परिच्छेद ४३ - बलराम के मकान पर
आत्मदर्शन का उपाय। नित्यलीला-योग
श्रीरामकृष्ण ने आज कलकत्ते में बलराम के मकान पर शुभागमन किया है। मास्टर पास बैठे हैं, राखाल भी हैं। श्रीरामकृष्ण भावमग्न हुए हैं। आज ज्येष्ठ कृष्ण पंचमी, सोमवार, २५ जून १८८३, ई. । समय दिन के पाँच बजे का होगा।
श्रीरामकृष्ण (भाव के आवेश में) - देखो, अन्तर से पुकारने पर अपने स्वरूप को देखा जाता है, परन्तु विषयभोग की वासना जितनी रहती है, उतनी ही बाधा होती है।
मास्टर - जी, आप जैसा कहते हैं, डुबकी लगाना पड़ता है।
श्रीरामकृष्ण (आनन्दित होकर) - बहुत ठीक।
सभी चुप हैं; श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर के प्रति) - देखो सभी को आत्मदर्शन हो सकता है।
मास्टर - जी, परन्तु ईश्वर कर्ता हैं; वे अपनी इच्छानुसार भिन्न भिन्न प्रकार से लीला कर रहे हैं। किसी को चैतन्य दे रहे हैं, किसी को अज्ञानी बनाकर रखा है।
श्रीरामकृष्ण - नहीं, उनसे व्याकुल होकर प्रार्थना करनी पड़ती है। आन्तरिक होने पर वे प्रार्थना अवश्य सुनेंगे।
एक भक्त - जी हाँ, ‘मैं’ है, इसलिए प्रार्थना करनी होगी।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर के प्रति) - लीला के सहारे नित्य में जाना होता है - जिस प्रकार सीढ़ी पकड़-पकड़कर छत पर चढ़ना होता है। नित्यदर्शन के बाद नित्य से लीला में आकर रहना होता है, भक्ति-भक्त लेकर। यही मेरा परिपक्व मत है।
“उनके अनेक रूप, अनेक लीलाएँ हैं। ईश्वर-लीला, देव-लीला, नर-लीला, जगत्-लीला। वे मानव बनकर, अवतार होकर युग युग में आते हैं - प्रेम-भक्ति सिखाने के लिए। देखो न चैतन्यदेव को। अवतार द्वारा ही उनके प्रेम तथा भक्ति का आस्वादन किया जा सकता है। उनकी अनन्त लीलाएँ हैं - परन्तु मुझे आवश्यकता है प्रेम तथा भक्ति की। मुझे तो सिर्फ दूध चाहिए। गाय के स्तनों से ही दूध आता है। अवतार गाय के स्तन हैं।”
क्या श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं कि वे अवतीर्ण हुए हैं, उनका दर्शन करने से ही ईश्वर का दर्शन होता है? चैतन्यदेव का उल्लेख कर क्या श्रीरामकृष्ण अपनी ओर संकेत कर रहे हैं?
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