परिच्छेद २६ - दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण का जन्मोत्सव

(१)

प्रभात में भक्तों के साथ

कालीमन्दिर में आज श्रीरामकृष्ण का जन्मोत्सव है। फाल्गुन की शुक्ला द्वितीया है, दिन रविवार, ११ मार्च १८८३ ई. । आज श्रीरामकृष्ण के अन्तरंग भक्त उन्हें लेकर जन्मोत्सव मनायेंगे।

सबेरे से भक्त एक एक करके एकत्र हो रहे हैं। सामने माता भवतारिणी का मन्दिर है। मंगलारती के बाद ही प्रभाती रागिणी में मधुर तान लगाती हुई नौबत बज रही है। वसन्त का सुहावना मौसम है, लता-वृक्ष नये कोमल पल्लवों से लहराते हुए दीख पड़ते हैं। इधर श्रीरामकृष्ण के जन्मदिन की याद करके भक्तों के हृदय में आनन्द-सिन्धु उमड़ रहा है। चारों ओर आनन्द-समीरण बह रहा है। मास्टर ने देखा, इतने सबेरे ही भवनाथ, राखाल, भवनाथ के मित्र कालीकृष्ण आ गये हैं। श्रीरामकृष्ण पूर्ववाले बरामदे में बैठे हुए इनसे प्रसन्नतापूर्वक वार्तालाप कर रहे हैं। मास्टर ने श्रीरामकृष्ण को भूमिष्ठ हो प्रणाम किया।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - “तुम आये हो! (भक्तों से) लज्जा, घृणा, भय इन तीनों के रहते काम सिद्ध नहीं होता। आज कितना आनन्द होगा! परन्तु जो लोग भगवन्नाम में मत्त होकर नृत्य-गीत न कर सकेंगे, उनका कहीं कुछ न होगा। ईश्वरी चर्चा में कैसी लज्जा और कैसा भय? अच्छा, अब तुम लोग गाओ।”

भवनाथ और कालीकृष्ण गा रहे हैं। गीत इस आशय का है : -

“हे आनन्दमय! आज का दिन धन्य है! हम सब तुम्हारे सत्य-धर्म का भारत में प्रचार करेंगे। हरएक हृदय में तुम्हीं विराजित हो, चारों ओर तुम्हारे ही पवित्र नाम की ध्वनि गूँजती है, भक्त-समाज तुम्हारी स्तुति करते हैं। हे प्रभो, हमें धन, जन और मान न चाहिए, दूसरी कामना भी नहीं है, विकल जन तुम्हारी प्रार्थना कर रहे हैं। हे प्रभो, तुम्हारे चरणों में शरण ली तो फिर न विपत्ति में भय है, न मृत्यु में; मुझे तो अमृत मिल गया। तुम्हारी जय हो!”

हाथ जोड़कर बैठे हुए मन लगाकर श्रीरामकृष्ण गाना सुन रहे हैं। गाना सुनते सुनते आपका मन सीधे भावराज्य में पहुँच गया है। श्रीरामकृष्ण का मन सूखी दियासलाई है। एक बार घिसने से उद्दीपना होती है। प्राकृत मनुष्यों का मन भीगी दियासलाई है, कितनी ही घिसो पर जलती नहीं, क्योंकि वह विषयासक्त है। श्रीरामकृष्ण बड़ी देर तक ध्यान में लगे हुए हैं। कुछ देर बाद कालीकृष्ण भवनाथ से कुछ कह रहे हैं।

पहले हरिनाम या मजदूरों की शिक्षा

कालीकृष्ण श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके उठे। श्रीरामकृष्ण ने विस्मित होकर पूछा, “कहाँ जाओगे?”

भवनाथ - कुछ काम है, इसीलिए वे जा रहे हैं।

श्रीरामकृष्ण - क्या काम है?

भवनाथ - श्रमजीवियों के शिक्षालय में (Baranagore Workingmen's Institute) जा रहे हैं।

श्रीरामकृष्ण - भाग्य ही में नहीं है। आज हरिनाम-कीर्तन में कितना आनन्द होता है, देखा नहीं। उसके भाग्य ही में नहीं था।

(२)

जन्मोत्सव में भक्तों के संग संन्यासियों के कठिन नियम

दिन के साढ़े-आठ या नौ बजे होंगे। श्रीरामकृष्ण ने आज गंगा में स्नान नहीं किया, शरीर कुछ अस्वस्थ है। घड़ा भरकर पानी बरामदे में लाया गया। भक्त उनको स्नान करा रहे हैं। नहाते हुए श्रीरामकृष्ण ने कहा, “एक लोटा पानी अलग रख दो।” अन्त में वही पानी सिर पर डाला। आज आप बड़े सावधान हैं, एक लोटे से ज्यादा पानी सिर पर नहीं डाला।

स्नान के बाद मधुर कण्ठ से भगवान् का नाम ले रहे हैं। धोया हुआ कपड़ा पहने, एक-दो भक्तों के साथ आँगन से होते हुए कालीमाता के मन्दिर की ओर जा रहे हैं। मुख से लगातार नाम उच्चारण कर रहे हैं। चितवन बाहर की ओर नहीं है - अण्डे को सेते समय चिड़िया की दृष्टि जिस प्रकार होती है उसी के सदृश हो रही है।

कालीमाता के मन्दिर में जाकर आपने प्रणाम और पूजा की। पूजा का कोई नियम न था - गन्ध-पुष्प कभी माता के चरणों में देते हैं और कभी अपने सिर पर। अन्त में माता का निर्माल्य सिर पर रख भवनाथ से कहा, “यह लो डाब*।” माता का प्रसादी डाब था।

फिर आँगन से होते हुए अपने कमरे की तरफ आ रहे हैं। साथ में भवनाथ और मास्टर हैं। भवनाथ के हाथ में डाब है। रास्ते की दाहिनी ओर श्रीराधाकान्त का मन्दिर है, जिसे श्रीरामकृष्ण ‘विष्णुघर’ कहा करते थे। इन युगलमूर्तियों को देखकर आपने भूमिष्ठ हो प्रणाम किया। बायीं ओर बारह शिवमन्दिर थे। शिवजी को हाथ जोड़कर प्रणाम करने लगे।

अब श्रीरामकृष्ण अपने डेरे पर पहुँचे। देखा कि और भी कई भक्त आए हुए हैं। राम, नित्यगोपाल, केदार चटर्जी आदि अनेक लोग आए हैं। उन्होंने श्रीरामकृष्ण को भूमिष्ठ हो प्रणाम किया। आपने भी उनसे कुशल-प्रश्न पूछा।

नित्यगोपाल को देखकर श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, “तू कुछ खाएगा?” ये भक्त उस समय बालक के भाव में थे। इन्होंने विवाह नहीं किया था, उम्र तेईस-चौबीस वर्ष की होगी। ये सदा भावराज्य में रहते थे और कभी अकेले, कभी राम के साथ प्रायः श्रीरामकृष्ण के पास आया करते थे। श्रीरामकृष्ण इनकी भावावस्था को देखकर इनसे बड़ा प्यार करते हैं - और कभी कभी कहते हैं कि इनकी परमहंस की अवस्था है। इसलिए आप इनको गोपाल जैसे देख रहे हैं।

भक्त ने कहा, “खाऊँगा।” उनकी बातें ठीक एक बालक की सी थीं।

नित्यगोपाल को उपदेश त्यागी के लिए स्त्रीलिंग पूर्णतया निर्विघ्न

खिलाने के बाद श्रीरामकृष्ण उनको गंगा की ओर अपने कमरे के गोल बरामदे में ले गए और उनसे बातें करने लगे।

एक परम भक्त महिला, जिनकी उम्र कोई इकतीस-बत्तीस वर्ष की होगी, श्रीरामकृष्ण के पास अक्सर आती हैं और उनकी बड़ी भक्ति करती हैं। वे भी इन भक्त की अद्भुत भावावस्था को देखकर इन्हें अपने लड़के के भाँति प्यार करती हैं और इन्हें प्रायः अपने घर लिवा ले जाती हैं।

श्रीरामकृष्ण (भक्त से) - क्या तू वहाँ जाता है?

नित्यगोपाल (बालक की तरह) - हाँ, जाता हूँ। मुझे लिवा ले जाती है।

श्रीरामकृष्ण - अरे साधु सावधान! एक-आध बार जाना, बस। ज्यादा मत जाना, नहीं तो गिर पड़ेगा! कामिनी और कांचन ही माया है। साधु को स्त्रियों से बहुत दूर रहना चाहिए। वहाँ सब डूब जाते हैं। वहाँ ब्रह्मा और विष्णु तक लोटपोट हो जाते हैं।

भक्त ने सब सुना।

मास्टर (स्वगत) - क्या आश्चर्य की बात है! इन भक्त की परमहंस की अवस्था है - यह तो आप स्वयं ही कहते हैं। इतनी उच्च अवस्था होते हुए भी इनके पतन की आशंका है! साधुओ के लिए आपने क्या ही कठिन नियम बना दिये हैं! स्त्रियों के साथ अधिक मिलने-जुलने से साधु का पतन होने की सम्भावना रहती है। यह उच्च आदर्श सामने न रहे तो भला जीवों का उद्धार कैसे हो? वह स्त्री तो भक्त ही है। फिर भी भय है! अब समझा, श्रीचैतन्यदेव ने छोटे हरिदास को इतनी कठोर सजा क्यों दी थी। महाप्रभु के मना करने पर भी हरिदास ने एक भक्त विधवा से वार्तालाप किया था। परन्तु हरिदास संन्यासी थे। इसलिए महाप्रभु ने उन्हें त्याग दिया। कितनी कठोर सजा! संन्यासी के लिए कितना कठिन नियम! फिर इन भक्त पर आपका कितना प्रेम है! आगे चलकर कोई विपत्ति न आ पड़े, इसलिए पहले ही से इन्हें सचेत कर रहे हैं। भक्तगण निःस्तब्ध होकर ‘साधु सावधान’ यह गम्भीर वाणी सुन रहे हैं।

(३)

साकार-निराकार। श्रीरामकृष्ण की रामनाम में समाधि

अब श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ अपने कमरे के उत्तर-पूर्ववाले बरामदे में आ गए हैं। भक्तों में दक्षिणेश्वर के रहनेवाले एक गृहस्थ भी बैठे हैं; वे घर पर वेदान्त की चर्चा करते हैं। श्रीरामकृष्ण के सामने वे केदार चटर्जी से शब्दब्रह्म पर बातचीत कर रहे हैं।

श्रीरामकृष्ण और अवतार-वाद श्रीरामकृष्ण और धर्मसमन्वय

दक्षिणेश्वरवाले - यह अनाहत शब्द सदैव अपने भीतर और बाहर हो रहा है।

श्रीरामकृष्ण - केवल शब्द होने से ही तो सब कुछ नहीं हुआ। शब्द का एक प्रतिपाद्य विषय भी तो होना चाहिए। तुम्हारे नाम ही से मुझे थोड़े ही आनन्द होता है। बिना तुमको देखे सोलहों आने आनन्द नहीं होता।

दक्षिणेश्वरवाले - वह शब्द ही ब्रह्म है - अनाहत शब्द।

श्रीरामकृष्ण (केदार से) - अहा, समझे तुम? इनका ऋषियों का-सा मत है। ऋषियों ने श्रीरामचन्द्र से कहा, ‘राम, हम जानते हैं कि तुम दशरथ के पुत्र हो। भरद्वाज आदि ऋषि भले ही तुम्हें अवतार जानकर पूजें, पर हम तो अखण्ड सच्चिदानन्द को चाहते हैं।’ यह सुनकर राम हँसते हुए चल दिए।

केदार - ऋषियों ने राम को अवतार नहीं जाना। तो वे नासमझ थे।

श्रीरामकृष्ण (गम्भीर भाव से) - तुम ऐसा मत कहना! जिसकी जैसी रुचि! और जिसके पेट में जो चीज पचे!

“ऋषि ज्ञानी थे, इसीलिए वे अखण्ड सच्चिदानन्द को चाहते थे। पर भक्त अवतार को चाहते हैं, भक्ति का स्वाद चखने के लिए। ईश्वर के दर्शन से मन का अन्धकार हट जाता है। पुराणों में लिखा है कि जब श्रीरामचन्द्र सभा में पधारे, तब वहाँ मानो सौ सूर्यो का उदय हो गया! तो प्रश्न उठता है कि सभा में बैठे हुए लोग जल क्यों नहीं गए? इसका उत्तर यह है कि उनकी ज्योति जड़ ज्योति नहीं है। सभा में बैठे हुए सब लोगों के हृदयकमल खिल उठे। सूर्य के निकलने से कमल खिल जाते हैं।”

श्रीरामकृष्ण खड़े होकर भक्तों से यह कह ही रहे थे कि एकाएक उनका मन बाहरी जगत् को छोड़ भीतर की ओर मुड़ गया। “हृदयकमल खिल उठे” - ये शब्द कहते ही आप समाधिमग्न हो गये।

श्रीरामकृष्ण उसी अवस्था में खड़े हैं। क्या भगवान् के दर्शन से आपका हृदयकमल खिल उठा? बाहरी जगत् का कुछ भी ज्ञान आपको नहीं है। मूर्ति की तरह आप खड़े हैं। मुँह उज्ज्वल और सहास्य है। भक्तों में से कुछ खड़े और कुछ बैठे हैं, सभी निर्वाक् होकर टकटकी लगाए प्रेमराज्य की इस अनोखी छबि को - इस अपूर्व समाधिदृश्य को - देख रहे हैं।

बड़ी देर बाद समाधि टूटी। श्रीरामकृष्ण लम्बी साँस छोड़कर बारम्बार रामनाम उच्चारण कर रहे हैं। नाम के प्रत्येक वर्ण से मानो अमृत टपक रहा है। श्रीरामकृष्ण बैठे। भक्त भी चारों तरफ बैठकर उनको एकटक देख रहे हैं।

श्रीरामकृष्ण (भक्तों से) - जब अवतार आते हैं, तो साधारण लोग उनको नहीं जान सकते। वे छिपकर आते हैं। दो ही चार अन्तरंग भक्त उनको जान सकते हैं। राम पूर्णब्रह्म थे, पूर्ण अवतार थे, यह बात केवल बारह ऋषियों को मालूम थी। अन्य ऋषियों ने कहा था, ‘राम, हम तो तुमको दशरथ का बेटा ही समझते हैं।’

“अखण्ड सच्चिदानन्द को सब कोई थोड़े ही समझ सकते हैं! परन्तु भक्ति उसी की पक्की है, जो नित्य को पहुँचकर विलास के उद्देश्य से लीला लेकर रहता है। विलायत में क्वीन (रानी) को जब देखकर आओ, तब क्वीन की बातें, क्वीन के कार्य, इन सब का वर्णन हो सकता है। क्वीन के विषय में कहना तभी ठीक उतरता है। भरद्वाज आदि ऋषियों ने राम की स्तुति की थी और कहा था, ‘हे राम, तुम्हीं वह अखण्ड सच्चिदानन्द हो! हमारे सामने तुम मनुष्य के रूप में अवतीर्ण हुए हो। सच तो यह है कि माया के द्वारा ही तुम मनुष्य जैसे दिखते हो।’ भरद्वाज आदि ऋषि राम के परम भक्त थे। उन्हीं की भक्ति पक्की है।”

(४)

कीर्तन का आनन्द तथा समाधि

भक्त निर्वाक् होकर यह अवतार-तत्त्व सुन रहे हैं। कोई कोई सोच रहे हैं, ‘क्या आश्चर्य है! वेदोक्त अखण्ड सच्चिदानन्द - जिन्हें वेद ने मन-वचन से परे बताया है - क्या वे ही हमारे सामने साढ़े-तीन हाथ का मनुष्य-शरीर लेकर आते हैं? जब श्रीरामकृष्ण कहते हैं तो वैसा अवश्य ही होगा! यदि ऐसा न होता तो ‘राम राम’ कहते हुए इन महापुरुष को क्यों समाधि होती? अवश्य इन्होंने हृदयकमल में राम का रूप देखा होगा।’

थोड़ी देर में कोन्नगर से कुछ भक्त मृदंग और झाँझ लिए संकीर्तन करते हुए बगीचे में आए। मनमोहन, नबाई आदि बहुतसे लोग नामसंकीर्तन करते हुए श्रीरामकृष्ण के पास उसी उत्तरपूर्ववाले बरामदे में पहुँचे। श्रीरामकृष्ण प्रेमोन्मत्त होकर उनसे मिलकर संकीर्तन कर रहे हैं।

नाचते नाचते बीच बीच में समाधि हो जाती है। तब संकीर्तन के बीच में निःस्पन्द होकर खड़े रहते हैं। उसी अवस्था में भक्तों ने उनको फूलों की बड़ी बड़ी मालाओं से सजाया। भक्त देख रहे हैं मानो सामने ही श्रीगौरांग खड़े हैं। गहरी भावसमाधि में मग्न हैं। श्रीगौरांग की तरह श्रीरामकृष्ण की भी तीन दशाएँ हैं; कभी अन्तर्दशा - तब जड़ वस्तु की भाँति आप बेहोश और निःस्पन्द हो जाते हैं; कभी अर्धबाह्य दशा - तब प्रेम से भरपूर होकर नाचते हैं; और फिर बाह्य दशा - तब भक्तों के साथ संकीर्तन करते हैं।

श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हो खड़े हैं। गले में मालाएँ हैं। कहीं गिर न पड़ें इसलिए एक भक्त आपको पकड़े हुए हैं। चारों ओर भक्त खड़े होकर मृदंग और झाँझ के साथ कीर्तन कर रहे हैं। श्रीरामकृष्ण की दृष्टि स्थिर है। श्रीमुख पर प्रेम की छटा झलक रही है। आप पश्चिम की ओर मुँह किए हैं। बड़ी देर तक सब लोग यह आनन्दमूर्ति देखते रहे।

समाधि छूटी। दिन चढ़ गया है। थोड़ी देर बाद कीर्तन भी बन्द हुआ। भक्तगण श्रीरामकृष्ण को भोजन कराने के लिए व्यग्र हुए।

कुछ देर विश्राम के पश्चात् श्रीरामकृष्ण एक नया पीला वस्त्र पहने अपनी छोटी खाट पर बैठे। आनन्दमय महापुरुष की उस अनुपम ज्योतिर्मय रूपछबि को भक्त देख रहे हैं; पर देखने की प्यास नहीं मिटती। वे सोचते हैं कि इसे देखते ही रहें, इस रूपसागर में डूब जायें।

श्रीरामकृष्ण भोजन करने बैठे। भक्तों ने भी प्रसाद पाया।

(५)

श्रीरामकृष्ण और सर्वधर्मसमन्वय

भोजन के उपरान्त श्रीरामकृष्ण छोटे तख्त पर आराम कर रहे हैं। कमरे में लोगों की भीड़ बढ़ रही है। बाहर के बरामदे भी लोगों से भरे हैं। कमरे के भीतर जमीन पर भक्त बैठे हैं और श्रीरामकृष्ण की ओर एकदृष्टि से ताक रहे हैं। केदार, सुरेश, राम, मनोमोहन, गिरीन्द्र, राखाल, भवनाथ, मास्टर आदि बहुत लोग वहाँ पर मौजूद हैं। राखाल के पिता आए हैं, वे भी वहीं बैठे हैं।

एक वैष्णव गोसाई भी उसी स्थान पर बैठे हैं। श्रीरामकृष्ण उनसे बातें कर रहे हैं। गोसाइयों को देखते ही श्रीरामकृष्ण सिर झुकाकर प्रणाम करते थे - कभी कभी तो उनके सामने साष्टांग प्रणाम करते थे।

नाममाहात्म्य अथवा अनुराग

श्रीरामकृष्ण - अच्छा, तुम क्या कहते हो? उपाय क्या है?

गोसाई - जी, नाम से ही सब कुछ होगा। कलियुग में नाम की बड़ी महिमा है।

श्रीरामकृष्ण - हाँ, नाम की बड़ी महिमा तो है, पर बिना अनुराग के क्या हो सकता है? ईश्वर के लिए प्राण व्याकुल होने चाहिए। सिर्फ नाम लेता जा रहा हूँ, पर चित्त कामिनी और कांचन में है इससे क्या होगा?

“बिच्छू या मकड़ी के काटने पर खाली मन्त्र से वह अच्छा नहीं होता - उसके लिए कण्डे का ताप भी देना पड़ता है।”

गोसाई - तो अजामिल का क्यों हुआ? वह महापातकी था, ऐसा पाप ही न था जो उसने न किया हो; पर मरते समय अपने लड़के को ‘नारायण’ कहकर बुलाने से ही उसका उद्धार हो गया।

श्रीरामकृष्ण - शायद अजामिल पूर्वजन्म में बहुत कर्म कर चुका था। और यह भी लिखा है कि उसने बाद में तपस्या भी की थी।

“अथवा यों कहो कि उस समय उसके अन्तिम क्षण आ गए थे। हाथी को नहला देने से क्या होगा, फिर धूल-मिट्टी लिपटाकर वह ज्यों का त्यों हो जाता है। पर हाथीखाने में घुसने के पहले ही अगर कोई उसकी धूल झाड़ दे और उसे नहला दे तो फिर उसका शरीर साफ रह सकता है।

“मान लिया कि नाम से जीव एक बार शुद्ध हुआ, पर वह फिर तरह तरह के पापों में लिप्त हो जाता हैं। मन में बल नहीं; वह प्रण नहीं करता कि फिर पाप नहीं करूँगा। गंगास्नान से सब पाप मिट जाते हैं सही, पर सब लोग कहते हैं कि वे पाप एक पेड़ पर चढ़े रहते हैं। जब वह मनुष्य गंगाजी से नहाकर लौटता है, तो वे पुराने पाप पेड़ से कूदकर फिर उसके सिर पर सवार हो जाते हैं। (सब हँसे) उन पुराने पापों ने उसे फिर घेर लिया!

दो-चार कदम चलते ही उसे धर दबाया!

“इसलिए नाम भी करो और साथ ही प्रार्थना भी करो कि ईश्वर पर अनुराग हो, और जो चीजें दो दिन के लिए हैं - जैसे धन, मान, देहसुख आदि - उनसे आसक्ति घट जाय।

वैष्णवधर्म तथा साम्प्रदायिकता

(गोसाई से) - “यदि आन्तरिकता हो तो सभी धर्मों से ईश्वर मिल सकते हैं। वैष्णवों को भी मिलेंगे तथा शाक्तों, वेदान्तियों और ब्राह्मों को भी, मुसलमानों और ईसाइयों को भी। हृदय से चाहने पर सब को मिलेंगे। कोई कोई झगड़ा कर बैठते हैं। वे कहते हैं कि हमारे श्रीकृष्ण को भजे बिना कुछ न बनेगा; या हमारी कालीमाता को भजे बिना कुछ न होगा; अथवा हमारे ईसाई धर्म को ग्रहण किए बिना कुछ न होगा।

“ऐसी बुद्धि का नाम हठधर्म है, अर्थात् मेरा ही धर्म ठीक है और बाकी सब का गलत। यह बुद्धि खराब है। ईश्वर के पास हम बहुत रास्तों से पहुँच सकते हैं।

“फिर कोई कोई कहते हैं कि ईश्वर साकार हैं, निराकार नहीं। यह कहकर वे झगड़ने लग जाते हैं! जो वैष्णव है वह वेदान्ती से झगड़ता है।

“यदि ईश्वर के साक्षात् दर्शन हों, तो सब हाल ठीक ठीक बताया जा सकता है। जिसने दर्शन किये हैं वह ठीक जानता है कि भगवान् साकार भी हैं और निराकार भी। वे और भी कैसे कैसे हैं, यह कौन बताए!

“कुछ अन्धे एक हाथी के पास गये थे। एक ने बता दिया, इस चौपाये का नाम हाथी है। तब अन्धों से पूछा गया, हाथी कैसा है? वे हाथी की देह छूने लगे। एक ने कहा, हाथी खम्भे के आकार का है! उसने हाथी का पैर ही छुआ था। दूसरे ने कहा, हाथी सूप की तरह है उसके हाथ हाथी के कान पर पड़े थे। इसी तरह किसी ने पेट पकड़कर कुछ कहा, किसी ने सूँड़ पकड़कर कुछ कहा। ऐसे ही ईश्वर के सम्बन्ध में जिसने जितना देखा है, उसने यही सोचा है कि ईश्वर बस ऐसे ही हैं, और कुछ नहीं।

“एक आदमी शौच के लिए गया था। लौटकर उसने कहा, ‘मैंने पेड़ के नीचे एक सुन्दर लाल गिरगिट देखा।’ दूसरे ने कहा, ‘तुमसे पहले मैं उस पेड़ के नीचे गया था; परन्तु वह लाल क्यों होने लगा? वह तो हरा है। मैंने अपनी आँखों से देखा है।’ तीसरे ने कहा, ‘मैं तुम दोनों से पहले गया था, उसको मैंने भी देखा है परन्तु वह न लाल है; न हरा; वह तो नीला है।’ और दो थे; उनमें से एक ने बताया पीला, और एक ने, खाकी। इस तरह अनेक रंग हो गए। अन्त में सब में झगड़ा होने लगा। हर एक का यही विश्वास था कि उसने जो कुछ देखा है, वही ठीक है। उनकी लड़ाई देख एक ने पूछा, ‘तुम लड़ते क्यों हो?’ जब उसने कुल हाल सुना तब कहा, ‘मैं उसी पेड़ के नीचे रहता हूँ; और उस जानवर को मैं खूब पहचानता हूँ। तुममें से हर एक का कहना सच है। वह कभी हरा, कभी नीला, कभी लाल इस तरह अनेक रंग धारण करता है। और कभी देखता हूँ, कोई रंग नहीं निर्गुण है!’ ”

साकार अथवा निराकार

(गोस्वामी से) - “ईश्वर को सिर्फ साकार कहने से क्या होगा! वे श्रीकृष्ण की तरह मनुष्यरूप धारण करके आते हैं, यह भी सत्य है; अनेक रूपों से भक्तों को दर्शन देते हैं, यह भी सत्य है; और फिर वे निराकार अखण्ड सच्चिदानन्द हैं, यह भी सत्य है। वेदों ने उनको साकार भी कहा है, निराकार भी कहा है; सगुण भी कहा है और निर्गुण भी।

“किस तरह, जानते हो। सच्चिदानन्द मानो एक अनन्त समुद्र है। ठण्डक के कारण समुद्र का पानी बर्फ बनकर तैरता है। पानी पर बर्फ के कितने ही आकार के टुकड़े तैरते हैं। वैसे ही भक्तिहिम के लगने से सच्चिदानन्द-सागर में साकार मूर्ति के दर्शन होते हैं। वे भक्त के लिए साकार होते हैं। फिर जब ज्ञानसूर्य का उदय होता है तब बर्फ गल जाती है, फिर वही पहले का पानी ज्यों का त्यों रह जाता है। ऊपर-नीचे जल ही जल भरा हुआ है। इसीलिए श्रीमद्भागवत में सब स्तव करते हैं, ‘हे देव, तुम्हीं साकार हो, तुम्हीं निराकार हो। हमारे सामने तुम मनुष्य बने घूम रहे हो, परन्तु वेदों ने तुम्हीं को वाक्य और मन से परे कहा है।’

“परन्तु यह कह सकते हो कि किसी किसी भक्त के लिए वे नित्य साकार हैं। ऐसा भी स्थान है जहाँ बर्फ गलती नहीं, स्फटिक का आकार धारण करती है।”

केदार - श्रीमद्भागवत में व्यासदेव* ने तीन दोषों के लिए परमात्मा से क्षमाप्रार्थना की है। एक जगह कहा है, हे भगवन् तुम मन और वाणी से दूर हो, किन्तु मैंने केवल तुम्हारी लीला, तुम्हारे साकार रूप का वर्णन किया; अतएव अपराध क्षमा करो।

श्रीरामकृष्ण - हाँ, ईश्वर साकार भी हैं और निराकार भी, फिर साकार-निराकार के भी परे हैं। उनकी इति नहीं की जा सकती।

(६)

नित्यसिद्ध तथा कौमार-वैराग्य

राखाल के पिता बैठे हुए हैं। राखाल आजकल श्रीरामकृष्ण के पास ही रहते हैं। राखाल की माता के गुजर जाने पर उनके पिता ने अपना दूसरा विवाह कर लिया है। राखाल यहीं रहते हैं; इसलिए उनके पिता कभी कभी आया करते हैं। राखाल के यहाँ रहने में इनकी ओर से कोई बाधा नहीं है। ये श्रीमान् और विषयी मनुष्य हैं। सदा मुकदमों की पैरवी में रहते हैं। श्रीरामकृष्ण के पास कितने ही वकील और डिप्टी मैजिस्ट्रेट आया करते हैं। राखाल के पिता इनसे वार्तालाप करने के लिए कभी कभी आ जाते है। उनसे मुकदमों की बहुतसी बातें सूझ जाती हैं।

श्रीरामकृष्ण रह-रहकर राखाल के पिता को देख रहे हैं। श्रीरामकृष्ण की इच्छा है, राखाल उन्हीं के पास रह जाएँ।

श्रीरामकृष्ण (राखाल के पिता और भक्तों से) - अहा, आजकल राखाल का स्वभाव कैसा हुआ है! उसके मुँह पर दृष्टि डालने से देखोगे, उसके होंठ रह-रहकर हिल रहे हैं। अन्तर में ईश्वर का नाम जपता है, इसलिए होंठ हिलते रहते हैं।

“ये सब लड़के नित्यसिद्ध की श्रेणी के हैं। ईश्वर का ज्ञान साथ लेकर पैदा हुए हैं। कुछ उम्र होते ही ये समझ जाते हैं कि संसार की छूत देह में लगी तो फिर निस्तार न होगा। वेदों में ‘होमा’ पक्षीं की कहानी है। वह चिड़िया आकाश में ही रहती है; जमीन पर कभी नहीं उतरती। आकाश ही में अण्डे देती है। अण्ड़े गिरते रहते हैं, पर वे इतनी ऊँचाई से गिरते हैं कि गिरते ही गिरते बीच में वे फूट जाते हैं। तब बच्चे निकल आते हैं। वे भी गिरने लगते हैं। उस समय भी वे इतने ऊँचे पर रहते हैं कि गिरते ही गिरते उनके पंख निकल आते हैं और आँखें भी खुल जाती हैं। तब वे समझ जाते हैं कि अरे हम मिट्टी में गिर जाएँगे, और गिरे तो चकनाचूर! मिट्टी देखते ही एकदम अपनी माता की ओर उड़ जाते हैं। माता के निकट पहुँचना ही उनका लक्ष्य हो जाता है।

“ये सब लड़के ठीक वैसे ही हैं। बचपन ही में संसार देखकर डर जाते हैं। इनकी एकमात्र चिन्ता यही है कि किस तरह माता के निकट जाएँ, किस प्रकार ईश्वर के दर्शन हों।

“यदि यह कहो कि ये रहे विषयी मनुष्यों में, पैदा हुए विषयी के यहाँ, फिर इनमें ऐसी भक्ति, ऐसा ज्ञान कैसे हो गया, तो इसका भी अर्थ है। मैली जमीन पर यदि चना गिर जाय, तो उसमें चना ही फलता है। उस चने से कितने अच्छे काम होते हैं। मैली जमीन पर गिर गया है, इसलिए उससे कोई दूसरा पौधा थोड़े ही होगा।

“अहा, राखाल का स्वभाव आजकल कैसा हो गया है! और होगा भी क्यों नहीं। यदि सूरण अच्छा हुआ, तो उसके अंकुर भी अच्छे होते हैं। (सब हँसते हैं।) जैसा बाप, वैसा उसका बेटा।”

मास्टर (गिरीन्द्र से अलग से) - साकार और निराकार की बात कैसी समझायी इन्होंने! जान पड़ता है, वैष्णव केवल साकार ही मानते हैं।

गिरीन्द्र - होगा। वे एक ही भाव पर अड़े रहते हैं।

मास्टर - ‘नित्य साकार’ आप समझे। स्फटिकवाली बात। मैं उसे अच्छी तरह नहीं समझ सका।

श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - क्यों जी, तुम लोग क्या बातचीत कर रहे हो।

मास्टर और गिरीन्द्र जरा हँसकर चुप हो गए।

वृन्दा दासी (रामलाल से) - रामलाल, अभी इस आदमी को मिठाइयाँ दो, हमें बाद में देना।

श्रीरामकृष्ण - वृन्दा को अभी मिठाईयाँ नहीं दी गयीं?

(७)

पंचवटी में कीर्तनानन्द

दिन के तीसरे पहर भक्तगण पंचवटी में कीर्तन कर रहे हैं।

श्रीरामकृष्ण भी उनमें मिल गये; भक्तों के साथ मातृनामसंकीर्तन करते हुए आनन्द में मग्न हो रहे हैं।

(गीत का भावार्थ) - ‘श्यामा माँ के चरणरूपी आकाश में मन की पतंग उड़ रही थी। कलुष की वायु से वह चक्कर खाकर गिर पड़ी। माया का कन्ना भारी हुआ, मैं उसे फिर उठा नहीं सका। स्त्री-पुत्रादि के तागे में उलझकर वह फट गयी। उसका ज्ञानरूपी मस्तक (ऊपर का हिस्सा) अलग हो गया है। उठाने से ही वह गिर पड़ती है। जब सिर ही नहीं रह गया तो वह उड़ कैसे सकती है! साथ के छः आदमियों की (कामक्रोधादि की) विजय हुई। वह भक्ति के तागे से बँधी थी। खेलने के लिए आते ही तो यह भ्रम सवार हो गया। ‘नरेशचन्द्र’ को इस हँसने और रोने से तो बेहतर आना ही न था।”

फिर गाना होने लगा। गीत के साथ ही मृदंग-करताल बजने लगे। श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ नाच रहे हैं।

(गीत का भावार्थ) - ‘मेरा मन-मधुप श्यामापद-नीलकमल में मस्त हो गया। कामादि पुष्पों में जितने विषय-मधु थे, सब तुच्छ हो गए। चरण काले हैं, मधुप काला है, काले से काला मिल गया। पंचतत्त्व यह तमाशा देखकर भाग गए। ‘कमलाकान्त’ के मन की आशा इतने दिनों में पूर्ण हुई। सुख -दुःख दोनों बराबर हुए; केवल आनन्द का सागर उमड़ रहा है।”

कीर्तन हो रहा है, और भक्त गा रहे हैं।

(भावार्थ) - “श्यामा माँ ने एक कल बनायी है। साढ़े-तीन हाथ की कल के भीतर वह कितने ही रंग दिखा रही है। वही स्वयं कल के भीतर रहकर कल की डोर पकड़कर उसे घुमाया करती है। कल कहती है, मैं खुद घूमती हूँ। वह यह नहीं जानती कि कौन उसे घुमा रहा है। जिसने कल को पहचान लिया है, उसे कल न होना होगा। किसी किसी कल की भक्तिरूपी डोर में श्यामा माँ स्वयं बँधी हुई है।”

भक्त लोग आनन्द करने लगे। जब उन्होंने थोड़ी देर के लिए गाना बन्द किया तब श्रीरामकृष्ण उठे। इधर उधर अभी अनेक भक्त हैं।

श्रीरामकृष्ण पंचवटी से अपने कमरे की ओर जा रहे हैं। मास्टर साथ हैं। बकुल के पेड़ के नीचे जब वे आये तब त्रैलोक्य से भेंट हुई। उन्होंने प्रणाम किया।

श्रीरामकृष्ण (त्रैलोक्य से) - पंचवटी में वे लोग गा रहे हैं, एक बार चलकर देखो तो।

त्रैलोक्य - मैं जाकर क्या करूँ।

श्रीरामकृष्ण - क्यों, देखने का आनन्द मिलता।

त्रैलोक्य - एक बार देख आया।

श्रीरामकृष्ण - अच्छा, ठीक है।

(८)

श्रीरामकृष्ण और गृहस्थधर्म

साढ़े-पाँच या छःबजे का समय है। श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ अपने कमरे के दक्षिण-पूर्ववाले बरामदे में बैठे हुए हैं। भक्तों को देख रहे हैं।

श्रीरामकृष्ण (केदार आदि भक्तों से) - जो संसारत्यागी है वह तो ईश्वर का नाम लेगा ही। उसको तो और दूसरा काम ही नहीं। वह यदि ईश्वर का चिन्तन करता है तो उसमें आश्चर्य की बात क्या है! वह यदि ईश्वर की चिन्ता न करे, यदि ईश्वर का नाम न ले, तो लोग उसकी निन्दा करेंगे।

“संसारी मनुष्य यदि ईश्वर का नाम जपे, तो समझो उसमें बड़ी मर्दानगी है। देखो, राजा जनक बड़े ही मर्द थे। वे दो तलवारें चलाते थे, एक ज्ञान की और एक कर्म की। एक और पूर्ण ज्ञान था, और दूसरी ओर वे संसार का कर्म कर रहे थे। बदचलन स्त्री घर के सब कामकाज बड़ी खूबी से करती है, परन्तु वह सदा अपने यार की चिन्ता में रहती है।

“साधुसंग की सदा आवश्यकता है। साधु ईश्वर से मिला देते हैं।”

केदार - जी हाँ, महापुरुष जीवों के उद्वार के लिए आते हैं। जैसे रेलगाड़ी के इंजन के पीछे कितनी ही गाड़ियाँ बँधी रहती हैं, परन्तु वह उन्हें घसीट ले जाता है। अथवा जैसे नदी या तड़ाग कितने ही जीवों की प्यास बुझाते हैं।

क्रमशः भक्तगण घर लौटने लगे। सभी ने श्रीरामकृष्ण को भूमिष्ठ हो प्रणाम किया। भवनाथ को देखकर श्रीरामकृष्ण बोले, “तू आज न जा, तुझ जैसों को देखते ही उद्दीपना हो जाती है।”

भवनाथ अभी संसारी नहीं हुए। उम्र उन्नीस-बीस होगी। गोरा रंग, सुन्दर देह। ईश्वर के नाम से आँखों में आँसू आ जाते हैं। श्रीरामकृष्ण उन्हें साक्षात् नारायण देखते हैं!

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