परिच्छेद ३० - सुरेन्द्र के मकान पर अन्नपूर्णा पूजा के उत्सव में
(१)
अहंकार। स्वाधीन इच्छा अथवा ईश्वर-इच्छा। साधुसंग
सुरेन्द्र के घर के आँगन में श्रीरामकृष्ण सभा को आलोकित कर बैठे हुए हैं। शाम के छः बजे होंगे।
आँगन से पूर्व की ओर, दालान के भीतर, देवीप्रतिमा प्रतिष्ठित है। माता के पादपद्मों में जवा और बिल्वपत्र तथा गले में फूलों की माला शोभायमान् है। माता दालान को आलोकित करके बैठी हुई हैं।
आज अन्नपूर्णा देवी की पूजा है। चैत्र शुक्ला अष्टमी, १५ अप्रैल १८८३, दिन रविवार। सुरेन्द्र माता की पूजा कर रहे हैं, इसीलिए निमन्त्रण देकर श्रीरामकृष्ण को ले आए हैं। श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ आये हैं। आते ही उन्होंने दालान पर चढ़कर देवी के दर्शन किए। फिर प्रणाम करके खड़े होकर देवी की ओर देखते हुए उँगलियों पर मूलमन्त्र जपने लगे। भक्तगण दर्शन और प्रणाम करके पास ही खड़े हैं।
श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ आँगन में आए। आँगन में दरी पर साफ चद्दर बिछी है। उस पर कुछ तकिये रखे हुए हैं। एक ओर मृदंग-करताल लेकर कुछ वैष्णव बैठे हुए है; संकीर्तन होगा। भक्तगण श्रीरामकृष्ण को घेरकर बैठ गए।
लोग श्रीरामकृष्ण को एक तकिये के पास ले जाकर बैठाने लगे; परन्तु वे तकिया हटाकर बैठे।
श्रीरामकृष्ण (भक्तों से) - तकिये के सहारे बैठना! जानते हो न अभिमान छोड़ना बड़ा कठिन है! अभी विचार कर रहे हो कि अभिमान कुछ नहीं है, परन्तु फिर न जाने कहाँ से आ जाता है
“बकरा काट डाला गया, फिर भी उसके अंग हिल रहे हैं।
“स्वप्न में डर गए हो; आँखें खुल गयीं, बिलकुल सचेत हो गए, फिर भी छाती धड़क रही है। अभिमान ठीक ऐसा ही है। हटा देने पर भी न जाने कहाँ से आ जाता है! बस आदमी मुँह फुलाकर कहने लगता है, मेरा आदर नहीं किया।”
केदार - ‘तृणादपि सुनीचेन तरोरिव सहिष्णुना।’
श्रीरामकृष्ण - मैं भक्तों की रेणु की रेणु हूँ।
वैद्यनाथ आए हैं। वैद्यनाथ विद्वान् हैं। कलकत्ता के हाइकोर्ट के वकील हैं। वे श्रीरामकृष्ण को हाथ जोड़कर प्रणाम करके एक ओर बैठ गए।
सुरेन्द्र (श्रीरामकृष्ण से) - ये मेरे आत्मीय हैं।
श्रीरामकृष्ण - हाँ, इनका स्वभाव तो बड़ा अच्छा है।
सुरेन्द्र - ये आपसे कुछ पूछना चाहते हैं, इसीलिए आए हैं।
श्रीरामकृष्ण (वैद्यनाथ से) - जो कुछ देख रहे हो, सभी उनकी शक्ति है। उनकी शक्ति के बिना कोई कुछ भी नहीं कर सकता। परन्तु एक बात है। उनकी शक्ति सब जगह बराबर नहीं है। विद्यासागर ने कहा था, ‘परमात्मा ने क्या किसी को अधिक शक्ति दी है?’ मैंने कहा, ‘शक्ति अगर अधिक न देते तो तुम्हें हम लोग देखने क्यों आते? तुम्हारे दो सींग थोड़े ही हैं!’ अन्त में यही ठहरा कि विभुरूप से सर्वभूतों में ईश्वर हैं, केवल शक्ति का भेद है।
वैद्यनाथ - महाराज! मुझे एक सन्देह है। यह जो Free Will अर्थात् स्वाधीन इच्छा की बात होती है, - कहते हैं कि हम इच्छा करें तो अच्छा काम भी कर सकते हैं और बुरा भी, - क्या यह सच है? क्या हम सचमुच स्वाधीन हैं?
श्रीरामकृष्ण - सभी ईश्वर के अधीन है। उन्हीं की लीला है। उन्होंने अनेक वस्तुओं की सृष्टि की है, - छोटी-बड़ी, भली-बुरी, मजबूत-कमजोर। अच्छे आदमी, बुरे आदमी। यह सब उन्हीं की माया है - उन्हीं का खेल है। देखो न, बगीचे के सब पेड़ बराबर नहीं होते।
“जब तक ईश्वर नहीं मिलते, तब तक जान पड़ता है, हम स्वाधीन हैं। यह भ्रम वे ही रख देते हैं, नहीं तो पाप की वृद्धि होती, पाप से कोई न डरता, न पाप की सजा मिलती।
“जिन्होंने ईश्वर को पा लिया है, उनका भाव जानते हो क्या है? मैं यन्त्र हूँ, तुम यन्त्री हो; मैं गृह हूँ, तुम गृही; मैं रथ हूँ, तुम रथी; जैसा चलाते हो, वैसा ही चलता हूँ जैसा कहाते हो, वैसा ही कहता हूँ।
(वैद्यनाथ से) - “तर्क करना अच्छा नहीं। आप क्या कहते हैं?”
वैद्यनाथ - जी हाँ, तर्क करने का स्वभाव ज्ञान होने पर नष्ट हो जाता है।
श्रीरामकृष्ण - Thank you (धन्यवाद)! (लोग हँसते हैं।) तुम पाओगे। ईश्वर की बात कोई कहता है, तो लोगों को विश्वास नहीं होता। यदि कोई महापुरुष कहे, मैंने ईश्वर को देखा है, तो कोई उस महापुरुष की बात ग्रहण नहीं करता। लोग सोचते हैं, इसने अगर ईश्वर को देखा है तो हमें भी दिखाये तो जानें। परन्तु नाड़ी देखना कोई एक दिन में थोड़े ही सीख लेता है! वैद्य के पीछे महीनों घूमना पड़ता है। तभी वह कह सकता है, कौन कफ की नाड़ी है, कौन पित्त की है और कौन वात की है। नाड़ी देखना जिनका पेशा है, उनका संग करना चाहिए। (सब हँसते हैं।)
“क्या सभी पहचान सकते हैं कि यह अमुक नम्बर का सूत है? सूत का व्यवसाय करो, जो लोग व्यवसाय करते हैं, उनकी दूकान में कुछ दिन रहो, तो कौन चालीस नम्बर का सूत है, कौन इकतालीस नम्बर का, तुरन्त कह सकोगे।”
(२)
भक्तों के साथ कीर्तनानन्द। समाधि में
अब संकीर्तन होगा। मृदंग बजाया जा रहा है। गोष्ठ मृदंग बजा रहा है। अभी गाना शुरू नहीं हुआ। मृदंग का मधुर वाद्य गौरांगमण्डल और उनके नामसंकीर्तन की याद दिलाकर मन को उद्दीप्त करता है। श्रीरामकृष्ण भाव में मग्न हो रहे हैं। रह-रहकर मृदंगवादक पर दृष्टि डालकर कह रहे हैं - “अहा! मुझे रोमांच हो रहा है!”
गवैयों ने पूछा, “कैसा पद गाएँ?” श्रीरामकृष्ण ने विनीत भाव से कहा, “जरा गौरांग के कीर्तन गाओ।”
कीर्तन आरम्भ हो गया। पहले गौरचन्द्रिका होगी, फिर दूसरे गाने।
कीर्तन में गौरांग के रूप का वर्णन हो रहा है। कीर्तन-गवैये अन्तरों में चुन-चुनकर अच्छे पद जोड़ते हुए गा रहे हैं - “सखि, मैंने पूर्णचन्द्र देखा”, “न ह्रास है - न मृगांक”, “हृदय को आलोकित करता है।”
गवैयों ने फिर गाया - “कोटि चन्द्र के अमृत से उसका मुख धुला हुआ है।”
श्रीरामकृष्ण यह सुनते ही सुनते समाधिमग्न हो गए।
गाना होता ही रहा। कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण की समाधि छूटी। वे भाव में मग्न होकर एकाएक उठकर खड़े हो गए तथा प्रेमोन्मत्त गोपिकाओं की तरह श्रीकृष्ण के रूप का वर्णन करते हुए कीर्तन-गवैयों के साथ साथ गाने लगे - “सखि! रूप का दोष है या मन का?” “दूसरों को देखती हुई तीनों लोक में श्याम ही श्याम देखती हूँ।”
श्रीरामकृष्ण नाचते हुए गा रहे हैं। भक्तगण निर्वाक् होकर देख रहे हैं। गवैये फिर गा रहे है, - गोपिका की उक्ति - “बंसी री! तू अब न बज। क्या तुझे नींद भी नहीं आती?” इसमें पद जोड़कर गा रहे हैं - “और नींद आए भी कैसे!” - “सेज तो करपल्लव है न?” - “श्रीमुख के अमृत का पान करती है” - “तिस पर उँगलियाँ सेवा करती हैं।”
श्रीरामकृष्ण ने आसन ग्रहण किया। कीर्तन होता रहा। श्रीमती राधा की उक्ति गायी जाने लगी। वे कहती हैं - “दृष्टि, श्रवण और घ्राण की शक्ति तो चली गयी - सभी इन्द्रियों ने उत्तर दे दिया, तो मैं ही अकेली क्यों रह गयी?”
अन्त में श्रीराधा-कृष्ण दोनों के एक दूसरे से मिलन का कीर्तन होने लगा -
“राधिकाजी श्रीकृष्ण को पहनाने के लिए माला गूँथ ही रही थी कि अचानक श्रीकृष्ण उनके सामने आकर खड़े हो गए।”
युगल-मिलन के संगीत का आशय यह है -
“कुंजवन में श्याम-विनोदिनी राधिका कृष्ण के भावावेश में विभोर हो रही है। दोनो में से न तो किसी के रूप की उपमा हो सकती है और न किसी के प्रेम की ही सीमा है। आधे में सुनहली किरणों की छटा है और आधे में नीलकान्त मणि की ज्योति। गले के आधे हिस्से में वन के फूलों की माला है और आधे में गज-मुक्ता। कानों के अर्धभाग में मकरकुण्डल हैं और अर्धभाग में रत्नों की छबि। अर्धललाट में चन्द्रोदय हो रहा है। और आधे में सूर्योदय। मस्तक के अर्धभाग में मयूरशिखण्ड शोभा पा रहा है और आधे में वेणी। कनककमल झिलमिला रहे हैं, फणी मानो मणि उगल रहा है।”
कीर्तन बन्द हुआ। श्रीरामकृष्ण ‘भागवत, भक्त, भगवान्’ इस मन्त्र का बार बार उच्चारण करते हुए भूमिष्ठ हो प्रणाम कर रहे हैं। चारों ओर के भक्तों को उद्देश्य करके प्रणाम कर रहे हैं और संकीर्तन-भूमि की धूलि लेकर अपने मस्तक पर रख रहे हैं।
(३)
श्रीरामकृष्ण और साकार-निराकार
रात के साढ़े नौ बजे का समय होगा। अन्नपूर्णा देवी दालान को आलोकित कर रही है। सामने श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ खड़े हुए है। सुरेन्द्र, राखाल, केदार, मास्टर, राम, मनोमोहन तथा और भी अनेक भक्त हैं। उन लोगों ने श्रीरामकृष्ण के साथ ही प्रसाद पाया है। सुरेन्द्र ने सब को तृप्तिपूर्वक भोजन कराया है। अब श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर लौटनेवाले हैं। भक्तजन भी अपने अपने घर जाएँगे। सब लोग दालान में आकर इकट्ठे हुए हैं।
सुरेन्द्र - (श्रीरामकृष्ण से) - परन्तु आज मातृवन्दना का एक भी गाना नहीं हुआ।
श्रीरामकृष्ण (देवीप्रतिमा की ओर उँगली उठाकर) - अहा! दालान की कैसी शोभा हुई है! माँ मानो अपनी दिव्य छटा छिटकाकर बैठी हुई हैं। इस रूप के दर्शन करने पर कितना आनन्द होता है! भोग की इच्छा, शोक, ये सब भाग जाते हैं। परन्तु क्या निराकार के दर्शन नहीं होते? नहीं, होते हैं। हाँ, जरा भी विषय-बुद्धि के रहते नहीं होते। ऋषियों ने सर्वस्वत्याग करके ‘अखण्ड-सच्चिदानन्द’ में मन लगाया था।
“आजकल ब्रह्मज्ञानी उन्हें ‘अचल-धन’ कहकर गाते हैं, - मुझे अलोना लगता है। जो लोग गाते हैं, वे मानो कोई मधुर रस नहीं पाते। शीरे पर ही भूले रहे, तो मिश्री की खोज करने की इच्छा नहीं हो सकती।
“तुम लोग देखते हो - बाहर कैसे सुन्दर दर्शन हो रहे हैं, और आनन्द भी कितना मिलता है। जो लोग निराकार निराकार करते, कुछ नहीं पाते, उनके न है बाहर और न है भीतर।”
श्रीरामकृष्ण माता का नाम लेकर इस भाव का गीत गा रहे हैं, - “माँ, आनन्दमयी होकर मुझे निरानन्द न करना। मेरा मन तुम्हारे उन दोनो चरणों के सिवा और कुछ नहीं जानता। मैं नही जानता, धर्मराज मुझे किस दोष से दोषी बतला रहे हैं। मेरे मन में यह वासना थी कि तुम्हारा नाम लेता हुआ मैं भवसागर से तर जाऊँगा। मुझे स्वप्न में भी नहीं मालूम था कि तुम मुझे असीम सागर में डुबा दोगी। दिनरात मैं दुर्गानाम जप रहा हूँ, किन्तु फिर भी मेरी दुःखराशि दूर न हुई। परन्तु हे हरसुन्दरी, यदि इस बार भी मैं मरा तो यह निश्चय है कि संसार में फिर तुम्हारा नाम कोई न लेगा।”
श्रीरामकृष्ण फिर गाने लगे। गीत इस आशय का है -
“मेरे मन! दुर्गानाम जपो। जो दुर्गानाम जपता हुआ रास्ते में चला जाता है, शूलपाणि शूल लेकर उसकी रक्षा करते है। तुम दिवा हो, तुम सन्ध्या हो, तुम्ही रात्रि हो; कभी तो तुम पुरुष का रूप धारण करती हो, कभी कामिनी बन जाती हो। तुम तो कहती हो कि मुझे छोड़ दो, परन्तु मैं तुम्हें कदापि न छोडूँगा, - मैं तुम्हारे चरणों में नूपुर होकर बजता रहूँगा, - जय दुर्गा, श्रीदुर्गा कहता हुआ! माँ, जब शंकरी होकर तुम आकाश में उड़ती रहोगी तब मैं मीन बनकर पानी में रहूँगा तुम अपने नखों पर मुझे उठा लेना। हे ब्रह्ममयीं, नखों के आघात से यदि मेरे प्राण निकल जायें, तो कृपा करके अपने अरुण चरणों का स्पर्श मुझे करा देना।”
श्रीरामकृष्ण ने देवी को फिर प्रणाम किया। अब सीढ़ियों से उतरते समय पुकारकर कह रहे हैं - “ओ रा - जू - हैं?” (ओ राखाल! जूते सब हैं?)
श्रीरामकृष्ण गाड़ी पर चढ़े। सुरेन्द्र ने प्रणाम किया। दूसरे भक्तों ने भी प्रणाम किया। चाँदनी अभी भी रास्ते पर पड़ रही है। श्रीरामकृष्ण की गाड़ी दक्षिणेश्वर की ओर चल दी।
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