परिच्छेद १९ - विजयकृष्ण गोस्वामी आदि के प्रति उपदेश
(१)
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥ (गीता, २।२०)
मुक्त पुरुष का शरीर त्याग क्या आत्महत्या है?
दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर में श्रीयुत विजयकृष्ण गोस्वामी भगवान् श्रीरामकृष्ण के दर्शन करने आए हैं। उनके साथ तीन-चार ब्राह्मभक्त भी हैं। बृहस्पतिवार, १४ दिसम्बर १८८२ ई. । श्रीरामकृष्णदेव के परम भक्त बलराम बाबू के साथ ये लोग कलकत्ते से नाव पर चढ़कर आये हैं। श्रीरामकृष्ण दोपहर को जरा विश्राम कर रहे हैं। उनके पास रविवार को भीड़ ज्यादा होती है। इसीलिए जो भक्त उनसे एकान्त में बातचीत करना चाहते हैं, वे प्रायः दूसरे ही समय में आते हैं।
श्रीरामकृष्ण अपने तखत पर बैठे हुए हैं। विजय, बलराम, मास्टर और दूसरे भक्त उनकी ओर मुँह करके पश्चिमास्य बैठे हैं। कोई चटाई पर तो कोई फर्श ही पर बैठा है। कमरे के पश्चिम ओर के दरवाजे से गंगाजी दिखायी दे रही हैं। शीत ऋतु के कारण भागीरथी शान्त तथा स्वच्छ जल से पूर्ण है। दरवाजे के उस ओर पश्चिम का अर्धगोलाकार बरामदा है। बरामदे के नीचे फूलों का बगीचा और फिर गंगा का पुश्ता है। पुश्ते के पश्चिम अंग से सटकर पुण्यसलीला कलुषहारिणी गंगा मानो ईश्वरमन्दिर के पादमूल को आनन्द के साथ धोते हुए बहती जा रही है।
ठण्डकाल है, इसलिए सभी गरम कपड़े चढ़ाए हुए हैं। विजय को शूल की बहुत पीड़ा होती है, इसलिए वे अपने साथ दवा की शीशी ले आए हैं - दवा लेने का समय होने पर दवा लेंगे। इस समय विजय साधारण ब्राह्मसमाज में आचार्य की नौकरी करते हैं। उन्हें समाज की वेदी पर बैठकर उपदेश देना पड़ता है। परन्तु आजकल समाज के साथ अनेक विषयों पर उनका मतभेद हो रहा है। क्या किया जाय - नौकरी करते हैं, इसलिए अपनी इच्छा के अनुसार न तो कुछ कह सकते हैं, और न कर ही सकते हैं। विजय का जन्म एक अत्यन्त पवित्र और उच्च कुल में हुआ है। भगवान् श्रीचैतन्यदेव के एक प्रधान पार्षद अद्वैत गोस्वामी विजय के पूर्वपुरुष हैं। अद्वैत गौस्वामी ज्ञानी थे, निराकार परब्रह्म के चिन्तन में लीन रहते थे; पर साथ ही उन्होंने भक्ति की भी पराकाष्ठा दिखायी है। वे हरिप्रेम में मतवाले होकर नृत्य करते थे - इतने आत्मविस्मृत हो जाते थे कि नाचते नाचते अंग से वस्त्र तक खिसक जाते थे। विजय भी ब्रह्मसमाज में आए हैं, निराकार परब्रह्म का चिन्तन करते हैं; परन्तु अपने पूर्वज अद्वैत गोस्वामी के पवित्र रक्त की धारा उनकी देह में प्रवाहित हो रही है। हृदय में भगवत्प्रेम का अंकुर प्रकाशोन्मुख है, केवल समय की प्रतीक्षा कर रहा है। इसीलिए वे भगवान् श्रीरामकृष्ण की अपूर्व भगवत्प्रेमोन्मत्त अवस्था को देखकर मुग्ध हुए हैं। मन्त्रमुग्ध सर्प जिस प्रकार सँपेरे के सामने फन निकाले बैठा रहता है, उसी प्रकार विजय भी श्रीरामकृष्ण के श्रीमुख से निकलने वाले भगवत्प्रसंग को सुनते हुए मुग्ध होकर उनके पास बैठे रहते हैं। फिर वे जब भगवत्प्रेम में बालकों की भाँति नृत्य करने लगते हैं तब विजय भी उनके साथ नाचने लग जाते हैं।
विष्णु ‘एँड़ेदह’ में रहता था। उसने गले में छुरा लगाकर आत्महत्या कर ली। आज उसी की चर्चा हो रही है।
श्रीरामकृष्ण - देखो, उस लड़के ने आत्महत्या कर ली, जब से यह सुना, मन दुखी हो रहा है। यहाँ आता था, स्कूल में पढ़ता था, पर कहता था - संसार अच्छा नहीं लगता। पश्चिम चला गया था, किसी आत्मीय के यहाँ कुछ दिन ठहरा था। वहाँ निर्जन वन में, मैदान में, पहाड़ पर बैठा हुआ सदा ध्यान करता था। उसने मुझसे कहा था, न जाने ईश्वर के कितने रूपों के दर्शन करता हूँ।
“जान पड़ता है, यह अन्तिम जन्म था। पूर्वजन्म में बहुत-कुछ काम उसने कर डाला था। कुछ बाकी रह गया था, वह भी जान पड़ता है इस जन्म में पूरा हो गया।
‘पूर्वजन्म का संस्कार मानना चाहिए। मैंने सुना है, एक मनुष्य शवसाधना कर रहा था। घने जंगल में भगवती की आराधना कर रहा था। परन्तु वह अनेक प्रकार की विभीषिकाएँ देखने लगा। अन्त को उसे बाघ पकड़ ले गया। वहीं एक और आदमी बाघ के भय से पास के एक पेड़ पर चढ़कर बैठा हुआ था। शव तथा पूजा की अन्य सामग्रियाँ इकट्ठी देखकर वह उतर पड़ा। और आचमन करके शव के ऊपर बैठ गया। कुछ जप करते ही माँ प्रकट होकर बोलीं, ‘मैं तुझ पर प्रसन्न हूँ - तू वर माँग ।’ माता के पादपंकजों में प्रणत होकर वह बोला, ‘माँ, एक बात पूछता हूँ। तुम्हारा कार्य देखकर बड़ा आश्चर्य होता है। उस मनुष्य ने इतनी मेहनत की, इतना आयोजन किया, इतने दिनों से तुम्हारी साधना कर रहा था, उस पर तो तुम्हारी कृपा न हुई; प्रसन्न तुम मुझ पर हुई जो भजन-साधन-ज्ञान-भक्ति आदि कुछ नहीं जानता।’ हँसकर भगवती बोलीं, ‘बेटा, तुम्हें जन्मान्तर की बात याद नहीं है। तुम जन्म जन्म से मेरे लिए तपस्या कर रहे हो। उसी साधनबल से इस प्रकार सब कुछ तैयार पाया और तुम्हें मेरे दर्शन भी मिले। अब कहो, क्या वर चाहते हो?’ ”
मुक्त पुरुष का शरीरत्याग
एक भक्त बोल उठे, “आत्महत्या की बात सुनकर भय लगता है।”
श्रीरामकृष्ण - आत्महत्या करना महापाप है, घूम-फिरकर संसार में आना पड़ता है, और वही संसार-दुःख भोगना पड़ता है।
“परन्तु यदि कोई ईश्वर-दर्शन के बाद शरीर त्याग दे, तो उसे आत्महत्या नहीं कहते। उस प्रकार के शरीरत्याग में दोष नहीं है। ज्ञानलाभ के बाद कोई कोई शरीर छोड़ देते हैं। जब मिट्टी के साँचे में सोने की मूर्ति ढल जाती है, तब मिट्टी का साँचा चाहे कोई रखे, चाहे तोड़ दे।
“कई वर्ष हो गऐ, वराहनगर से एक लड़का आता था, उम्र कोई बीस साल की होगी। नाम गोपाल सेन था। जब यहाँ आता था तब उसको इतना भाव हो जाता था कि हृदय को उसे पकड़ रखना पड़ता था कि कहीं गिरकर उसके हाथ-पैर न टूट जाएँ।
“उस लड़के ने एक दिन एकाएक मेरे पैरों पर हाथ रखकर कहा, ‘मैं और न आ सकूँगा - अब मैं चला!’ कुछ दिन बाद सुना कि उसने देह छोड़ दी।”
(२)
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्॥ (गीता, ९।३३)
जीव के चार दर्जे। बद्ध जीव के लक्षण कामिनी-कांचन।
श्रीरामकृष्ण - जीव चार दर्जे के कहे गए हैं - बद्ध, मुमुक्षु, मुक्त और नित्य। संसार मानो जाल है और जीव मछली। ईश्वर, यह संसार जिनकी माया है, मछुए हैं। जब मछुए के जाल में मछलियाँ पड़ती हैं, तब कुछ मछलियाँ जाल चीरकर भागने की अर्थात् मुक्त होने की कोशिश करती हैं। उन्हें मुमुक्षु जीव कहना चाहिए। जो भागने की चेष्टा करती हैं उनमें से सभी नहीं भाग सकतीं। दो-चार मछलियाँ ही धड़ाम से कूदकर भाग जाती हैं। तब लोग कहते हैं, वह बड़ी मछली निकल गयी। ऐसे ही दो-चार मनुष्य मुक्त जीव हैं। कुछ मछलियाँ स्वभावतः ऐसी सावधानी से रहती हैं कि कभी जाल में आती ही नहीं। नारदादि नित्य जीव कभी संसार-जाल में नही फँसते। परन्तु प्रायः अधिकतर मछलियाँ जाल में पड़ जाती हैं, फिर भी उन्हें होश नहीं कि जाल में पड़ी हैं, अब मरना होगा। जाल में पड़ते ही जाल-सहित इधर से उधर भागती हैं, और सीधे कीच में घुसकर देह छिपाना चाहती हैं। भागने की कोई चेष्टा नहीं, बल्कि कीच में और गड़ जाती हैं। ये ही बद्ध जीव हैं। बद्ध जीव संसार में अर्थात् कामिनी कांचन में फँसे हुए हैं, कलंकसागर में मग्न हैं, पर सोचते हैं कि बड़े आनन्द में हैं! जो मुमुक्षु या मुक्त हैं, संसार उन्हें कूप जान पड़ता है, अच्छा नहीं लगता। इसीलिए कोई कोई ज्ञानलाभ, ईश्वरलाभ हो जाने पर शरीर छोड़ देते हैं, परन्तु इस तरह का शरीरत्याग बड़ी दूर की बात है।
“बद्ध जीवों - संसारी जीवों को किसी तरह होश नहीं होता। कितना दुःख पाते हैं, कितना धोका खाते हैं, कितनी विपदाएँ झेलते हैं, फिर भी बुद्धि ठिकाने नहीं आती।
“ऊँट कटीली घास को बहुत चाव से खाता है। परन्तु जितना ही खाता है उतना ही मुँह से धर धर खून गिरता है, फिर भी कटीली घास को खाना नहीं छोड़ता! संसारी मनुष्यों को इतना शोकताप मिलता है, किन्तु कुछ दिन बीते कि सब भूल गए। औरत गुजर गयी या बदचलन निकली, तो, फिर ब्याह कर लेता है। बच्चा मर गया, कितना दुःख पाया, पर कुछ ही दिनों में सब भूल जाता है। बच्चे की वही माँ जो मारे शोक के अधीर हो रही थी, कुछ दिन बीत जाने पर फिर बाल सँवारती, जूड़ा बाँधती और गहनों से सजती है। इसी तरह मनुष्य बेटी के ब्याह में कुल धन गँवा बैठता है, परन्तु हर साल बेटियों को पैदा करने में घाटा नहीं होने देता! मुकदमेबाजी से घर में एक कौड़ी नहीं रह जाती तो भी मुकदमे के लिए लोटा डोर टाँगे फिरते हैं! जितने लड़के पैदा हुए हैं, अच्छा भोजन, अच्छे कपड़े, अच्छा घर, उन्हीं को नहीं मिलता, ऊपर से हर साल एक और पैदा होता है!
“कभी कभी तो ‘साँप छछूँदर’ वाली गति होती है। न निगल सके, न उगल सके। बद्ध जीव कभी समझ भी गया कि संसार में कुछ है नहीं, सिर्फ गुठली चाटना है, तो भी वह उसे नहीं छोड़ सकता, ईश्वर की ओर मन नहीं ले जा सकता।
“केशव सेन के एक आत्मीय को देखा, उम्र कोई पचास साल की थी, पर ताश खेल रहा था। मानो ईश्वर का नाम लेने का समय नहीं आया!
“बद्ध जीव का एक और लक्षण है। यदि उसको संसार से हटाकर किसी अच्छी जगह पर ले जाओ, तो वह तड़प-तड़पकर मर जाएगा। विष्ठा के कीट को विष्ठा ही में आनन्द मिलता है। उसी से वह हृष्टपुष्ट होता है। उस कीट को अगर अन्न की हण्डी में रख दो तो वह मर जाएगा ।” (सब स्तब्ध हैं।)
(३)
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्। अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥ (गीता, ६।३५)
तीव्र वैराग्य तथा बद्ध जीव
विजय - बद्ध जीवों के मन की कैसी अवस्था हो तो मुक्ति हो सकती है? श्रीरामकृष्ण - ईश्वर की कृपा से तीव्र वैराग्य होने पर इस कामिनी-कांचन की आसक्ति से निस्तार हो सकता है। जानते हो तीव्र वैराग्य किसे कहते हैं? ‘बनत बनत बनि जाई’, ‘चलो राम भजो’, यह सब मन्द वैराग्य है। जिसे तीव्र वैराग्य होता है उसके प्राण भगवान् के लिए व्याकुल रहते हैं, जैसे अपनी कोख के बच्चे के लिए माँ व्याकुल रहती है। जिसको तीव्र वैराग्य होता है वह भगवान् को छोड़ और कुछ नहीं चाहता। संसार को वह कुआँ समझता है; उसे जान पड़ता है कि अब डूबा। आत्मीयों को वह काला नाग देखता है, उनके पास से उसकी भागने की इच्छा होती है और भागता भी है। ‘घर का काम पूरा कर लें तब ईश्वर की चिन्ता करेंगे’, यह उसके मन में आता ही नहीं। भीतर बड़ी जिद रहती है।
“तीव्र वैराग्य किसे कहते हैं, इसकी एक कहानी सुनो। किसी देश में एक बार वर्षा कम हुई। किसान नालियाँ काट-काटकर दूर से पानी लाते थे। एक किसान बड़ा हठी था। उसने एक दिन शपथ ली कि जब तक पानी न आने लगे, नहर से नाली का योग न हो जाए, तब तक बराबर नाली खोदूँगा। इधर नहाने का समय हुआ। उसकी स्त्री ने लड़की को उसे बुलाने भेजा। लड़की बोली, ‘पिताजी, दोपहर हो गयी, चलो तुमको माँ बुलाती है। ‘उसने कहा, ‘तू चल, हमें अभी काम है।’ दोपहर ढल गयी, पर वह काम पर डटा रहा। नहाने का नाम न लिया। तब उसकी स्त्री खेत में जाकर बोली, ‘नहाओगे कि नहीं? रोटियाँ ठण्डी हो रही हैं। तुम तो हर काम में हठ करते हो। काम कल करना या भोजन के बाद करना।’ गालियाँ देता हुआ कुदाल उठाकर किसना स्त्री को मारने दौड़ा बोला, ‘तेरी बुद्धि मारी गयी है क्या? देखती नहीं कि पानी नहीं बरसता; खेती का काम सब पड़ा है; अब की बार लड़के-बच्चे क्या खाएँगे? सब को भूखों मरना होगा। हमने यही ठान लिया है कि खेत में पहले पानी लायेंगे, नहाने-खाने की बात पीछे होगी।’ मामला टेढ़ा देखकर उसकी स्त्री वहाँ से लौट पड़ी। किसान ने दिनभर जी तोड़ मेहनत करके शाम के समय नहर के साथ नाली का योग कर दिया। फिर एक किनारे बैठकर देखने लगा, किस तरह नहर का पानी खेत में ‘कलकल’ स्वर से बहता हुआ आ रहा है, तब उसका मन शान्ति और आनन्द से भर गया। घर पहुँचकर उसने स्त्री को बुलाकर कहा, ‘ले आ अब डोल और रस्सी।’ स्नान भोजन करके निश्चिन्त होकर फिर वह सुख से खुर्राटे लेने लगा। जिद यह है और यही तीव्र वैराग्य की उपमा है।
“खेत में पानी लाने के लिए एक और किसान गया था। उसकी स्त्री जब गयी और बोली, ‘धूप बहुत हो गयी, चलो अब, इतना काम नहीं करते’, तब वह चुपचाप कुदाल एक ओर रखकर बोला, ‘अच्छा, तू कहती है तो चलो।’ (सब हँसते हैं।) वह किसान खेत में पानी न ला सका। यह मन्द वैराग्य की उपमा है।
“हठ बिना जैसे किसान खेत में पानी नहीं ला सकता, वैसे ही मनुष्य ईश्वरदर्शन नहीं कर सकता।”
(४)
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत। तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥ (गीता २।७०)
कामिनी-कांचन के लिए दासत्व
श्रीरामकृष्ण - पहले तुम इतना आते थे पर अब क्यों नहीं आते?
विजय - यहाँ आने की बड़ी इच्छा रहती है, परन्तु अब मैं स्वाधीन नहीं हूँ, ब्राह्मसमाज में नौकरी करता हूँ।
श्रीरामकृष्ण - कामिनी-कांचन जीव को बाँध लेते हैं। जीव की स्वाधीनता चली जाती है। कामिनी ही से कांचन की आवश्यकता होती है, जिसके लिए दूसरों की गुलामी की जाती है; फिर स्वाधीनता नहीं रहती, फिर तुम अपने मन का काम नहीं कर सकते।
“जयपुर में गोविन्दजी के पुजारी पहले-पहल अपना विवाह नहीं करते थे। तब वे बड़े तेजस्वी थे। एक बार राजा के बुलाने पर भी वे नहीं गए और कहा - ‘राजा ही को आने को कहो।’ फिर राजा और पंचों ने मिलकर उनका विवाह करा दिया। तब राजा से साक्षात् करने के लिए किसी को बुलाना नहीं पड़ा! वे खुद हाजिर होते थे। कहते ‘महाराज, आशीर्वाद देने आए हैं, यह निर्माल्य लाए हैं, धारण कीजिये।’ आज घर बनवाना है, आज लड़के का ‘अन्नप्राशन’ है, आज लड़के का पाठशाला जाने का शुभ मुहूर्त है इन्हीं कारणों से आना पड़ता है।
“बारह सौ ‘भगत’ और तेरह सौ ‘भगतिन’वाली कहावत तो जानते हो न! नित्यानन्द गोस्वामी के पुत्र वीरभद्र के तेरह सौ ‘भगत’ शिष्य थे। जब वे सिद्ध हो गए तब वीरभद्र डरे। वे सोचने लगे कि ये सब के सब सिद्ध हो गए, लोगों को जो कह देंगे वही होगा; जिधर से निकलेंगे वहीं भय है, क्योंकि मनुष्य बिना जाने यदि कोई अपराध कर डालेंगे तो उनका अहित होगा। यह सोचकर वीरभद्र ने उन्हें बुलाकर कहा, ‘तुम गंगातट से सन्ध्या-उपासना करके हमारे पास आओ।’ ‘भगत’ तब ऐसे तेजस्वी थे कि ध्यान करते ही करते समाधिमग्न हो गए। कब ज्वार का पानी सिर से बह गया, इसकी उन्हें खबर ही नहीं। भाटा हो गया, तथापि ध्यानभंग न हुआ। तेरह सौ भगतों में से एक सौ समझ गये थे कि वीरभद्र क्या कहेंगे। आचार्य की बात को टालना नहीं चाहिए, अतएव वे तो खिसक गए, वीरभद्र से साक्षात् नहीं किया। रहे बारह सौ भगत, वे वीरभद्र के पास लौटकर आए। वीरभद्र बोले, ‘ये तेरह सौ भगतिनें तुम्हारी सेवा करेंगी, तुम लोग इनसे विवाह करो।’ शिष्यों ने कहा, ‘जैसी आपकी आज्ञा; परन्तु हममें से एक सौ न जाने कहाँ चले गए।’ उन बारह सौ भगतों के साथ एक एक सेवादासी रहने लगी। फिर उनका वह तेज, तपस्याबल न रह गया। स्त्री के साथ रहने के कारण वह बल जाता रहा, क्योंकि उसके साथ स्वाधीनता नहीं रह जाती। (विजय से) तुम लोग स्वयं यह देखते हो; दूसरों का काम करते हुए क्या हो रहे हो। और देखो, इतनी परीक्षाएँ पास करनेवाले, इतनी अंग्रेजी जाननेवाले पण्डित नौकरी करते हुए सुबह-शाम मालिकों के बूट की ठोकरें खाते हैं। इसका कारण केवल ‘कामिनी’ है। विवाह करके यह हरी-भरी दुनिया उजाड़ने की इच्छा नहीं होती। इसीलिए यह अपमान, दासता की यह इतनी मार!
ईश्वरलाभ के उपरान्त कामिनी की मातृभाव से पूजा
“यदि एक बार उस प्रकार के तीव्र वैराग्य से भगवान् मिल जाएँ तो फिर स्त्रियों के प्रति आसक्ति नहीं रह जाती। घर में रहने से भी स्त्री की लालसा नहीं होती, फिर उससे कोई भय नहीं रहता। यदि एक चुम्बक-पत्थर बड़ा हो और एक छोटा, तो लोहे को कौन खींच सकता है? बड़ा ही खींच सकता है। ईश्वर बड़ा चुम्बक-पत्थर है और कामिनी छोटा चुम्बक-पत्थर है। तो भला कामिनी क्या कर सकेगी?”
एक भक्त - महाराज, स्त्रियों से घृणा करें?
श्रीरामकृष्ण - जिन्होंने ईश्वरलाभ कर लिया है, वे स्त्रियों को ऐसी दृष्टि से नहीं देखते, जिससे भय हो। वे यथार्थ देखते हैं कि स्त्रियों में ब्रह्ममयी माता का अंश है; और उन्हें माता जानकर उनकी पूजा करते हैं। (विजय से) तुम कभी कभी आया करो, तुम्हें देखने की बड़ी इच्छा होती है।
(५)
ईश्वरादेश प्राप्त होने के बाद आचार्य-पद
विजय - ब्राह्म समाज का काम करना पड़ता है, इसलिए हर समय नहीं आ सकता। अवकाश मिलने पर आऊँगा।
श्रीरामकृष्ण - देखो, आचार्य का काम बड़ा कठिन है। ईश्वर का प्रत्यक्ष आदेश पाए बिना लोकशिक्षा नहीं दी जा सकती।
“यदि आदेश पाए बिना ही उपदेश दिया जाय तो लोग उस ओर ध्यान नहीं देते, उस उपदेश में कोई शक्ति नहीं रहती। पहले साधना करके या जिस तरह हो, ईश्वर को प्राप्त करना चाहिए। उनकी आज्ञा मिलने पर फिर लेक्चर दिया जा सकता है! उस देश में ‘हालदारपुकुर’ नाम का एक तालाब है। उसके बाँध पर लोग पाखाना किया करते थे। जो लोग घाट पर आते थे, वे उन्हें खूब गालियाँ देते थे, खूब गुल-गपाड़ा मचाते थे, परन्तु गालियों से कोई काम न होता था। दूसरे दिन फिर वही हालत होती थी। अन्त को कम्पनी के चपरासी नोटिस लटका गए कि यहाँ शौच के लिए जाने की सख्त मनाही है; न माननेवाले को सजा दी जाएगी। इस नोटिस के बाद फिर वहाँ कोई शौच के लिए नहीं जाता था।
“उनके आदेश के बाद कहीं भी आचार्य हुआ जा सकता है और लेक्चर भी दिया जा सकता है। जिसको उनका आदेश मिलता है, उसे उनकी शक्ति भी मिलती है; तब वह आचार्य का कठिन काम कर सकता है।
“एक बड़े जमींदार से उसकी एक प्रजा मुकदमा लड़ रही थी। तब लोग समझ गए कि उस प्रजा के पीछे कोई जोरदार आदमी है; सम्भव है कि कोई बड़ा जमींदार ही उसकी ओर से मुकदमा चला रहा हो। मनुष्य साधारण जीव है, ईश्वर की शक्ति के बिना आचार्य जैसा कठिन काम वह नहीं कर सकता।”
सच्चिदानन्द ही गुरु और मुक्तिदाता है
विजय - महाराज, ब्राह्मसमाज में जो उपदेश दिए जाते हैं, क्या उनसे लोगों का उद्धार नहीं होता?
श्रीरामकृष्ण - मनुष्य में वह शक्ति कहाँ कि वह दूसरे को संसारबन्धन से मुक्त कर सके? यह भुवनमोहिनी माया जिनकी है, वे ही इस माया से मुक्त कर सकते हैं। सच्चिदानन्द गुरु को छोड़ और दूसरी गति नहीं है। जिसको ईश्वर-दर्शन नहीं हुआ, उनका आदेश नहीं मिला, जो ईश्वर की शक्ति से शक्तिशाली नहीं है, उसकी क्या मजाल कि जीवों का भवबन्धन-मोचन कर सके?
“मैं एक दिन पंचवटी के निकट झाऊतल्ले की ओर जा रहा था। एक मेढ़क की आवाज सुनायी दी - जान पड़ा कि साँप ने पकड़ा है। काफी देर बाद जब लौटने लगा तब भी उस मेढ़क की पुकार शुरू ही थी। बढ़कर देखा तो दिखायी दिया की एक कौड़ियाला साँप उस मेढ़क को पकड़े हुए है - न छोड़ सकता है, न निगल सकता है उस मेढ़क की भी भवव्यथा दूर नहीं हो रही है। तब मैंने सोचा कि यदि कोई असल साँप पकड़ता तो तीन ही पुकार में इसको चुप हो जाना पड़ता। इस कौड़ियाले ने पकड़ा है, इसीलिए साँप की भी दुर्दशा है और मेढ़क की भी!
“यदि सद्गुरु हो तो जीव का अहंकार तीन ही पुकार में दूर होता है। गुरु कच्चा हुआ तो गुरु की भी दुर्दशा है और शिष्य की भी। शिष्य का अहंकार दूर नहीं होता, न उसके भवबन्धन की फाँस ही कटती है। कच्चे गुरु के पल्ले पड़ा तो शिष्य मुक्त नहीं होता।”
(६)
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते। (गीता, ३।२७)
माया या अहंबुद्धि का नाश और ईश्वर-दर्शन
विजय - महाराज, हम लोग इस तरह बद्ध क्यों हो रहे हैं? ईश्वर को क्यों नहीं देख पाते?
श्रीरामकृष्ण - जीव का अहंकार ही माया है। यही अहंकार कुल आवरणों का कारण है। ‘मैं’ मरा कि बला टली। यदि ईश्वर की कृपा से ‘मैं अकर्ता हूँ’ यह ज्ञान हो गया तो वह मनुष्य तो जीवन्मुक्त हो गया। फिर उसे कोई भय नहीं।
“यह माया या ‘अहं’ मेघ की तरह है। मेघ का एक छोटासा ही टुकड़ा क्यों न हो, पर उसके कारण सूर्य नहीं दीख पड़ते। उसके हट जाने से ही सूर्य दीख पड़ते हैं। यदि श्रीगुरु की कृपा से एक बार अहंबुद्धि दूर हो जाय तो फिर ईश्वर के दर्शन होते हैं।
“सिर्फ ढाई हाथ की दूरी पर श्रीरामचन्द्र हैं, जो साक्षात् ईश्वर हैं; पर बीच में सीतारूपिणी माया का पर्दा पड़ा हुआ है, इसी कारण लक्ष्मणरूपी जीव को ईश्वर के दर्शन नहीं होते। यह देखो तुम्हारे मुँह के आगे मैं इस अँगौछे की ओट करता हूँ। अब तुम मुझे नहीं देख सकते। पर हूँ मैं तुम्हारे बिलकुल निकट। इसी तरह औरों की अपेक्षा भगवान् निकट हैं, परन्तु इस माया-आवरण के कारण तुम उनके दर्शन नहीं पाते।
“जीव तो स्वयं सच्चिदानन्दस्वरूप हैं, परन्तु इसी माया या अहंकार से वे नाना उपाधियों में पड़े हुए अपने स्वरूप को भूल गए हैं।
“एक एक उपाधि होती है, और जीवों का स्वभाव बदल जाता है। किसी ने काली धारीदार धोती पहनी कि देखना, प्रेमगीतों की तान मुँह से आप ही आप निकल पड़ती है, और ताश खेलना, सैरसपाटे के लिए निकलना तो हाथ में छड़ी लेकर - ये सब आप ही आप जुट जाते हैं! चाहे दुबला-पतला ही हो परन्तु बूट पहनते ही सीटी बजाना शुरू हो जाता है; सीढ़ियों पर चढ़ते समय साहबों की तरह उछलकर चढ़ता है! मनुष्य के हाथ में कलम रहे तो उसका यह गुण है कि कागज का जैसा-तैसा टुकड़ा पाते ही वह उस पर कलम घिसना शुरू कर देता है।
“रुपया भी एक विचित्र उपाधि है। रुपया होते ही मनुष्य एक दूसरी तरह का हो जाता है। वह पहले जैसा नहीं रह जाता। यहाँ एक ब्राह्मण आया जाया करता था। बाहर से वह बड़ा विनयी था। कुछ दिन बाद हम लोग कोन्नगर गए, हृदय साथ था। हम लोग नाव पर से उतरे कि देखा, वही ब्राह्मण गंगा के किनारे बैठा हुआ है। शायद हवाखोरी के लिए आया था। हम लोगों को देखकर बोला, ‘क्यों महाराज, कहो कैसे हो?’ उसकी आवाज सुनकर मैंने हृदय से कहा, ‘हृदय, सुना, इसके धन हो गया है, इसी से आवाज किरकिराने लगी’ हृदय हँसने लगा।
“किसी मेढ़क के पास एक रुपया था। वह एक बिल में रखा रहता था। एक हाथी उस बिल को लाँघ गया। तब मेढ़क बिल से निकलकर बड़े गुस्से में आकर लगा हाथी को लात दिखाने! और बोला, तुझे इतनी हिम्मत कि मुझे लाँघ जाय!’ रुपये का इतना अहंकार होता है!
अहंकार कब जाता है? ब्रह्मज्ञान की अवस्था सप्तभूमि
“ज्ञानलाभ होने से अहंकार दूर हो सकता है। ज्ञानलाभ होने से समाधि होती है। जब समाधि होती है, तभी अहंकार जाता है। ऐसा ज्ञानलाभ बड़ा कठिन है।
“वेदों में कहा है कि मन सप्तम भूमि पर जाने से समाधि होती है। समाधि होने से ही अहंकार दूर हो सकता है। मन प्रायः प्रथम तीन भूमियों में रहता है। लिंग, गुदा और नाभि ये ही वे तीन भूमियाँ हैं। तब मन संसार की ओर - कामिनी-कांचन की ओर खिंचा रहता है। जब मन हृदय में रहता है तब ईश्वरी ज्योति के दर्शन होते हैं। वह मनुष्य ज्योति देखकर कह उठता है - ‘यह क्या, यह क्या है!’ इसके बाद मन कण्ठ में आता है। तब केवल ईश्वर की ही चर्चा करने और सुनने की इच्छा होती है। कपाल या भौहों के बीच में जब मन आता है तब सच्चिदानन्द-रूप दीख पड़ता है। उस रूप को गले लगाने और उसे छूने की इच्छा होती है, परन्तु छुआ नहीं जाता। लालटेन के भीतर की बत्ती को कोई चाहे देख ले पर उसे छू नहीं सकता, जान पड़ता है कि छू लिया, परन्तु छू नहीं पाता। जब सप्तम भूमि पर मन जाता है तब अहं नहीं रह जाता, समाधि होती है ।”
विजय - वहाँ पहुँचने पर जब ब्रह्मज्ञान होता है, तब मनुष्य क्या देखता है?
श्रीरामकृष्ण - सप्तम भूमि में मन के जाने पर क्या होता है, मुँह से नहीं कहा जा सकता। नमक की गुड़िया समुंदर नापने गई। किन्तु जैसे पानी में उतरी वैसेही गल गई अब समुंदर के गहराई की खबर कौन देगी? जो देगी वही तो उसके साथ मिल गई। सप्तम भूमि में मन का नाश होता है, समाधि होती है। क्या अनुभव होता है वह मुँह से कहा नहीं जाता।
‘अहं’ जाता नहीं है। ‘बदमाश मैं।’ ‘दास मैं।’
“जो ‘मैं’ संसारी बनता है, कामिनी-कांचन में फँसता है, वह बदमाश ‘मैं’ है। जीव और आत्मा में भेद सिर्फ इसलिए है कि बीच में यह ‘मैं’ जुड़ा हुआ है। पानी पर अगर लाठी डाल दी जाए तो पानी दो हिस्सों में बँटा हुआ दीख पड़ता है। परन्तु वास्तव में है वह एक ही पानी; लाठी के कारण उसके दो हिस्से नजर आते हैं।
“यह लाठी ‘अहं’ ही है। लाठी उठा लो, वही एक जल रह जायगा।
“बदमाश ‘मैं’ वह है जो कहता है, ‘मुझे नहीं जानते हो! मेरे इतने रुपये हैं, क्या मुझसे भी कोई बड़ा आदमी है?’ यदि किसी ने दस रुपये चुरा लिये तो पहले वह चोर से रुपये छीन लेता है, फिर चोर की ऐसी मरम्मत करता है कि पसली पसली ढीली कर देता है; इतने पर भी उसको नहीं छोड़ता, पहरेवाले के हाथ सौंपता है और सजा दिलवाता है! ‘बदमाश मैं’ कहता है, ‘अरे, इसने मेरे दस रुपये चुराये थे, उफ, इतनी हिम्मत!’ ”
विजय - यदि बिना ‘अहं’ के दूर हुए सांसारिक भोगों से पिण्ड नहीं छूटने का - समाधि नहीं होने की, तो ज्ञानमार्ग पर आना ही अच्छा है, क्योंकि उससे समाधि होगी। यदि भक्तियोग में ‘अहं’ रह जाता है तो ज्ञानयोग ही अच्छा ठहरा।
श्रीरामकृष्ण - समाधि प्राप्त होकर एक दो मनुष्यों का अहंकार जाता है अवश्य, परन्तु प्रायः नहीं जाता। लाख विचार करो, पर देखना कि ‘अहं’ घूम-घामकर फिर उपस्थित है। आज बरगद का पेड़ काट डालो, कल सुबह को उसमें अंकुर निकला हुआ ही देखोगे। ऐसी दशा में यदि ‘मैं’ नहीं दूर होने का तो रहने दो साले को ‘दास मैं’ बना हुआ। ‘हे ईश्वर! तुम प्रभु हो, मैं दास हूँ’ इसी भाव में रहो। ‘मैं दास हूँ’, ‘मैं भक्त हूँ’ ऐसे ‘मैं’ में दोष नहीं। मिठाई खाने से अम्लशूल होता है, पर मिश्री मिठाइयों में नहीं गिनी जाती।
“ज्ञानयोग बड़ा कठिन है। देहात्मबुद्धि का नाश हुए बिना ज्ञान नहीं होता। कलियुग में प्राण अन्नगत है, अतएव देहात्मबुद्धि, अहंबुद्धि नहीं मिटती। इसलिए कलियुग के लिए भक्तियोग है। भक्तिपथ सीधा पथ है। हृदय से व्याकुल होकर उनके नाम का स्मरण करो, उनसे प्रार्थना करो, भगवान् मिलेंगे, इसमें कोई सन्देह नहीं।
“मानो जलराशि पर बिना बाँस रखे ही एक रेखा खींची गयी है, मानो जल के दो भाग हो गये हैं; परन्तु वह रेखा बड़ी देर तक नहीं रहती। ‘दास मैं’ या ‘भक्त का मैं’ अथवा ‘बालक का मैं’ ये सब ‘मैं’ की रेखाएँ मात्र हैं ।”
(७)
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्। अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ॥ (गीता, १२। ५)
भक्तियोग ही युगधर्म है। ज्ञानयोग की विशेष कठिनता ‘दास मैं’ ‘भक्त मैं’ और ‘बालक मैं’
विजय - महाराज, आप ‘बदमाश मैं’ को दूर करने के लिए कहते हैं, तो क्या ‘दास मैं’ में दोष नहीं?
श्रीरामकृष्ण - नहीं। ‘दास मैं’ अर्थात् ‘मैं ईश्वर का दास हूँ’, ‘मैं उनका भक्त हूँ’ इस अभिमान में दोष नहीं, बल्कि इससे भगवान् मिलते हैं।
विजय - अच्छा, तो ‘दास मैं’ वाले के काम-क्रोधादि कैसे होते हैं?
श्रीरामकृष्ण - अगर उसके भाव में पूरी सचाई आ जाय तो काम-क्रोधादि का आकार मात्र रह जाता है। यदि ईश्वरलाभ के बाद भी किसी का ‘दास मैं’ या ‘भक्त मैं’ बना रहा तो वह मनुष्य किसी का अनिष्ट नहीं कर सकता। पारस पत्थर छू जाने पर तलवार सोना हो जाती है; तलवार का स्वरूप तो रहता है, पर वह किसी की हिंसा नहीं करती।
“नारियल के पेड़ का पत्ता झड़ जाता है, उसकी जगह सिर्फ दाग बना रहता है, जिससे यह समझ लिया जाता है कि कभी यहाँ पत्ता लगा हुआ था। इसी तरह जिसको ईश्वर मिल गये हैं उसके अहंकार का चिह्न भर रह जाता है, काम-क्रोध का स्वरूप मात्र रह जाता है, उसकी बालक जैसी अवस्था हो जाती है। बालक सत्व, रज, तम में से किसी गुण के बंधन में नहीं आता। बालक जितनी जल्दी किसी वस्तु पर अड़ जाता है, उतनी ही जल्दी वह उसे छोड़ भी देता है। एक पाँच रुपये की कीमत का कपड़ा चाहे तुम धेले के खिलौने पर रिझाकर फुसला लो। पहले तो वह बहककर कहेगा, ‘नहीं, मैं न दूँगा, मेरे बाबूजी ने मोल ले दिया है।’ और लड़के के लिए सभी बराबर हैं। ये बड़े हैं, यह छोटा है, यह ज्ञान उसे नहीं; इसीलिए उसे जाति-पाँति का विचार भी नहीं है। माँ ने कह दिया है, ‘वह तेरा दादा है’, फिर चाहे वह कलार हो, वह उसी के साथ बैठकर रोटी खाता है। बालक को घृणा नहीं, शुचि और अशुचि पर ध्यान नहीं, शौच के लिए जाकर हाथ नहीं मटियाता।
“कोई कोई समाधि के बाद भी ‘भक्त का मैं’, ‘दास का मैं’ लेकर रहते हैं। ‘मैं दास हूँ, तुम प्रभु हो’, ‘मैं भक्त हूँ, तुम भगवान् हो।’ यह अभिमान भक्तों का बना रहता है। ईश्वरलाभ के बाद भी रहता है। सम्पूर्ण ‘मैं’ नहीं दूर होता। और फिर इसी अभिमान का अभ्यास करते करते ईश्वर-प्राप्ति भी होती है। यही भक्तियोग है।
“भक्ति के मार्ग पर चलने से भी ब्रह्मज्ञान होता है। भगवान् सर्वशक्तिमान हैं। वे इच्छा करें तो ब्रह्मज्ञान भी दे सकते हैं। भक्त प्रायः ब्रह्मज्ञान नहीं चाहते। ‘मैं दास हूँ, तुम प्रभु हो’, ‘मैं बच्चा हूँ, तू माँ हैं’ वे ऐसा अभिमान रखना चाहते हैं।”
विजय - जो लोग वेदान्त-विचार करते हैं, वे भी तो उन्हें पाते हैं?
श्रीरामकृष्ण - हाँ, विचारमार्ग से भी वे मिलते हैं। इसी को ज्ञानयोग कहते हैं। विचारमार्ग बड़ा कठिन है। सप्तभूमि की बात तो तुम्हें बतलायी है। सप्तम भूमि पर मन के पहुँचने से समाधि होती है, ‘ब्रह्म सत्य, जगत् मिथ्या’ यह बोध होने पर मन का लय होता है, समाधि होती है। परन्तु कलि में जीवों का प्राण अन्नगत है ‘ब्रह्म सत्य, जगत् मिथ्या’ का बोध फिर कैसे हो सकता है? ऐसा बोध देहबुद्धि के बिना दूर हुए नहीं हो सकता। ‘मैं न शरीर हूँ, न मन हूँ, न चौबीस तत्त्व हूँ, मैं सुख और दुःख से परे हूँ, मुझे फिर कैसा रोग, कैसा शोक, कैसी जरा, कैसी मृत्यु?’ - ऐसा बोध कलिकाल में होना कठिन है। चाहे जितना विचार करो, देहात्मबुद्धि कहीं न कहीं से आ ही जाती है। बड़ के पेड़ को काट डालो, तुम तो सोचते हो कि जड़समेत उखाड़ फेंका, पर दूसरे दिन सबेरे उसमें कनखा निकला ही हुआ देखोगे! देहाभिमान नहीं दूर होता; इसीलिए कलिकाल में भक्तियोग अच्छा है, सीधा है।
“और ‘मैं चीनी बन जाना नहीं चाहता, चीनी खाना ही मुझे अच्छा जान पड़ता है।’ मेरी कभी यह इच्छा नहीं होती कि कहूँ ‘मैं ही ब्रह्म हूँ।’ मैं तो कहता हूँ ‘तुम भगवान् हो, मैं तुम्हारा दास हूँ।’ पाँचवीं और छठी भूमि के बीच में चक्कर काटना अच्छा है। छठी भूमि को पार कर सप्तम भूमि में अधिक देर तक रहने की मेरी इच्छा नहीं होती। मैं उनका नामगुण-कीर्तन करूँगा, यही मेरी इच्छा है। सेव्य-सेवक भाव बड़ा अच्छा है। और देखो, ये तरंगें गंगा ही की हैं, परंतु तरंगों की गंगा है ऐसा कोई नहीं कहता। ‘मैं वही हूँ’ यह अभिमान अच्छा नहीं। देहात्मबुद्धि के रहते ऐसा अभिमान जिसको होता है उसकी बड़ी हानि होती है, फिर वह आगे बढ़ नहीं सकता, धीरे धीरे पतित हो जाता है। वह दूसरों की आँखों में धूल झोंकता है, साथ ही अपनी आँखों में भी; अपनी स्थिति का हाल वह नहीं समझ पाता।
भक्ति के दो प्रकार उत्तम अधिकारी ईश्वर दर्शन का उपाय
“परन्तु भेड़ियाधसान की भक्ति से ईश्वर नहीं मिलते, उन्हें पाने के लिए ‘प्रेमाभक्ति’ चाहिए। ‘प्रेमाभक्ति’ का एक और नाम है ‘रागभक्ति’। प्रेम या अनुराग के बिना भगवान् नहीं मिलते। ईश्वर पर जब तक प्यार नहीं होता तब तक उन्हें कोई प्राप्त नहीं कर सकता।
“और एक प्रकार की भक्ति है उसका नाम है ‘वैधीभक्ति’। इतना जप करना होगा, उपवास करना होगा, तीर्थयात्रा करनी होगी, इतने उपचारों से पूजा करनी होगी, बलिदान देना होगा - यह सब वैधीभक्ति है। इसका बहुत-कुछ अनुष्ठान करते करते क्रमशः रागभक्ति होती है। जब तक रागभक्ति न होगी, तब तक ईश्वर नहीं मिलेंगे। उन्हें प्यार करना चाहिए। जब संसारबुद्धि बिलकुल चली जाएगी - सोलह आना मन उन्हीं पर लग जाएगा, तब वे मिलेंगे।
“परन्तु किसी किसी को रागभक्ति अपने आप ही होती है। स्वतःसिद्ध, बचपन से ही। बचपन से ही वह ईश्वर के लिए रोता है, जैसे प्रह्लाद। ‘विधिवादीय’ भक्ति कैसी है? जैसे हवा लगने के लिए पंखा झलना। हवा के लिए पंखे की जरूरत है। ईश्वर पर अनुराग उत्पन्न करने के लिए जप, तप, उपवास आदि विधियाँ मानी जाती हैं; परन्तु जब दक्षिणी हवा आप बह चलती है तब लोग पंखा रख देते हैं। ईश्वर पर अनुराग, प्रेम, आप आ जाने से जप, तप आदि कर्म छूट जाते हैं। भगवत्प्रेम में मस्त हो जाने से वैध कर्म करने के लिए फिर किसको समय है?
“जब तक उन पर प्यार नहीं होगा, तब तक वह भक्ति कच्ची भक्ति है। जब उन पर प्यार होता है, तब वह भक्ति पक्की भक्ति कहलाती है।
“जिसकी भक्ति कच्ची है वह ईश्वर की कथा और उपदेशों की धारणा नहीं कर सकता। पक्की भक्ति होने पर ही धारणा होती है। फोटोग्राफ के शीशे पर अगर स्याही (Silver Nitrate) लगी हो तो जो चित्र उस पर पड़ता है वह ज्यों का त्यों उतर जाता है, परन्तु सादे शीशे पर चाहे हजारों चित्र दिखाए जाए, एक भी नहीं उतरता। शीशे पर से चित्र हटा कि वही ज्यों का त्यों सफेद शीशा! ईश्वर पर प्रीति हुए बिना उपदेशों की धारणा नहीं होती ।”
विजय - महाराज, ईश्वर को कोई प्राप्त करना चाहे, उनके दर्शन करना चाहे, तो क्या सिर्फ भक्ति से काम सध जाएगा?
श्रीरामकृष्ण - हाँ, भक्ति ही से उनके दर्शन हो सकते हैं। परन्तु पक्की भक्ति, प्रेमाभक्ति, रागभक्ति चाहिए। उसी भक्ति से उन पर प्रीति होती है, जैसा बच्चों का माँ पर प्यार, माँ का बच्चे पर प्यार और पत्नी का पति पर प्यार होता है।
“इस प्यार, इस रागभक्ति के होने पर, स्त्री-पुत्र और आत्मीय परिवार की ओर पहले जैसा आकर्षण नहीं रह जाता, फिर तो उन पर दया होती है। घर-द्वार विदेश जैसा जान पड़ता है, उसे देखकर सिर्फ एक कर्मभूमि का ख्याल जागता है; जैसे घर देहात में और कलकत्ता है कर्मभूमि, कलकत्ते में किराये के मकान में रहना पड़ता है कर्म करने के लिए। ईश्वर पर प्यार होने से संसार की आसक्ति - विषयबुद्धि - बिलकुल जाती रहेगी!
“विषयबुद्धि का लेशमात्र रहते उनके दर्शन नहीं हो सकते। दियासलाई अगर भीगी हो तो चाहे जितना रगड़ो वह जलती ही नहीं - बीसों दियासलाई व्यर्थ ही बरबाद हो जाती हैं। विषयासक्त मन भीगी दियासलाई है।
“श्रीमती (राधिका) ने जब कहा, ‘मैं सर्वत्र कृष्णमय देखती हूँ’, तब सखियाँ बोलीं, ‘कहाँ, हम तो उन्हें नहीं देखतीं तुम प्रलाप तो नहीं कर रही हो?’ श्रीमती बोलीं, ‘सखियों, नेत्रों में अनुराग का अंजन लगा लो, तभी उन्हें देखोगी।’ (विजय से) तुम्हारे ब्राह्मसमाज ही के भजन में है - ‘प्रभो, बिना अनुराग के यज्ञ-यागादि करके क्या तुम्हें जाना जा सकता है?’
“यह अनुराग, यह प्रेम, यह सच्ची भक्ति, यह प्यार यदि एक बार भी हो तो साकार और निराकार दोनों मिल जाते हैं।”
ईश्वर-दर्शन उनकी कृपा बिना नहीं होता
विजय - महाराज, क्या किया जाय जो ईश्वर-दर्शन हो।
श्रीरामकृष्ण - चित्तशुद्धि के बिना ईश्वर के दर्शन नहीं होते। कामिनी-कांचन में पड़कर मन मलिन हो गया है, उसमें जंग लग गया है। सुई में कीच लग जाने से उसे चुम्बक नहीं खींच सकता, मिट्टी साफ कर देने ही से चुम्बक खींचता है। मन का मैल नेत्रजल से धोया जा सकता है। ‘हे ईश्वर, अब ऐसा काम न करूँगा’ यह कहकर यदि कोई अनुताप करता हुआ रोये तो मैल धुल जाता है। तब ईश्वररूपी चुम्बक मनरूपी सुई को खींच लेता है। तब समाधि होती है, ईश्वर के दर्शन होते हैं।
“परन्तु चेष्टा चाहे जितनी करो, बिना उनकी कृपा के कुछ नहीं होता। उनकी कृपा बिना उनके दर्शन नहीं मिलते। और कृपा भी क्या सहज ही होती है? अहंकार का सम्पूर्ण त्याग कर देना चाहिए। मैं कर्ता हूँ, इस ज्ञान के रहते ईश्वर-दर्शन नहीं होते। भाण्डार में अगर कोई हो, और तब घर के मालिक से अगर कोई कहे कि आप खुद चलकर चीजें निकाल दीजिए, तो वह यही कहता है, ‘है तो वहाँ एक आदमी, फिर मैं क्यों जाऊँ?’ जो खुद कर्ता बन बैठा है, उसके हृदय में ईश्वर सहज ही नहीं आते।
“कृपा होने से दर्शन होते हैं। वे ज्ञानसूर्य हैं। उनकी एक ही किरण से संसार में यह ज्ञानालोक फैला हुआ है। उसी से हम एक-दूसरे को पहचानते हैं और संसार में कितनी ही तरह की विद्याएँ सीखते हैं। अपना प्रकाश यदि वे एक बार अपने मुँह के सामने रखें तो दर्शन हो जाएँ। सार्जण्ट रात को अंधेरे में हाथ में लालटेन लेकर घूमता है, पर उसका मुँह कोई नहीं देख पाता। पर उसी लालटेन के उजाले में वह सब को देखता है और आपस में सभी एक दूसरे का मुँह देखते हैं।
“यदि कोई सार्जण्ट को देखना चाहे तो उससे विनती करे, कहे - ‘साहब, जरा लालटेन अपने मुँह के सामने लगाइए; आपको एक नजर देख लूँ ।’
“ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि भगवन्, एक बार कृपा करके आप अपना ज्ञानालोक अपने श्रीमुख पर धारण कीजिए, मैं आपके दर्शन करूँगा।
“घर में यदि दीपक न जले तो वह दारिद्र का चिह्न है। हृदय में ज्ञान का दीपक जलाना चाहिए। ‘हृदय-मन्दिर में ज्ञान का दीपक जलाकर ब्रह्ममयी का श्रीमुख देखो’।”
विजय अपने साथ दवा भी लाए हैं। श्रीरामकृष्ण के सामने पीएँगे। दवा पानी में मिलाकर पी जाती है। श्रीरामकृष्ण ने पानी मँगवाया। श्रीरामकृष्ण अहेतुक कृपासिन्धु हैं; विजय किराये की गाड़ी या नाव द्वारा आने में असमर्थ हैं, इसलिए कभी कभी वे खुद आदमी भेजकर उन्हें बुला लेते हैं। इस बार बलराम को भेजा था। किराया बलराम देंगे। विजय बलराम के साथ आए हैं। शाम के समय विजय, नवकुमार और उनके दूसरे साथी बलराम की नाव पर चढ़े। बलराम उन्हें बागबाजार के घाट पर उतार देंगे। मास्टर भी साथ हो गए।
नाव बागबाजार के अन्नपूर्णाघाट पर लगायी गयी। जब ये लोग उतरकर बागबाजार में बलराम के मकान के निकट पहुँचे तब चाँदनी फैलने लगी थी। शुक्ल पक्ष की चतुर्थी है। ठण्डी का मौसम है, थोड़ी थोड़ी ठण्डी लग रही है।
हृदय में श्रीरामकृष्ण की आनन्दमय मूर्ति का चिन्तन तथा उनके अमृतोपम उपदेशों का मनन करते हुए विजय, बलराम, मास्टर आदि अपने अपने घर पहुँचे।
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