परिच्छेद ३६ - दक्षिणेश्वर मन्दिर में भक्तों के साथ
(१)
मनुष्य में ईश्वरदर्शन। नरेन्द्र से प्रथम भेंट
श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर के कालीमन्दिर में अपने कमरे में बैठे हैं। भक्तगण उनके दर्शन के लिए आ रहे हैं। आज ज्येष्ठ मास की कृष्णा चतुर्दशी, सावित्री-चतुर्दशी व्रत का दिन है। सोमवार, ४ जून, १८८३ ई. । आज रात को अमावस्या तिथि में फलहारिणी कालीपूजा होगी।
मास्टर कल रविवार से आए हैं। कल रात को कात्यायनीपूजा हुई थी। श्रीरामकृष्ण प्रेमाविष्ट हो नाट-मन्दिर में माता के सामने खड़े हो गाते हुए कह रहे थे, “माता, तुम्हीं व्रज की कात्यायनी हो। तुम्हीं स्वर्ग हो, तुम्हीं मर्त्य हो, तुम्हीं पाताल भी हो। तुम्हीं से हरि, ब्रह्मा और द्वादश गोपाल पैदा हुए हैं। दशमहाविद्याएँ और दशावतार भी तुम्हीं से उत्पन्न हुए हैं। अब की बार तुम्हें किसी प्रकार मुझे पार करना होगा।”
श्रीरामकृष्ण गा रहे थे और माँ से बातें कर रहे थे। प्रेम से बिलकुल मतवाले हो गए थे। मन्दिर से वे अपने कमरे में आकर तख्त पर बैठे।
रात के दूसरे पहर तक माँ का नामकीर्तन होता रहा।
सोमवार को सबेरे के समय बलराम और कुछ दूसरे भक्त आए। फलहारिणी कालीपूजा के उपलक्ष्य में त्रैलोक्यबाबू आदि भी सपरिवार आए हैं। सबेरे नौ बजे का समय है। श्रीरामकृष्णदेव प्रसन्नमुख, गंगा की ओर के गोल बरामदे में बैठे हैं। पास ही मास्टर बैठे हैं। राखाल लेटे हैं। आनन्द में श्रीरामकृष्ण ने राखाल का मस्तक अपनी गोद में उठा लिया है। आज कुछ दिनों से आप राखाल को साक्षात् गोपाल के रूप में देखते हैं।
त्रैलोक्य सामने से माँ काली के दर्शन को जा रहे हैं। साथ में नौकर उनके सिर पर छाता लगाये जा रहा है। श्रीरामकृष्ण राखाल से बोले, ‘उठ रे, उठ’
श्रीरामकृष्ण बैठे हैं। त्रैलोक्य ने आकर प्रणाम किया।
श्रीरामकृष्ण (त्रैलोक्य से) - कल ‘यात्रा’ नहीं हुई?
त्रैलोक्य - जी नहीं, अब की बार ‘यात्रा’ की वैसी सुविधा नहीं हुई।
श्रीरामकृष्ण - तो इस बार जो हुआ सो हुआ। देखना, जिससे फिर ऐसा न होने पाए। जैसा नियम है वैसा ही हमेशा होना अच्छा है।
त्रैलोक्य यथोचित उत्तर देकर चले गए। कुछ देर बाद विष्णुमन्दिर के पुरोहित राम चटर्जी आए।
श्रीरामकृष्ण - राम, मैंने त्रैलोक्य से कहा, इस साल ‘यात्रा’ नहीं हुई, देखना जिससे आगे ऐसा न हो। तो क्या यह कहना ठीक हुआ?
राम - महाराज, उससे क्या हुआ! अच्छा ही तो कहा। जैसा नियम है उसी प्रकार हमेशा होना चाहिए।
श्रीरामकृष्ण (बलराम से) - अजी, आज तुम यहीं भोजन करो।
भोजन के कुछ पहले श्रीरामकृष्णदेव अपनी अवस्था के सम्बन्ध में भक्तों को बहुत बातें बताने लगे। राखाल, बलराम, मास्टर, रामलाल तथा और दो-एक भक्त बैठे थे।
श्रीरामकृष्ण - हाजरा मुझे उपदेश देता है कि तुम इन लड़कों के लिए इतनी चिन्ता क्यों करते हो! गाड़ी में बैठकर बलराम के मकान पर जा रहा था, उसी समय मन में बड़ी चिन्ता हुई। कहने लगा, ‘माँ, हाजरा कहता है, नरेन्द्र आदि बालकों के लिए मैं इतनी चिन्ता क्यों करता हूँ; वह कहता है, ईश्वर की चिन्ता त्यागकर इन लड़कों की चिन्ता आप क्यों करते हैं?’ मेरे यह कहते कहते अचानक माँ ने दिखलाया कि वे ही मनुष्य रूप में लीला करती हैं। शुद्ध आधार में उनका प्रकाश स्पष्ट होता है। इस दर्शन के बाद जब समाधि कुछ टूटी तो हाजरा के ऊपर बड़ा क्रोध हुआ। कहा, साले मेरा मन खराब कर दिया था। फिर सोचा, उस बेचारे का अपराध ही क्या है; वह यह कैसे जान सकता है?
“मैं इन लोगों को साक्षात् नारायण जानता हूँ। नरेन्द्र के साथ पहले भेंट हुई। देखा, देहबुद्धि नहीं है। जरा छाती को स्पर्श करते ही उसका बाह्य-ज्ञान लोप हो गया। होश आने पर कहने लगा, ‘आपने यह क्या किया! मेरे तो माता-पिता हैं।’ यदु मल्लिक के मकान में भी ऐसा ही हुआ था। क्रमशः उसे देखने के लिए व्याकुलता बढ़ने लगी, प्राण छटपटाने लगे। तब भोलानाथ* से कहा, ‘क्यों जी, मेरा मन ऐसा क्यों होता है? नरेन्द्र नाम का एक कायस्थ लड़का है, उसके लिए ऐसा क्यों होता है?’ भोलानाथ बोले, ‘इस सम्बन्ध में महाभारत में लिखा है कि समाधिवान् पुरुष का मन जब नीचे उतरता है, तब सतोगुणी लोगों के साथ विलास करता है। सतोगुणी मनुष्य देखने से उसका मन शान्त होता है।’ - यह बात सुनकर मेरे चित्त को शान्ति मिली। बीच बीच में नरेन्द्र को देखने के लिए मैं बैठा बैठा रोया करता था।”
(२)
श्रीरामकृष्ण का प्रेमोन्माद और रूपदर्शन
श्रीरामकृष्ण - ओह, कैसी अवस्था बीत गयी है! पहले जब ऐसी अवस्था हुई थी तो रातदिन कैसे बीत जाते थे, कह नहीं सकता। सब कहने लगे थे, पागल हो गया; इसीलिए इन लोगों ने शादी कर दी। उन्माद अवस्था थी। पहले स्त्री के बारे में चिन्ता हुई, बाद में सोचा कि वह भी इसी प्रकार रहेगी, खाएगी, पिएगी। ससुराल गया, वहाँ भी खूब संकीर्तन हुआ। नफर, दिगम्बर बनर्जी के पिता आदि सब लोग आये। खूब संकीर्तन होता था। कभी कभी सोचता था, क्या होगा। फिर कहता था, माँ, गाँव के जमींदार यदि मानें तो समझूँगा यह अवस्था सत्य है। और सचमुच वे भी आप ही आने लगे और बातचीत करने लगे।
पूर्वकथा सुन्दरीपूजा और कुमारीपूजा, रामलीला दर्शन
“कैसी अवस्था बीत गयी है! किंचित् ही कारण से एकदम भगवान् की उद्दीपना होती थी। मैंने सुन्दरी-पूजा की। चौदह वर्ष की लड़की थी। देखा साक्षात् माँ जगदम्बा! रुपये देकर मैंने प्रणाम किया।
“रामलीला देखने के लिए गया तो सीता, राम, लक्ष्मण, हनुमान, विभीषण, सभी को साक्षात् प्रत्यक्ष देखा। तब जो जो बने थे उनकी पूजा करने लगा।
“कुमारी कन्याओ को बुलाकर उनकी पूजा करता - देखता साक्षात् माँ जगदम्बा।
“एक दिन बकुलवृक्ष के तले देखा, नीला वस्त्र पहने हुए एक स्त्री खड़ी है। वह वेश्या थी, पर मेरे मन में एकदम सीता की उद्दीपना हो गयी। उस स्त्री को बिलकुल भूल गया और देखा साक्षात् सीतादेवी लंका से उद्धार पाकर राम के पास जा रही हैं। बहुत देर तक बाह्य-संज्ञाहीन हो समाधि-अवस्था में रहा।
“और एक दिन कलकत्ते में किले के मैदान में घूमने के लिए गया था। उस दिन ‘बलून’ (गुब्बारा) उड़नेवाला था। बहुतसे लोगों की भीड़ थी। अचानक एक अंग्रेज बालक की ओर दृष्टि गयी, वह पेड़ के सहारे त्रिभंग होकर खड़ा था। देखते ही श्रीकृष्ण की उद्दीपना हो समाधि हो गयी।
“शिऊड़ गाँव में चरवाहों को भोजन कराया। सब के हाथ में मैंने जलपान की सामग्री दी। देखा, साक्षात् व्रज के ग्वालबाल! उनसे जलपान लेकर मैं भी खाने लगा।
“प्रायः होश न रहता था। मथुरबाबू ने मुझे ले जाकर जानबाजार के मकान में कुछ दिन रखा। मैं देखने लगा, साक्षात् माँ की दासी हो गया हूँ। घर की औरतें बिलकुल शरमाती नहीं थीं, जैसे छोटे छोटे बच्चों को देख कोई भी स्त्री लज्जा नहीं करती। रात को बाबू की कन्या को जमाई के पास पहुँचाने जाता।
“अब भी थोड़ी ही में उद्दीपना हो जाती है। राखाल जप करते समय ओठ हिलाता था। मैं उसे देखकर स्थिर नहीं रह सकता था, एकदम ईश्वर की उद्दीपना होती और विह्वल हो जाता।”
श्रीरामकृष्ण अपने प्रकृति-भाव की और भी कथाएँ कहने लगे। बोले, “मैंने एक कीर्तनिया को स्त्री-कीर्तनिया के ढंग दिखलाए थे। उसने कहा, ‘आप बिलकुल ठीक कहते हैं। आपने यह सब कैसे सीखा?’ ” यह कहकर आप स्त्री-कीर्तनिया के ढंग का अनुकरण कर दिखलाने लगे। कोई भी अपनी हँसी न रोक सका।
(३)
श्रीरामकृष्ण ‘अहेतुक कृपासिन्धु’
भोजन के बाद श्रीरामकृष्ण थोड़ा विश्राम कर रहे हैं। गाढ़ी नींद नहीं, तन्द्रा-सी है। श्री मणिलाल मल्लिक ने आकर प्रणाम किया और आसन ग्रहण किया। श्रीरामकृष्ण अब भी लेटे हैं। मणिलाल बीच बीच में बातें करते हैं। श्रीरामकृष्ण अर्धनिद्रित अर्धजागृत अवस्था में हैं, वे किसी किसी बात का उत्तर दे देते हैं।
मणिलाल - शिवनाथ नित्यगोपाल की प्रशंसा करते हैं। कहते हैं, उनकी अच्छी अवस्था है।
श्रीरामकृष्ण अभी पूरी तरह से नहीं जागे। वे पूछते हैं, “हाजरा को वे लोग क्या कहते हैं?”
श्रीरामकृष्ण उठ बैठे। मणिलाल से भवनाथ की भक्ति के बारे में कह रहे हैं।
श्रीरामकृष्ण - अहा, उसका भाव कैसा सुन्दर है! गाना गाते आँखें आँसुओ से भर जाती हैं। हरीश को देखते ही उसे भाव हो गया। कहता है, ये लोग अच्छे हैं। हरीश घर छोड़ यहाँ कभी कभी रहता है न, इसीलिए।
मास्टर से प्रश्न कर रहे हैं, “अच्छा, भक्ति का कारण क्या है? भवनाथ आदि बालकों की उद्दीपना क्यों होती है?” मास्टर चुप हैं।
श्रीरामकृष्ण - बात यह है कि बाहर से देखने में सभी मनुष्य एक ही तरह के होते हैं। पर किसी किसी में खोए का पूर भरा होता है। पकवान के भीतर उरद का पूर भी हो सकता है और खोए का भी, पर देखने में दोनों एक-से हैं। भगवान् को जानने की इच्छा, उन पर प्रेम और भक्ति, इसी का नाम खोए का पूर है।
अब आप भक्तों को अभय देते हैं।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - कोई सोचता है कि मुझे ज्ञानभक्ति न होगी, मैं शायद बद्धजीव हूँ। श्रीगुरु की कृपा होने पर कोई भय नहीं है। बकरियों के एक झुण्ड में बाघिन कूद पड़ी थी। कूदते समय बाघिन को बच्चा पैदा हो गया। बाघिन तो मर गयी, पर वह बच्चा बकरियों के साथ पलने लगा। बकरियाँ घास खातीं तो वह भी घास खाता। बकरियाँ ‘में में’ करतीं तो वह भी करता। धीरे धीरे वह बच्चा बड़ा हो गया। एक दिन इन बकरियों के झुण्ड पर एक दूसरा बाघ झपटा। वह उस घास खानेवाले बाघ को देखकर आश्चर्य में पड़ गया। दौड़कर उसने उसे पकड़ा तो वह ‘में में’ कर चिल्लाने लगा। उसे घसीटकर वह जल के पास ले गया और बोला, ‘देख, जल में तू अपना मुँह देख। देख, मेरे ही समान तू भी है; और ले यह थोड़ासा माँस है, इसे खा ले।’ यह कहकर वह उसे बलपूर्वक खिलाने लगा। पर वह किसी तरह खाने को राजी न हुआ, ‘में में’ चिल्लाता ही रहा। अन्त में रक्त का स्वाद पाकर वह खाने लगा। तब उस नये बाघ ने कहा, ‘अब तूने समझा कि जो मैं हूँ वही तू भी है। अब आ, मेरे साथ जंगल को चल।’
“इसीलिए गुरु की कृपा होने पर फिर कोई भय नहीं। वे बतला देंगे, तुम कौन हो, तुम्हारा स्वरूप क्या है।
“थोड़ा साधन करने पर गुरु सब बातें साफ साफ समझा देते हैं। तब मनुष्य स्वयं समझ सकता है, क्या सत् है, क्या असत्। ईश्वर ही सत्य और यह संसार अनित्य है।”
कपट साधना भी बुरी नहीं
“एक धीवर किसी दूसरे के बाग में रात के समय चुराकर मछलियाँ पकड़ रहा था। मालिक को इसकी टोह लग गयी और दूसरे लोगों की सहायता से उसने उसे घेर लिया। मशाल जलाकर वे चोर को खोजने लगे। इधर वह धीवर शरीर में कुछ भस्म लगाए, एक पेड़ के नीचे साधु बनकर बैठ गया। उन लोगों ने बहुत ढूँढ़-तलाश की, पर केवल भभूत रमाए एक ध्यानमग्न साधु के सिवाय और किसी को न पाया। दूसरे दिन गाँव भर में खबर फैल गयी कि अमुक के बाग में एक बड़े महात्मा आए हैं। फिर क्या था, सब लोग फल, फूल, मिठाई आदि लेकर साधु के दर्शन को आए। बहुतसे रुपये-पैसे भी साधु के सामने पड़ने लगे। धीवर ने विचारा, आश्चर्य की बात है कि मैं सच्चा साधु नहीं हूँ, फिर भी मेरे ऊपर लोगों की इतनी भक्ति है! इसलिए यदि मैं हृदय से साधु हो जाऊँ तो अवश्य ही भगवान् मुझे मिलेंगे, इसमें सन्देह नहीं।
“कपट साधना से ही उसे इतना ज्ञान हुआ, सत्य साधना होने पर तो कोई बात ही नहीं। क्या सत्य है, क्या असत्य-साधना करने से तुम समझ सकोगे। ईश्वर ही सत्य हैं और सारा संसार अनित्य।”
एक भक्त चिन्ता कर रहे हैं, क्या संसार अनित्य है? धीवर तो संसार त्यागकर चला गया। फिर जो संसार में हैं उनका क्या होगा? उन लोगों को भी क्या त्याग करना होगा? श्रीरामकृष्ण अहेतुक कृपासिन्धु हैं, तत्काल कहते हैं, “यदि किसी आफिस के कर्मचारी को जेल जाना पड़े तो वह जेल में सजा काटेगा सही, पर जब जेल से मुक्त हो जाएगा, तब क्या वह रास्ते में नाचता फिरेगा? वह फिर किसी आफिस की नौकरी ढूँढ़ लेगा, वही पुराना काम करता रहेगा। इसी तरह गुरु की कृपा से ज्ञानलाभ होने पर मनुष्य संसार में भी जीवन्मुक्त होकर रह सकता है।”
यह कहकर श्रीरामकृष्ण ने सांसारिक मनुष्यों को अभय प्रदान किया।
(४)
श्रीरामकृष्ण और निराकारवाद। विश्वास ही सब कुछ है।
मणिलाल (श्रीरामकृष्ण से) - उपासना के समय उनका ध्यान किस जगह करेंगे?
श्रीरामकृष्ण - हृदय तो खूब प्रसिद्ध स्थान है। वहीं उनका ध्यान करना।
मणिलाल निराकारवादी ब्राह्म हैं। श्रीरामकृष्ण उन्हें लक्ष्य कर कहते हैं, “कबीर कहते थे -
‘निर्गुण तो है पिता हमारा और सगुण महतारी। काकों निन्दौ काकों बन्दौ दोनों पल्ले भारी॥’
“हलधारी दिन में साकार भाव में और रात को निराकार भाव में रहता था। बात यह है कि चाहे जिस भाव का आश्रय करो, विश्वास पक्का होना चाहिए। चाहे साकार में विश्वास करो चाहे निराकार में, परन्तु वह ठीक ठीक होना चाहिए।
“शम्भु मल्लिक बागबाजार से पैदल अपने बाग में आया करते थे। किसी ने कहा था, ‘इतनी दूर है, गाड़ी से क्यों नहीं आते? रास्ते में कोई विपत्ति हो सकती है।’ उस समय शम्भु ने नाराज होकर कहा था, ‘क्या मैं भगवान् का नाम लेकर निकला हूँ, फिर मुझे विपत्ति’?
“विश्वास से ही सब कुछ होता है। मैं कहता था यदि अमुक से भेंट हो जाय या यदि अमुक खजांची मेरे साथ बात करे तो समझूँ कि मेरी यह अवस्था सत्य है। परन्तु जो मन में आता, वही हो जाता था।”
मास्टर ने अंग्रेजी का न्यायशास्त्र पढ़ा था। उसमें लिखा है कि सबेरे के स्वप्न का सत्य होना लोगों के कुसंस्कार की ही उपज है। इसलिए उन्होंने पूछा, “अच्छा, कभी ऐसा भी हुआ है कि कोई घटना नहीं हुई?”
श्रीरामकृष्ण - “नहीं, उस समय सब हो जाता था। ईश्वर का नाम लेकर जो विश्वास करता था, वही हो जाता था। (मणिलाल से) पर इसमें एक बात है। सरल और उदार हुए बिना यह विश्वास नहीं होता। जिसके शरीर की हड्डियाँ दिखायी देती हैं, जिसकी आँखें छोटी और घुसी हुई हैं, जो ऐंचाताना है, उसे सहज में विश्वास नहीं होता। इसी प्रकार और भी कई लक्षण हैं।”
श्रीरामकृष्ण और सतीत्त्व धर्म
शाम हो गयी। दासी कमरे में धूनी दे गयी। मणिलाल आदि के चले जाने के बाद दो एक भक्त अभी बैठे हैं। कमरा शान्त और धूने से सुवासित है। श्रीरामकृष्ण अपने छोटे तख्त पर बैठे हुए जगन्माता का चिंतन कर रहे हैं। मास्टर और राखाल जमीन पर बैठे हैं।
थोड़ी देर बाद मथुरबाबू के घर की दासी भगवती ने आकर दूर से श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया। आपने उसे बैठने के लिए कहा। भगवती बाबू की बहुत पुरानी दासी है। बहुत साल से बाबू के यहाँ रह रही है। श्रीरामकृष्ण उसे बहुत दिनों से जानते हैं। पहले पहल उसका स्वभाव अच्छा न था; पर श्रीरामकृष्ण दया के सागर, पतितपावन हैं, इसीलिए उससे पुरानी बातें कर रहे है।
श्रीरामकृष्ण - अब तो तेरी उम्र बहुत हुई है। जो रुपये कमाए हैं उनसे साधुवैष्णवों को खिलाती है या नहीं?
भगवती (मुसकराकर) - यह भला कैसे कहूँ?
श्रीरामकृष्ण - काशी, वृन्दावन यह सब तो हो आयी?
भगवती (थोड़ा सकुचाती हुई) - कैसे बतलाऊँ? एक घाट बनवा दिया है उसमें पत्थर पर मेरा नाम लिखा है।
श्रीरामकृष्ण - ऐसी बात!
भगवती - हाँ, नाम लिखा है, ‘श्रीमती भगवती दासी।’
श्रीरामकृष्ण (मुसकराकर) - बहुत अच्छा।
भगवती ने साहस पाकर श्रीरामकृष्ण के चरण छूकर प्रणाम किया।
बिच्छू के काटने से जैसे कोई चौंक उठता है और अस्थिर हो खड़ा हो जाता है, वैसे ही श्रीरामकृष्ण अधीर हो, ‘गोविन्द’ ‘गोविन्द’ उच्चारण करते हुए खड़े हो गए। कमरे के कोने में गंगाजल का एक मटका था - और अब भी है - हाँफते हाँफते, मानो घबराए हुए, उसी के पास गए और पैर के जिस स्थान को दासी ने छुआ था, उसे गंगाजल से धोने लगे।
दो-एक भक्त जो कमरे में थे, स्तब्ध और चकित हो एकटक यह दृश्य देख रहे हैं। दासी जीवन्मृत की तरह बैठी है। दयासिन्धु पतितपावन श्रीरामकृष्ण ने दासी से करुणा से सने हुए स्वर में कहा, “तुम लोग ऐसे ही प्रणाम करना।” यह कहकर फिर आसन पर बैठकर दासी को बहलाने की चेष्टा करते रहे। उन्होंने कहा, “कुछ गाते हैं, सुन।” यह कहकर उसे गाना सुनाने लगे। -
(१) (भावार्थ) - “मेरा मनमधुप श्यामापद-नीलकमल में मस्त हो गया। कामादि पुष्पों में जितने विषय-मधु थे सब तुच्छ हो गए। . . . ”
(२) (भावार्थ) - “श्यामा माँ के चरणरूपी आकाश में मन की पतंग उड़ रही थी। कलुष की कुवायु से वह चक्कर खाकर गिर पड़ी। . . . ”
(३) (भावार्थ) - “मन! अपने आप में रहो। किसी दूसरे के घर न जाओ। जो कुछ चाहोगे वह बैठे हुए ही पाओगे, अपने अन्तःपुर में जरा खोजो तो सही! . . . ”
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