परिच्छेद ३२ - नन्दनबागान के ब्राह्मसमाज में भक्तों के साथ

(१)

श्रीमन्दिर-दर्शन और उद्दीपन। श्रीराधा का प्रेमोन्माद

श्रीरामकृष्ण नन्दनबागान के ब्राह्मसमाज-मन्दिर में भक्तों के साथ बैठे हैं। ब्राह्मभक्तों से बातचीत कर रहे हैं। साथ में राखाल, मास्टर आदि हैं। शाम के पाँच बजे होंगे।

काशीश्वर मित्र का मकान नन्दनबागान में है। वे पहले सबजज थे। वे आदिब्राह्मसमाजवाले ब्राह्म थे। अपने ही घर पर ईश्वर की उपासना किया करते थे, और बीच बीच में भक्तों को निमन्त्रण देकर उत्सव मनाते थे। उनके देहान्त के बाद श्रीनाथ, यज्ञनाथ आदि उनके पुत्रों ने कुछ दिन तक उसी तरह उत्सव मनाए थे। वे ही श्रीरामकृष्ण को बड़े आदर से आमन्त्रित कर लाए हैं।

श्रीरामकृष्ण आकर पहले नीचे के एक कमरे में बैठे, जहाँ धीरे धीरे बहुतसे ब्राह्मभक्त सम्मिलित हुए। रवीन्द्रबाबू आदि ठाकुर-परिवार के भक्त भी इस उत्सव में सम्मिलित हुए थे।

बुलाए जाने पर श्रीरामकृष्ण ऊपरी मँजले के उपासना-मन्दिर में जा विराजे। कमरे के पूर्व की ओर वेदी रची गयी है। नैऋत्य कोने में एक पियानो है। कमरे के उत्तरी हिस्से में कुछ कुर्सियाँ रखी हुई हैं। उसी के पूर्व की ओर अन्तःपुर में जाने का दरवाजा है।

शाम को उत्सव के निमित्त उपासना होगी। आदि ब्राह्मसमाज के श्री भैरव बन्द्योपाध्याय और एक-दो भक्त मिलकर वेदी पर उपासना का अनुष्ठान करेंगे।

गर्मी का मौसम है। आज बुधवार चैत्र की कृष्णा दशमी है। २ मई, १८८३। अनेक ब्राह्मभक्त नीचे के बड़े आँगन या बरामदे में इधर-उधर घूम रहे हैं। श्री जानकी घोषाल आदि दो-चार सज्जन उपासनागृह में आकर श्रीरामकृष्ण के पास बैठे है। - वे उनके श्रीमुख से ईश्वरी प्रसंग सुनेंगे। कमरे में प्रवेश करते ही श्रीरामकृष्ण ने वेदी के सम्मुख प्रणाम किया। फिर बैठकर राखाल मास्टर आदि से कहने लगे -

“नरेन्द्र ने मुझसे कहा था, ‘समाज-मन्दिर को प्रणाम करने से क्या होता है?’ मन्दिर देखने से ईश्वर ही की याद आती है - उद्दीपना होती है। जहाँ उनकी चर्चा होती है, वहाँ उनका आविर्भाव होता है, और सारे तीर्थ वहाँ आ जाते हैं। ऐसे स्थानों के देखने से भगवान् की ही याद होती है।

“एक भक्त बबूल का पेड़ देखकर भावाविष्ट हुआ था। यही सोचकर कि इसी लकड़ी से श्रीराधाकान्त के बगीचे के लिए कुल्हाडी का बेट बनता है।

“किसी और भक्त की ऐसी गुरुभक्ति थी कि गुरुजी के मुहल्ले के एक आदमी को ही देखकर भावों से तर हो गया!

“मेघ देखकर, नील वस्त्र देखकर अथवा एक चित्र देखकर श्रीराधा को श्रीकृष्ण की उद्दीपना हो जाती थी! ये सब चीजें देखकर वे ‘कृष्ण कहाँ हैं?’ कहकर बावली-सी हो जाती!”

घोषाल - उन्माद तो अच्छा नहीं है।

श्रीरामकृष्ण - यह तुम क्या कह रहे हो? यह उन्माद विषयचिन्ता का फल थोड़े ही है कि उससे बेहोशी आ जाएगी! यह अवस्था तो ईश्वर-चिन्तन से उत्पन्न होती है! क्या तुमने प्रेमोन्माद, ज्ञानोन्माद की बात नहीं सुनी?

उपाय ईश्वर पर प्रेम तथा षड्रिपुओ की गति बदलना

एक ब्राह्मभक्त - किस उपाय से ईश्वर मिल सकता है?

श्रीरामकृष्ण - उस पर प्रेम हो, और सदा यह विचार रहे कि ईश्वर ही सत्य है, और जगत् अनित्य।

“पीपल का पेड़ ही सत्य है - फल तो दो ही दिन के लिए हैं।’

ब्राह्मभक्त - काम, क्रोध आदि रिपु हैं - क्या किया जाय?

श्रीरामकृष्ण - छः रिपुओं को ईश्वर की ओर मोड़ दो। आत्मा के साथ रमण करने की कामना हो। जो ईश्वर की राह पर बाधा पहुँचाते हैं उन पर क्रोध हो। उसे ही पाने के लिए लोभ। यदि ममता है तो उसी के लिए हो। जैसे ‘मेरे राम’ ‘मेरे कृष्ण’। यदि अहंकार करना है तो विभीषण की तरह - ‘मैंने श्रीरामचन्द्रजी को प्रणाम किया, फिर यह सिर किसी दूसरे के सामने नहीं नवाऊँगा!’

ब्राह्मभक्त - यदि ईश्वर ही सब कुछ करा रहा है तो मैं पापों के लिए उत्तरदायी नहीं हूँ?

पापकर्मों का उत्तरदायित्व

श्रीरामकृष्ण (हँसकर) - दुर्योधन ने वही बात कही थी - ‘त्वया हृषीकेश हृदिस्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि।’*

“जिसको ठीक विश्वास है कि ईश्वर ही कर्ता हैं और मैं अकर्ता हूँ, वह पाप नहीं कर सकता। जिसने नाचना सीख लिया है उसके पैर ताल के विरुद्ध नहीं पड़ते।

“मन शुद्ध न होने से यह विश्वास ही नहीं होता कि ईश्वर है!”

श्रीरामकृष्ण उपासना-मन्दिर में एकत्रित भक्तों को देख रहे हैं और कहते हैं, “बीच बीच में इस तरह एक साथ मिलकर ईश्वर-चिन्तन करना और उनके नामगुण गाना बहुत अच्छा है।

“परन्तु संसारी लोगों का ईश्वरानुराग क्षणिक है - वह उतनी ही देर तक ठहरता है जितना तपाये हुए लोहे पर पानी का छिड़काव।”

ब्रह्मोपासना तथा श्रीरामकृष्ण

अब सन्ध्या की उपासना होगी। वह बड़ा कमरा भक्तों से भर गया। कुछ ब्राह्म महिलाएँ हाथों में संगीत-पुस्तक लिए कुर्सियों पर आ बैठीं।

पियानो और हार्मोनियम के सहारे ब्रह्मसंगीत होने लगा। गाना सुनकर श्रीरामकृष्ण के आनन्द की सीमा न रही। क्रमशः उद्बोधन, प्रार्थना और उपासना हुई। आचार्य वेदी पर बैठ वेदों से मन्त्रपाठ करने लगे।

“ॐ पिता नोऽसि, पिता नो बोधि। नमस्तेऽस्तु मा मा हिंसीः।

- तुम हमारे पिता हो, हमें सद्बुद्धि दो। तुम्हें नमस्कार है। हमें नष्ट न करो।” ब्राह्मभक्त उनसे स्वर मिलाकर कहते हैं -

“ॐ सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म। आनन्दरूपममृतं यद्विभाति। शान्तं शिवमद्वैतम्। शुद्धमपापविद्वम्।”

फिर आचार्यों ने स्तवपाठ किया। -

“ॐ नमस्ते सते ते जगत्कारणाय। नमस्ते चिते सर्वलोकाश्रयाय॥” इत्यादि।

तदन्तर उन्होंने प्रार्थना की -

“असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय।

मृत्योर्माऽमृतं गमय। आविराविर्म एधि।

रुद्र यत्ते दक्षिणं मुखं तेन मां पाहि नित्यम्।*

स्तोत्रादि का पाठ सुनकर श्रीरामकृष्ण भावाविष्ट हो रहे हैं। अब आचार्य निबन्ध पढ़ते हैं।

अहेतुक कृपासिन्धु श्रीरामकृष्ण

उपासना समाप्त हो गयी। भक्तों को खिलाने का प्रबन्ध हो रहा है। अधिकांश ब्राह्मभक्त नीचे आँगन और बरामदे में टहल रहे हैं।

रात के नौ बज गए। श्रीरामकृष्ण को दक्षिणेश्वर लौट जाना है। घर के मालिक निमन्त्रित गृही भक्तों की संवर्धना में इतने व्यस्त हैं कि श्रीरामकृष्ण की कोई खबर ही नहीं ले सकते।

श्रीरामकृष्ण (राखाल आदि से) - अरे, कोई बुलाता भी तो नहीं।

राखाल - (क्रोध में) - महाराज, आइए, हम दक्षिणेश्वर चलें।

श्रीरामकृष्ण (हँसकर) - अरे ठहर। गाड़ी का किराया - तीन रुपये - दो आने - कौन देगा? चिढ़ने से ही काम न चलेगा! पैसे का नाम नहीं, और थोथी झाँझ! फिर इतनी रात को खाऊँ कहाँ?

बड़ी देर में सुना गया कि पत्तलें बिछी हैं। सब भक्त एक साथ बुलाए गए। उस भीड़ में श्रीरामकृष्ण भी राखाल आदि के साथ दूसरे मँजले में भोजन करने चले। भीड़ में बैठने की जगह नहीं मिलती थी। बड़ी मुश्किल से श्रीरामकृष्ण एक तरफ बैठाये गए। स्थान भद्दा था। एक रसोइया ठकुराइन ने भाजी परोसी। श्रीरामकृष्ण को उसे खाने की रुचि नहीं हुई। उन्होंने नमक के सहारे एक आध पूड़ी और थोड़ीसी मिठाई खायी।

आप दयासागर हैं। गृहस्वामी लड़के हैं। वे आपकी पूजा करना नहीं जानते तो क्या आप उनसे नाराज होंगे? अगर आप बिना खाए चले जायें तो उनका अमंगल होगा। फिर उन्होंने तो ईश्वर के ही उद्देश्य से इतना आयोजन किया।

भोजन के बाद श्रीरामकृष्ण गाड़ी पर बैठे। गाड़ी का किराया कौन दे? उस भीड़ में गृहस्वामियों का पता ही नहीं चलता था। इस किराये के सम्बन्ध में श्रीरामकृष्ण ने बाद में विनोद करते हुए भक्तों से कहा था -

“गाड़ी का किराया माँगने गया! पहले तो उसे भगा ही दिया। फिर बड़ी कोशिश से तीन रुपये मिले, पर दो आने नहीं दिए। कहा कि उसी से हो जायगा!”

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