परिच्छेद २८ - नरेन्द्र आदि भक्तों के साथ बलराम के मकान पर
श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ बलराम बाबू के मकान में बैठे हुए हैं, बैठक के उत्तर-पूर्ववाले कमरे में। दोपहर ढल चुकी, एक बजा होगा। नरेन्द्र, भवनाथ, राखाल, बलराम और मास्टर कमरे में उनके साथ बैठै हुए हैं।
आज अमावस्या है, शनिवार, ७ अप्रैल १८८३। श्रीरामकृष्ण बलराम बाबू के घर सुबह को आए थे। दोपहर को भोजन वहीं किया हैं। नरेन्द्र, भवनाथ, राखाल तथा और भी दो-एक भक्तों को आपने निमन्त्रित करने के लिए कहा था, अतएव उन लोगों ने भी यहीं आकर भोजन किया है। श्रीरामकृष्ण बलराम से कहते थे - “इन्हें खिलाना, तो बहुतसे साधुओं को खिलाने का पुण्य होगा।”
कुछ दिन हुए श्रीरामकृष्ण श्री केशवबाबू के यहाँ ‘नववृन्दावन’ नाटक देखने गए थे। साथ नरेन्द्र और राखाल भी गए थे। नरेन्द्र ने भी अभिनय में भाग लिया था। केशव पवहारी बाबा बने थे।
श्रीरामकृष्ण (नरेन्द्रादि भक्तों से) - केशव साधु बनकर शान्तिजल छिड़कने लगा। परन्तु मुझे यह अच्छा न लगा। अभिनय में शान्तिजल!
“और एक आदमी (कु. बाबू) पापपुरुष बना था। ऐसा करना भी अच्छा नहीं। न पाप करना ही अच्छा है और न पाप का अभिनय करना ही।”
नरेन्द्र का स्वास्थ्य अच्छा नहीं हैं; परन्तु उनका गाना सुनने की श्रीरामकृष्ण को बड़ी इच्छा है। वे कहने लगे “नरेन्द्र, ये लोग कह रहे हैं, तू कुछ गा।”
नरेन्द्र तानपुरा लेकर गाने लगे। गीतों का भावार्थ यह है -
(१) “मेरे प्राण-पिंजरे के पक्षी, गाओ। ब्रह्म-कल्पतरु पर बैठकर परमात्मा के गुण गाओ! धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-रूपी पके हुए फल खाओ। हे मेरे हृदय के प्राणविहंग, तुम निरन्तर ‘आत्माराम, प्राणाराम’ कहकर पुकारो। प्यासे चातक की तरह पुकारो, आलस मत करो।”
(२) “वे विश्वरंजन हैं, परमज्योति ब्रह्म हैं, अनादिदेव जगत्पति हैं, प्राणों के भी प्राण हैं।. . . ”
(३) “हे राजराजेश्वर! दर्शन दो! मैं जिन प्राणों को तुम्हारे चरणों में अर्पित कर रहा हूँ, वे संसार के अनल-कुण्ड में पड़कर झुलस गए हैं। और उस पर यह हृदय कलुष-कलंक से आवृत है। दयामय! मोहमुग्ध होकर मैं मृतकल्प हो रहा हूँ, तुम मृतसंजीवनी दृष्टि से मेरा शोधन कर लो।”
(४) “गगनरूपी थाल में रवि-चन्द्ररूपी दीपक जल रहे हैं।. . . ”
(५) “चिदाकाश में प्रेमचन्द्र का पूर्ण उदय हुआ।. . . ”
नरेन्द्रनाथ के गानों के समाप्त होने पर श्रीरामकृष्ण ने भवनाथ से गाने के लिए कहा। भवनाथ ने भी एक गाना गाया।
(भावार्थ) - “हे दयाघन, तुम्हारे जैसा हितकारी और कौन है? इस प्रकार सुख और दुःख में समान रूप से साथ देनेवाला। सभी पाप-ताप, भय आदि का हरण करनेवाला साथी दूसरा कौन है? संकटों से पूर्ण इस घोर भवसागर से तारनेवाला खेवैया और कौन हैं? किसकी कृपा से ये संग्रामकारी रिपुगण पराजित होकर दूर भागते हैं? इस प्रकार समस्त पापों का दहन और त्रिताप का निवारण कर शान्तिजल प्रदान करनेवाला और कौन है? अन्त समय में, जब सभी लोग त्याग देते हैं उस समय, कौन इस तरह बाँहें फैलाकर गोद में ले लेता है?”
नरेन्द्र (हँसते हुए) - इसने (भवनाथ ने) पान और मछली खाना छोड़ दिया है।
श्रीरामकृष्ण (भवनाथ से हँसते हुए) - क्यों रे? पान और मछली में क्या रखा है? इससे कुछ नहीं होता। कामिनी-कांचन का त्याग ही त्याग है। राखाल कहाँ है?
एक भक्त - जी, राखाल सो रहे हैं।
श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - एक आदमी बगल में चटाई लेकर नाटक देखने के लिए गया था। नाटक शुरू होने में देर थी, इसलिए वह चटाई बिछाकर सो गया। जब जागा तब सब समाप्त हो गया था! (सब हँसते हैं।)
“फिर चटाई बगल में दबाकर घर लौट आया।”
रामदयाल बहुत बीमार हैं। एक दूसरे कमरे में, बिछौने पर पड़े हुए हैं। श्रीरामकृष्ण उस कमरे में जाकर उनकी बीमारी का हाल पूछने लगे।
संसारी तथा शास्त्रार्थ
तीसरे पहर के चार बज चुके हैं। श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र, राखाल, मास्टर, भवनाथ आदि के साथ बैठक में बैठे हुए हैं। कुछ ब्राह्मभक्त भी आए हैं। उन्हीं के साथ बातचीत हो रही है।
ब्राह्मभक्त - महाराज ने पंचदशी देखी है।
श्रीरामकृष्ण - यह सब पहले-पहल एक बार सुनना पड़ता है - पहले-पहल एक बार विचार कर लेना पड़ता है। इसके बाद - ‘प्यारी श्यामा माँ को यत्नपूर्वक हृदय में रख। मन, तू देख और मैं देखूँ और दूसरा कोई न देखने पाये।’
“साधन-अवस्था में वह सब सुनना पड़ता है। उन्हें प्राप्त कर लेने पर ज्ञान का अभाव नहीं रहता। माँ ज्ञान की राशि ठेलती रहती हैं।
“पहले हिज्जे करके लिखना पड़ता है - फिर सीधे घसीटते जाओ।
“सोना गलाने के समय कमर कसकर काम में लगना पड़ता हैं। एक हाथ में धौंकनी - दूसरे में पंखा - मुँह से फूकना - जब तक सोना न गल जाए। गल जाने पर ज्योंही साँचे में छोड़ा कि सब चिन्ता दूर हो गयी।
“शास्त्र केवल पढ़ने ही से कुछ नहीं होता। कामिनी-कांचन में रहने से वे शास्त्र का अर्थ समझने नहीं देते। संसार की आसक्ति में ज्ञान का लोप हो जाता है।
“प्रयत्नपूर्वक मैंने काव्यरसों के जितने भेद सीखे थे वे सब इस काले की प्रीति में पड़ने से नष्ट हो गए।” (सब हँसते हैं।)
श्रीरामकृष्ण ब्राह्मभक्तों से केशव की बात कहने लगे -
“केशव योग और भोग दोनों में हैं। संसार में रहकर ईश्वर की ओर उनका मन लगा रहता है।”
एक भक्त कानवोकेशन (विश्वविद्यालय की उपाधिवितरण सभा) के सम्बन्ध में कहते हुए बोले, “देखा, वहाँ बड़ी भीड़ लगी हुई थी।”
श्रीरामकृष्ण - एक जगह बहुतसे लोगों को देखने पर ईश्वर का उद्दीपन होता है। यदि मैं ऐसा देखता तो विह्वल हो जाता।
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