परिच्छेद ३५ - भक्तों के मकान पर
(१)
बलराम के मकान पर श्रीरामकृष्ण। नरलीला का दर्शन और आस्वादन
श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर से कलकत्ता आ रहे हैं। बलराम के मकान से होकर अधर के मकान पर और उसके बाद राम के मकान पर जाएँगे। अधर के मकान में मनोहर साँई का कीर्तन होगा। राम के घर पर कथा होगी। शनिवार, वैशाख कृष्णा द्वादशी, २ जून १८८३ ई. ।
श्रीरामकृष्ण गाड़ी में आते आते राखाल, मास्टर आदि भक्तों से कह रहे हैं, “देखो, उन पर प्रेम हो जाने पर पाप आदि सब भाग जाते हैं, जैसे धूप से मैदान के तालाब का जल सूख जाता है।
संन्यासी और गृहस्थ दोनों को विषयासक्ति छोड़नी होगी।
“विषय की वासना तथा कामिनी-कांचन पर मोह रखने से कुछ नहीं होता। यदि विषयासक्ति रहे तो संन्यास लेने पर भी कुछ नहीं होता - जैसे थूक को फेंककर फिर चाट लेना।”
थोड़ी देर बाद गाड़ी में श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं, “ब्राह्मसमाजी लोग साकार को नहीं मानते। (हँसकर) नरेन्द्र कहता है, ‘पुत्तलिका!’ फिर कहता है, ‘वे अभी तक कालीमन्दिर में जाते हैं।’ ”
श्रीरामकृष्ण बलराम के घर पर आए हैं। वे एकाएक भावाविष्ट हो गए हैं। सम्भव हैं, देख रहे हैं, ईश्वर ही जीव तथा जगत् बने हुए हैं, ईश्वर ही मनुष्य बनकर घूम रहे हैं। जगन्माता से कह रहे हैं, “माँ, यह क्या दिखा रही हो? रुक जाओ; यह सब क्या दिखा रही हो? राखाल आदि के द्वारा क्या क्या दिखा रही हो, माँ! रूप आदि सब उड़ गया। अच्छा माँ, मनुष्य तो केवल ऊपर का ढाँचा ही है न? चैतन्य तुम्हारा ही है।
“माँ, आजकल के ब्राह्मसमाजी मीठा रस नहीं पाते! आँखें सूखी, मुँह सूखा! प्रेमभक्ति न होने से कुछ न हुआ!
“माँ, तुमसे कहा था, एक व्यक्ति को साथी बना दो, मेरे जैसे किसी को! इसीलिए राखाल को दिया है न?”
अधर के मकान पर हरिसंकीर्तन में
श्रीरामकृष्ण अधर के मकान पर आए हैं। मनोहर साँई के कीर्तन की तैयारी हो रही है।
श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने के लिए अधर के बैठकघर में अनेक भक्त तथा पड़ोसी आए हैं। सभी की इच्छा है कि श्रीरामकृष्ण कुछ कहें।
श्रीरामकृष्ण (भक्तों के प्रति) - संसार और मुक्ति दोनों ही ईश्वर की इच्छा पर निर्भर हैं। उन्होंने ही संसार में अज्ञान बनाकर रखा है। फिर जिस समय वे अपनी इच्छा से पुकारेंगे, उसी समय मुक्ति होगी। लड़का खेलने गया है, खाने के समय माँ बुला लेती है।
“जिस समय वे मुक्ति देंगे उस समय वे साधुसंग करा देते हैं और फिर अपने को पाने के लिए व्याकुलता उत्पन्न कर देते हैं।”
पड़ोसी - महाराज, किस प्रकार व्याकुलता होती है?
श्रीरामकृष्ण - नौकरी छूट जाने पर किरानी को जिस प्रकार व्याकुलता होती है! वह जिस प्रकार रोज आफिस आफिस में घूमता है और पूछता रहता है, ‘साहब, कोई नौकरी की जगह खाली हुई?’ व्याकुलता होने पर मनुष्य छटपटाता है - कैसे ईश्वर को पाऊँ!
“और यदि मूँछों पर हाथ फेरते हुए पैर पर पैर धरकर बैठे बैठे पान चबा रहा है - कोई चिन्ता नहीं, तो ऐसी स्थिति में ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती!”
पड़ोसी - साधुसंग होने पर क्या व्याकुलता हो सकती है?
श्रीरामकृष्ण - हाँ, हो सकती है; परन्तु पाखण्डियों को नहीं होती। साधु का कमण्डल चारों धाम होकर आने पर भी कडुए का कडुआ ही रह जाता है!
अब कीर्तन शुरू हुआ है; गोस्वामीजी कलह-संवाद गा रहे हैं -
“श्रीमती कह रही हैं, ‘सखि! प्राण जाता है, कृष्ण को ला दे!’
“सखी - ‘राधे, कृष्णरूपी मेघ बरसता ही था; परन्तु तूने मान (प्रेमकोप -) रूपी आँधी से उस मेघ को उड़ा दिया। तू कृष्ण के सुख में सुखी नहीं है; नहीं तो मान क्यों करती?’
“श्रीमती - ‘सखि, मान तो मेरा नहीं है। जिसका मान है उसी के साथ चला गया है।’
“ललिता श्रीमती की ओर से कुछ कह रही है।” ‘सबने मिलकर प्रीत की . . . ’
अब कीर्तन में गोस्वामी कह रहे हैं कि सखियाँ राधाकुण्ड के पास श्रीकृष्ण की खोज करने लगीं। उसके बाद यमुनातट पर श्रीकृष्ण का दर्शन, साथ में श्रीदाम, सुदाम, मधुमंगल। वृन्दा के साथ श्रीकृष्ण का वार्तालाप, श्रीकृष्ण का योगी का-सा भेस, जटिला-संवाद, राधा का भिक्षादान, राधा का हाथ देख योगी द्वारा गणना तथा संकट की भविष्यवाणी। कात्यायनी की पूजा में जाने की तैयारी।
कीर्तन समाप्त हुआ। श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ वार्तालाप कर रहे हैं।
श्रीरामकृष्ण - गोपियों ने कात्यायनी की पूजा की थी। सभी उस महामाया आद्याशक्ति के अधीन हैं। अवतार आदि तक उस माया का आश्रय लेकर ही लीला करते हैं; इसीलिए वे आद्याशक्ति की पूजा करते हैं। देखो न, राम सीता के लिए कितने रोये हैं। पंचभूतों के फन्दे में पड़कर ब्रह्म रोते हैं।
“हिरण्याक्ष का वध कर वराह-अवतार कच्चे-बच्चे लेकर रह रहे थे। आत्मविस्मृत होकर उन्हें स्तनपान करा रहे थे! देवताओ ने परामर्श करके शिवजी को भेज दिया। शिवजी ने त्रिशूल के आघात से वराह का शरीर विनष्ट कर दिया; तब वे स्वधाम में पधारे। शिवजी ने पूछा था, ‘तुम आत्मविस्मृत क्यों हो गये हो?’ इस पर उन्होंने कहा था, ‘मैं बहुत अच्छा हूँ’!”
अधर के मकान से होकर अब श्रीरामकृष्ण राम के मकान पर जा रहे हैं।
(२)
रामचन्द्र दत्त के मकान पर
श्रीरामकृष्णदेव सिमुलिया मुहल्ले की मधु राय की गली में रामबाबू का मकान है। रामचन्द्र दत्त श्री रामकृष्णदेव के विशिष्ट भक्त हैं। वे डाक्टरी की शिक्षा प्राप्त कर मेडिकल कालेज में रसायनशास्त्र के सहकारी परीक्षक नियुक्त हुए थे और ‘साइन्स असोसिएशन’ में रसायनशास्त्र के अध्यापक भी थे। उन्होंने स्वोपार्जित धन से यह मकान बनवाया था। इस मकान में श्रीरामकृष्णदेव कुछ एक बार आये थे, इसीलिए यह मकान भक्तों के लिए आज तीर्थ के समान महान् पवित्र है। रामचन्द्र गुरुदेव की कृपा लाभ कर ज्ञानपूर्वक संसारधर्म पालन करने की चेष्टा करते थे। श्रीरामकृष्णदेव मुक्तकण्ठ से रामबाबू की प्रशंसा करते और कहते थे, - ‘राम अपने मकान में भक्तों को स्थान देता है, कितनी सेवा करता है, उसका मकान भक्तों का एक अड्डा है।’ नित्यगोपाल, लाटू, तारक आदि एक प्रकार से रामचन्द्र के घर के आदमी हो गये थे। इन्होंने उनके साथ बहुत दिनों तक एकत्र वास किया था। इसके सिवाय उनके मकान में प्रतिदिन नारायण की पूजा और सेवा होती थी।
रामचन्द्र श्रीरामकृष्ण को वैशाख की पूर्णिमा को, जिस समय हिण्डोले का श्रृंगार होता है, इस मकान में उनकी पूजा करने के लिए सर्वप्रथम ले आये थे। प्रायः प्रतिवर्ष आज के दिन वे उनको ले जाकर भक्तों से सम्मिलित हो महोत्सव मनाया करते थे। रामचन्द्र के प्यारे शिष्यवृन्द अब भी उस दिन उत्सव मनाते हैं।
आज रामचन्द्र के मकान में उत्सव है! श्रीरामकृष्ण आयेंगे। आपके लिए रामचन्द्र ने श्रीमद्भगवत की कथा का प्रबन्ध किया है। छोटासा आँगन है, परन्तु उसी में कैसा सुन्दर सजाया है! वेदी तैयार हुई है, उस पर कथक महोदय बैठे हैं। राजा हरिश्चन्द्र की कथा हो रही है। इसी समय बलराम और अधर के मकान से होकर श्रीरामकृष्ण यहाँ आ पहुँचे। रामचन्द्र ने आगे बढ़कर उनकी चरणरज को मस्तक में धारण किया और वेदी के संम्मुख उनके लिए निर्दिष्ट आसन पर उन्हें लाकर बैठाया। चारों ओर भक्त और पास ही मास्टर बैठे हैं।
राजा हरिश्चचन्द्र की कथा होने लगी -
“विश्वामित्र बोले, ‘महाराज! तुमने मुझे ससागर पृथ्वी दान कर दी है, इसलिए अब इसके भीतर तुम्हारा स्थान नहीं है; किन्तु तुम काशीधाम में रह सकते हो, वह महादेव का स्थान है। चलो, तुम्हें और तुम्हारी सहधर्मिणी शैब्या और तुम्हारे पुत्र को वहाँ पहुँचा दें। वहीं पर जाकर तुम प्रबन्ध करके मुझे दक्षिणा दे देना।’ यह कहकर राजा को साथ ले विश्वामित्र काशीधाम की ओर चले। काशी में आकर उन लोगों ने विश्वेश्वर के दर्शन किये।”
विश्वेश्वर-दर्शन की बात होते ही श्रीरामकृष्ण एकदम भावाविष्ट हो अस्पष्ट रूप से ‘शिव’ ‘शिव’ उच्चारण कर रहे हैं।
कथक महोदय कथा कहते गए -
“राजा हरिश्चन्द्र दक्षिणा नहीं दे पाए, इसलिए उन्होंने रानी शैब्या को बेच दिया। पुत्र रोहिताश्व भी शैब्या के साथ चला गया।”
कथक महोदय ने शैव्या के ब्राह्मण मालिक के यहाँ रोहिताश्व के फूल तोड़ने और उसे साँप के द्वारा काटे जाने की कथा कही। -
“उस अन्धकाराच्छन्न कालरात्रि में सन्तान की मृत्यु हो गयी। उसका अन्तिम संस्कार करने के लिए कोई नहीं था। गृहस्वामी वृद्ध ब्राह्मण शय्या त्यागकर नहीं उठे। पुत्र के शव को गोद में लिए शैब्या अकेली ही श्मशान की ओर चल पड़ी। बीच बीच में बादल गरज रहे थे और बिजली कड़क रही थी। एक एक बार घोर अन्धकार को चीरती हुई बिजली चमक दिखा जाती थी। भयभीत, शोकाकुल शैब्या रोती हुई चली जा रही थी।”
“पत्नी और पुत्र को बेचने पर भी दक्षिणा की राशि पूरी न होने पायी; इसलिए हरिश्चन्द्र ने स्वयं को एक चाण्डाल को बेच डाला था। वे श्मशान में चाण्डाल बने बैठे हैं - कर वसूल करने पर ही अग्निसंस्कार करने देंगे। कितने ही शव जल रहे हैं, कितने जलकर भस्मीभूत हो गए हैं। घोर अँधेरी रात में श्मशान कितना भयावना दिखायी दे रहा है! शैब्या उस स्थान पर आकर विलाप करने लगी।”
उस करुण क्रन्दन को सुनकर, ऐसा कौन है जो व्याकुल न हो, जिसका हृदय विदीर्ण न हो? सभी श्रोतागण रो पड़े।
श्रीरामकृष्ण क्या कर रहे हैं? वे स्थिर होकर कथा सुन रहे हैं - बिलकुल स्थिर हैं! केवल एक बार आँख के कोने में एक बूँद आँसू छलक उठा पर आपने उसे पोंछ डाला। आपने अधीर होकर रुदन क्यों नहीं किया?
अन्त में रोहिताश्व को जीवनदान, सब लोगों का विश्वेश्वरदर्शन और हरिश्चन्द्र का पुनः राज्यलाभ वर्णन कर कथक महोदय ने कथा समाप्त की। श्रीरामकृष्ण बहुत समय तक वेदी के सम्मुख बैठकर कथा सुनते रहे। कथा समाप्त होने पर बाहर के कमरे में जाकर बैठे। चारों ओर भक्तमण्डली बैठी है, कथक भी पास आकर बैठ गये। श्रीरामकृष्ण कथक से बोले, “कुछ उद्धवसंवाद कहो।”
मुक्ति और भक्ति - गोपीप्रेम
कथक कहने लगे, “जब उद्धव वृन्दावन आए, गोपियाँ और ग्वालबाल उनके दर्शन के लिए व्याकुल हो दौड़कर उनके पास गए। सभी पूछने लगे, ‘श्रीकृष्ण कैसे हैं? क्या वे हम लोगों को भूल गए? क्या वे कभी हम लोगों का स्मरण करते हैं?’ यह कहकर कोई रोने लगा, कोई उन्हें साथ ले वृन्दावन के अनेक स्थानों को दिखलाने और कहने लगा, ‘इस स्थान में श्रीकृष्ण ने गोवर्धन धारण किया था; यहाँ पर धेनुकासुर और वहाँ पर शकटासुर का वध किया था; इस मैदान में गौओं को चराते थे; इसी यमुना के तट पर वे विहार करते थे; यहाँ पर ग्वालबालों सहित क्रीड़ा करते थे; इस कुंज में गोपियों के साथ वार्तालाप करते थे।’ उद्धव बोले, ‘आप लोग कृष्ण के लिए इतने व्याकुल क्यों हो रहे हैं? वे तो सर्वभूतों में व्याप्त हैं। वे साक्षात् नारायण हैं! उनके सिवाय और कुछ नहीं है।’ गोपियों ने कहा, ‘हम यह सब नहीं समझ सकतीं। लिखना पढ़ना हमें नहीं मालूम। हम तो केवल अपने वृन्दावनविहारी कृष्ण को जानती हैं, जो यहाँ बहुत-कुछ लीला कर गए हैं।’ उद्धव फिर बोले, ‘वे साक्षात् नारायण हैं, उनकी चिन्ता करने से पुनः संसार में नहीं आना पड़ता, जीव मुक्त हो जाता है।’ गोपियों ने कहा, ‘हम मुक्ति आदि - ये सब बातें नहीं समझतीं। हम तो अपने प्राणवल्लभ कृष्ण को देखना चाहती हैं।’ ”
श्रीरामकृष्णदेव यह सब ध्यान से सुनते रहे और भाव में मग्न हो बोले, “गोपियों का कहना सत्य है।” यह कहकर वे अपने मधुर कण्ठ से गाने लगे। गाने का आशय यह है :-
“मैं मुक्ति देने में कातर नहीं होता, पर शुद्धा भक्ति देने में कातर होता हूँ। जो शुद्धा भक्ति प्राप्त कर लेते हैं वे सबसे आगे हैं। वे पूज्य होकर त्रिलोकजयी होते हैं। सुनो चन्द्रावलि, भक्ति की बात करता हूँ - मुक्ति तो मिलती है, पर भक्ति कहाँ मिलती है? भक्ति के कारण मैं पाताल में बलिराजा का द्वारपाल होकर रहता हूँ। शुद्धा भक्ति एक वृन्दावन में है जिसे गोप-गोपियों के सिवाय दूसरा कोई नहीं जानता। भक्ति के कारण मैं नन्द के भवन में उन्हें पिता जानकर उनके जूते सिर पर ले चलता हूँ।”
श्रीरामकृष्ण (कथक के प्रति) -गोपियों की भक्ति थी प्रेमा भक्ति - अव्यभिचारिणी भक्ति - निष्ठा-भक्ति। व्यभिचारिणी भक्ति किसे कहते हैं, जानते हो? ज्ञानमिश्रित भक्ति। जैसे कृष्ण ही सब हुए हैं - वे ही परब्रह्म हैं, वे ही राम, वे ही शिव, वे ही शक्ति हैं। पर प्रेमाभक्ति में उस ज्ञान का संयोग नहीं है। द्वारका में आकर हनुमान ने कहा, ‘सीताराम के दर्शन करूँगा। ‘भगवान् रुक्मिणी से बोले, ‘तुम सीता बनकर बैठो, अन्यथा हनुमान से रक्षा नहीं है।’ पाण्डवों ने जब राजसूय यज्ञ किया, उस समय देश देश के नरेश युधिष्ठिर को सिंहासन पर बिठाकर प्रणाम करने लगे। विभीषण बोले, ‘मैं एक नारायण को प्रणाम करूँगा, और दूसरे को नहीं!’ यह सुनते ही भगवान् स्वयं भूमिष्ठ होकर युधिष्ठिर को प्रणाम करने लगे। तब विभीषण ने राजमुकुट धारण किए हुए भी युधिष्ठिर को साष्टांग प्रणाम किया।
“किस प्रकार, जानते हो? - जैसे घर की बहू अपने देवर, जेठ, ससुर और स्वामी सब की सेवा करती है। पैर धोने के लिए जल देती है, अँगौछा देती है, पीढ़ा रख देती है, परन्तु दूसरी तरह का सम्बन्ध एकमात्र स्वामी ही के साथ रहता है।
“इस प्रेमाभक्ति में दो चीजें हैं। ‘अहंता’ और ‘ममता’। यशोदा सोचती थीं, ‘गोपाल को मैं न देखूँगी तो और कौन देखेगा? मेरे देखभाल न करने पर उसे रोग-व्याधि हो सकती है।’ यशोदा नहीं जानती थीं कि कृष्ण स्वयं भगवान् हैं। और ‘ममता’ - ‘मेरा कृष्ण, मेरा गोपाल’। उद्धव बोले, ‘माँ, तुम्हारे कृष्ण साक्षात् नारायण हैं, वे संसार के चिन्तामणि हैं। वे सामान्य वस्तु नहीं हैं।’ यशोदा कहने लगीं, ‘अरे तुम्हारे चिन्तामणि कौन! मेरा गोपाल कैसा है, मैं पूछती हूँ। चिन्तामणि नहीं, मेरा गोपाल।’
“गोपियों की निष्ठा कैसी थी! मथुरा में द्वारपाल से अनुनयविनय कर वे सभा में आयीं। द्वारपाल उन लोगों को कृष्ण के पास ले गया। कृष्ण को देख गोपियाँ मुख नीचा कर परस्पर कहने लगीं, ‘यह पगड़ी बाँधे राजवेश में कौन है? इसके साथ वार्तालाप कर क्या अन्त में हम द्विचारिणी बनेंगी? हमारे मोहन मोरमुकुट-पीताम्बरधारी प्राणवल्लभ कहाँ हैं?’ देखते हो इन लोगों की निष्ठा कैसी है! वृन्दावन का भाव ही दूसरा है। सुना है, द्वारका की तरफ लोग पार्थसखा श्रीकृष्ण की पूजा करते हैं - वे राधा को नहीं चाहते!”
गोपियों की निष्ठा-ज्ञानभक्ति और प्रेमाभक्ति
भक्त - कौन श्रेष्ठ है, ज्ञानमिश्रित भक्ति या प्रेमाभक्ति?
श्रीरामकृष्ण - ईश्वर के प्रति एकान्त अनुराग हुए बिना प्रेमाभक्ति का उदय नहीं होता। और ‘ममत्व’-ज्ञान अर्थात् भगवान् मेरे अपने हैं, यह ज्ञान। तीन मित्र जंगल में जा रहे थे, सहसा एक बाघ सामने आ खड़ा हुआ! एक आदमी बोला, ‘भाई, हम सब आज मरे।’ दूसरा आदमी बोला, ‘क्यों, मरेंगे क्यों? आओ, ईश्वर का स्मरण करें।’ तीसरा आदमी बोला, ‘नहीं, ईश्वर को कष्ट देकर क्या होगा? आओ, इसी पेड़ पर चढ़कर बैठें।’
“जिस आदमी ने कहा, ‘हम लोग मरे’ वह नहीं जानता था कि ईश्वर रक्षा करनेवाले हैं। जिसने कहा, ‘आओ, ईश्वर का स्मरण करें’ वह ज्ञानी था, वह जानता था कि ईश्वर सृष्टि, स्थिति, प्रलय के मूल कारण हैं। और जिसने कहा, ‘भगवान् को कष्ट देकर क्या होगा, आओ, पेड़ पर चढ़ बैठें’, उसके भीतर प्रेम उत्पन्न हुआ था - स्नेह-ममता का भाव आया था। तो प्रेम का स्वभाव ही यह है कि प्रेमी अपने को बड़ा समझता है और प्रेमास्पद को छोटा। वह देखता है, कहीं उसे कोई कष्ट न हो। उसकी यही इच्छा होती है कि जिससे प्रेम करें उसके पैर में एक काँटा भी न चुभे।”
श्रीरामकृष्णदेव तथा भक्तों को ऊपर ले जाकर अनेक प्रकार के मिष्टान्न आदि से रामबाबू ने उनकी सेवा की। भक्तों ने बड़े आनन्द से प्रसाद पाया।
Last updated