परिच्छेद ९ - दक्षिणेश्वर में भक्तों के साथ
श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर में भक्तों के साथ विराजमान हैं। दिन बृहस्पतिवार है, सावन शुक्ला दशमी, २४ अगस्त १८८२ ई. ।
आजकल श्रीरामकृष्ण के पास हाजरा महाशय, रामलाल, राखाल आदि रहते हैं। श्रीयुत रामलाल श्रीरामकृष्ण के भतीजे हैं; कालीमन्दिर में पूजा करते हैं। मास्टर ने आकर देखा, उत्तर-पूर्व के लम्बे बरामदे में श्रीरामकृष्ण हाजरा के पास खड़े हुए बातें कर रहे हैं। मास्टर ने भूमिष्ठ हो श्रीरामकृष्ण की चरणवन्दना की।
श्रीरामकृष्ण का मुख सहास्य है। मास्टर से कहने लगे - “विद्यासागर से और भी दो एक बार मिलना चाहिए। चित्रकार पहले नक्शा खींच लेता है, फिर उस पर रंग चढ़ाता रहता है। प्रतिमा पर पहले दो तीन बार मिट्टी चढ़ायी जाती है, फिर सफेद रंग चढ़ाया जाता है, फिर वह ढंग से रँगी जाती है। - विद्यासागर का सब कुछ ठीक है, सिर्फ ऊपर कुछ मिट्टी पड़ी हुई है। कुछ अच्छे काम करता है; परन्तु हृदय में क्या है उसकी खबर नहीं। हृदय में सोना दबा पड़ा है। हृदय में ईश्वर है, - यह समझने पर सब कुछ छोड़कर व्याकुल हो उसे पुकारने की इच्छा होती है।”
श्रीरामकृष्ण मास्टर से खड़े खड़े वार्तालाप कर रहे हैं, कभी बरामदे में टहल रहे हैं।
साधना कामिनी-कांचनरूपी तूफान से पार होने के लिए
श्रीरामकृष्ण - हृदय में क्या है इसका ज्ञान प्राप्त करने के लिए कुछ साधना आवश्यक है।
मास्टर - साधना क्या बराबर करते ही जाना चाहिए?
श्रीरामकृष्ण - नहीं, पहले कुछ कमर कसकर करनी चाहिए। फिर ज्यादा मेहनत नहीं उठानी पड़ती। जब तक तरंग, आँधी, तूफान और नदी की मोड़ से नौका जाती है तभी तक मल्लाह को मजबूती से पतवार पकड़नी पड़ती है; उतने से पार हो जाने पर फिर नहीं। जब वह मोड़ से बाहर हो गया और अनुकूल हवा चली तब वह आराम से बैठा रहता है, पतवार में हाथ भर लगाए रहता है। फिर तो पाल टाँगने का बन्दोबस्त करके आराम से चिलम भरता है। कामिनी और कांचन की आँधी, तूफान से निकल जाने पर शान्ति मिलती है।
श्रीरामकृष्ण तथा योगतत्त्व योगभ्रष्ट योगावस्था
“निर्वातनिष्कम्पमिव प्रदीपम्” - योग के विघ्न
“किसी किसी में योगियों के लक्षण दीखते हैं परन्तु उन लोगों को भी सावधानी से रहना चाहिए। कामिनी और कांचन ही योग में विघ्न डालते हैं। योगभ्रष्ट होकर साधक फिर संसार में आता है, - भोग की कुछ इच्छा रही होगी। इच्छा पूरी होने पर वह फिर ईश्वर की ओर जाएगा - फिर वही योग की अवस्था होगी। ‘सटका’ कल जानते हो?”
मास्टर - जी नहीं।
श्रीरामकृष्ण - उस देश में है*। बाँस को झुका देते हैं। उसमें बंसी और डोर लगी रहती है। काँटे में मछलियों के खाने का चारा बेध दिया जाता है। ज्योंही मछली उसे निगल जाती है, त्योंही वह बाँस झटके के साथ ऊपर उठ जाता है। जिस प्रकार उसका सिर ऊँचा था वैसा ही हो जाता है।
“तराजू में किसी ओर कुछ रख देने से नीचे की सुई और ऊपर की सुई दोनों बराबर नहीं रहतीं। नीचे की सुई मन है और ऊपर की सुई ईश्वर। नीचे की सुई का ऊपर की सुई से एक होना ही योग है।
“मन के स्थिर हुए बिना योग नहीं होता। संसार की हवा मनरूपी दीपशिखा को सदा ही चंचल किया करती है। वह शिखा यदि जरा भी न हिले तो योग की अवस्था हो जाती है।
“कामिनी और कांचन योग के विघ्न हैं। वस्तुविचार करना चाहिए। स्त्रियों के शरीर में क्या है - रक्त, मांस, आँतें, कृमि, मूत्र, विष्ठा - यही सब। उस शरीर पर प्यार क्यों?
“त्याग के लिए मैं अपने में राजसी भाव भरता था। साध हुई थी कि जरी की पोशाक पहनूँगा, अँगूठी पहनूँगा, लम्बी नलीवाले हुक्के में तम्बाकू पिऊँगा। जरी की पोशाक पहनी। ये लोग (रानी रासमणि के दामाद मथुरबाबू आदि) ले आए थे। कुछ देर बाद मन से कहा - यही शाल है, यही अँगूठी है, यही हुक्के में तम्बाकू पीना है। सब फेंक दिया, तब से फिर मन नहीं चला।”
शाम हो रही है। कमरे के दक्षिण-पूर्व की ओर के बरामदे में द्वार के पास ही, अकेले में श्रीरामकृष्णमणि† से बातें कर रहे हैं।
श्रीरामकृष्ण - योगियों का मन सदा ईश्वर में लगा रहता है - सदा आत्मस्थ रहता है। शून्य दृष्टि, देखते ही उनकी अवस्था सूचित हो जाती है। समझ में आ जाता है कि चिड़िया अण्डे को से रही है। सारा मन अण्डे ही की ओर है, ऊपर दृष्टि तो नाममात्र की है। अच्छा, ऐसा चित्र क्या मुझे दिखा सकते हो?
मणि - जैसी आज्ञा। चेष्टा करूँगा यदि कहीं मिल जाय।
(२)
गुरुशिष्य-संवाद गुह्यकथा
शाम हो गयी। कालीमन्दिर, राधाकान्तजी के मन्दिर और अन्यान्य कमरों में बत्तियाँ जला दी गयीं। श्रीरामकृष्ण अपनी छोटी खाट पर बैठे हुए जगन्माता का स्मरण कर रहे हैं। तदनन्तर वे ईश्वर का नाम जपने लगे। घर में धूनी दी गयी है। एक ओर दीवट पर दिया जल रहा है। कुछ देर बाद शंख घण्टा आदि बजने लगे। कालीमन्दिर में आरती होने लगी। तिथि शुक्ला दशमी है; चारों ओर चाँदनी छिटक रही है।
आरती हो जाने पर कुछ क्षण बाद श्रीरामकृष्ण मणि के साथ अकेले अनेक विषयों पर बातें करने लगे। मणि फर्श पर बैठे हैं।
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन”
श्रीरामकृष्ण - कर्म निष्काम करना चाहिए। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जो कर्म करता है वे अच्छे हैं; वह निष्काम कर्म करने की चेष्टा करता है।
मणि - जी हाँ। अच्छा; जहाँ कर्म है वहाँ क्या ईश्वर मिलते हैं? राम और काम क्या एक ही साथ रहते हैं? हिन्दी में मैंने पढ़ा है कि ‘जहाँ काम तहँ राम नहिं, जहाँ राम नहिं काम।’
श्रीरामकृष्ण - कर्म सभी करते हैं। उनका नाम लेना कर्म है - साँस लेना और छोड़ना भी कर्म है। क्या मजाल है कि कोई कर्म छोड़ दे! इसलिए कर्म करना चाहिए, किन्तु फल ईश्वर को समर्पित कर देना चाहिए।
मणि - तो क्या ऐसी चेष्टा की जा सकती है कि जिससे अधिक धन मिले?
श्रीरामकृष्ण - हाँ, की जा सकती है किन्तु यदि विद्या का परिवार हो, तो। अधिक धन कमाने का प्रयत्न करो, परन्तु सदुपाय से। उद्देश्य उपार्जन नहीं, ईश्वर की सेवा है। धन से यदि ईश्वर की सेवा होती है तो उस धन में दोष नहीं है।
मणि - घरवालों के प्रति कर्तव्य कब तक रहता है?
श्रीरामकृष्ण - उन्हें भोजनवस्त्र का अभाव न हो। सन्तान जब स्वयं समर्थ होगी, तब भार-ग्रहण की आवश्यकता नहीं। चिड़ियों के बच्चे जब खुद चुगने लगते हैं तब माँ के पास यदि खाने के लिए आते हैं तो माँ चोंच मारती है।
मणि - कर्म कब तक करना होगा?
श्रीरामकृष्ण - फल होने पर फूल नहीं रह जाता। ईश्वरलाभ हो जाने से कर्म नहीं करना पड़ता, मन भी नहीं लगता।
“ज्यादा शराब पी लेने से मतवाला होश नहीं सम्हाल सकता - दुअन्नीभर पीने से कामकाज कर सकता है। ईश्वर की ओर जितना ही बढ़ोगे उतना ही वे कर्म घटाते रहेंगे। डरो मत। गृहस्थ की बहू के जब लड़का होनेवाला होता है तब उसकी सास धीरे धीरे काम घटाती जाती है। दसवें महीने में काम छूने भी नहीं देती। लड़का होने पर वह उसी को लिए रहती है।
“जो कुछ कर्म है, जहाँ वे समाप्त हो गए कि चिन्ता दूर हो गयी। गृहिणी घर का सारा कामकाज समाप्त करके जब कहीं बाहर निकलती है, तब जल्दी नहीं लौटती, बुलाने पर भी नहीं आती।”
ईश्वरलाभ तथा ईश्वरदर्शन का अर्थ
मणि - अच्छा, ईश्वरलाभ के क्या माने हैं? ईश्वरदर्शन किसे कहते हैं और किस तरह होते हैं?
श्रीरामकृष्ण - वैष्णव कहते हैं कि ईश्वरमार्ग के पथिक चार प्रकार के होते हैं - प्रवर्तक, साधक, सिद्ध और सिद्धों में सिद्ध। जो पहले ही पहल मार्ग पर आया है वह प्रवर्तक है। जो भजन-पूजन, जप-ध्यान, नाम-गुणकीर्तनादी करता है वह साधक है। जिसे ईश्वर के अस्तित्व का अनुभव मात्र हुआ है वह सिद्ध है। उसकी वेदान्त में एक उपमा है, - वह यह कि अँधेरे घर में बाबूजी सो रहे हैं। कोई टटोलकर उन्हें खोज रहा है। कोच पर हाथ जाता है, तो वह मन ही मन कह उठता है - यह नहीं है; झरोखा छू जाता है तो भी कह उठता है - यह नहीं है; दरवाजे में हाथ लगता है तो यह भी नहीं है, - नेति नेति नेति। अन्त में जब बाबूजी की देह पर हाथ लगा तो कहा - यह - बाबूजी यह हैं; अर्थात अस्ति का बोध हुआ। बाबूजी को प्राप्त तो किया किन्तु भलीभाँति जान-पहचान नहीं हुई।
“एक दर्जे के और लोग हैं, जो सिद्धों में सिद्ध कहलाते हैं। बाबूजी के साथ यदि विशेष वार्तालाप हो तो वह एक और ही अवस्था है, यदि ईश्वर के साथ प्रेम-भक्ति द्वारा विशेष परिचय हो जाय तो दूसरी ही अवस्था हो जाती है। जो सिद्ध है उसने ईश्वर को पाया तो है, किन्तु जो सिद्धों में सिद्ध है उसका ईश्वर के साथ विशेष परिचय हो गया है।
“परन्तु उनको प्राप्त करने की इच्छा हो तो एक न एक भाव का सहारा लेना पड़ता है, जैसे - शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य या मधुर।
“शान्त भाव ऋषियों का था। उनमें भोग की कोई वासना न थी; ईश्वरनिष्ठा थी जैसी पति पर स्त्री की होती है; वह यह समझती है कि मेरे पति कन्दर्प हैं।
“दास्य - जैसे हनुमान का; रामकाज करते समय सिंहतुल्य। स्त्रियों का भी दास्य भाव होता है, - पति की हृदय खोलकर सेवा करती है। माता में भी यह भाव कुछ कुछ रहता है, - यशोदा में था।
“सख्य - मित्रभाव। आओ, पास बैठो। सुदामा आदि श्रीकृष्ण को कभी जूठे फल खिलाते थे, कभी कन्धे पर चढ़ते थे।
“वात्सल्य - जैसे यशोदा का। स्त्रियों में भी कुछ कुछ होता है, - स्वामी को खिलाते समय मानो जी काढ़कर रख देती हैं। लड़का जब भरपेट भोजन कर लेता है, तभी माँ को सन्तोष होता है। यशोदा कृष्ण को खिलाने के लिए मक्खन हाथ में लिए घूमती फिरती थीं।
“मधुर - जैसे श्रीराधिका का। स्त्रियों का भी मधुर भाव है। इस भाव में शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य सब भाव हैं।”
मणि - क्या ईश्वर के दर्शन इन्हीं नेत्रों से होते हैं?
श्रीरामकृष्ण - चर्मचक्षु से उन्हें कोई नहीं देख सकता। साधना करते करते शरीर प्रेम का हो जाता है। आँखें प्रेम की, कान प्रेम के। उन्हीं आँखों से वे दीख पड़ते हैं, उन्हीं कानों से उनकी वाणी सुन पड़ती है। और प्रेम का लिंग और योनि भी होती है।
यह सुनकर मणि खिलखिलाकर हँस पड़े। श्रीरामकृष्ण जरा भी नाराज न होकर फिर कहने लगे।
श्रीरामकृष्ण - इस प्रेम के शरीर में आत्मा के साथ रमण होता है।
मणि फिर गम्भीर हो गए।
श्रीरामकृष्ण - “ईश्वर को बिना खूब प्यार किये दर्शन नहीं होते।
“खूब प्यार करने से चारों ओर ईश्वर ही ईश्वर दीखते हैं। जिसे पीलिया हो जाता है उसे चारों ओर पीला दिखायी पड़ता है।
“तब ‘मैं वही हूँ’ यह बोध भी हो जाता है। मतवाले का नशा जब खूब चढ़ जाता है तब वह कहता है, ‘मैं ही काली हूँ’।
“गोपियाँ प्रेमोन्मत्त होकर कहने लगीं - ‘मैं ही कृष्ण हूँ’।
“दिनरात उन्हीं की चिन्ता करने से चारों ओर वे ही दीख पड़ते हैं। जैसे थोड़ी देर दीपशिखा की ओर ताकते रहो, तो फिर चारों ओर सब कुछ शिखामय ही दिखायी देता है।”
क्या ईश्वरदर्शन मस्तिष्क का भ्रम है? “संशयात्मा विनश्यति”
मणि सोचते हैं कि वह शिखा तो सत्य शिखा है नहीं।
अन्तर्यामी श्रीरामकृष्ण कहने लगे - “चैतन्य की चिन्ता करने से कोई अचेत नहीं हो जाता। शिवनाथ ने कहा था, ‘ईश्वर की बार बार चिन्ता करने से लोग पागल हो जाते हैं।’ मैंने उससे कहा, ‘चैतन्य की चिन्ता करने से क्या कभी कोई चैतन्यहीन होता है?’ ”
मणि - जी, समझा। यह तो किसी अनित्य विषय की चिन्ता है नहीं; जो नित्य और चेतन हैं उनमें मन लगाने से मनुष्य अचेतन क्यों होने लगा?
श्रीरामकृष्ण (प्रसन्न होकर) - यह उनकी कृपा है। बिना उनकी कृपा के सन्देह-भंजन नहीं होता।
“आत्मदर्शन के बिना सन्देह दूर नहीं होता।
“उनकी कृपा होने पर फिर कोई भय की बात नहीं रह जाती। पुत्र यदि पिता का हाथ पकड़कर चले तो गिर भी सकता है परन्तु यदि पिता पुत्र का हाथ पकड़े तो फिर गिरने का कोई भय नहीं। वे यदि कृपा करके संशय दूर कर दें और दर्शन दें तो फिर कोई दुःख नहीं। परन्तु उन्हें पाने के लिए खूब व्याकुल होकर पुकारना चाहिए - साधना करनी चाहिए - तब उनकी कृपा होती है। पुत्र को दौड़ते हाँफते देखकर माता को दया आ जाती है। माँ छिपी थी। सामने प्रकट हो जाती है।”
मणि सोच रहे हैं, ईश्वर दौड़धूप क्यों कराते हैं? श्रीरामकृष्ण तुरन्त कहने लगे - “उनकी इच्छा कि कुछ देर दौड़धूप हो तो आनन्द मिले। लीला से उन्होंने इस संसार की रचना की है। इसी का नाम महामाया है। अतएव उस शक्तिरूपिणी महामाया की शरण लेनी पड़ती है। माया के पाशों ने बाँध लिया है, फाँस काटने पर ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं।”
आद्याशक्ति महामाया तथा शक्तिसाधना
श्रीरामकृष्ण - कोई ईश्वर की कृपा प्राप्त करना चाहे तो उसे पहले आद्याशक्तिरूपिणी महामाया को प्रसन्न करना चाहिए। वे संसार को मुग्ध करके सृष्टि, स्थिति और प्रलय कर रही हैं। उन्होंने सब को अज्ञानी बना डाला है। वे जब द्वार से हट जाएँगी तभी जीव भीतर जा सकता है। बाहर पड़े रहने से केवल बाहरी वस्तुएँ देखने को मिलती हैं, नित्य सच्चिदानन्द पुरुष नहीं मिलते। इसीलिए पुराणों में है - सप्तशती में - मधुकैटभ का वध करते समय ब्रह्मादि देवता महामाया की स्तुति कर रहे हैं।*
“संसार का मूल आधार शक्ति ही है। उस आद्याशक्ति के भीतर विद्या और अविद्या दोनों हैं - अविद्या मोहमुग्ध करती है। अविद्या वह है जिससे कामिनी और कांचन उत्पन्न हुए हैं, वह मुग्ध करती है; और विद्या वह है जिससे भक्ति, दया, ज्ञान और प्रेम की उत्पत्ति हुई है; वह ईश्वरमार्ग पर ले जाती है।
“उस अविद्या को प्रसन्न करना होगा। इसीलिए शक्ति की पूजापद्धति हुई।
“उन्हें प्रसन्न करने के लिए नाना भावों से पूजन किया जाता है। जैसे दासीभाव, वीरभाव, सन्तानभाव। वीरभाव अर्थात् उन्हें रमण द्वारा प्रसन्न करना।
“शक्तिसाधना - सब बड़ी विकट साधनाएँ थीं, दिल्लगी नहीं।
“मैं माँ के दासीभाव से और सखीभाव से दो वर्ष तक रहा। परन्तु मेरा सन्तानभाव है। स्त्रियों के स्तनों को मातृस्तन समझता हूँ।
“लड़कियाँ शक्ति की एक एक मूर्ति हैं। पश्चिम में विवाह के समय वर के हाथ में छुरी रहती है, बंगाल में सरौता - अर्थात् उस शक्तिरूपिणी कन्या की सहायता से वर मायापाश काट सकेगा। यह वीरभाव है। मैंने वीरभाव से पूजा नहीं की। मेरा सन्तानभाव था।
“कन्या शक्तिस्वरूपा है। विवाह के समय तुमने नहीं देखा - वर अहमक की तरह पीछे बैठा रहता है; परन्तु कन्या निःशंक रहती है!
ईश्वरदर्शन तथा ऐहिक ज्ञान या अपरा विद्या
“ईश्वरलाभ करने पर उनके बाहरी ऐश्वर्य, संसार के ऐश्वर्य को भक्त भूल जाता है। उन्हें देखने से उनके ऐश्वर्य की बात याद नहीं आती। दर्शनानन्द में मग्न हो जाने पर भक्त का हिसाबकिताब नहीं रह जाता। नरेन्द्र को देखने पर तेरा नाम क्या है, तेरा घर कहाँ है यह कुछ पूछने की जरूरत नहीं रहती। पूछने का अवसर ही कहाँ है? हनुमान से किसी ने पूछा, आज कौनसी तिथि है? हनुमान ने कहा, भाई, मैं दिन, तिथि, नक्षत्र - कुछ नहीं जानता, मैं केवल श्रीराम का स्मरण किया करता हूँ।”
Last updated