परिच्छेद ८ - दक्षिणेश्वर में केदार द्वारा आयोजित उत्सव
दक्षिणेश्वर के मन्दिर में श्रीरामकृष्ण केदार आदि भक्तों के साथ वार्तालाप कर रहे हैं। आज रविवार, अमावस्या, १३ अगस्त १८८२ ई. है, समय दिन के पाँच बजे का होगा।
श्री केदार चटर्जी का मकान हालीशहर में है। ये सरकारी अकाउन्टेन्ट का काम करते थे। बहुत दिन ढाका में रहे। उस समय श्री विजय गोस्वामी उनके साथ सदा श्रीरामकृष्ण के विषय में वार्तालाप करते थे। ईश्वर की बात सुनते ही उनकी आँखों में आँसू भर आते थे। वे पहले ब्राह्मसमाज में थे।
श्रीरामकृष्ण अपने कमरे के दक्षिणवाले बरामदे में भक्तों के साथ बैठे हैं। राम, मनोमोहन, सुरेन्द्र, राखाल, भवनाथ, मास्टर आदि अनेक भक्त उपस्थित हैं। केदार ने आज उत्सव किया है; सारा दिन आनन्द से बीत रहा है। राम ने एक गायक बुलाया है। उन्होंने गाना गाया। गाने के समय श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न होकर कमरे में छोटी खाट पर बैठे हैं। मास्टर तथा अन्य भक्तगण उनके पैरों के पास बैठे हैं।
समाधितत्त्व तथा सर्वधर्मसमन्वय हिन्दु, मुसलमान और ईसाई
श्रीरामकृष्ण वार्तालाप करते करते समाधितत्त्व समझा रहे हैं। कह रहे हैं, “सच्चिदानन्द की प्राप्ति होने पर समाधि होती है, उस समय कर्म का त्याग हो जाता है। मैं गायक का नाम ले रहा हूँ, ऐसे समय यदि वे आकर उपस्थित होते हैं तो फिर उनका नाम लेने की क्या आवश्यकता? मधुमक्खी गुनगुन करती है कब तक? - जब तक फूल पर नहीं बैठती। कर्म का त्याग करने से साधक का न बनेगा; पूजा, जप, तप, ध्यान, सन्ध्या, कवच, तीर्थ आदि सभी करना होगा।
“ईश्वरप्राप्ति के बाद यदि कोई विचार करता है तो वह वैसा ही है जैसा मधुमक्खी मधु का पान करती हुई अस्फुट स्वर से गुनगुनाती रहे।”
गायक ने अच्छा गाना गाया था। श्रीरामकृष्ण प्रसन्न हो गए। उससे कह रहे हैं, “जिस मनुष्य में कोई एक बड़ा गुण है, जैसे संगीत-विद्या, उसमें ईश्वर की शक्ति विशेष रूप से वर्तमान है।”
गायक - महाराज, किस उपाय से उन्हें प्राप्त किया जा सकता है?
श्रीरामकृष्ण - भक्ति ही सार है। ईश्वर तो सर्वभूतों में विराजमान हैं। तो फिर भक्त किसे कहूँ - जिसका मन सदा ईश्वर में है। अहंकार, अभिमान रहने पर कुछ नहीं होता। ‘मैं’रूपी टीले पर ईश्वरकृपारूपी जल नहीं ठहरता; लुढ़क जाता है। मैं यन्त्र हूँ।
(केदार आदि भक्तों के प्रति) “सब मार्गों से उन्हें प्राप्त किया जा सकता है। सभी धर्म सत्य हैं। छत पर चढ़ने से मतलब है, सो तुम पक्की सीढ़ी से भी चढ़ सकते हो, लकड़ी की सीढ़ी से भी चढ़ सकते हो, बाँस की सीढ़ी से भी चढ़ सकते हो, रस्सी के सहारे भी चढ़ सकते हो और फिर एक गाँठदार बाँस के जरिये भी चढ़ सकते हो।
“यदि कहो, दूसरों के धर्म में अनेक भूल, कुसंस्कार हैं, तो मैं कहता हूँ, हैं तो रहें, भूल सभी धर्मों में है। सभी समझते हैं मेरी घड़ी ठीक चल रही है। व्याकुलता होने से ही हुआ। उनसे प्रेम आकर्षण रहना चाहिए। वे अन्तर्यामी जो हैं। वे अन्तर की व्याकुलता, आकर्षण को देख सकते हैं। मानो एक मनुष्य के कुछ बच्चे हैं। उनमें से जो बड़े हैं वे ‘बाबा’ या ‘पापा’ इन शब्दों को स्पष्ट रूप से कहकर, उन्हें पुकारते हैं। और जो बहुत छोटे हैं वे बहुत हुआ तो ‘बा’ या ‘पा’ कहकर पुकारते हैं। जो लोग सिर्फ ‘बा’ या ‘पा’ कह सकते हैं, क्या पिता उनसे असन्तुष्ट होंगे? पिता जानते हैं कि वे उन्हें ही बुला रहे हैं, परन्तु वे अच्छी तरह उच्चारण नहीं कर सकते। पिता की दृष्टि में सभी बच्चे बराबर हैं।
“फिर भक्तगण उन्हें ही अनेक नामों से पुकार रहे हैं। एक ही व्यक्ति को बुला रहे हैं। एक तालाब के चार घाट हैं। हिन्दू लोग एक घाट में जल पी रहे हैं और कहते हैं जल। मुसलमान लोग दूसरे घाट में पी रहे हैं - कहते हैं पानी। अंग्रेज लोग तीसरे घाट में पी रहे हैं और कह रहे हैं वाटर (Water) और कुछ लोग चौथे घाट में पी रहे हैं और कहते हैं अकुवा (aqua) एक ईश्वर, उनके अनेक नाम हैं।”
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