमरा लोगों से भरा हुआ है; सब लोग चुपचाप बैठे उनके वचनामृत का पान कर रहे हैं। श्रीरामकृष्ण तखत पर पूर्व की ओर मुँह किये बैठे हुए प्रसन्नवदन हो ईश्वरीय चर्चा कर रहे हैं। भक्तगण फर्श पर बैठे हुए हैं।
मास्टर खड़े खड़े आश्चर्यमुग्ध होकर देखने लगे। उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ, मानो साक्षात् शुकदेव भगवत्-प्रसंग कर रहे हैं तथा उस स्थान पर सभी तीर्थों का समागम हुआ है अथवा मानो श्रीचैतन्यदेव पुरीधाम में रामानन्द, स्वरूप आदि भक्तों के साथ बैठकर भगवान् का नामगुणगान कर रहे हैं। श्रीरामकृष्ण कह रहे थे - “जब एक बार हरिनाम या रामनाम लेते ही रोमांच होता है, आँसुओ की धारा बहने लगती है, तब निश्चित समझो कि सन्ध्यादि कर्मों की आवश्यकता नहीं रह जाती। तब कर्मत्याग का अधिकार पैदा हो जाता है - कर्म आप ही आप छूट जाते हैं। उस अवस्था में केवल रामनाम, हरिनाम, या केवल ओंकार का जप करना ही पर्याप्त है।” आपने फिर कहा - “सन्ध्यावन्दन का लय गायत्री में होता है और गायत्री का ओंकार में।”
मास्टर सिधू के साथ वराहनगर से निकलकर एक बाग से दूसरे बाग में घूमते हुए यहाँ आ पहुँचे थे। रविवार का दिन था - छुट्टी थी, इसलिए घूमने निकले थे। थोड़ी देर पहले श्री प्रसन्न बनर्जी के बाग में घूम रहे थे। उस समय सिधू ने कहा, “गंगाजी के किनारे एक सुन्दर बगीचा है, देखने चलिएगा? वहाँ एक परमहंस रहा करते हैं।”
बगीचे के सामनेवाले फाटक से प्रवेश कर मास्टर और सिधू सीधे श्रीरामकृष्णदेव के कमरे में आए। मास्टर विस्मित होकर देखते हुए सोचने लगे - ‘वाह, कैसा सुन्दर स्थान है! कितने अच्छे महात्मा हैं! कैसी सुन्दर वाणी है! यहाँ से हिलने तक की इच्छा नहीं होती।’ थोड़ी देर बाद उन्होंने मन में विचार किया, ‘एक बार देख आऊँ, कहाँ आया हूँ। फिर यहाँ आकर बैठूँगा।’
मास्टर सिधू के साथ कमरे के बाहर निकले। ठीक उसी समय आरती की मधुर ध्वनि आरम्भ हुई। एक साथ घण्टे, घड़ियाल, झाँझ, मृदंग आदि बज उठे। उद्यान की दक्षिण सीमा से नौबत की मधुर ध्वनि गूँज उठी। वह ध्वनि मानो भागीरथी के वक्ष पर से संचार करती हुई कहीं दूर जाकर विलीन होने लगी। वसन्तसमीर पुष्पों की सुगन्ध लिए मन्द मन्द बह रहा था। चारों ओर ज्योत्स्ना छा गयी। प्रकृति में सर्वत्र मानो देवताओं की आरती का आयोजन हो रहा था। बारह शिवमन्दिर, श्रीराधाकान्त-मन्दिर और श्रीभवतारिणी के मन्दिर में आरती देखकर मास्टर को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। सिधू ने बताया, “यह रासमणि का देवस्थान है। यहाँ देवताओं की नित्य सेवापूजा होती है। रोज कई लोग आते हैं, कई साधु-सन्त, ब्राह्मण, भिखारी यहाँ प्रसाद पाते हैं।”
भवतारिणी के मन्दिर से निकलकर दोनों बातचीत करते करते पक्के विस्तीर्ण आँगन पर से चलते हुए पुनः श्रीरामकृष्ण के कमरे के सामने आ पहुँचे। उन्होंने देखा, कमरे का दरवाजा अब भिड़ा लिया गया है।
कमरे के भीतर अभी धूप दिखाया गया है। मास्टर अंग्रेजी पढ़े-लिखे आदमी हैं। सहसा घर में घुस न सकते थे। द्वार पर वृन्दा (कहारिन) खड़ी थी। मास्टर ने पूछा, “साधु महाराज क्या इस समय कमरे के भीतर हैं?” उसने कहा, “ हाँ, वे भीतर हैं।”
मास्टर - ये यहाँ कब से हैं?
वृन्दा - ये? बहुत दिनों से हैं।
मास्टर - अच्छा, तो पुस्तकें खूब पढ़ते होंगे?
वृन्दा - पुस्तकें? उनके मुँह में सब कुछ है।
मास्टर हाल ही में पढ़ाई-लिखाई पूरी कर आए थे। श्रीरामकृष्ण पुस्तकें नहीं पढ़ते, यह सुनकर उन्हें और भी आश्चर्य हुआ।
मास्टर - अब तो ये शायद सन्ध्या करेंगे? क्या हम भीतर जा सकते हैं? एक बार खबर दे दो न।
वृन्दा - तुम लोग जाते क्यों नहीं? - जाओ, भीतर बैठो।
तब दोनों ने कमरे में प्रवेश किया। देखा, कमरे में और कोई नहीं है। श्रीरामकृष्ण अकेले तखत पर बैठे हैं। कमरे में धूप की सुगन्ध भर रही है। सभी दरवाजे बन्द हैं। मास्टर ने अन्दर आते ही हाथ जोड़कर प्रणाम किया। श्रीरामकृष्ण द्वारा बैठने की आज्ञा पाकर वे और सिधू फर्श पर बैठ गए। श्रीरामकृष्ण ने पूछा, कहाँ रहते हो, क्या करते हो, वराहनगर क्यों आए इत्यादि। मास्टर ने कुल परिचय दिया। वे देखने लगे कि श्रीरामकृष्ण का मन बीच बीच में मानो दूसरी ओर खिंच रहा है। उन्हें बाद में मालूम हुआ कि इसी को ‘भाव’ कहते हैं। मानो कोई बंसी डालकर मछली पकड़ने बैठा है जब मछली आकर काँटे में लगे चारे को खाने लगती है और बंसी का शोला हिलने लगता है, उस समय वह आदमी किस प्रकार व्यस्त होकर बंसी को पकड़े हुए एकाग्र चित्त से शोले की ओर टक लगाकर देखने लगता है, - किसी से बातचीत नहीं करता यह भी ठीक उसी प्रकार का भाव था। बाद में मास्टर ने सुना और देखा कि सन्ध्या के बाद श्रीरामकृष्ण को इस प्रकार का भावान्तर प्रायः प्रतिदिन हुआ करता है, कभी कभी तो वे पूरी तरह बाह्यज्ञान-शून्य हो जाते हैं।
मास्टर - आप तो अब सन्ध्या करेंगे, हम अब चलें।
श्रीरामकृष्ण (भावस्थ) - नहीं, - सन्ध्या - ऐसा कुछ नहीं।
और कुछ देर बातचीत होने के बाद मास्टर ने प्रणाम किया और चलना चाहा। श्रीरामकृष्ण ने कहा, “फिर आना।”
मास्टर लौटते समय सोचने लगे - “ये सौम्यदर्शन पुरुष कौन हैं? - इनके पास फिर लौट जाने की इच्छा हो रही है! क्या बिना पुस्तकों के पढ़े भी मनुष्य महान् बन सकता है? कितना आश्चर्य है, मुझे यहाँ फिर आने की इच्छा हो रही है इन्होंने भी कहा, ‘फिर आना’ कल या परसों सबेरे फिर आऊँगा।”