परिच्छेद १६ - षड़भुजदर्शन! राजमोहन के मकान पर शुभागमन - नरेन्द्र
श्रीरामकृष्ण ने जिस दिन किलेवाले मैदान में सर्कस देखा उसके दूसरे दिन फिर कलकत्ते में शुभागमन किया था। बृहस्पतिवार, १६ नवम्बर, १८८२ ई. , कार्तिक शुक्ला षष्ठी। आते ही पहले-पहल गरानहट्टा* में षड्भुज महाप्रभु का दर्शन किया। वैष्णव साधुओं का अखाड़ा है, महन्त हैं श्री गिरिधारीदास। षड्भुज महाप्रभु की सेवा बहुत दिनों से चल रही है। श्रीरामकृष्ण ने तीसरे प्रहर दर्शन किया।
सायंकाल के कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण शिमुलिया-निवासी श्री राजमोहन के मकान पर गाड़ी से आ पहुँचे। श्रीरामकृष्ण ने सुना है कि यहाँ पर नरेन्द्र आदि युवक मिलकर ब्राह्मसमाज की उपासना करते हैं। इसीलिए वे देखने आए हैं। मास्टर तथा और भी दो-एक भक्त साथ हैं। श्री राजमोहन पुराने ब्राह्मभक्त हैं।
ब्राह्मभक्त और सर्वत्याग या संन्यास
श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र को देख आनन्दित हुए और बोले, “तुम लोगों की उपासना देखूँगा।” नरेन्द्र गाना गाने लगे। युवकों में से श्री प्रिय आदि कोई कोई उपस्थित थे।
अब उपासना हो रही है। नवयुवकों में से एक व्यक्ति उपासना कर रहे हैं। वे प्रार्थना कर रहे हैं - “भगवान्, सब कुछ छोड़ तुममें मग्न हो जाऊँ।’ - श्रीरामकृष्ण को देख सम्भवतः उनका उद्दीपन हुआ है। इसीलिए सर्वत्याग की बात कह रहे हैं! मास्टर, श्रीरामकृष्ण के बहुत ही निकट बैठे थे। उन्होंने ही केवल सुना, श्रीरामकृष्ण मृदु स्वर में कह रहे हैं, “सो तो हो चुका!”
श्री राजमोहन श्रीरामकृष्ण को जलपान के लिए मकान के भीतर ले जा रहे हैं।
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