परिच्छेद ३ - तृतीय दर्शन
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि। ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः॥ (गीता, ६।२९)
नरेन्द्र, भवनाथ तथा मास्टर
मास्टर उस समय वराहनगर में अपनी बहन के यहाँ ठहरे थे। जब से श्रीरामकृष्ण के दर्शन हुए तब से मन में सब समय उन्हीं का चिन्तन चल रहा है। मानो आँखों के सामने सदा वही आनन्दमय रूप दिखायी दे रहा हो, कानों में वही अमृतमयी वाणी सुनायी दे रही हो। मास्टर सोचने लगे, इस निर्धन ब्राह्मण ने इन गम्भीर आध्यात्मिक तत्त्वों को कैसे खोज निकाला, किस प्रकार उनका ज्ञान प्राप्त किया? इसके पहले उन्होंने इतनी सरलता से इन गूढ़ तत्त्वों को समझाते हुए कभी किसी को नहीं देखा था। मास्टर दिनरात यही विचार करने लगे कि कब उनके पास जाऊँ और उन्हें देखूँ।
देखते ही देखते रविवार (५ मार्च) आ गया। वराहनगर के नेपालबाबू के साथ दोपहर को तीन-चार बजे के लगभग वे दक्षिणेश्वर में आ पहुँचे। देखा, श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में छोटे तखत के ऊपर विराजमान हैं। कमरा भक्तों से ठसाठस भरा हुआ है। रविवार के कारण अवसर पाकर कई भक्त दर्शन के लिए आए हैं। उस समय मास्टर का किसी के साथ परिचय नहीं हुआ था; वे भीड़ में एक ओर जाकर बैठ गए। देखा, श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ प्रसन्नमुख हो वार्तालाप कर रहे हैं।
एक उन्नीस साल के लड़के की ओर देखते हुए श्रीरामकृष्ण बड़े आनन्द के साथ वार्तालाप कर रहे हैं। लड़के का नाम है नरेन्द्र*। अभी ये कालेज में पढ़ते हैं और साधारण ब्राह्मसमाज में कभी कभी जाते हैं। इनकी आँखें पानीदार और बातें जोशीली हैं। चेहरे पर भक्तिभाव है।
मास्टर को अनुमान से मालूम हुआ कि विषयासक्त संसारियों की बातें चल रही हैं। ये लोग ईश्वरभक्त, धर्मपरायण व्यक्तियों की निन्दा किया करते हैं। फिर संसार में कितने दुर्जन व्यक्ति हैं, उनके साथ किस प्रकार बर्ताव करना चाहिए - ये सब बातें होने लगीं।
श्रीरामकृष्ण (नरेन्द्र से) - क्यों नरेन्द्र, भला तू क्या कहेगा? संसारी मनुष्य तो न जाने क्या क्या कहते हैं। पर याद रहे कि हाथी जब जाता है, तब उसके पीछे पीछे कितने ही जानवर बेतरह चिल्लाते हैं। पर हाथी लौटकर देखता तक नहीं। तेरी कोई निन्दा करे तो तू क्या समझेगा?
नरेन्द्र - मैं तो यह समझूँगा कि कुत्ते भौंकते हैं।
श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - अरे नहीं, यहाँ तक नहीं। (सब का हास्य।) सर्वभूतों में परमात्मा का ही वास है। पर मेल-मिलाप करना हो तो भले आदमियों से ही करना चाहिए, बुरे आदमियों से अलग ही रहना चाहिए। बाघ में भी परमात्मा का वास है, इसलिए क्या बाघ को भी गले लगाना चाहिए? (लोग हँस पड़े।) यदि कहो कि बाघ भी तो नारायण है, इसलिए क्यों भागें? इसका उत्तर यह है कि जो लोग कहते हैं कि भाग चलो, वे भी तो नारायण हैं, उनकी बात क्यों न मानो?
“एक कहानी सुनो। किसी जंगल में एक महात्मा थे। उनके कई शिष्य थे। एक दिन उन्होंने अपने शिष्यों को उपदेश दिया कि सर्वभूतों में नारायण का वास है, यह जानकर सभी को नमस्कार करो। एक दिन एक शिष्य हवन के लिए जंगल में लकड़ी लेने गया। उस समय जंगल में यह शोरगुल मचा था कि कोई कहीं हो तो भागो, पागल हाथी जा रहा है। सभी भाग गए, पर शिष्य न भागा। उसे तो यह विश्वास था कि हाथी भी नारायण है, इसलिए भागने का क्या काम? वह खड़ा ही रहा। हाथी को नमस्कार किया और उसकी स्तुति करने लगा। इधर महावत के ऊँची आवाज लगाने पर भी कि भागो भागो, उसने पैर न उठाए। पास पहुँचकर हाथी ने उसे सूँड़ से लपेटकर एक ओर फेंक दिया और अपना रास्ता लिया। शिष्य घायल हो गया और बेहोश पड़ा रहा।
“यह खबर गुरु के कान तक पहुँची। वे अन्य शिष्यों को साथ लेकर वहाँ गए और उसे आश्रम में उठा लाए। वहाँ उसकी दवा-दारू की, तब वह होश में आया। कुछ देर बाद किसी ने उससे पूछा, हाथी को आते सुनकर तुम वहाँ से हट क्यों न गए? उसने कहा कि गुरुजी ने कह तो दिया था कि जीव, जन्तु आदि सब में परमात्मा का ही वास है, नारायण ही सब कुछ हुए हैं, इसी से हाथी नारायण को आते देख मैं नहीं भागा। गुरुजी पास ही थे। उन्होंने कहा - बेटा, हाथी नारायण आ रहे थे, ठीक है; पर महावत नारायण ने तो तुम्हें मना किया था। यदि सभी नारायण हैं तो उस महावत की बात पर विश्वास क्यों न किया? महावत नारायण की भी बात मान लेनी चाहिए थी। (सब हँस पड़े।)
“शास्त्रों में है ‘आपो नारायणः’ - जल नारायण है। परन्तु किसी जल से देवता की सेवा होती है और किसी से लोग मुँह-हाथ धोते हैं, कपड़े धोते हैं और बर्तन माँजते हैं; किन्तु वह जल न पीते हैं, न ठाकुरजी की सेवा में ही लगाते हैं। इसी प्रकार साधु-असाधु, भक्त-अभक्त सभी के हृदय में नारायण का वास है; किन्तु असाधुओं, अभक्तों से व्यवहार या अधिक हेल-मेल नहीं चल सकता। किसी से सिर्फ बातचीत भर कर लेनी चाहिए और किसी से वह भी नहीं। ऐसे आदमियों से अलग रहना चाहिए।”
एक भक्त - महाराज, यदि दुष्ट जन अनिष्ट करने पर उतारू हों या कर डालें तो क्या चुपचाप बैठे रहना चाहिए?
गृहस्थ तथा तमोगुण
श्रीरामकृष्ण - दुष्ट जनों के बीच रहने से उनसे अपना जी बचाने के लिए कुछ तमोगुण दिखाना चाहिए; परंतु कोई अनर्थ कर सकता है, यह सोचकर उलटा उसी का अनर्थ न करना चाहिए।
“किसी जंगल में कुछ चरवाहे गौएँ चराते थे। वहाँ एक बड़ा विषधर सर्प रहता था। उसके डर से लोग बड़ी सावधानी से आया-जाया करते थे। किसी दिन एक ब्रह्मचारीजी उसी रास्ते से आ रहे थे। चरवाहे दौड़ते हुए उनके पास आये और उनसे कहा - ‘महाराज, इस रास्ते से न जाइए; यहाँ एक साँप रहता है, बड़ा विषधर है।’ ब्रह्मचारीजी ने कहा - ‘तो क्या हुआ, बेटा, मुझे कोई डर नहीं, मैं मन्त्र जानता हूँ।’ यह कहकर ब्रह्मचारीजी उसी ओर चले गए। डर के मारे चरवाहे उनके साथ न गए। इधर साँप फन उठाये झपटता चला आ रहा था, परन्तु पास पहुँचने के पहले ही ब्रह्मचारीजी ने मन्त्र पढ़ा। साँप आकर उनके पैरों पर लोटने लगा। ब्रह्मचारीजी ने कहा - ‘तू भला हिंसा क्यों करता है? ले, मैं तुझे मन्त्र देता हूँ। इस मन्त्र को जपेगा तो ईश्वर पर भक्ति होगी, तुझे ईश्वर के दर्शन होंगे; फिर यह हिंसावृत्ती न रह जाएगी।’ यह कहकर ब्रह्मचारीजी ने साँप को मन्त्र दिया। मन्त्र पाकर साँप ने गुरु को प्रणाम किया, और पूछा - ‘भगवन्, मैं क्या साधना करूँ?’ गुरु ने कहा - ‘इस मन्त्र को जप और हिंसा छोड़ दे।’ चलते समय ब्रह्मचारीजी फिर आने का वचन दे गए।
“इस प्रकार कुछ दिन बीत गए। चरवाहों ने देखा कि साँप अब काटता नहीं, ढेला मारने पर भी गुस्सा नहीं होता, केंचुए की तरह हो गया है। एक दिन चरवाहों ने उसके पास जाकर पूँछ पकड़कर उसे घुमाया और वहीं पटक दिया। साँप के मुँह से खून बह चला, वह बेहोश पड़ा रहा; हिल-डुल तक न सकता था। चरवाहों ने सोचा कि साँप मर गया और यह सोचकर वहाँ से वे चले गए।
“जब बहुत रात बीती तब साँप होश में आया और धीरे धीरे अपने बिल के भीतर गया। देह चूर चूर हो गयी थी, हिलने तक की शक्ति नहीं रह गयी थी। बहुत दिनों के बाद जब चोट कुछ अच्छी हुई तब भोजन की खोज में बाहर निकला। जब से मारा गया तब से सिर्फ रात को ही बाहर निकलता था। हिंसा करता ही न था। सिर्फ घास-फूस, फल-फूल खाकर रह जाता था।
“सालभर बाद ब्रह्मचारी फिर आए। आते ही साँप की खोज करने लगे। चरवाहों ने कहा, ‘वह तो मर गया है’, पर ब्रह्मचारीजी को इस बात पर विश्वास न आया। वे जानते थे कि जो मन्त्र वे दे गए हैं, वह जब तक सिद्ध न होगा तब तक उसकी देह छूट नहीं सकती। ढूँढ़ते हुए उसी ओर वे अपने दिए हुए नाम से साँप को पुकारने लगे। बिल से गुरुदेव की आवाज सुनकर साँप निकल आया और बड़े भक्तिभाव से प्रणाम किया। ब्रह्मचारीजी ने पूछा, ‘क्यों कैसा है?’ उसने कहा, ‘जी अच्छा हूँ।’ ब्रह्मचारीजी - ‘तो तू इतना दुबला क्यों हो गया?’ साँप ने कहा - ‘महाराज, जब से आप आज्ञा दे गए, तब से मैं हिंसा नहीं करता; फल-फूल, घास-पात खाकर पेट भर लेता हूँ; इसीलिए शायद दुबला हो गया हूँ।’ सत्त्वगुण बढ़ जाने के कारण किसी पर वह क्रोध न कर सकता था। इसी से मार की बात भी वह भूल गया था। ब्रह्मचारीजी ने कहा, ‘सिर्फ न खाने ही से किसी की यह दशा नहीं होती, कोई दूसरा कारण अवश्य होगा, तू अच्छी तरह सोच तो।’ साँप को चरवाहों की मार याद आ गयी। उसने कहा - ‘हाँ महाराज, अब याद आयी, चरवाहों ने एक दिन मुझे पटक-पटककर मारा था। उन अज्ञानियों को तो मेरे मन की अवस्था मालूम थी नहीं। वे क्या जानें कि मैंने हिंसा करना छोड़ दिया है!’ ब्रह्मचारीजी बोले - ‘राम राम, तू ऐसा मूर्ख है? अपनी रक्षा करना भी तू नहीं जानता? मैंने तो तुझे काटने ही को मना किया था, पर फुफकारने से तुझे कब रोका था? फुफकार मारकर उन्हें भय क्यों नहीं दिखाया?’
“इस तरह दुष्टों के पास फुफकार मारना चाहिए, भय दिखाना चाहिए, जिससे कि वे अनिष्ट न कर बैठें; पर उनमें विष न डालना चाहिए, उनका अनिष्ट न करना चाहिए।”
भिन्न भिन्न स्वभाव। क्या सब आदमी बराबर हैं?
श्रीरामकृष्ण - परमात्मा की सृष्टि में नाना प्रकार के जीवजन्तु और पेड़-पौधे हैं। पशुओं में अच्छे हैं और बुरे भी। उनमें बाघ जैसा हिंस्र प्राणी भी है। पेड़ों में अमृत जैसे फल लगें ऐसे भी पेड़ हैं और विष जैसे फल हों ऐसे भी हैं। इसी प्रकार मनुष्यों में भी भले-बुरे और साधु-असाधु हैं । उनमें संसारी जीव भी हैं और भक्त भी।
“जीव चार प्रकार के होते हैं। बद्ध, मुमुक्षु, मुक्त और नित्य।
“नारदादि नित्यजीव हैं। ऐसे जीव औरों के हित के लिए उन्हें शिक्षा देने के लिए संसार में रहते हैं।
“बद्ध जीव विषय में फँसा रहता है। वह ईश्वर को भूल जाता है, भगवच्चिन्तन वह कभी नहीं करता।
“मुमुक्षु जीव वह है जो मुक्ति की इच्छा रखता है। मुमुक्षुओं में से कोई कोई मुक्त हो जाते हैं, कोई कोई नहीं हो सकते।
“मुक्त जीव संसार के कामिनी-कांचन में नहीं फँसते, जैसे साधु-महात्मा। इनके मन में विषय-बुद्धि नहीं रहती। ये सदा ईश्वर के ही पादपद्मों की चिन्ता करते हैं।
“जब जाल तालाब में फेंका जाता है, तब जो दो-चार होशियार मछलियाँ होती हैं, वे जाल में नहीं आतीं। यह नित्य जीवों की उपमा है। किन्तु अनेक मछलियाँ जाल में फँस जाती हैं। इनमें से कुछ निकल भागने की भी चेष्टा करती हैं। यह मुमुक्षुओ की उपमा है। परन्तु सब मछलियाँ नहीं भाग सकतीं। केवल दो चार उछल-उछलकर जाल से बाहर हो जाती हैं। तब मछुआ कहता है, अरे एक बड़ी मछली बह गयी। किन्तु जो जाल में पड़ी हैं, उनमें से अधिकांश मछलियाँ निकल नहीं सकतीं। वे भागने की चेष्टा भी नहीं करतीं, जाल को मुँह में फाँसकर मिट्टी के नीचे सिर घुसेड़कर चुपचाप पड़ी रहती हैं और सोचती हैं, अब कोई भय की बात नहीं, बड़े आनन्द में हैं। पर वे नहीं जानतीं कि मछुआ घसीटकर उन्हें ले जाएगा। यह बद्ध जीवों की उपमा है।
संसारी मनुष्य - बद्ध जीव
“बद्ध जीव संसार के कामिनी-कांचन में फँसे हैं। उनके हाथ पैर बँधे हैं; किन्तु फिर भी वे सोचते हैं कि संसार में कामिनी-कांचन में ही सुख है और यहाँ हम निर्भय हैं। वे नहीं जानते, इन्हीं में उनकी मृत्यु होगी। बद्ध जीव जब मरता है, तब उसकी स्त्री कहती है, ‘तुम तो चले, पर मेरे लिए क्या कर गए?’ माया भी ऐसी होती है कि बद्ध जीव पड़ा तो है मृत्युशय्या पर, पर चिराग में ज्यादा बत्ती जलती हुई देखकर कहता है, ‘तेल बहुत जल रहा है, बत्ती कम करो!’
“बद्ध जीव ईश्वर का स्मरण नहीं करता। यदि अवकाश मिला तो या तो गप करता है या फालतू काम करता है। पूछने पर कहता है, ‘क्या करूँ, चुपचाप बैठ नहीं सकता, इसी से घेरा बाँध रहा हूँ।’ कभी ताश ही खेलकर समय काटता है।” (सब स्तब्ध होकर सुन रहे हैं।)
(२)
यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्। असंमूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते॥ (गीता, १०।३)
उपाय - विश्वास
एक भक्त - महाराज, इस प्रकार के संसारी जीवों के लिए क्या कोई उपाय नहीं है?
श्रीरामकृष्ण - उपाय अवश्य है। कभी कभी साधुओं का संग करना चाहिए और कभी कभी निर्जन स्थान में ईश्वर का स्मरण और विचार। परमात्मा से भक्ति और विश्वास की प्रार्थना करनी चाहिए।
“विश्वास हुआ कि सफलता मिली। विश्वास से बढ़कर और कुछ नहीं है।”
“(केदार के प्रति) विश्वास में कितना बल है, यह तो तुमने सुना है न? पुराणों में लिखा है कि रामचन्द्र को, जो साक्षात् पूर्णब्रह्म नारायण हैं, लंका जाने के लिए सेतु बाँधना पड़ा था, परन्तु हनुमान रामनाम के विश्वास ही से कूदकर समुद्र के पार चले गए, उन्होंने सेतु की परवाह नहीं की। (सब हँसते हैं।)
“किसी को समुद्र के पार जाना था। विभीषण ने एक पत्ते पर रामनाम लिखकर उसके कपड़े के खूँट में बाँधकर कहा कि तुम्हें अब कोई भय नहीं, विश्वास करके पानी के ऊपर से चले जाओ, किन्तु यदि तुम्हें अविश्वास हुआ तो तुम डूब जाओगे। वह मनुष्य बड़े मजे में समुद्र के ऊपर से चला जा रहा था। उसी समय उसकी यह इच्छा हुई कि गाँठ को खोलकर देखूँ तो इसमें क्या बँधा है। गाँठ खोलकर उसने देखा तो एक पत्ते पर रामनाम लिखा था। ज्योंही उसने सोचा कि अरे इसमें तो सिर्फ रामनाम लिखा है - अविश्वास हुआ कि वह डूब गया।”
“जिसका ईश्वर पर विश्वास है, वह यदि महापातक करे - गो-ब्राह्मण-स्त्री-हत्या भी करे - तो भी इस विश्वास के बल से वह बड़े बड़े पापों से मुक्त हो सकता है। वह यदि कहे कि ऐसा काम कभी न करूँगा तो उसे फिर किसी बात का भय नहीं।” यह कहकर श्रीरामकृष्ण ने इस मर्म का बँगला गीत गाया -
“दुर्गा दुर्गा अगर जपूँ मैं, जब मेरे निकलेंगे प्राण। देखूँ कैसे नहीं तारती, कैसे हो करुणा की खान॥ गो-ब्राह्मण की हत्या करके, करके भी मदिरा का पान। जरा नहीं परवा पापों की, लूँगा निश्चय पद निर्वाण॥”
नरेन्द्र होमापक्षी
नरेन्द्र की बात चली। श्रीरामकृष्ण भक्तों से कहने लगे, “इस लड़के को यहाँ एक प्रकार देखते हो। चुलबुला लड़का जब बाप के पास बैठता है, तब चुपचाप बैठा रहता है और जब चाँदनी पर खेलता है, तब उसकी और ही मूर्ति हो जाती है। ये लड़के नित्यसिद्ध हैं। ये कभी संसार में नहीं बँधते। थोड़ी ही उम्र में इन्हें चैतन्य होता है, और ये ईश्वर की ओर चले जाते हैं। ये संसार में जीवों को शिक्षा देने के लिए आते हैं। संसार की कोई वस्तु इन्हें अच्छी नहीं लगती; कामिनी-कांचन में ये कभी नहीं पड़ते।
“वेदों में ‘होमा’ पक्षी की कथा है। यह चिड़िया आकाश में बहुत ऊँचाई पर रहती है। वहीं यह अण्डे देती है। अण्डा देते ही वह गिरने लगता है; परन्तु इतने ऊँचे से वह गिरता है कि गिरते गिरते बीच ही में फूट जाता है। तब बच्चा गिरने लगता है। गिरते ही गिरते उसकी आँखें खुलती और पंख निकल आते हैं। आँखें खुलने से जब वह बच्चा देखता है कि मैं गिर रहा हूँ और जमीन पर गिरकर चूर चूर हो जाऊँगा, तब वह एकदम अपनी माँ की ओर फिर ऊँचे चढ़ जाता है।”
नरेन्द्र उठ गए।
सभा में केदार, प्राणकृष्ण, मास्टर आदि और भी कई सज्जन थे।
श्रीरामकृष्ण - देखो, नरेन्द्र गाने में, बजाने में, पढ़ने-लिखने में - सब विषयों में अच्छा है। उस दिन केदार के साथ उसने तर्क किया था। केदार की बातों को खटाखट काटता गया। (श्रीरामकृष्ण और सब लोग हँस पड़े।) - (मास्टर से) अंग्रेजी में क्या कोई तर्क की किताब है?
मास्टर - जी हाँ है, अंग्रेजी में इसको न्यायशास्त्र (Logic) कहते हैं।
श्रीरामकृष्ण - अच्छा, कैसा है कुछ सुनाओ तो।
मास्टर अब मुश्किल में पड़े। आखिर कहने लगे - एक बात यह है कि साधारण सिद्धान्त से विशेष सिद्धान्त पर पहुँचना; जैसे, सब मनुष्य मरेंगे, पण्डित भी मनुष्य हैं, इसलिए वे भी मरेंगे।
“और एक बात यह है कि विशेष दृष्टान्त या घटना को देखकर साधारण सिद्धान्त पर पहुँचना। जैसे यह कौआ काला है, वह कौआ काला है और जितने कौए दीख पड़ते हैं, वे भी काले हैं, इसलिए सब कौए काले हैं।
“किन्तु उस प्रकार के सिद्धान्त से भूल भी हो सकती है; क्योंकि सम्भव है ढूँढ़तलाश करने से किसी देश में सफेद कौआ मिल जाय। एक और दृष्टान्त - जहाँ वृष्टि है, वहाँ मेघ भी है, अतएव यह साधारण सिद्धान्त हुआ कि मेघ से वृष्टि होती है। और भी एक दृष्टान्त - इस मनुष्य के बत्तीस दाँत हैं, उस मनुष्य के बत्तीस दाँत हैं, और जिस मनुष्य को देखते हैं, उसी के बत्तीस दाँत हैं, अतएव सब मनुष्यों के बत्तीस दाँत हैं।
“इस प्रकार के साधारण सिद्धान्त की बातें अंग्रेजी न्यायशास्त्र में हैं।”
श्रीरामकृष्ण ने इन बातों को सुन भर लिया। फिर वे अन्यमनस्क हो गए इसलिए यह प्रसंग और आगे न बढ़ा।
(३)
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला। समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि॥ (गीता, २।५३)
समाधि में
सभा भंग हुई। भक्त सब इधर-उधर घूमने लगे। मास्टर भी पंचवटी आदि स्थानों में घूम रहे थे। समय पाँच के लगभग होगा। कुछ देर बाद वे श्रीरामकृष्ण के कमरे में आए और देखा उसके उत्तर की ओर छोटे बरामदे में अद्भुत घटना हो रही है।
श्रीरामकृष्ण स्थिर भाव से खड़े हैं और नरेन्द्र गा रहे हैं। दो-चार भक्त भी खड़े हैं। मास्टर आकर गाना सुनने लगे। गाना सुनते हुए वे मुग्ध हो गए। श्रीरामकृष्ण के गाने को छोड़कर ऐसा मधुर गाना उन्होंने कभी कहीं नहीं सुना था। अकस्मात् श्रीरामकृष्ण की ओर देखकर वे स्तब्ध हो गए। श्रीरामकृष्ण की देह निःस्पन्द हो गयी थी और नेत्र निर्निमेष। श्वासोच्छ्वास चल रहा था या नहीं - बताना कठिन है। पूछने पर एक भक्त ने कहा, यह ‘समाधि’ है। मास्टर ने ऐसा न कभी देखा था, न सुना था। वे विस्मित होकर सोचने लगे, भगवच्चिन्तन करते हुए मनुष्यों का बाह्यज्ञान क्या यहाँ तक चला जाता है? न जाने कितनी भक्ति और विश्वास हो तो मनुष्यों की यह अवस्था होती है!
नरेन्द्र जो गीत गा रहे थे, उसका भाव यह है -
“ऐ मन, तू चिद्घन हरि का चिन्तन कर। उसकी मोहनमूर्ति की कैसी अनुपम छटा है, जो भक्तों का मन हर लेती है वह रूप नये नये वर्णों से मनोहर है, कोटि चन्द्रमाओं को लजानेवाला है, - उसकी छटा क्या है मानो बिजली चमकती है! उसे देख आनन्द से जी भर जाता है।”
गीत के इस चरण को गाते समय श्रीरामकृष्ण चौंकने लगे। देह पुलकायमान हुई। आँखों से आनन्द के आँसू बहने लगे। बीच बीच में मानो कुछ देखकर मुसकराते हैं। कोटि चन्द्रमाओं को लजानेवाले उस अनुपम रूप का वे अवश्य दर्शन करते होंगे। क्या यही ईश्वर-दर्शन है? कितनी साधना, कितनी तपस्या, कितनी भक्ति और विश्वास से ईश्वर का ऐसा दर्शन होता है?
फिर गाना होने लगा।
(भावार्थ) - “हृदय-रूपी कमलासन पर उनके चरणों का भजन कर, शान्त मन और प्रेमभरे नेत्रों से उस अपूर्व मनोहर दृश्य को देख ले।”
फिर वही जगत् को मोहनेवाली मुसकराहट! शरीर वैसा ही निश्चल हो गया। आँखें बन्द हो गयीं - मानो कुछ अलौकिक रूप देख रहे हैं, और देखकर आनन्द से भरपूर हो रहे हैं।
अब गीत समाप्त हुआ। नरेन्द्र ने गाया -
(भावार्थ) - “चिदानन्द-रस में - प्रेमानन्द-रस में - परम भक्ति से चिरदिन के लिए मग्न हो जा।”
समाधि और प्रेमानन्द की इस अद्भुत छबि को हृदय में रखते हुए मास्टर घर लौटने लगे। बीच बीच में दिल को मतवाला करनेवाला वह मधुर गीत याद आता रहा।
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