परिच्छेद १८ - मणि मल्लिक के ब्राह्मोत्सव में श्रीरामकृष्ण
रविवार, १९ नवम्बर १८८२ ई. । आज श्रीजगद्धात्री-पूजा है। सुरेन्द्र ने निमन्त्रण दिया है। वे भीतर बाहर हो रहे हैं - कब श्रीरामकृष्ण आते हैं। मास्टर को देख वे कह रहे हैं, “तुम आए हो, और वे कहाँ हैं?” इतने में श्रीरामकृष्ण की गाड़ी आ खड़ी हुई। पास ही श्रीमनोमोहन का मकान है। श्रीरामकृष्ण पहले वहीं पर उतरे, वहाँ पर जरा विश्राम करके सुरेन्द्र के मकान पर जाएँगे।
मनोमोहन के बैठकखाने में श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, “जो असहाय, दीन, दरिद्र है उसकी भक्ति ईश्वर को प्यारी है, जिस प्रकार खली मिला हुआ चारा गाय को प्यारा है। दुर्योधन उतना धन, उतना ऐश्वर्य दिखाने लगा पर उसके घर पर भगवान् न गए। वे विदुर के घर गए। वे भक्तवत्सल हैं। जिस प्रकार गाय अपने बच्चे के पीछे पीछे दौड़ती है, उसी प्रकार वे भी भक्तों के पीछे पीछे दौड़ते हैं।”
श्रीरामकृष्ण गाने लगे। भावार्थ यह है -
“ ‘उस भाव के लिए परम योगी युगयुगान्तर तक योग करते हैं। भाव का उदय होने पर वे ऐसे ही खींच लेते हैं जैसे लोहे को चुम्बक।’
“चैतन्यदेव की आँखों से कृष्णनाम से आँसू गिरने लगते थे। ईश्वर ही वस्तु है, शेष सब अवस्तु। मनुष्य चाहे तो ईश्वर को प्राप्त कर सकता है; परन्तु वह कामिनी-कांचन का भोग करने में ही मस्त रहता है। सिर पर मणि रहते भी साँप मेंढ़क खाता रहता है।
“भक्ति ही सार है। ईश्वर का विचार करके भी उन्हें कौन जान सकेगा? मुझे भक्ति चाहिए। उनका अनन्त ऐश्वर्य है। उतना जानने की मुझे क्या आवश्यकता है? एक बोतल शराब से यदि नशा आ जाए तो फिर यह जानने की क्या आवश्यकता है कि कलार की दूकान में कितने मन शराब है। एक लोटा जल से मेरी तृष्णा शान्त हो सकती है; पृथ्वी में कितना जल है यह जानने की मुझे कोई आवश्यकता नहीं।”
सुरेन्द्र के भाई और जज का पद। जातिभेद
श्रीरामकृष्ण अब सुरेन्द्र के मकान पर आये हैं। आकर दुमँजले के बैठकघर में बैठे हैं। सुरेन्द्र के मँझले भाई जज हैं। वे भी बैठे हैं। अनेक भक्त कमरे में इकट्ठे हुए हैं। श्रीरामकृष्ण सुरेन्द्र के भाई से कह रहे हैं, “आप जज हैं, बहुत अच्छी बात है। इतना जानिएगा, सभी कुछ ईश्वर की शक्ति है। बड़ा पद उन्होंने ही दिया है तभी बना है। लोग समझते हैं, ‘हम बड़े आदमी हैं ।’ छत पर का जल शेर के मुँहवाले परनाले से गिरता है। ऐसा लगता है, मानो शेर मुँह से पानी उगल रहा है। परन्तु देखो, कहाँ का जल है। कहाँ आकाश में बादल बना, उसका जल छत पर गिरा और उसके बाद लुढ़ककर परनाले में जा रहा है और फिर शेर के मुँह से होकर निकल रहा है।”
सुरेन्द्र के भाई - महाराज, ब्राह्मसमाजवाले स्त्री-स्वाधीनता की बात कहते हैं, और कहते हैं जातिभेद उठा दो। यह सब आपको कैसा लगता है?
श्रीरामकृष्ण - ईश्वर से नया नया प्रेम होने पर वैसा हो सकता है। आँधी आने पर धूल उड़ती है, समझ में नहीं आता कि कौन आम का पेड़ है और कौन इमली का। आँधी शान्त होने पर फिर समझ में आता है। नये प्रेम की आँधी शान्त होने पर धीरे धीरे समझ में आ जाता है कि ईश्वर ही श्रेयः नित्य पदार्थ है और सभी कुछ अनित्य है। साधुसंग और तपस्या न करने पर ठीक ठीक धारणा नहीं होती! पखावज का बोल मुँह से बोलने से क्या होगा? हाथ पर आना बहुत कठिन है। केवल लेक्चर देने से क्या होगा? तपस्या चाहिए, तब धारणा होगी।
“जातिभेद? केवल एक उपाय से जातिभेद उठ सकता है। वह है भक्ति। भक्ति के जाति नहीं हैं। भक्ति से अछूत भी शुद्ध हो जाता है - भक्ति होने पर चाण्डाल फिर चाण्डाल नहीं रहता। चैतन्यदेव ने चाण्डाल से लेकर ब्राह्मण तक सभी को शरण दी थी।
“ब्राह्मगण हरिनाम करते हैं, बहुत अच्छी बात है। व्याकुल होकर पुकारने पर उनकी कृपा होगी, ईश्वरलाभ होगा।
“सभी पथों से उन्हें प्राप्त किया जा सकता है। एक ईश्वर को अनेक नामों से पुकारते हैं। जिस प्रकार एक घाट का जल हिन्दू लोग पीते हैं, कहते हैं जल; दूसरे घाट में ईसाई लोग पीते हैं, कहते हैं वाटर; और तीसरे घाट में मुसलमान पीते हैं, कहते हैं पानी।”
सुरेन्द्र के भाई - महाराज, थिओसफी कैसी लगती है?
श्रीरामकृष्ण - सुना है लोग कहते हैं कि उससे अलौकिक शक्ति प्राप्त होती है। देव मोड़ोल नामक व्यक्ति के मकान पर देखा था कि एक आदमी पिशाचसिद्ध है। पिशाच कितनी ही चीजें ला देता था। अलौकिक शक्ति लेकर क्या करूँगा? क्या उससे ईश्वरप्राप्ति होती है? यदि ईश्वर-प्राप्ति न हुई तो सभी मिथ्या है!
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