परिच्छेद ३४ - दक्षिणेश्वर में भक्तों के साथ
श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर के अपने कमरे में खड़े खड़े भक्तों के साथ बातचीत कर रहे हैं। रविवार, वैशाख कृष्णा पंचमी, २७ मई १८८३ ई. । दिन के नौ बजे का समय होगा। भक्तगण धीरे धीरे आकर उपस्थित हो रहे हैं।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर आदि भक्तों के प्रति) - विद्वेषभाव अच्छा नहीं, - शाक्त, वैष्णव, वेदान्ती ये सब झगड़ा करते हैं, यह ठीक नहीं। पद्मलोचन बर्दवान के सभापण्डित थे। सभा में विचार हो रहा था - ‘शिव बड़े हैं या ब्रह्मा।’ पद्मलोचन ने बहुत सुन्दर बात कही थी, - ‘मैं नहीं जानता, मुझसे न शिव का परिचय है, और न ब्रह्मा का!’ (सभी हँसने लगे।)
“व्याकुलता रहने पर सभी पथों से उन्हें प्राप्त किया जाता है, परन्तु निष्ठा रहनी चाहिए। निष्ठा-भक्ति का दूसरा नाम है अव्यभिचारिणी भक्ति, - जिस प्रकार एक शाखावाला वृक्ष सीधा ऊपर की और जाता है। व्यभिचारिणी भक्ति - जैसे पाच शाखावाला वृक्ष। गोपियों की ऐसी निष्ठा थी कि वृन्दावन के पीताम्बर और मोहनचूड़ावाले गोपालकृष्ण के अतिरिक्त और किसी से प्रेम न करेंगी। मथुरा में जब राजवेष में सिर पर पगड़ी पहने कृष्ण को देखा तो उन्होंने घूँघट की आड़ में मुँह छिपा लिया और कहा, ‘वह कौन है? क्या इसके साथ बात करके हम द्विचारिणी बनेंगी?’
“स्त्री जो स्वामी की सेवा करती है वह भी निष्ठा-भक्ति है। देवर, जेठ को खिलाती है, पैर धोने को जल देती है, परन्तु स्वामी के साथ दूसरा ही सम्बन्ध रहता है। इसी प्रकार अपने धर्म में भी निष्ठा हो सकती है। इसीलिए दूसरे धर्म से घृणा नहीं करनी चाहिए, बल्कि उनके साथ मीठा व्यवहार करना चाहिए।”
श्रीरामकृष्ण द्वारा जगन्माता की पूजा तथा आत्मपूजा
श्रीरामकृष्ण गंगास्नान करके काली के दर्शन करने गए हैं। साथ में मास्टर हैं। श्रीरामकृष्ण पूजा के आसन पर बैठकर माँ के चरणकमलों पर फूल चढ़ा रहे हैं; बीच बीच में अपने सिर पर भी चढ़ा रहे हैं और ध्यान कर रहे हैं।
बहुत समय के बाद श्रीरामकृष्ण आसन से उठे। भाव में विभोर होकर नृत्य कर रहे हैं और मुँह से माँ का नाम ले रहे हैं। कह रहे हैं, ‘माँ विपद्नाशिनी।’ देह धारण करने से ही दुःख, विपदाएँ होती हैं, सम्भव है इसीलिए जीव को इस ‘विपद्नाशिनी’ महामन्त्र का उच्चारण कर कातर होकर पुकारना सिखा रहे हैं।
अब श्रीरामकृष्ण अपने कमरे के पश्चिमवाले बरामदे में आकर बैठै हैं। अभी तक भाव का आवेश है। पास हैं राखाल, मास्टर, नकुड़ वैष्णव आदि। नकुड वैष्णव को श्रीरामकृष्ण अट्ठाईस-उनतीस वर्षों से जानते हैं। जिस समय वे पहले-पहल कलकत्ते में आकर झामापुकुर में रहे थे और घर घर में जाकर पूजा करते थे, उस समय कभी कभी नकुड़ वैष्णव की दुकान में जाकर बैठते थे और आनन्द मनाते थे। आजकल पानिहाटी में राघव पण्डित के महोत्सव के उपलक्ष्य में नकुड़ बाबाजी आकर प्रायः प्रतिवर्ष श्रीरामकृष्ण का दर्शन करते हैं। नकुड़ वैष्णव भक्त थे। कभी कभी वे भी महोत्सव का भण्डारा देते थे। नकुड़ मास्टर के पड़ोसी थे।
श्रीरामकृष्ण जिस समय झामापुकुर में थे, उस समय गोविन्द चटर्जी के मकान में रहते थे। नकुड़ ने मास्टर को वह पुराना मकान दिखाया था।
जगन्माता के नामकीर्तन के आनन्द में श्रीरामकृष्ण
श्रीरामकृष्ण भाव के आवेश में गीत गा रहे हैं, जिनका भावार्थ यह है :-
(१) “हे महाकाल की मनोमोहिनी सदानन्दमयी काली, माँ, तुम अपने आनन्द में आप ही नाचती हो और आप ही ताली बजाती हो। हे आदिभूते सनातनि, शून्यरूपे शशिभालिके, जिस समय ब्रह्माण्ड न था, उस समय तुझे मुण्डमाला कहाँ मिली? एकमात्र तुम यन्त्री हो, हम सब तुम्हारे निर्देश पर चलते हैं। माँ, तुम जैसा कराती हो, वैसा ही करते हैं, जैसा कहलाती हो वैसा ही कहते हैं। हे निर्गुणे, माँ, कमलाकान्त गाली देकर कहता है कि तुझ सर्वनाशिनी ने खड़ग धारण करके धर्म और अधर्म दोनों को नष्ट कर दिया है!”
(२) “हे तारा, तुम ही मेरी माँ हो। तुम त्रिगुणधरा परात्परा हो। मैं जानता हूँ, माँ, कि तुम दीनों पर दया करनेवाली और विपत्ति में दुःख को हरण करनेवाली हो। तुम सन्ध्या, तुम गायत्री, तुम जगद्धात्री हो। माँ, तुम असहाय को बचानेवाली तथा सदाशिव के मन को हरनेवाली हो। माँ, तुम जल में, थल में और आदिमूल में विराजमान हो। तुम साकार रूप में सर्व घट में विद्यमान होते हुए भी निराकार हो।”
श्रीरामकृष्ण ने ‘माँ’ के और भी कुछ गीत गाये। फिर भक्तों से कह रहे हैं, “संसारियों के सामने केवल दुःख की बात ठीक नहीं। आनन्द चाहिए। जिनको अन्न का अभाव है, वे दो दिन उपवास भी कर सकते हैं, परन्तु खाने में थोड़ा विलम्ब होने पर जिन्हें दुःख होता है उनके पास केवल रोने की बातें, दुःख की बातें करना ठीक नहीं।
“वैष्णवचरण कहा करता था,‘केवल, पाप, पाप यह सब क्या है? आनन्द करो।’ ”
श्रीरामकृष्ण भोजन के बाद विश्राम भी न कर सके थे कि मनोहर साँई गोस्वामी आ पधारे।
श्रीराधा के भाव में महाभावमय श्रीरामकृष्ण। क्या श्रीरामकृष्ण गौरांग है?
गोस्वामी पूर्वराग का कीर्तन गा रहे हैं। थोड़ा सुनकर ही श्रीरामकृष्ण राधा के भाव में भावाविष्ट हो गए।
पहले ही गौरचन्द्रिका-कीर्तन। “हथेली पर हाथ - चिन्तित गोरा - आज क्यों चिन्तित हैं? सम्भवतः राधा के भाव में भावित हुए हैं।”
गोस्वामी फिर गा रहे हैं -
(भावार्थ) - “घड़ी में सौ बार, पल पल में घर से बाहर आती और फिर भीतर जाती है। कहीं पर भी मन नहीं लग रहा है, जोर जोर से श्वास चल रहा है, बार बार कदम्ब-कानन की ओर ताकती है। राधे, ऐसा क्यों हुआ?”
संगीत की इसी पंक्ति को सुन श्रीरामकृष्ण की महाभाव की स्थिति हुई है! उन्होंने अपनी कमीज को फाड़कर फेंक दिया।
कीर्तनकार फिर गा रहे हैं - ‘तेरा अंग शीतल है. . . ’
कीर्तनकार का संगीत सुनते सुनते महाभाव में श्रीरामकृष्ण काँप रहे हैं! केदार को देख वे कीर्तन के स्वर में कह रहे हैं, “प्राणनाथ, हृदयवल्लभ, तुम लोग मुझे कृष्ण ला दो; यही तो मित्रता का काम है; या तो उन्हें ला दो और नहीं तो मुझे ले चलो; तुम लोगों की मैं चिरकाल के लिए दासी बनी रहूँगी।”
गोस्वामी कीर्तनिया श्रीरामकृष्ण के महाभाव की स्थिति को देखकर मुग्ध हुए हैं। वे हाथ जोड़कर कह रहे हैं, “मेरी विषयबुद्धि मिटा दीजिए।”
श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - तुम उस साधु के सदृश हो जिसने पहले रहने की जगह ठीक कर, फिर शहर देखना शुरू किया। तुम इतने बड़े रसिक हो, तुम्हारे भीतर से इतना मीठा रस निकल रहा है।
गोस्वामी - प्रभो, मैं चीनी का बोझ ढोनेवाला बैल हूँ, चीनी का आस्वादन कहाँ कर सका?
फिर कीर्तन होने लगा। कीर्तनकार श्रीमती राधिका की अवस्था का वर्णन कर रहे हैं - “कोकिलकुल कुर्वति कलनादम्।”
कोकिल का कलनाद श्रीमती को वज्रध्वनि जैसा लग रहा है। इसलिए वे जैमिनी का नाम उच्चारण कर रही हैं और कह रही हैं, ‘सखि, कृष्ण के विरह में यह प्राण नहीं रहेगा; इस देह को तमाल वृक्ष की शाखा पर रख देना।’
गोस्वामी ने राधाश्याम का मिलन गाकर कीर्तन समाप्त किया।
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