परिच्छेद २७ - ब्राह्मभक्तों के प्रति उपदेश

(१)

समाधि में

फाल्गुन के कृष्णपक्ष की पंचमी है, बृहस्पतिवार, २९ मार्च १८८३। दोपहर को भोजन करके भगवान् श्रीरामकृष्ण थोड़ी देर के लिए विश्राम कर रहे हैं। दक्षिणेश्वर के कालीमन्दिर का वही पहले का कमरा है। सामने पश्चिम की ओर गंगा बह रही है। दिन के दो बजे का समय है। ज्वार आ रहा है।

कोई कोई भक्त आए हुए हैं। ब्राह्मभक्त श्री अमृत और ब्राह्मसमाज के नामी गवैये श्री त्रैलोक्य - जिन्होंने केशव सेन के ब्राह्म समाज में भगवान् की लीलाओं का गुणगान कर बालक, वृद्ध सभी का कितनी बार मन लुभाया है - आए हैं।

राखाल बीमार हैं। उन्हीं की बात श्रीरामकृष्ण भक्तों से कह रहे हैं।

श्रीरामकृष्ण - यह लो, राखाल बीमार पड़ गया। क्या सोडा पीने से अच्छा होता है? न जाने क्या होगा! राखाल, तू जगन्नाथ का प्रसाद खा।

यह कहते कहते श्रीरामकृष्ण एक अद्भुत भाव में आ गये। शायद आप देख रहे हैं, साक्षात् नारायण सामने राखाल के रूप में बालक का वेष धारण करके आ गए हैं। इधर कामिनीकांचन-त्यागी बालकभक्त शुद्धात्मा राखाल हैं और उधर भगवत्प्रेम में सदा मस्त रहनेवाले श्रीरामकृष्ण की प्रेमभरी दृष्टि - अतएव वात्सल्यभाव का उदय होना स्वाभाविक था। राखाल को वात्सल्यभाव से देखते हुए आप बड़े ही प्रेम से ‘गोविन्द’ ‘गोविन्द’ उच्चारण करने लगे। श्रीकृष्ण को देखकर यशोदा के मन में जिस भाव का उदय होता था, यह शायद वही भाव है! भक्तगण यह अद्भुत दृश्य देख रहे हैं। एकाएक वह भाव स्थिर हो गया। ‘गोविन्द’ नाम जपते हुए भक्तावतार श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हो गए! शरीर चित्रवत् स्थिर हो गया। इन्द्रियाँ मानो अपने काम से जबाब देकर चली गयीं। नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि स्थिर हो रही है। साँस चल रही है या नहीं, इसमें सन्देह है। इस लोक में केवल शरीर पड़ा हुआ है, आत्माराम चिदाकाश में विहार कर रहे हैं। अब तक जो माता की तरह सन्तान के लिए घबड़ाए हुए थे, वे अब कहाँ हैं? क्या इसी अद्भुत अवस्था का नाम समाधि है?

इसी समय गेरुए कपड़े पहने हुए एक अपरिचित बंगाली सज्जन आ पहुँचे। भक्तों के बीच में बैठ गए।

(२)

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्। इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥

(गीता, ३।६)

गेरुआ वस्त्र और संन्यासी - अभिनय में भी झूठा आचरण नहीं करना चाहिए।

धीरे धीरे श्रीरामकृष्ण की समाधि छूटने लगी। भाव में आप ही आप बातचीत कर रहे हैं।

श्रीरामकृष्ण (गेरुआ देखकर) - यह गेरुआ क्यों? क्या कुछ लपेट लेने ही से हो गया? (हँसते हैं।) किसी ने कहा था - ‘चण्डी छोड़कर अब ढोल बजाता हूँ।’ पहले चण्डी के गीत गाता था, फिर ढोल बजाने लगा। (सब हँसते हैं।’)

“वैराग्य तीन-चार प्रकार के होते हैं। जिसने संसार की ज्वाला से दग्ध होकर गेरुआ धारण कर लिया है, उसका वैराग्य अधिक दिन नहीं टिकता। किसी ने देखा, काम कुछ मिलता नहीं, झट गेरुआ पहनकर काशी चला गया! तीन महीने बाद घर में चिट्ठी आयी, उसने लिखा है - ‘मुझे काम मिल गया है, कुछ ही दिनों में घर आऊँगा, चिन्ता न करना!’ परन्तु जिसके सब कुछ है, चिन्ता की कोई बात नहीं, किन्तु फिर भी कुछ अच्छा नहीं लगता, अकेले अकेले में भगवान् के लिए रोता है, उसी का वैराग्य यथार्थ वैराग्य है।

“मिथ्या कुछ भी अच्छा नहीं। मिथ्या वेष भी अच्छा नहीं। वेष के अनुकूल यदि मन न हुआ, तो क्रमशः उससे महा अनर्थ हो जाता है। झूठ बोलने या बुरा कर्म करने से धीरे धीरे उसका भय चला जाता है। इससे सादे कपड़े पहनना अच्छा है। मन में आसक्ति भरी है, कभी कभी पतन भी हो जाता है, और बाहर से गेरुआ! यह बड़ा ही भयानक है!

केशव के घर जाना और नववृन्दावन दर्शन

“यहाँ तक कि जो लोग सच्चे हैं उनके लिए कौतुकवश भी झूठ की नकल बुरी चीज है। केशव सेन के यहाँ मैं ‘नववृन्दावन’ नाटक देखने गया था। न जाने कैसा क्रास (Cross) वह लाया और फिर पानी छिड़कने लगा; कहता था, शान्तिजल है। एक को देखा, मतवाला बना बहक रहा था।

ब्राह्मभक्त - कु. बाबू थे।

श्रीरामकृष्ण - भक्त के लिए इस तरह का स्वाँग करना भी अच्छा नहीं। उन सब विषयों में बड़ी देर तक मन को डाल रखना दोष है। मन धोबी के घर का कपड़ा है, जिस रंग से रंगोगे, वही रंग उस पर चढ़ जाएगा। मिथ्या में बड़ी देर तक डाल रखोगे तो मिथ्या ही हो जाएगा।

“एक दूसरे दिन ‘निमाई-संन्यास’ का अभिनय था। केशव के घर में मैं भी देखने के लिए गया था। केशव के कुछ खुशामदी चेलों ने अभिनय बिगाड़ डाला था। एक ने केशव से कहा ‘कलिकाल के चैतन्य तो आप ही हैं’। केशव मेरी ओर देखकर हँसता हुआ कहने लगा, ‘तो फिर ये क्या हुए?’ मैंने कहा, ‘मैं तुम्हारे दासों का दास - रज की रज हूँ।’ केशव को नाम और यश की अभिलाषा थी!”

नरेन्द्र आदि नित्यसिद्ध है उनकी जन्मजात भक्ति

श्रीरामकृष्ण (अमृत और त्रैलोक्य से) - नरेन्द्र और राखाल आदि ये जो लड़के हैं, ये नित्यसिद्ध हैं। ये जन्म-जन्मान्तर से ईश्वर के भक्त हैं। अनेक लोगों को बड़ी साधना के बाद कहीं थोड़ीसी भक्ति प्राप्त होती है, परन्तु इन्हें जन्म से ही ईश्वर पर अनुराग है। मानो स्वयम्भू शिव हैं - बैठाए हुऐ शिव नहीं।

“नित्यसिद्धों का एक दर्जा ही अलग है। सभी चिड़ियों की चोंच टेढ़ी नहीं होती। ये कभी संसार में नहीं फँसते, जैसे प्रह्लाद।

“साधारण मनुष्य साधना करता है, ईश्वर पर भक्ति भी करता है, और संसार में भी फँस जाता है, स्त्री और धन के लिए भी हाथ लपकाता है। मक्खी जैसे फूल पर भी बैठती है, बर्फियों पर भी बैठती है और विष्ठा पर भी बैठती है। (सब स्तब्ध हैं।)

“नित्यसिद्ध तो मधुमक्खी की तरह होते हैं। मधुमक्खियाँ केवल फूल पर बैठती हैं और मधु ही पीती हैं। नित्यसिद्ध रामरस का ही पान करते हैं, विषयरस की ओर नहीं जाते।

“साधना द्वारा जो भक्ति प्राप्त होती है, इनकी वह भक्ति नहीं है। इतना जप, इतना ध्यान करना होगा, इस तरह पूजा करनी होगी, यह सब विधिवादीय भक्ति है। जैसे किसी गाँव में किसी को जाना है, परन्तु रास्ते में धनहे खेत पड़ते हैं, तो मेड़ों से घूमकर उसे जाना पड़ता है। अगर किसी को सामनेवाले गाँव में जाना है, परन्तु रास्ते में नदी पड़ती है, तो टेढ़ा रास्ता चक्कर लगाते हुए ही पार करना पड़ता है।

“रागभक्ति, प्रेमाभक्ति, ईश्वर पर आत्मीयों की-सी प्रीति होने पर फिर कोई विधिनियम नहीं रह जाता। तब का जाना धनहे खेतों की मेड़ों पर का जाना नहीं, किन्तु कटे हुए खेतों से सीधा निकल जाना है। चाहे जिस ओर से सीधे चले जाओ। बाढ़ आने पर फिर नदी के टेढ़े रास्ते से नहीं जाना पड़ता। तब इधर उधर की जमीन और रास्ते पर एक बाँस पानी चढ़ जाता है। तब तो बस सीधे नाव चलाकर पार हो जाओ। “इस रागभक्ति, अनुराग या प्रेम के बिना ईश्वर नहीं मिलते ।”

समाधितत्त्व सविकल्प और निर्विकल्प

अमृत - महाराज! इस समाधि-अवस्था में भला आपको क्या जान पड़ता है?

श्रीरामकृष्ण - सुना नहीं? भौंरे की चिन्ता करते करते झींगुर भौंरा ही बन जाता है। वह अनुभव कैसा होता है जानते हो? मानो हण्डी की मछली को गंगा में छोड़ दिया हो।

अमृत - क्या जरा भी अहंकार नहीं रह जाता?

श्रीरामकृष्ण - हाँ, बहुधा मेरा कुछ अहंकार रह जाता है। सोने के एक टुकड़े को तुम चाहे जितना घिस डालो पर अन्त में एक छोटासा कण बचा ही रहता है। और, जैसे कोई बड़ी भारी अग्निराशी है, उसकी एक जरासी चिनगारी हो। बाह्य ज्ञान चला जाता है, परन्तु प्रायः थोड़ासा अहंकार रह जाता है, शायद वे विलास के लिए रख छोड़ते हैं। ‘मैं’ और ‘तुम’ इन दोनों के रहने ही से स्वाद मिलता है। कभी कभी इस ‘अहं’ को भी वे मिटा देते हैं। इसे ‘जड़ समाधि’ या ‘निर्विकल्प समाधि’ कहते हैं। तब क्या अवस्था होती है, यह कहा नहीं जा सकता! नमक का पुतला समुद्र नापने गया था। ज्योंही समुद्र में उतरा कि गल गया। ‘तदाकाराकारित’! अब लौटकर कौन बतलाये कि समुद्र कितना गहरा है!

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