परिच्छेद ४० - दक्षिणेश्वर में भक्तों के साथ
(१)
गृहस्थाश्रम के सम्बन्ध में उपदेश
आज गंगापूजा, ज्येष्ठ शुक्ला दशमी, शुक्रवार का दिन है; तारीख १५ जून १८८३ ई. । भक्तगण श्रीरामकृष्ण के दर्शन करने के लिए दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर में आए हैं। गंगापूजा के उपलक्ष्य में अधर और मास्टर को छुट्टी मिली है।
राखाल के पिता और पिता के ससुर आए हैं। पिता ने दूसरी बार विवाह किया है। ससुर महाशय श्रीरामकृष्ण का नाम बहुत दिनों से सुनते आ रहे हैं; वे साधक पुरुष हैं, श्रीरामकृष्ण के दर्शन करने आए हैं। श्रीरामकृष्ण उन्हें रुक-रुकरकर देख रहे हैं। भक्तगण जमीन पर बैठे हैं।
ससुर महाशय ने पूछा, “महाराज, क्या गृहस्थाश्रम में भगवान् का लाभ हो सकता है?”
श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - क्यों नहीं हो सकता? कीचड़ में रहनेवाली मछली की तरह रहो। वह कीचड़ में रहती है, पर उसके शरीर में कीचड़ नहीं लगता। और असती स्त्री की तरह रहो जो घर का सारा कामकाज करती है, पर उसका मन अपने उपपति की ओर ही रहता है। ईश्वर से मन लगाए रखकर गृहस्थी का सब काम करो। परन्तु यह है बड़ा कठिन। मैंने ब्राह्मसमाजवालों से कहा था कि जिस कमरे में इमली का अचार और पानी का मटका है, यदि उसी कमरे में सन्निपात का रोगी भी रहे तो बीमारी किस तरह दूर हो? फिर इमली की याद आते ही मुँह में पानी भर आता है। पुरुषों के लिए स्त्रियाँ इमली के अचार की तरह हैं। और विषय की तृष्णा तो सदा लगी ही है; यही पानी का मटका है। इस तृष्णा का अन्त नहीं है। सन्निपात का रोगी कहता है कि मैं एक मटका पानी पीऊँगा! बड़ा कठिन है। संसार में बहुत कठिनाईयाँ हैं। जिधर जाओ उधर ही कोई न कोई बला आ खड़ी हो जाती है। और निर्जन स्थान न होने के कारण भगवान् की चिन्ता नहीं होती। सोने को गलाकर गहना गढ़ाना है, तो यदि गलाते समय कोई दस बार बुलाए, तो सोना किस तरह गलेगा? चावल छाँटते समय अकेले बैठकर छाँटना होता है। हर बार चावल हाथ में लेकर देखना पड़ता है कि कैसा साफ हुआ। छाँटते समय यदि कोई दस बार बुलाये तो अच्छी तरह छाँटना कैसे हो सकता है?
तीव्र वैराग्य। पाप-पुण्य। संसारव्याधि की महौषधी संन्यास
एक भक्त - महाराज, फिर उपाय क्या है?
श्रीरामकृष्ण - उपाय है। यदि तीव्र वैराग्य हो तो हो सकता है। जिसे मिथ्या समझते हो उसे हठपूर्वक उसी समय त्याग दो। जिस समय मैं बहुत बीमार था, गंगाप्रसाद सेन के पास लोग मुझे ले गए। गंगाप्रसाद ने कहा, ‘यह औषधि खानी पड़ेगी पर जल नहीं पी सकते। हाँ, अनार का रस पी सकते हो।’ सब लोगों ने सोचा कि बिना जल पिए मैं कैसे रह सकता हूँ। मैंने निश्चय किया कि अब जल न पीऊँगा। मैं ‘परमहंस’ हूँ। मैं बतख थोड़े ही हूँ, - मैं तो राजहंस हूँ दूध पिया करूँगा।
“कुछ काल निर्जन में रहना पड़ता है। खेल के समय पाला छू लेने पर फिर भय नहीं रहता। सोना हो जाने पर जहाँ जी चाहे रहो। निर्जन में रहकर यदि भक्ति मिली हो और भगवान् मिल चुके हों, तो फिर संसार में भी रह सकते हो। (राखाल के पिता के प्रति) इसीलिए तो लड़कों को यहाँ रहने के लिए कहता हूँ; क्योंकि यहाँ थोड़े दिन रहने पर भगवान् में भक्ति होगी; उसके बाद सहज ही संसार में जाकर रह सकेंगे।”
एक भक्त - यदि ईश्वर ही सब कुछ करते हैं, तो फिर लोग भला और बुरा, पाप और पुण्य, यह सब क्यों कहते हैं? तब तो पाप भी उन्हीं की इच्छा से होता है!
राखाल के पिता के ससुर - उनकी इच्छा को हम कैसे समझें?
श्रीरामकृष्ण - पाप और पुण्य हैं, पर वे स्वयं निर्लिप्त हैं। वायु में सुगन्ध भी है और दुर्गन्ध भी, परन्तु वायु स्वयं निर्लिप्त है। ईश्वर की सृष्टि ऐसी ही है। भला-बुरा, सत-असत् - दोनों हैं। जैसे पेड़ों में कोई आम का पेड़ है, कोई कटहल का, कोई किसी और चीज का। देखो न, दुष्ट आदमियों की भी आवश्यकता है। जिस तालुके की प्रजा उद्दण्ड होती है, वहाँ एक दुष्ट आदमी भेजना पड़ता है, तब कहीं तालुके का ठीक शासन होता है। फिर गृहस्थाश्रम के सम्बन्ध में बात चली।
श्रीरामकृष्ण (भक्तों से) - बात यह है, संसार करने पर मन की शक्ति का अपव्यय होता है। इस अपव्यय से जो हानि होती है वह तभी पूरी हो सकती है जब कोई संन्यास ले। पिता प्रथम जन्मदाता है। उसके बाद द्वितीय जन्म उपनयन के समय होता है। एक बार फिर जन्म होता है, संन्यास के समय। कामिनी और कांचन - ये ही दो विघ्न हैं। स्त्री की आसक्ति पुरुष को ईश्वर के मार्ग से डिगा देती है। किस तरह पतन होता है, यह पुरुष नहीं जान सकता। किले के अन्दर जाते समय यह बिलकुल न जान सका कि ढालू रास्ते से जा रहा हूँ। जब किले के अन्दर गाड़ी पहुँची तो मालूम हुआ कि कितने नीचे आ गया हूँ! स्त्रियाँ पुरुषों को कुछ नहीं समझने देतीं। कप्तान* कहता है, मेरी स्त्री ज्ञानी है! भूत जिस पर सवार होता है, वह नहीं जानता कि भूत सवार है, वह कहता है कि मैं आनन्द में हूँ। (सभी निस्तब्ध हैं।)
श्रीरामकृष्ण - संसार में केवल काम का ही नहीं, क्रोध का भी भय है। कामना के मार्ग में रुकावट होने से ही क्रोध पैदा हो जाता है।
मास्टर - भोजन करते समय मेरी थाली से बिल्ली कुछ खाना उठा लेने को बढ़ती है, मैं कुछ नहीं बोल सकता।
श्रीरामकृष्ण - क्यों! एक बार मारते क्यों नहीं? उसमें क्या दोष है? गृहस्थ को फुफकारना चाहिए, पर विष न उगलना चाहिए। किसी को हानि नहीं पहुँचानी चाहिए, पर शत्रुओं के हाथ से बचने के लिए क्रोध का आभास दिखलाना चाहिए; नहीं तो शत्रु आकर उसे हानि पहुँचाएँगे। पर त्यागी के लिए फुफकारने की भी आवश्यकता नहीं है।
एक भक्त - महाराज, संसार में रहकर भगवान् को पाना बड़ा ही कठिन देखता हूँ। कितने आदमी ऐसे हो सकते हैं? ऐसा तो कोई देखने में नहीं आता।
श्रीरामकृष्ण - क्यों नहीं होगा? उधर सुना है कि एक डिप्टी है। बड़ा अच्छा आदमी है। प्रतापसिंह उसका नाम है। दानशीलता, ईश्वर की भक्ति आदि बहुतसे गुण उसमें हैं। मुझे लेने के लिए आदमी भेजा था। ऐसे लोग भी तो है।
(२)
साधना का प्रयोजन। गुरुवाक्य में विश्वास। व्यास का विश्वास
श्रीरामकृष्ण - साधना की बड़ी आवश्यकता है। फिर क्यों नहीं होगा? यदि ठीक ठीक विश्वास हो, तो अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ता। चाहिए गुरु के वचनों पर विश्वास।
“व्यासदेव यमुना के उस पार जाएँगे इतने में वहाँ गोपियाँ आयीं। वे भी पार जाएँगी, पर नाव नहीं मिलती। गोपियों ने कहा, ‘महाराज, अब क्या किया जाय?’ व्यासदेव ने कहा, ‘अच्छा, तुम लोगों को पार किए देता हूँ; पर मुझे बड़ी भूख लगी है, तुम्हारे पास कुछ हैं?’ गोपियों के पास दूध, दही, मक्खन आदि था सब कुछ उन्होंने खाया। गोपियों ने कहा, ‘महाराज, अब पार जाने का क्या हुआ?’ व्यासदेव तब किनारे पर जाकर खड़े हुए और कहने लगे, ‘हे यमुने, यदि आज मैंने कुछ न खाया हो तो तुम्हारा जल दो भागों में बँट जाय’ यह कहते ही जल अलग-अलग हो गया। गोपियाँ यह देखकर दंग रह गयीं; सोचने लगीं, इन्होंने अभी अभी तो इतनी चीजें खायी हैं, फिर भी कहते हैं, ‘यदि आज मैंने कुछ न खाया हो’
“यही दृढ़ विश्वास है। मैंने नहीं - हृदय में जो नारायण हैं उन्होंने खाया है।
“शंकराचार्य तो ब्रह्मज्ञानी थे, पर पहले उनमें भेदबुद्धि भी थी। वैसा विश्वास न था। चाण्डाल माँस का बोझ लिए आ रहा था, वे गंगास्नान करके ही उठे थे कि चाण्डाल से स्पर्श हो गया। कह उठे, ‘अरे! तूने मुझे छू लिया!’ चाण्डाल ने कहा, ‘महाराज, न आपने मुझे छुआ न मैंने आपको! शुद्ध आत्मा - न वह शरीर है, न पंचभूत है, और न चौबीस तत्त्व है।’ तब शंकर को ज्ञान हुआ।
“जड़भरत राजा रहुगण की पालकी ले जाते समय जब आत्मज्ञान की बातें करने लगे, तब राजा ने पालकी से नीचे उतरकर कहा, ‘आप कौन हैं? जड़भरत ने कहा, ‘नेति नेति - मैं शुद्ध आत्मा हूँ।’ उनका पक्का विश्वास था कि वे शुद्ध आत्मा हैं।
ज्ञानयोग और भक्तियोग
“सोऽहम्। मैं शुद्ध आत्मा हूँ - यह ज्ञानियों का मत है। भक्त कहते हैं, यह सब भगवान् का ऐश्वर्य है। धनी का ऐश्वर्य न होने से उसे कौन जान सकता है? पर यदि साधक की भक्ति देखकर ईश्वर कहेंगे कि जो मैं हूँ, वही तू भी है, तब दूसरी बात है। राजा बैठे हैं, उस समय नौकर यदि सिंहासन पर जाकर बैठ जाय और कहे, ‘राजा, जो तुम हो वही मैं भी हूँ’, तो लोग उसे पागल कहेंगे। पर यदि नौकर की सेवा से सन्तुष्ट हो राजा एक दिन यह कहें, ‘आ जा, तू मेरे पास बैठ, इसमें कोई दोष नहीं; जो तू है वही मैं भी हूँ!’ और तब यदि वह जाकर बैठे तो उसमें कोई दोष नहीं है। एक साधारण जीव का यह कहना कि सोऽहम् - मैं वही हूँ - अच्छा नहीं है। जल की ही तरंग होती है तरंग का जल थोड़े ही होता है।
“बात यह है कि मन स्थिर न होने से योग नहीं होता, तुम चाहे जिस राह से चलो। मन योगी के वश में रहता है, योगी मन के वश में नहीं।
‘मन स्थिर होने पर वायु स्थिर होती है - उससे कुम्भक होता है। वह कुम्भक भक्तियोग से भी होता है, भक्ति से वायु स्थिर हो जाती है। ‘मेरे निताई मस्त हाथी हैं!’ ‘मेरे निताई मस्त हाथी हैं!’ यह कहते कहते जब भाव हो जाता है, तब वह मनुष्य पूरा वाक्य नहीं कह सकता, केवल ‘हाथी हैं’ ‘हाथी हैं’ कहता है। इसके बाद सिर्फ ‘हा -’ इतना ही! भाव से वायु स्थिर होती है, और उससे कुम्भक होता है।
“एक आदमी झाडू दे रहा था कि किसी ने आकर कहा, ‘अजी, अमुक मर गया!’ जो झाडू दे रहा था, उसका यदि वह अपना आदमी न हुआ, तो वह झाडू देता ही रहता है और बीच बीच में कहता है, ‘दुःख की बात है, वह आदमी मर गया! बड़ा अच्छा आदमी था।’ इधर झाडू भी चल रहा है। परन्तु यदि कोई अपना हुआ तो झाडू उसके साथ से छूट जाता है, और ‘हाय!’ कहकर वह बैठ जाता है। उस समय उसकी वायु स्थिर हो जाती है; कोई काम या विचार उससे फिर नहीं हो सकता। औरतों में नहीं देखा - यदि कोई निर्वाक् होकर कुछ देखे या सुने तो दूसरी औरतें उससे कहती हैं, ‘क्यों, क्या तुझे भाव हुआ हैं?’ यहाँ पर भी वायु स्थिर हो गयी है, इसी से निर्वाक् होकर मुँह खोले रहती है।
ज्ञानी के लक्षण। साधना-सिद्ध और नित्य-सिद्ध
“सोऽहम् सोऽहम् कहने से ही नहीं होता। ज्ञानी के लक्षण हैं। नरेन्द्र के नेत्र उभरे हुए हैं। इनके भी कपाल और नेत्र का लक्षण अच्छा है।
“फिर सब की एक-सी हालत नहीं होती। जीव चार प्रकार के कहे गए हैं - बद्ध, मुमुक्षु, मुक्त और नित्य। सभी को साधना करनी पड़ती है, यह बात भी नहीं है। नित्यसिद्ध और साधना-सिद्ध, दो तरह के साधक हैं। कोई अनेक साधनाएँ करने पर ईश्वर को पाता है; कोई जन्म से ही सिद्ध है, जैसे प्रह्लाद। ‘होमा’ नाम की चिड़िया आकाश में रहती है। वहीं वह अण्डा देती है। अण्डा आकाश से गिरता है और गिरते ही गिरते वह फूट जाता है, और उससे बच्चा निकलकर गिरता है।वह इतने ऊँचे पर से गिरता है कि गिरते ही गिरते उसके पंख निकल आते हैं। जब वह पृथ्वी के पास आ जाता है तब देखता है कि जमीन से टकराते ही वह चूरचूर हो जाएगा। तब वह सीधे ऊपर उड़ जाता है - अपनी माँ के पास!
“प्रह्लाद आदि नित्य-सिद्ध भक्तों की साधना बाद में होती है।साधना के पहले ही उन्हें ईश्वर का लाभ होता है, जैसे लौकी, कुम्हड़े का पहले फल, और उसके बाद फूल होता है। (राखाल के पिता से) नीच वंश में भी यदि नित्य-सिद्ध जन्म ले तो वह वही होता है, दूसरा कुछ नहीं होता। चने के मैली जगह में गिरने पर भी चने का ही पेड़ होता है।
शक्ति का तारतम्य विद्यासागर
“ईश्वर ने किसी को अधिक शक्ति दी है, किसी को कम। कहीं पर एक दिया जल रहा है, कहीं पर एक मशाल। विद्यासागर की बात से जान लिया कि उनकी बुद्धि की पहुँच कितनी दूर है। जब मैंने शक्तिविशेष की बात कही, तब विद्यासागर ने कहा, ‘महाराज, तो क्या ईश्वर ने किसी को अधिक शक्ति दी है ओर किसी को कम?’ मैंने भी कहा, ‘फिर क्या? शक्ति की कमी-बेशी हुए बिना तुम्हारा इतना नाम क्यों है? तुम्हारी विद्या, तुम्हारी दया, यही सब सुनकर तो हम लोग आए हैं। तुम्हारे कोई दो सींग तो निकले नहीं हैं!’ विद्यासागर की इतनी विद्या और इतना नाम होते हुए भी उन्होंने ऐसी कच्ची बात कह दी! बात यह है कि जाल में पहले-पहल बड़ी मछलियाँ पड़ती हैं; रोहू, कातल आदि। उसके बाद मछुआ पैर से कीचड़ को घोंट देता है। तब तरह तरह की छोटी छोटी मछलियाँ निकल आती हैं, और तुरन्त फँस जाती हैं। ईश्वर को न जानने से थोड़ी ही देर में भीतर से छोटी छोटी मछलियाँ (कच्ची बातें) निकल पड़ती हैं! केवल पण्डित होने से क्या होगा?”
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