परिच्छेद ४१ - दक्षिणेश्वर में भक्तों के साथ
(१)
तान्त्रिक भक्त तथा संसार। निर्लिप्त को भी भय है
श्रीरामकृष्ण भोजन के बाद दक्षिणेश्वर मन्दिर के अपने कमरे में थोड़ा विश्राम कर रहे हैं। अधर तथा मास्टर ने आकर प्रणाम किया। एक तान्त्रिक भक्त भी आए हैं। राखाल, हाजरा, रामलाल आदि आजकल श्रीरामकृष्ण के पास रहते हैं। आज रविवार है, १७ जून १८८३ ई. ।
श्रीरामकृष्ण (भक्तों के प्रति) - गृहस्थाश्रम में होगा क्यों नहीं? परन्तु बहुत कठिन है। जनक आदि ज्ञान प्राप्त करने के बाद गृहस्थाश्रम में आए थे। परन्तु फिर भी भय है! निष्काम गृहस्थ को भी भय है! भैरवी को देखकर जनक ने मुँह नीचा कर लिया। स्त्री के दर्शन से संकोच हुआ था। भैरवी ने कहाँ, ‘जनक! मैं देखती हूँ कि तुम्हें अभी ज्ञान नहीं हुआ। तुममें अभी भी स्त्रीपुरुष-बुद्धि विद्यमान है।’
“कितना ही सयाना क्यों न हो, काजल की कोठरी में रहने पर शरीर पर कुछ न कुछ काला दाग लगेगा ही।
“मैंने देखा है, गृहस्थ भक्त जिस समय शुद्धवस्त्र पहनकर पूजा करते हैं उस समय उनका अच्छा भाव रहता है। यहाँ तक कि जलपान करने तक वही भाव रहता है। उसके बाद अपनी वही मूर्ति; फिर से रज, तम।
“सत्त्वगुण से भक्ति होती है। किन्तु भक्ति का सत्त्व, भक्ति का रज, भक्ति का तम है। भक्ति का सत्त्व विशुद्ध है; इसकी प्राप्ति होने पर, ईश्वर को छोड़ और किसी में भी मन नहीं लगता। देह की रक्षा हो सके, केवल इतना ही शरीर की ओर ध्यान रहता है।
परमहंस त्रिगुणातीत होते हैं
“परमहंस तीनों गुणों से अतीत होते है।* उनमें तीन गुण हैं और फिर नहीं भी हैं। ठीक बालक जैसा, किसी गुण के अधीन नहीं है। इसलिए परमहंस छोटे छोटे बच्चों को अपने पास आने देते हैं, जिससे उनके स्वभाव को अपना सकें।
“परमहंस संचय नहीं कर सकते। यह अवस्था गृहस्थों के लिए नहीं है। उन्हें अपने घरवालों के लिए संचय करना पड़ता है।”
तान्त्रिक भक्त - क्या परमहंस को पाप-पुण्य का बोध रहता है?
श्रीरामकृष्ण - केशव सेन ने यह बात पूछी थी। मैंने कहा, ‘और अधिक कहने पर तुम्हारा दल-बल नहीं रहेगा।’ केशव ने कहा, ‘तो फिर रहने दीजिए, महाराज।’
“पाप-पुण्य क्या है, जानते हो? परमहंस-अवस्था में अनुभव होता है कि वे ही सुबुद्धि देते हैं, वे ही कुबुद्धि देते हैं। फल क्या मीठे, कडुए नहीं होते? किसी पेड़ में मीठा फल, किसी में कडुआ या खट्टा फल। उन्होंने मीठे आम का वृक्ष भी बनाया है और फिर खट्टे फल का वृक्ष भी!”
तान्त्रिक भक्त - जी हाँ, पहाड़ पर गुलाब की खेती दिखायी देती है। जहाँ तक दृष्टि जाती है केवल गुलाब ही गुलाब का खेत!
श्रीरामकृष्ण - परमहंस देखता है, यह सब उनकी माया का ऐश्वर्य है, सत्-असत्, भला-बुरा, पाप-पुण्य यह सब समझना बहुत दूर की बात है। उस अवस्था में दल-बल नहीं रहता।
कर्मफल। पाप-पुण्य
तान्त्रिक भक्त - तो फिर कर्मफल है?
श्रीरामकृष्ण - वह भी है। अच्छा कर्म करने पर सुफल और बुरा कर्म करने पर कुफल मिलता है। मिर्च खाने पर तीखा तो लगेगा ही! यह सब उनकी लीला है, खेल है।
तान्त्रिक भक्त - हमारे लिए क्या उपाय है? कर्म का फल तो है न?
श्रीरामकृष्ण - होने दो, परन्तु उनके भक्तों की बात अलग है।
यह कहकर आप गाने लगे -
(भावार्थ) - “रे मन! तुम खेती का काम नहीं जानते हो! ऐसी मनुष्यदेहरूपी जमीन पड़ी ही रह गयी! यदि तुम खेती करते तो इसमें सोना फल सकता था। पहले तुम कालीनाम का घेरा लगा लो, फसल नष्ट न होगी। वह तो मुक्तकेशी का पक्का घेरा है, उसके पास यम भी नहीं आता। गुरु का दिया हुआ बीज बोकर भक्ति का जल सींच देना। हे मन, यदि तुम अकेले न कर सको, तो रामप्रसाद को साथ ले लेना।”
फिर गा रहे हैं -
(भावार्थ) - “ ‘यम के आने का रास्ता बन्द हो गया। मेरे मन का सन्देह मिट गया। मेरे घर के नौ दरवाजों पर चार शिव पहरेदार हैं। एक ही स्तम्भ पर घर है, जो तीन रस्सियों से बँधा हुआ है। सहस्रदल-कमल पर श्रीनाथ अभय देते हुए बैठे हैं।’
“काशी में ब्राह्मण मरे या वेश्या - सभी शिव होंगे।
“जब हरिनाम से, कालीनाम से, रामनाम से, आँखों में आँसू भर आते हैं, तब सन्ध्या-कवच आदि की कुछ भी आवश्यकता नहीं रह जाती। कर्म का त्याग हो जाता है। कर्म का फल स्पर्श नहीं करता।”
श्रीरामकृष्ण फिर गाना गा रहे हैं -
(भावार्थ) - “चिन्तन करने पर भाव का उदय होता है। जैसा भाव, वैसी ही प्राप्ति होती है - विश्वास ही मूल बात है। यदि चित्त काली के चरणरूपी अमृत-सरोवर में डूबा रहता है, तो फिर पूजा-होम, यज्ञ आदि का कुछ भी महत्त्व नहीं है।”
श्रीरामकृष्ण फिर गा रहे हैं -
(भावार्थ) - “‘जो त्रिसन्ध्या में काली का नाम लेता है, क्या वह पूजा-सन्ध्यादि चाहता है? सन्ध्या स्वयं उसकी खोज में फिरती रहती है, पर उससे मिल नहीं पाती! यदि ‘काली काली’ कहते हुए मेरे प्राण निकल जाए, तो फिर गया, गंगा, प्रभास, काशी, कांची आदि की कौन परवाह करता है!’
“ईश्वर में मग्न हो जाने पर फिर असद्बुद्धि, पापबुद्धि नहीं रह जाती।”
तान्त्रिक भक्त - आपने कहा है ‘विद्या का मैं’ रहता है।
श्रीरामकृष्ण - ‘विद्या का मैं’, ‘भक्त मैं’, ‘दास मैं’, ‘भला मैं’ रहता है। ‘बदमाश मैं’ चला जाता है। (हँसी)
तान्त्रिक भक्त - जी महाराज, हमारे अनेक सन्देह मिट गए।
श्रीरामकृष्ण - आत्मा का साक्षात्कार होने पर सब सन्देह मिट जाते हैं।*
भक्ति का तम। सन्देह। अष्टसिद्धि
“भक्ति का तम लाओ। कहो, - जब मैंने राम का नाम लिया, काली का नाम लिया, तब यह कैसे सम्भव है कि मेरा बन्धन रहे, मेरा कर्मफल रहे?”
श्रीरामकृष्ण फिर गाना गा रहे हैं -
(भावार्थ) - “माँ, यदि मैं ‘दुर्गा दुर्गा’ कहता हुआ मरूँ, तो हे शंकरी, देखूँगा कि अन्त में इस दीन का तुम कैसे उद्धार नहीं करतीं! माँ! गो-ब्राह्मण की, भ्रूण की तथा नारी की हत्या, सुरापान आदि पापों की रत्तीभर परवाह न कर मैं ब्रह्मपद प्राप्त कर सकता हूँ।”
श्रीरामकृष्ण फिर कहते हैं - “विश्वास, विश्वास, विश्वास! गुरु ने कह दिया है, ‘राम ही सब कुछ बनकर विराजमान हैं। वही राम घट-घट में लेटा।’ कुत्ता रोटी खाता जा रहा है। भक्त कहता है, ‘राम! ठहरो, ठहरो, रोटी में घी लगा दूँ।’ गुरुवाक्य में ऐसा विश्वास!
“भुक्कड़ों को विश्वास नहीं होता। सदा ही सन्देह! आत्मा का साक्षात्कार हुए बिना सब सन्देह दूर नहीं होते।
“शुद्ध भक्ति, जिसमें कोई कामना न हो, ऐसी भक्ति द्वारा उन्हें शीघ्र प्राप्त किया जा सकता है।
“अणिमा आदि सिद्धियाँ - ये सब कामनाएँ हैं। कृष्ण ने अर्जुन से कहा है, ‘भाई, अणिमा आदि सिद्धियों में से एक के भी रहते ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती। शक्ति को थोड़ा बढ़ा भर सकती हैं वे।”
तान्त्रिक भक्त - महाराज, तान्त्रिक क्रिया आजकल सफल क्यों नहीं होती?
श्रीरामकृष्ण - सर्वांगीण नहीं होती और भक्तिपूर्वक भी नहीं की जाती, इसीलिए सफल नहीं होती।
अब श्रीरामकृष्ण उपदेश समाप्त कर रहे हैं। कह रहे हैं - “भक्ति ही सार है। सच्चे भक्त को कोई भय, कोई चिन्ता नहीं। माँ सब कुछ जानती है। बिल्ली चूहा पकड़ती है एक प्रकार से, परन्तु अपने बच्चे को पकड़ती है दूसरे प्रकार से।’
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