परिच्छेद ३७ - श्रीरामकृष्ण का प्रथम प्रेमोन्माद
(१)
पूर्वकथा देवेन्द्र ठाकुर, दीन मुखर्जी और कुँवरसिंह
आज अमावस्या, मंगलवार का दिन है, ५ जून १८८३ ई. । श्रीरामकृष्ण कालीमन्दिर में हैं। भक्त-समागम रविवार को विशेष होता है; आज अधिक लोग नहीं है। राखाल श्रीरामकृष्ण के पास रहते हैं। हाजरा भी हैं, श्रीरामकृष्ण के कमरे के सामने वाले बरामदे में अपना आसन लगाया है। मास्टर पिछले रविवार से यहाँ हैं।
कल सोमवार रात को कालीमन्दिर में कृष्णलीला पर नाटक हुआ था। श्रीरामकृष्ण ने कुछ देर तक देखा था। वैसे यह नाटक रविवार को होनेवाला था, पर उस दिन न हो पाया इसलिए कल सोमवार को हुआ।
दोपहर को भोजन के बाद श्रीरामकृष्ण अपने प्रेमोन्माद की अवस्था का वर्णन कर रहे हैं।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - कैसी हालत बीत चुकी है! यहाँ भोजन न करता था, वराहनगर या दक्षिणेश्वर या आरियादह में किसी ब्राह्मण के घर चला जाता, और जाता भी देर में था। जाकर बैठ जाता था, पर बोलता कुछ नहीं। घर के लोग पूछते तो केवल कहता, ‘मैं यहाँ खाऊँगा।’ और कोई बात नहीं करता। आलमबाजार में राम चटर्जी के यहाँ जाता। कभी दक्षिणेश्वर में सावर्ण चौधरी के मकान पर जाता। उनके यहाँ खाया तो करता था, पर अच्छा नहीं लगता था; उसमें कैसी गन्ध आती थी!
“एक दिन हठ कर बैठा, देवेन्द्रनाथ ठाकुर के घर जाऊँगा। मथुरबाबू से कहा, ‘देवेन्द्र ईश्वर का नाम लेते हैं, उनको देखना चाहता हूँ, मुझे ले चलोगे?’ मथुरबाबू को अपनी मान-मर्यादा का बड़ा अभिमान था, वे अपनी गरज से किसी के मकान पर क्यों जाने लगे? आगापीछा करने लगे। बाद में बोले, ‘अच्छा, देवेन्द्र और हम एक साथ पढ़ चुके हैं, चलिए, आपको ले चलेंगे।’
“एक दिन सुना कि दीन मुखर्जी नाम का एक भला आदमी बागबाजार के पुल के पास रहता है। भक्त है। मथुरबाबू को पकड़ा, दीन मुखर्जी के यहाँ जाऊँगा। मथुरबाबू क्या करते, गाड़ी पर मुझे ले गए। छोटासा मकान और इधर एक बड़ी भारी गाड़ी पर एक बड़ा आदमी आया है; वह भी शरमा गया और हम भी। फिर उसके लड़के का जनेऊ होनेवाला था। कहाँ बैठाए! हम लोग बाजू के कमरे में जाने लगे तो वह बोल उठा, ‘वहाँ न जाइए, उस कमरे में औरतें हैं।’ बड़ा असमंजस था। मथुरबाबू लौटते समय बोले, ‘बाबा, तुम्हारी बात अब कभी न मानूँगा।’ मैं हँसने लगा।
“कैसी अनोखी अवस्था थी! कुँवरसिंह ने साधुओ को भोजन कराना चाहा, मुझे भी न्योता दिया। जाकर देखा बहुतसे साधु आए हैं। मेरे बैठने पर साधुओ में से कोई कोई मेरा परिचय पूछने लगे - ‘आप गिरी हैं या पुरी?’ पर ज्योंही उन्होंने पूछा त्योंही मैं अलग जाकर बैठा। सोचा कि इतनी खबर काहे की? बाद को ज्योंही पत्तल बिछाकर भोजन के लिए बैठाया, किसी के कुछ कहने के पहले ही मैंने खाना शुरू कर दिया। साधुओं में से किसी किसी को कहते सुना, ‘अरे यह क्या!’
(२)
साधु और अवतार में अन्तर
पाँच बजे हैं। श्रीरामकृष्ण अपने कमरे के बरामदे की सीढ़ी पर बैठे हैं। राखाल, हाजरा और मास्टर पास बैठे हैं।
हाजरा का भाव है - ‘सोऽहं - मैं ही ब्रह्म हूँ।’
श्रीरामकृष्ण (हाजरा से) - हाँ, यह सोचने से सब गड़बड़ मिट जाती है, - वे ही आस्तिक हैं, वे ही नास्तिक; वे ही भले हैं, वे ही बुरे; वे ही नित्यवस्तु हैं, वे ही अनित्य जगत्; जागृति और निद्रा उन्हीं की अवस्थाएँ हैं; फिर वे ही इन सारी अवस्थाओं से परे भी हैं।
“एक किसान को बुढ़ापे में एक लड़का हुआ था। लड़के को वह बहुत यत्न से पालता था। धीरे धीरे लड़का बड़ा हुआ। एक दिन जब किसान खेत में काम कर रहा था, किसी ने आकर उसे खबर दी कि तुम्हारा लड़का बहुत बीमार है - अब-तब हो रहा है। उसने घर में आकर देखा, लड़का मर गया है। स्त्री खूब रो रही है; पर किसान की आँखों में आँसू तक नहीं। उसकी स्त्री अपनी पड़ोसिनों के पास इसलिए और भी शोक करने लगी कि ऐसा लड़का चला गया, पर इनकी आँखों में आँसू का नाम नहीं! बड़ी देर बाद किसान ने अपनी स्त्री को पुकारकर कहा, ‘मैं क्यों नहीं रोता, जानती हो? मैंने कल स्वप्न में देखा कि राजा हो गया हूँ और सात लड़कों का बाप बना हूँ। स्वप्न में ही देखा कि वे लड़के रूप और गुण में अच्छे हैं। क्रमशः वे बड़े हुए और विद्या तथा धर्म उपार्जन करने लगे। इतने में ही नींद खुल गयी। अब सोच रहा हूँ कि तुम्हारे इस एक लड़के के लिए रोऊँ या अपने उन सात लड़कों के लिए?’ ज्ञानियों के मत से स्वप्न की अवस्था जैसी सत्य है, जाग्रत् अवस्था भी वैसी ही सत्य है।
“ईश्वर ही कर्ता हैं, उन्हीं की इच्छा से सब कुछ हो रहा है।”
हाजरा - पर यह समझना बड़ा कठिन है। भू-कैलास के साधु को कितना कष्ट दिया गया, जो एक तरह से उनकी मृत्यु का कारण हुआ। वे समाधि की हालत में मिले थे। होश में लाने के लिए लोगों ने उन्हें कभी जमीन में गाड़ा, कभी जल में डुबोया और कभी उनका शरीर दाग दिया। इस तरह उन्हें चैतन्य कराया। इन यन्त्रणाओं के कारण उनका शरीर छूट गया। लोगों ने उन्हें कष्ट भी दिया और इधर ईश्वर की इच्छा से उनकी मृत्यु भी हुई।
श्रीरामकृष्ण - जिसका जैसा कर्म है, उसका फल वह पाएगा। किन्तु ईश्वर की इच्छा से उन साधु का शरीर-त्याग हुआ। वैद्य बोतल के अन्दर मकरध्वज तैयार करते हैं। उसके चारों ओर मिट्टी लीपकर वे उसे आग में रख देते हैं। बोतल के अन्दर का सोना आग की गर्मी से और कई चीजों के साथ मिलकर मकरध्वज बन जाता है। तब वैद्य बोतल को उठाकर उसे धीरे धीरे तोड़ता है और उससे मकरध्वज निकालकर रख लेता है। उस समय बोतल रहे चाहे नष्ट हो जाए, उससे क्या? उसी तरह लोग सोचते हैं कि साधु मार डाले गए, पर शायद उनकी चीज बन चुकी होगी। भगवान् का लाभ होने के बाद शरीर रहे भी तो क्या, और जाय तो भी क्या?
“भू-कैलास के वे साधु समाधिस्थ थे। समाधि अनेक प्रकार की होती है। हृषीकेश के साधु के कथन से मेरी अवस्था मिल गयी थी। कभी शरीर में चींटी की तरह वायु चलती हुई जान पड़ती है; कभी बड़े वेग के साथ, जैसे बन्दर एक डाल से दूसरी डाल पर कूदते हैं; कभी मछली की तरह गति होती है। जिसको हो वही जान सकता है। जगत् का ख्याल जाता रहता है। मन के कुछ उतरने पर मैं कहता हूँ, ‘माँ, मुझे अच्छा कर दो, मैं बातें करना चाहता हूँ।’
“ईश्वरकोटि जैसे अवतार आदि, न होने पर कोई समाधि से नहीं लौट सकता। जीवकोटि के कोई कोई साधना के बल से समाधिस्थ होते तो हैं; पर वे फिर नहीं लौटते। जब ईश्वर स्वयं मनुष्य होकर आते हैं, अवतार रूप में आते हैं और जीवों की मुक्ति की चाभी उनके हाथ में रहती है, तब वे समाधि के बाद लौटते हैं - लोगों के कल्याण के लिए।”
मास्टर (मन ही मन) - क्या श्रीरामकृष्ण के हाथ में जीवों की मुक्ति की चाभी है?
हाजरा - ईश्वर को सन्तुष्ट करने से सब कुछ हुआ। अवतार हों या न हों।
श्रीरामकृष्ण (हँसकर) - हाँ, हाँ। विष्णुपुर में रजिस्टरी का बड़ा दफ्तर है, वहाँ रजिस्टरी हो जाने पर फिर ‘गोघाट’ में कोई बखेड़ा नहीं होता।
गुरूशिष्य-संवाद
शाम हुई। मन्दिर में आरती हो रही है। बारह शिवमन्दिरों तथा श्रीराधाकान्त के और माता भवतारिणी के मन्दिर में शंख घण्टा आदि मंगल-वाद्य बज रहे हैं। आरती समाप्त होने के कुछ समय बाद श्रीरामकृष्ण अपने कमरे से दक्षिण के बरामदे में आ बैठे। चारों ओर घना अन्धकार है, केवल मन्दिर में स्थान स्थान पर दीपक जल रहे हैं। गंगाजी के वक्ष पर आकाश की काली छाया पड़ी है। आज अमावस्या है। श्रीरामकृष्ण सहज ही भावमय हैं, आज भाव और भी गम्भीर हो रहा है। बीच बीच में प्रणव उच्चारण कर रहे हैं और देवी का नाम ले रहे हैं। गर्मी का मौसम है, कमरे के भीतर गर्मी बहुत है। इसलिए बरामदे में आए हैं। किसी भक्त ने एक कीमती चटाई दी है। वही बरामदे में बिछायी गयी है। श्रीरामकृष्ण को सर्वदा माँ का ध्यान लगा रहता है। लेटे हुए आप मणि से धीरे धीरे बातें कर रहे हैं।
श्रीरामकृष्ण - देखो, ईश्वर के दर्शन होते हैं। अमुक को दर्शन मिले हैं, परन्तु किसी से कहना मत। तुम्हें ईश्वर का रूप पसन्द है या निराकार-चिन्ता?
मणि - इस समय तो निराकार-चिन्ता कुछ अच्छी लगती है, पर यह भी कुछ कुछ समझ में आया है कि वे ही साकार हो इन अनेक रूपों में विराजते हैं।
श्रीरामकृष्ण - देखो, मुझे गाड़ी पर बेलघरिया में मोती शील की झील को ले चलोगे? वहाँ चारा फेंक दो, मछलियाँ आकर उसे खाने लगेंगी। अहा! मछलियों को खेलती हुई देखकर क्या आनन्द होता है, तुम्हें उद्दीपना होगी कि मानो सच्चिदानन्दरूपी सागर में आत्मारूपी मछली खेल रही है। उसी तरह लम्बे-चौड़े मैदान में खड़े होने से ईश्वरीय भाव आ जाता है, जैसे किसी हण्डी में रखी हुई मछली तालाब को पहुँच गयी हो।
“उनके दर्शन के लिए साधना चाहिए। मुझे कठोर साधनाएँ करनी पड़ीं। बिल्ववृक्ष के नीचे तरह तरह की साधनाएँ कर चुका। वृक्ष के नीचे पड़ा रहता था, - यह कहते हुए कि माँ, दर्शन दो। रोते रोते आँसुओं की झड़ी लग जाती थी।
मणि - जब आप ही इतनी साधनाएँ कर चुके तब दूसरे लोग क्या एक ही क्षण में सब कर लेंगे? मकान के चारों ओर उँगली फेर देने ही से क्या दीवाल बन जाएगी?
श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - अमृत कहता है, एक आदमी के आग जलाने पर दस आदमी उसके ताप से लाभ उठाते हैं। एक बात और है, - नित्य को पहुँचकर लीला में रहना अच्छा है।
मणि - आपने तो कहा है कि लीला विलास के लिए है।
श्रीरामकृष्ण - नहीं, लीला भी सत्य है। और देखो, जब यहाँ आओगे तब अपने साथ थोड़ा कुछ लेते आना। खुद नहीं कहना चाहिए, इससे अभिमान होता है। अधर सेन से भी कहता हूँ, एक पैसे का कुछ लेकर आना। भवनाथ से कहता हूँ कि एक पैसे का पान लाना। भवनाथ की भक्ति कैसी है, देखी है तुमने? भवनाथ और नरेन्द्र मानो स्त्री और पुरुष हैं। भवनाथ नरेन्द्र का अनुगत हैं। नरेन्द्र को गाड़ी पर ले आना। कुछ खाने की चीज लाना। इससे बहुत भला होता है।
ज्ञानपथ और नास्तिकता
“ज्ञान और भक्ति - दोनों ही मार्ग हैं। भक्तिमार्ग में आचार कुछ अधिक पालन करना पड़ता है। ज्ञानमार्ग में यदि कोई अनाचार भी करे तो वह मिट जाता है। खूब आग जलाकर एक केले का पेड़ भी झोंक दो, वह भी भस्म हो जाता है।
“ज्ञानी का मार्ग विचारमार्ग है। विचार करते करते कभी कभी नास्तिकपन भी आ सकता है। पर भगवान् को जानने के लिए भक्त की यदि हार्दिक इच्छा हो, तो नास्तिकता आने पर भी वह ईश्वरचिन्तन नहीं त्यागता। जिसके बाप-दादे किसानी करते आ रहे हैं, अतिवृष्टि और अनावृष्टि के कारण किसी साल फसल न होने पर भी वह खेती करता ही रहता है।”
श्रीरामकृष्ण लेटे लेटे बातें कर रहे हैं। बीच में मणि से बोले, “मेरा पैर थोड़ा दर्द कर रहा है, जरा हाथ फेर दो।”
अहेतुक कृपासिन्धु गुरुदेव के कमलचरणों की सेवा करते हुए, मणि उनके श्रीमुख से वे अपूर्व तत्त्व सुन रहे हैं।
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