परिच्छेद ४५ - अधर के मकान पर
श्रीरामकृष्ण कलकत्ते के बेनेटोला में अधर के मकान पर पधारे हैं। आषाढ़ शुक्ला दशमी, १४ जुलाई १८८३, शनिवार। अधर श्रीरामकृष्ण को राजनारायण का चण्डी-संगीत सुनाएँगे। राखाल, मास्टर आदि साथ हैं। मन्दिर के बरामदे में गाना हो रहा है। राजनारायण गाने लगे -
(भावार्थ) - “अभय पद में प्राणों को सौंप दिया है, फिर मुझे यम का क्या भय है? अपने सिर की शिखा में कालीनाम का महामन्त्र बाँध लिया है। मैं इस संसाररूपी बाजार में अपने शरीर को बेचकर श्रीदुर्गानाम खरीद लाया हूँ। काली-नामरूपी कल्पतरु को हृदय में बो दिया है। अब यम के आने पर हृदय खोलकर दिखाऊँगा, इसलिए बैठा हूँ।देह में छः दुर्जन हैं, उन्हें भगा दिया है। मैं जय दुर्गा, श्रीदुर्गा कहकर रवाना होने के लिए बैठा हूँ।”
श्रीरामकृष्ण थोड़ा सुनकर भावाविष्ट हो खड़े हो गए और मण्डली के साथ सम्मिलित होकर गाने लगे।
श्रीरामकृष्ण पद जोड़ रहे हैं - “ओ माँ, रखो माँ!” पद जोड़ते जोड़ते एकदम समाधिस्थ! बाह्यज्ञानशून्य, निस्पन्द होकर खड़े हैं। गायक फिर गा रहे हैं -
(भावार्थ) - “यह किसकी कामिनी रणांगण को आलोकित कर रही है? मानो इसकी देहकान्ति के सामने जलधर बादल हार मानता है और दन्तपंक्ति मानो बिजली की चमक है!”
श्रीरामकृष्ण फिर समाधिस्थ हुए।
गाना समाप्त होने पर श्रीरामकृष्ण अधर के बैठकघर में जाकर भक्तों के साथ बैठ गए। ईश्वरीय चर्चा हो रही है। इस प्रकार भी वार्तालाप हो रहा है कि कोई कोई भक्त मानो ‘अन्तःसार फल्गु नदी’ है, ऊपर भाव का कोई प्रकाश नहीं!
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