परिच्छेद २५ - दक्षिणेश्वर में भक्तों के साथ
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श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर के अपने कमरे में राखाल, मास्टर आदि दो-एक भक्तों के साथ बैठे हैं। शुक्रवार, ९ मार्च १८८३ ई. । माघी अमावस्या, प्रातःकाल आठ-नौ बजे का समय होगा।
अमावस्या का दिन है। श्रीरामकृष्ण को सतत जगन्माता का उद्दीपन हो रहा है। वे कह रहे हैं, “ईश्वर ही वस्तु हैं, बाकी सब अवस्तु। माँ ने अपनी महामाया द्वारा मुग्ध कर रखा है। मनुष्यों में देखो, बद्ध जीव ही अधिक हैं। इतना दुःख-कष्ट पाते हैं, फिर भी उसी ‘कामिनी-कांचन’ में उनकी आसक्ति है। काँटेदार घास खाते समय ऊँट के मुँह से धर-धर खून बहता है, फिर भी वह उसे छोड़ता नहीं, खाते ही जाता है। प्रसववेदना के समय स्त्रियाँ कहती हैं, ‘ओह, अब और पति के पास नहीं जाऊँगी’, परन्तु फिर भूल जाती हैं।
“देखो, उनकी खोज कोई नहीं करता। अनन्नास को छोड़ लोग उसके पत्ते खाते हैं!”
संसार किसलिए? निष्काम कर्म द्वारा चित्तशुद्धि के लिए
भक्त - महाराज, संसार में वे क्यों रख देते हैं?
श्रीरामकृष्ण - संसार कर्मक्षेत्र है। कर्म करते करते ही ज्ञान होता है। गुरु ने कहा, इन कर्मों को करो और इन कर्मों को न करो। फिर वे निष्काम कर्म का उपदेश देते हैं। कर्म करते करते मन का मैल धुल जाता है। अच्छे डाक्टर की चिकित्सा में रहने पर दवा खाते खाते कैसा ही रोग क्यों न हो, ठीक हो जाता है।
“संसार से वे क्यों नहीं छोड़ते? रोग अच्छा होगा तब छोड़ेंगे। कामिनी-कांचन का भोग करने की इच्छा जब न रहेगी, तब छोड़ेंगे। अस्पताल में नाम लिखाकर भाग आने का उपाय नहीं है। रोग की कसर रहते डाक्टर साहब न छोड़ेंगे।”
श्रीरामकृष्ण आजकल यशोदा की तरह सदा वात्सल्य-रस में मग्न रहते हैं, इसलिए उन्होंने राखाल को साथ रखा है। राखाल के प्रति श्रीरामकृष्ण का गोपाल-भाव है। जिस प्रकार माँ की गोद में छोटा लड़का जाकर बैठता है, उसी प्रकार राखाल भी श्रीरामकृष्ण की गोद के सहारे बैठते थे। मानो स्तनपान कर रहे हों।
भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण का बान देखना
श्रीरामकृष्ण इसी भाव में बैठे हैं, इसी समय एक आदमी ने आकर समाचार दिया कि बान आ रहा है। श्रीरामकृष्ण, राखाल, मास्टर सभी लोग बान देखने के लिए पंचवटी की ओर दौड़ने लगे। पंचवटी के नीचे आकर सभी बान देख रहे हैं। दिन के करीब साढ़े दस बजे का समय होगा। एक नौका की स्थिति को देख श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, “देखो, देखो, उस नाव की न जाने क्या दशा होगी!”
अब श्रीरामकृष्ण पंचवटी के पथ पर मास्टर, राखाल आदि के साथ बैठे हैं।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर के प्रति) - अच्छा, बान कैसे आता है? मास्टर भूमि पर रेखाएँ खींचकर पृथ्वी, चन्द्र, सूर्य, माध्याकर्षण, ज्वार-भाटा, पूर्णिमा, अमावस्या, ग्रहण आदि समझाने की चेष्टा कर रहे हैं।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर के प्रति) - यह लो! समझ नहीं सक रहा हूँ। सिर घूम जाता है। चक्कर आ रहा है। अच्छा, इतनी दूर की बातें कैसे जान सके?
“देखो, मैं बचपन में चित्र अच्छी तरह खींच सकता था। परन्तु गणित से सिर चकराता था। हिसाब नहीं सीख सका।”
अब श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में लौट आये हैं। दीवार पर टँगे हुए यशोदा के चित्र को देख कह रहे हैं, “चित्र अच्छा नहीं हुआ। मानो ठीक मालिन मौसी है!”
अधर सेन को उपदेश
मध्याह्न के आहार के बाद श्रीरामकृष्ण ने थोड़ासा विश्राम किया। धीरे धीरे अधर तथा अन्य भक्तगण आ पहुँचे। अधर सेन पहली बार श्रीरामकृष्ण का दर्शन कर रहे हैं। अधर का मकान कलकत्ता, बेनेटोला में है। वे डिप्टी मैजिस्ट्रेट हैं। उम्र उनतीस-तीस वर्ष की होगी।
अधर (श्रीरामकृष्ण के प्रति) - महाराज, मुझे एक बात पूछनी है। क्या देवता के सामने बलि चढ़ाना अच्छा है? इससे तो जीवहिंसा होती है!
श्रीरामकृष्ण - शास्त्र के अनुसार, मन की एक विशेष अवस्था में बलि चढ़ायी जा सकती है। ‘विधिवादीय’ बलि में दोष नहीं है। जैसे, अष्टमी के दिन एक बलि चढ़ाते हैं। परन्तु यह विधि सभी अवस्था के लिए नहीं है। मेरी अब ऐसी अवस्था है कि मैं सामने रहकर बलि नहीं देख सकता हूँ।
“अधिक विचार करना ठीक नहीं, माँ के चरणकमल में भक्ति रहने से ही हो जाएगा। अधिक विचार करने से तब गोलमाल हो जाता है। इस देश में तालाब का जल ऊपर ऊपर से पिओ, अच्छा साफ जल पाओगे; अधिक नीचे हाथ डालकर हिलाने से जल मैला हो जाता है। इसलिए उनसे भक्ति की प्रार्थना करो। ध्रुव की भक्ति सकाम थी, उसने राज्य पाने के लिए तपस्या की थी; परन्तु प्रह्लाद की निष्काम अहैतुकी भक्ति थी।”
भक्त - ईश्वर कैसे प्राप्त होते हैं?
श्रीरामकृष्ण - उसी भक्ति के द्वारा। परन्तु उनसे जबरदस्ती करनी होती है। दर्शन नहीं देगा तो गले में छुरा भोंक लूँगा, - इसका नाम है भक्ति का तम।
भक्त - क्या ईश्वर को देखा जाता है?
“फिर ऐसी भी अवस्था होती है कि सर्वभूतों में ईश्वर को देखता हूँ। चींटियों में भी वे ही दिखायी देते हैं। ऐसी स्थिति में एकाएक किसी प्राणी के मरने पर मन में यही सान्त्वना होती है कि उसकी देह मात्र का विनाश हुआ। आत्मा की मृत्यु नहीं है।
श्रीरामकृष्ण - हाँ, अवश्य देखा जाता है। निराकार-साकार दोनों ही देखे जाते हैं। चिन्मय साकार रूप का दर्शन होता है। फिर साकार मनुष्य रूप में भी वे प्रत्यक्ष हो सकते हैं। अवतार को देखना और ईश्वर को देखना एक ही है। ईश्वर ही युग युग में मनुष्य के रूप में अवतीर्ण होते हैं ।