परिच्छेद १४ - सींती का ब्राह्मसमाज शिवनाथ आदि ब्राह्मभक्तों के साथ वार्तालाप और आनन्द
(१)
उत्सवमन्दिर
भगवान् श्रीरामकृष्ण सींती का ब्राह्मसमाज देखने आए हैं। २८ अक्टूबर १८८२ ई. , शनिवार, आश्विन की कृष्णा द्वितीया है।
आज यहाँ ब्राह्मसमाज के छठे महीने का उत्सव होगा। इसीलिए भगवान् श्रीरामकृष्ण को निमन्त्रण देकर बुलाया है। दिन के तीन-चार बजे का समय है, श्रीरामकृष्ण कुछ भक्तों के साथ गाड़ी पर चढ़कर दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर से श्रीयुत वेणीमाधव पाल के मनोहर बगीचे में पहुँचे हैं। इसी बगीचे में ब्राह्मसमाज का अधिवेशन हुआ करता है। ब्राह्मसमाज को वे बहुत प्यार करते हैं। ब्राह्मभक्त भी उन्हें बड़ी श्रद्धाभक्ति से देखते हैं। अभी कल ही शुक्रवार के दिन, शाम को आप केशव सेन और भक्तों के साथ जहाज पर चढ़कर हवाखोरी को निकले थे।
सींती पाइकपाड़ा के पास है। कलकत्ते से तीन मील, उत्तर दिशा में। स्थान निर्जन और मनोहर है; ईश्वरोपासना के लिए अत्यन्त उपयोगी है। बगीचे के मालिक साल में दो बार उत्सव मनाते हैं; एक बार शरत्-काल में और एक बार वसन्त में। इस महोत्सव में वे कलकत्ते और सींती के आसपास के ग्रामवासी अनेक भक्तों को निमन्त्रण देते हैं। अतएव आज कलकत्ते से शिवनाथ आदि भक्त आए हैं। इनमें से अनेक प्रातःकाल की उपासना में सम्मिलित हुए थे। वे सब सायंकालीन उपासना की प्रतीक्षा कर रहे हैं। विशेषतः उन लोगों ने सुना है कि अपराह्न में महापुरुष का आगमन होगा, अतएव उनकी आनन्द-मूर्ति देखेंगे, उनका हृदयमुग्धकारी वचनामृत पान करेंगे, मधुर संकीर्तन सुनेंगे और देखेंगे भगवत्-प्रेममय देवदुर्लभ नृत्य।
दोपहर को बगीचे में आदमी ठसाठस भर गए हैं। कोई लतामण्डप की छाया में बेंच पर बैठा हुआ है, कोई सुन्दर तालाब के किनारे मित्रों के साथ घूम रहा है। कितने ही लोग समाजगृह में पहले ही से जगह लेकर आसन पर बैठे हुए श्रीरामकृष्ण के आने की बाट जोह रहे हैं। चारों ओर आनन्द उमड़ रहा है। शरद् के नील आकाश में भी आनन्द की छाया झलक रही है। बाग के फूलों से लदे हुए पेड़ों और लताओं से छानकर आती हुई हवा भक्तों के हृदय में आनन्द का एक झोंका लगा जाती है। सारी प्रकृति मानो मधुर स्वर से गा रही है - ‘आज हर्ष-शीतल-समीर भरते भक्तों के उर में हैं विभु।’ सभी उत्कण्ठित हो रहे हैं, ऐसे समय श्रीरामकृष्ण की गाड़ी आकर समाजगृह के सामने खड़ी हो गयी।
सभी ने उठकर महापुरुष का स्वागत किया। वे आये हैं - सुनते ही लोगों ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया।
समाजगृह के प्रधान कमरे में वेदी बनायी गयी है। वह जगह आदमियों से भर गयी है। सामने दालान है; वहाँ श्रीरामकृष्ण बैठै हैं; वहाँ भी लोग जम गए हैं। दालान के दोनों ओर दो कमरे हैं - वहाँ भी लोग हैं, - सभी दरवाजे पर खड़े हुए बड़े उत्सुक होकर श्रीरामकृष्ण को देख रहे हैं। दालान पर चढ़ने की सीढ़ियाँ बराबर दालान के एक छोर से दूसरे छोर तक हैं। इन सीढ़ियों पर भी अनेक लोग खड़े हैं। वहाँ से कुछ दूर पेड़ों और लतामण्डपों के नीचे रखी हुई बेंचों पर से भी लोग टक लगाकर महापुरुष के दर्शन कर रहे हैं। दोनों ओर फल और फूलों के पेड़ों की कतार लगी हुई है, - बीच में रास्ता है। सभी पेड़ हवा की झोंकों से धीरे धीरे डोल रहे हैं, मानो वे आनन्दमग्न हो मस्तक नवाकर उनका स्वागत कर रहे हों।
श्रीरामकृष्ण ने हँसते हुए आसन ग्रहण किया। सब की दृष्टि एक साथ उनकी आनन्दमूर्ति पर जा गिरी। जब तक रंगमंच पर खेल शुरू नहीं होता तब तक दर्शकवृन्दों में से कोई तो हँसता है, कोई विषयचर्चा छेड़ता है, कोई अकेला या दोस्तों के साथ टहलता है, कोई पान खाता है, कोई सिगरेट पीता है। परन्तु परदा उठते ही सब लोग बातचीत बन्द कर, अनन्यचित्त होकर एकाग्र दृष्टि से खेल देखने लगते हैं। अथवा, एक फूल से दूसरे फूल में मँडरानेवाले भौंरे कमल की खोज पाते ही दूसरे फूलों को छोड़कर पद्ममधु का पान करने के लिए भागे चले आते हैं।
(२)
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते। स गुणान् समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते। (गीता, १४।२६)
हँसमुख श्रीरामकृष्ण शिवनाथ आदि भक्तों की ओर स्नेह की दृष्टि फेरते हुए कहते हैं, “क्या शिवनाथ! तुम भी आये हो? देखो तुम लोग भक्त हो, तुम लोगों को देखकर बड़ा आनन्द होता है। गंजेड़ी का स्वभाव होता है कि दूसरे गंजेड़ी को देखते ही वह खुश हो जाता है; कभी तो उसे गले ही लगा लेता है। (शिवनाथ तथा अन्य सब हँसते हैं।)
संसारी लोगों का स्वभाव। नाममाहात्म्य
श्रीरामकृष्ण - जिन्हें मैं देखता हूँ कि मन ईश्वर पर नहीं है, उनसे कहता हूँ ‘तुम कुछ देर वहाँ जाकर बैठो’ या कह देता हूँ, ‘जाओ, इमारतें (रानी रासमणि के मन्दिर आदि) देखो।’ (सब हँसे।)
“कभी तो देखा है कि भक्तों के साथ निकम्मे आदमी आए हैं। उनमें बड़ी विषयबुद्धि रहती है। ईश्वरी चर्चा नहीं सुहाती। भक्त तो बड़ी देर तक मुझसे ईश्वरी वार्तालाप करते हैं, पर वे लोग उधर बैठे नहीं रह सकते; तड़फड़ाते हैं। बार बार कानों में फिसफिसाते हुए कहते हैं, ‘कब चलोगे - कब चलोगे?’ उन्होंने अगर कहा, ‘ठहरो भी, जरा देर बाद चलते हैं’, तो इन लोगों ने रूठकर कहा, ‘तो तुम बातचीत करो, हम नाव पर चलकर बैठते हैं।’ (सब हँसे।)
“संसारी मनुष्यों से यदि कहो कि सब छोड़-छाड़कर ईश्वर के पादपद्मों में मन लगाओ तो वे कभी न सुनेंगे। यही कारण है कि गौरांग और नित्यानन्द दोनों भाइयों ने आपस में विचार करके यह व्यवस्था की - ‘मागुर माछेर झोल (मागुर मछली की रसदार तरकारी), युवती मेयेर कोल (युवती स्त्री का अंक), बोल हरि बोल।’ प्रथम दोनों के लोभ से बहुत आदमी ‘हरि बोल’ में शामिल होते थे। फिर तो हरिनामामृत का कुछ स्वाद पाते ही वे समझ जाते थे कि ‘मागुर माछेर झोल’ और कुछ नहीं है, - ईश्वरप्रेम के जो आँसू उमड़ते हैं, वही है। और युवती स्त्री है पृथ्वी - ‘युवती स्त्री का अंक’ अर्थात् भगवत्-प्रेम के कारण धूलि में लोटपोट हो जाना।
“नित्यानन्द किसी तरह हरिनाम करा लेते थे। चैतन्यदेव ने कहा है, ईश्वर के नाम का बड़ा माहात्म्य है। फल जल्दी न मिलने पर भी कभी न कभी अवश्य प्राप्त होगा। जैसे, कोई पक्के मकान के आले में बीज रखा गया था। बहुत दिनों के बाद जब मकान गिर गया - मिट्टी में मिल गया, तब भी उस बीज से पेड़ पैदा हुआ और उसमें फल भी लगे।”
मनुष्यप्रकृति तथा तीन गुण। भक्ति का सत्त्व, रज, तम।
श्रीरामकृष्ण - जैसे संसारियों में सत्त्व, रज और तम - ये तीनों गुण हैं, भक्ति में भी सत्त्व, रज और तम तीन गुण हैं।
“संसारियों का सत्त्वगुण कैसा होता है, जानते हो? घर यहाँ टूटा है, वहाँ टूटा है - मरम्मत नहीं कराते। पूजागृह के बरामदे में कबूतरों की विष्ठा पड़ी है। आँगन में काई जम गयी है। होश तक नहीं। असबाब सब पुराने हो गए हैं। ठीक-ठाक करने की कोशिश नहीं करते। कपड़ा जो मिला वही सही। देखने में सीधेसादे, शान्त, दयालु, मिलनसार, कभी किसी का बुरा नहीं चाहते।
“और फिर संसारियों के रजोगुण के भी लक्षण हैं। जेब-घड़ी, चेन, उँगलियों में दो-तीन अँगूठियाँ, मकान की चीजें बड़ी साफ, दीवार पर क्वीन (रानी) की तस्वीर, राजपुत्र की तस्वीर, किसी बड़े आदमी की तस्वीर। मकान चूने से पुता हुआ - कहीं एक दाग तक नहीं। तरह तरह की अच्छी पोशाक। नोकरों के भी वर्दियाँ। - आदि आदि।
“संसारियों के तमोगुण के लक्षण हैं - निद्रा, काम-क्रोध, अहंकार - यही सब।
“और भक्ति का भी सत्त्व है। जिस भक्त में सत्त्वगुण है वह एकान्त में ध्यान करता है। कभी तो वह मसहरी के भीतर ध्यान करता है। लोग समझते हैं कि आप सो रहे हैं, शायद रात को आँख नहीं लगी, इसलिए आज उठने में देर हो रही है। इधर शरीर का ख्याल बस भूख मिटाने तक, साग-पात पाने ही से चल गया। न भोजन में भरमार, न पोशाक में टीम-टाम और न घर में चीजों का जमघट और फिर सतोगुणी भक्त कभी खुशामद करके धन नहीं कमाता।
“भक्ति का रज जिस भक्त को होता है वह तिलक लगाता है, रुद्राक्ष की माला पहनता है, जिसके बीच बीच सोने के दाने जड़े रहते हैं (सब हँसते हैं।) जब पूजा करता है तब पीताम्बर पहन लेता है!”
(३)
क्लैब्यं मास्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप॥ (गी ता, २।३)
श्रीरामकृष्ण - जिसे भक्ति का तम होता है उसका विश्वास अटूट है। इस प्रकार का भक्त हठपूर्वक ईश्वर से भिड़ जाता है, मानो डाका डालकर धन छीन लेता है। ‘मारो, काटो, बाँधो’! इस तरह डाका डालने का भाव है।
नाममाहात्म्य तथा पाप
श्रीरामकृष्ण ऊर्ध्वदृष्टि हैं, प्रेमरस से भरे मधुर कण्ठ से गा रहे हैं, भाव यह हैः - “ ‘काली काली’ जपते हुए यदि मेरे शरीर का अन्त हो तो गया गंगा-काशीकांची-प्रभास आदि की परवाह कौन करता है? हे काली, तुम्हारा भक्त पूजा-सन्ध्यादि नहीं चाहता, सन्ध्या खुद उसकी खोज में फिरती है, पर पता नहीं लगा सकती। दया-व्रत-दान आदि पर उसका मन नहीं जाता। मदन के याग-यज्ञ ब्रह्ममयी के रक्तिम चरणों में होते हैं। काली के नाम का गुण, जिसे देवाधिदेव महादेव पाँचों मुख से गाते हैं, कौन जान सकता है?
श्रीरामकृष्ण भावोन्मत्त हो मानो अग्निमन्त्र से दीक्षित होकर गाने लगे। गीत का आशय यह है :-
“यदि मैं ‘दुर्गा दुर्गा’ जपता हुआ मरूँ तो अन्त में इस दीन को, हे शंकरी, देखूँगा तुम कैसे नहीं तारती हो।”
श्रीरामकृष्ण - “क्या! मैंने उनका नाम लिया है - मुझे पाप! मैं उनकी सन्तान हूँ - उनके ऐश्वर्य का अधिकारी हूँ!” इस प्रकार की जिद चाहिए।
“तमोगुण को ईश्वर की ओर फेर देने से ईश्वर-लाभ होता है। उनसे हठ करो; वे कोई दूसरे तो नहीं, अपने ही तो हैं।
“फिर देखो, यह तमोगुण दूसरों के हित पर लगाया जा सकता है। वैद्य तीन प्रकार के होते हैं; - उत्तम, मध्यम और अधम। जो वैद्य नाड़ी देखकर ‘दवा खा लेना’ कहकर चला जाता है, वह अधम वैद्य है। रोगी ने दवा खाई या नहीं, इसकी खबर वह नहीं लेता। जो वैद्य रोगी को दवा खाने के लिए तरह तरह से समझाता बुझाता है, मीठी बातों से कहता है, ‘अजी दवा नहीं खाओगे तो अच्छे किस तरह होगे! भैया, खा लो, अच्छा मैं खुद खरल करके खिलाता हूँ’, वह मध्यम वैद्य है और जो वैद्य रोगी को किसी तरह दवा न खाते हुए देखकर छाती पर चढ़ बैठ जबरदस्ती दवा खिलाता है, वह उत्तम वैद्य है। यह वैद्यों का तमोगुण है, इस गुण से रोगी का उपकार होता है, अपकार नहीं।
तीन प्रकार के आचार्य
“वैद्यों के समान तीन प्रकार के आचार्य भी हैं। धर्मोपदेश देकर जो शिष्यों की फिर कोई खबर नहीं लेते वे आचार्य अधम हैं। जो शिष्यों के हित के लिए बार बार उन्हें समझाते हैं जिससे कि वे उपदेशों की धारणा कर सकें, बहुत विनय-प्रार्थना करते हैं, प्यार करते हैं, - वे मध्यम आचार्य हैं। और जब शिष्यों को किसी तरह उपदेश न सुनते देख कोई कोई आचार्य बलपूर्वक उन्हें राह पर लाते हैं, तो उन्हें उत्तम आचार्य समझना चाहिए।”
(४)
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह। (तैत्तीरीय उपनिषत् २/४)
ब्रह्म का स्वरूप अनिर्वचनीय है
एक ब्राह्मभक्त ने पूछा - ईश्वर साकार हैं या निराकार?
श्रीरामकृष्ण - उनकी इति नहीं की जा सकती। वे निराकार हैं, फिर साकार भी हैं। भक्तों के लिए वे साकार हैं। जो ज्ञानी हैं - संसार को जिन्होंने स्वप्नवत् मान लिया है, उनके लिए वे निराकार हैं। भक्त का यह विश्वास है कि मैं एक पृथक् सत्ता हूँ तथा संसार एक पृथक सत्ता; इसलिए भक्त के निकट ईश्वर ‘व्यक्ति’ (Personal God) के रूप में आते हैं। ज्ञानी - जैसे वेदान्तवादी - सिर्फ ‘नेति नेति’ विचार करता है। विचार करने पर उसे यह बोध होता है कि मैं मिथ्या हूँ, संसार भी मिथ्या - स्वप्नवत् है। ज्ञानी ब्रह्म को बोधरूप देखता है परन्तु वे क्या हैं, यह मुँह से नहीं कह सकता।
“वे किस तरह हैं, जानते हो? मानो सच्चिदानन्द समुद्र है जिसका ओर-छोर नहीं। भक्ति के हिम से जगह जगह जल बर्फ हो जाता है - बर्फ की तरह जम जाता है। अर्थात् भक्तों के पास वे व्यक्तभाव से कभी कभी साकाररूप धारण करते हैं। ज्ञान-सूर्य का उदय होने पर वह बर्फ गल जाती है, तब ईश्वर के व्यक्तित्व का बोध नहीं रह जाता - उनका रूप भी नहीं दिखायी देता। वे क्या हैं, मुँह, से नहीं कहा जा सकता। कहे कौन! जो कहेंगे वे ही नहीं रह गए, उनका ‘मैं’ ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलता।
“विचार करते करते फिर ‘मैं’ नहीं रह जाता। जब तुम प्याज छीलते हो, तब पहले लाल छिलके निकलते हैं। फिर सफेद मोटे छिलके। इसी तरह लगातार छीलते जाओ तो भीतर ढूँढ़ने से कुछ नहीं मिलता।
“जहाँ अपना ‘मैं’ खोजे नहीं मिलता - और खोजे भी कौन? - वहाँ ब्रह्म के स्वरूप का बोध किस प्रकार होता है, यह कौन कहे! नमक का एक पुतला समुद्र की थाह लेने गया। समुद्र में ज्योंही उतरा कि गलकर पानी हो गया। फिर खबर कौन दे?
“पूर्ण ज्ञान का लक्षण यह है, - पूर्ण ज्ञान होने पर मनुष्य चुप हो जाता है। तब ‘मैं’ रूपी नमक का पुतला सच्चिदानन्दरूपी समुद्र में गलकर एक हो जाता है, फिर जरा भी भेदबुद्धि नहीं रह जाती।
“विचार करने का जब तक अन्त नहीं होता, तब तक लोग तर्क पर तुले रहते हैं। अन्त हुआ कि चुप हो गए। घड़ा भर जाने से - घड़े का जल और तालाब का जल एक हो जाने से - फिर शब्द नहीं होता। जब तक घड़ा भर नहीं जाता, शब्द तभी तक होता है।
“पहले के लोग कहते थे, काले पानी में जहाज जाने से फिर लौट नहीं सकता।
मैं पन नहीं जा सकता
“ ‘मैं’ मरा कि बला टली। (हास्य) विचार चाहे लाख करो पर ‘मैं’ दूर नहीं होता। तुम्हारे और हमारे लिए ‘मैं भक्त हूँ’ यह अभिमान अच्छा है।
“भक्तों के लिए सगुण ब्रह्म हैं अर्थात् वे सगुण अर्थात् मनुष्य के रूप में दर्शन देते हैं। प्रार्थनाओं के सुननेवाले वे ही हैं। तुम लोग जो प्रार्थना करते हो वह उन्हीं से करते हो। तुम लोग न वेदान्तवादी हो, न ज्ञानी; तुम लोग भक्त हो। साकार रूप मानो चाहे न मानो, इसमें कुछ हानि नहीं; केवल यह ज्ञान रहने ही से काम होगा कि ईश्वर एक वह व्यक्ति हैं जो प्रार्थनाओं को सुनते हैं, सृजन, पालन और प्रलय करते हैं, जिनमें अनन्त शक्ति है।
“भक्तिमार्ग से ही वे जल्दी मिलते हैं।”
(५)
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन। ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप॥ (गीता, ११।५४)
ईश्वरदर्शन साकार तथा निराकार
एक ब्राह्मभक्त ने पूछा, “महाराज, ईश्वर को क्या कोई देख सकता है? अगर देख सकता है तो हमें वे क्यों नहीं देखने को मिलते?”
श्रीरामकृष्ण - हाँ, वे अवश्य देखने को मिलते हैं। साकार रूप देखने में आता है और फिर अरूप भी दीख पड़ता है, परन्तु यह तुम्हें समझाऊँ किस तरह?
ब्राह्मभक्त - हम उन्हें किस उपाय से देख सकते हैं?
श्रीरामकृष्ण - व्याकुल होकर उनके लिए रो सकते हो? लड़के के लिए, स्त्री के लिए, धन के लिए लोग आँसुओं की झड़ी बाँध देते हैं, परन्तु ईश्वर के लिए कौन रोता है? जब तक लड़का खिलौने पर भूला रहता है तब तक माँ रोटी पकाना आदि घरगृहस्थी के कामों में लगी रहती है। जब लड़के को खिलौना नहीं सुहाता, उसे फेंक, गला फाड़कर रोने लगता है, तब माँ तवा उतारकर दौड़ आती है, - बच्चे को गोद में उठा लेती है।
ब्राह्मभक्त - महाराज, ईश्वर के स्वरूप पर इतने भिन्न भिन्न मत क्यों हैं? कोई कहता है साकार और कोई कहता है निराकार। फिर साकारवादियों से तो अनेक रूपों की चर्चा सुन पड़ती है। यह गोरखधन्धा क्यों रचा है?
श्रीरामकृष्ण - जो भक्त जिस प्रकार देखता है वह वैसा ही समझता है। वास्तव में गोरखधन्धा कुछ भी नहीं। यदि उन्हें कोई किसी तरह एक बार प्राप्त कर सके, तो वे सब समझा देते हैं। उस मुहल्ले में गए ही नहीं, - कुल खबर कैसे पाओगे?
“एक कहानी सुनो। एक आदमी शौच के लिए जंगल गया। उसने देखा कि पेड़ पर एक जन्तु बैठा है। लौटकर उसने एक दूसरे से कहा - ‘देखो जी, उस पेड़ पर हमने एक लाल रंग का सुन्दर जीव देखा है।’ उस आदमी ने जवाब दिया - ‘जब मैं शौच के लिए गया था तब मैंने भी देखा; पर उसका रंग लाल तो नहीं है - वह तो हरा है!’ तीसरे ने कहा - ‘नहीं जी नहीं, हमने भी देखा है, पीला है।’ इसी प्रकार और भी कुछ लोग थे जिनमें से किसी ने कहा भूरा, किसी ने बैंगनी, किसी ने आसमानी आदि आदि। अन्त में लड़ाई ठन गयी। तब उन लोगों ने पेड़ के नीचे जाकर देखा। वहाँ एक आदमी बैठा था। पूछने पर उसने कहा - ‘मैं इसी पेड़ के नीचे रहता हूँ। उस जीव को मैं खूब पहचानता हूँ। तुम लोगों ने जो कुछ कहा, सब सत्य है। वह कभी लाल, कभी हरा, कभी पीला, कभी आसमानी और भी न जाने कितने रंग बदलता है। वह बहुरुपिया है। और फिर कभी देखता हूँ, कोई रंग नहीं!’
“अर्थात् जो मनुष्य सर्वदा ईश्वर-चिन्तन करता है, वही जान सकता है कि उनका स्वरूप क्या है। वही मनुष्य जानता है कि वे अनेकानेक रूपों में दर्शन देते हैं, अनेक भावों में दीख पड़ते हैं, - वे सगुण हैं और निर्गुण भी। जो पेड़ के नीचे रहता है वही जानता है कि उस बहुरुपिया के कितने रंग हैं, - फिर कभी कभी तो कोई भी रंग नहीं रहता। दूसरे लोग केवल वादविवाद करके कष्ट उठाते हैं। कबीर कहते थे, - ‘निराकार मेरा पिता है और साकार मेरी माँ।’
“भक्त को जो स्वरूप प्यारा है, उसी रूप से वे दर्शन देते हैं - वे भक्तवत्सल हैं न। पुराण में कहा है कि वीरभक्त हनुमान के लिए उन्होंने रामरूप धारण किया था।
कालीरूप तथा श्यामरूप की व्याख्या
“वेदान्त-विचार के सामने नाम-रूप कुछ नहीं ठहरते। उस विचार का चरम सिद्धान्त है - ‘ब्रह्म सत्य और नामरूपोंवाला संसार मिथ्या।’ जब तक ‘मैं भक्त हूँ’ यह अभिमान रहता है, तभी तक ईश्वर का रूप दिखायी देना और ईश्वर के सम्बन्ध में व्यक्ति (Person) का बोध रहना सम्भव है। विचार की दृष्टि से देखें तो भक्त के ‘मैं भक्त हूँ’ इस अभिमान ने उसे कुछ दूर कर रखा है।
“कालीरूप या श्यामरूप साढ़ेतीन हाथ का इसलिए है कि वह दूर है। दूर होने ही के कारण सूर्य छोटा दिखता है। पास जाओ तो इतना बड़ा मालूम होगा कि उसकी धारणा ही न कर सकोगे। और फिर कालीरूप या श्यामरूप श्यामवर्ण क्यों है? - क्योंकि वह भी दूर है। सरोवर का जल दूर से हरा, नीला या काला दीख पड़ता है; निकट जाकर हाथ में लेकर देखो, कोई रंग नहीं। आकाश दूर ही से नीला दिखायी देता है, पास जाकर देखो तो कोई रंग नहीं।
“इसलिए कहता हूँ, वेदान्त-दर्शन के विचार से ब्रह्म निर्गुण है। उनका स्वरूप क्या है, यह मुँह से नहीं कहा जा सकता। परन्तु जब तक तुम स्वयं सत्य हो तब तक संसार भी सत्य है, ईश्वर के नामरूप भी सत्य हैं, ईश्वर को एक व्यक्ति समझना भी सत्य है।
“तुम्हारा मार्ग भक्तिमार्ग है। यह बड़ा अच्छा है, सरल मार्ग है। अनन्त ईश्वर समझ में थोड़े ही आ सकते हैं? और उन्हें समझने की जरूरत भी क्या? यह दुर्लभ मनुष्यजन्म प्राप्त कर हमें वह करना चाहिए जिससे उनके चरण-कमलों में भक्ति हो।
“यदि लोटेभर पानी से हमारी प्यास बुझे तो तालाब में कितना पानी है, इसकी नापतौल करने की क्या जरूरत? अगर अद्धेभर शराब से हम मस्त हो जायँ तो कलवार की दूकान में कितने मन शराब है, इसकी जाँच-पड़ताल करने का क्या काम? अनन्त का ज्ञान प्राप्त करने का क्या प्रयोजन?
(६)
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः। आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥ (गीता, ३।१७)
ईश्वरलाभ के लक्षण सप्तभूमि तथा ब्रह्मज्ञान
“वेदों में ब्रह्मज्ञानी की अनेक प्रकार की अवस्थाओं का वर्णन है। ज्ञानमार्ग बड़ा कठिन मार्ग है। विषय-वासना - कामिनी-कांचन के प्रति आसक्ति - का लेशमात्र रहते ज्ञान नहीं होता। यह पथ कलिकाल में साधन करने योग्य नहीं।
“इस विषय में वेदों में सप्तभूमि (Seven Planes) का उल्लेख है। मन इन सात सोपानों पर विचरण किया करता है। जब वह संसार में रहता है तब लिंग, गुदा और नाभि उसके निवासस्थल हैं। तब वह उन्नत दशा पर नहीं रहता - केवल कामिनी-कांचन में लगा रहता है। मन की चौथी भूमि है हृदय। तब चैतन्य का उदय होता है, और मनुष्य को चारों ओर ज्योति दिखलायी पड़ती है। तब वह मनुष्य ईश्वरी ज्योति देखकर सविस्मय कह उठता है, ‘यह क्या है, यह क्या है’ तब फिर नीचे (संसार की ओर) मन नहीं मुड़ता।
“मन की पंचम भूमि है कण्ठ। जिसका मन कण्ठ तक पहुँचा है उसकी सारी अविद्या, सम्पूर्ण अज्ञान दूर हो गया है। ईश्वरी प्रसंग के सिवा और कोई बात न तो सुनने को और न कहने को उसका जी चाहता है। यदि कोई व्यक्ति दूसरी चर्चा छेड़ता है तो वह वहाँ से उठ जाता है।
“मन की छठी भूमि कपाल है। मन वहाँ जाने से दिनरात ईश्वरी रूप के दर्शन होते हैं। उस समय भी कुछ ‘मैं’ रहता है। वह मनुष्य उस अनुपम रूप को देखकर मतवाले की तरह उसे छूने तथा गले लगाने को बढ़ता है, परन्तु पाता नहीं। जैसे लालटेन के भीतर बत्ती को जलते देखकर, मन में आता है कि छूना चाहें तो हम इसे छू सकते हैं, परन्तु काँच के आवरण के कारण हम उसे छू नहीं पाते।
“शिरोदेश सप्तम भूमि है। वहाँ मन जाने से समाधि होती है और ब्रह्मज्ञानी ब्रह्म का प्रत्यक्ष दर्शन करता है। परन्तु उस अवस्था में शरीर अधिक दिन नहीं रहता है। सदा बेहोश, कुछ खाया नहीं जाता, मुँह में दूध डालने से भी गिर जाता है। इस भूमि में रहने से इक्कीस दिन के भीतर मृत्यु होती है। यही ब्रह्मज्ञानियों की अवस्था है। तुम लोगों के लिए भक्तिपथ है। भक्तिपथ बड़ा अच्छा और सहज है।
समाधि होनेपर कर्मत्याग पूर्वकथा श्रीरामकृष्ण का तर्पणादि कर्मत्याग
“मुझसे एक मनुष्य ने कहा था, ‘महाराज, मुझे आप समाधि सिखा सकते हैं?’ (सब हँसते हैं।)
“समाधि होने पर सब कर्म छूट जाते हैं। पूजा-जपादि कर्म, विषय-कर्म सब छूट जाते हैं। पहले-पहल कामों की बड़ी रेलपेल होती है, परन्तु ईश्वर की ओर जितना ही बढ़ोगे, कामों का आडम्बर उतना ही घटता जाएगा; यहाँ तक कि नामगुणकीर्तन तक छूट जाता है। (शिवनाथ से) जब तक तुम सभा में नहीं आए कि तब तक तुम्हारे नाम और गुणों की बड़ी चर्चा चलती रही। ज्योंही तुम आए कि वे सब बातें बन्द हो गयीं। तब तुम्हारे दर्शन से ही आनन्द मिलने लगा। लोग कहने लगे, ‘यह लो, शिवनाथ बाबू आ गए।’ फिर तुम्हारे बारे में और सब बातें बन्द हो जाती हैं।
“मेरी यह अवस्था होने पर गंगा में तर्पण करने के लिए जाकर मैंने देखा, उँगलियों के भीतर से पानी गिरा जा रहा है। तब हलधारी से रोते हुए पूछा, दादा, यह क्या हो गया ! हलधारी बोला, इसे ‘गलितहस्त’ कहते हैं। ईश्वरदर्शन के बाद तर्पणादि कर्म नहीं रह जाते।
“संकीर्तन करते समय पहले कहते हैं, ‘निताई आमार माता हाथी!’ ‘निताई आमार माता हाथी!’ (मेरा निताई मतवाले हाथी की तरह नाच रहा है) भाव गहरा होने पर सिर्फ ‘हाथी हाथी’ कहते हैं। इसके बाद केवल ‘हाथी’ शब्द मुँह में लगा रहता है। अन्त को ‘हा’ कहते हुए भाव-समाधि होती है। तब वे जो अब तक कीर्तन कर रहे थे, चुप हो जाते हैं।
“जैसे ब्रह्मभोज में पहले खूब शोरगुल मचता है। जब सभी के आगे पत्तल पड़ जाती है तब गुलगपाड़ा बहुत-कुछ घट जाता है। केवल ‘पूड़ी लाओ, पूड़ी लाओ’ की आवाज होती रहती है। फिर जब लोग पूड़ी-तरकारी खाना शुरू करते हैं तब बारह आना शब्द घट जाता है। जब दही आया तब सप्-सप् (सब हँसते हैं।) - शब्द मानो होता ही नहीं। और भोजन के बाद निद्रा। तब सब चुप!
“इसीलिए कहा कि पहले-पहल कामों की बड़ी रेलपेल रहती है। ईश्वर के रास्ते पर जितना बढ़ोगे उतने ही कर्म घटते जायेंगे। अन्त को कर्म छूट जाते हैं। और समाधि होती है।
“गृहस्थ की बहू के गर्भवती होने पर उसकी सास काम घटा देती है। दसवें महीने में काम अक्सर नहीं करना पड़ता। लड़का होने पर उसका काम बिलकुल छूट जाता है। फिर वह सिर्फ लड़के की देखभाल में रहती है। घर-गृहस्थी का काम सास, ननद, जेठानी ये ही सब करती हैं।
समाधि के बाद लोकशिक्षा
“समाधिस्थ होने के बाद प्रायः शरीर नहीं रहता। किसी किसी का शरीर लोकशिक्षण के लिए रह जाता है, - जैसे नारदादिकों का और चैतन्य जैसे अवतारपुरुषों का। कुआँ खुद जाने पर कोई कोई झौवा कुदाल फेंक देते हैं। कोई कोई रख लेते हैं, - सोचते हैं, शायद पड़ोस में किसी दूसरे को जरूरत पड़े। इसी प्रकार महापुरुष जीवों का दुःख देखकर विकल हो जाते हैं। ये स्वार्थी नहीं होते कि अपने ही ज्ञान से मतलब रखें। स्वार्थी लोगों की कथा तो जानते हो। कटी उँगली पर भी नहीं मूतते कि कहीं दूसरे का उपकार न हो जाय। (सब हँसे।) एक पैसे की बर्फी दूकान से ले आने को कहो तो उसमें से भी कुछ साफ कर जायेंगे। (सब हँसते हैं।)
“परन्तु शक्ति की विशेषता होती है। छोटा आधार (साधारण मनुष्य) लोकशिक्षा देते डरता है। सड़ी लकड़ी खुद तो किसी तरह बह जाती है, परन्तु एक चिड़िया के बैठने से भी वह डूब जाती है। नारदादि ‘बहादुरी’ लकड़ी हैं। ऐसी लकड़ी खुद भी बहती है और कितने ही मनुष्यों, मवेशियों, यहाँ तक कि हाथी को भी अपने ऊपर लेकर बह जाती है।”
(७)
अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा, भयेन च प्रव्यथितं मनो मे। तदेव मे दर्शय देव रूपं, प्रसीद देवेश जगन्निवास॥ (गीता, ११।४५)
ब्राह्मसमाज की प्रार्थनापद्धति। ईश्वर का ऐश्वर्य-वर्णन।
पूर्वकथा दक्षिणेश्वर के राधाकान्त मन्दिर में जेवर की चोरी
श्रीरामकृष्ण (शिवनाथ आदि से) - क्यों जी, तुम लोग इतना ईश्वर के ऐश्वर्य का वर्णन क्यों करते हो? मैंने केशव सेन से यही कहा था। एक दिन केशव वहाँ (कालीमन्दिर) गया था। मैंने कहा, तुम लोग किस तरह लेक्चर देते हो, मैं सुनूँगा। गंगाघाट की चाँदनी में सभा हुई, और केशव बोलने लगा। खूब बोला। मुझे भाव हो गया था। बाद में केशव से मैंने कहा, तुम यह सब इतना क्यों बोलते हो - हे ईश्वर, तुमने कैसे सुन्दर सुन्दर फूलों की रचना की, तुमने आकाश की सृष्टि की, तुमने नक्षत्र बनाए, तुमने समुद्र का सृजन किया, - यह सब! जो स्वयं ऐश्वर्य चाहते हैं उन्हें ईश्वर के ऐश्वर्य का वर्णन करना अच्छा लगता है। जब राधाकान्त का जेवर चोरी गया था, तब बाबू (रानी रासमणि के जामाता) राधाकान्त के मन्दिर में जाकर ठाकुरजी से बोले, ‘क्यों महाराज, तुम अपने जेवर की रक्षा न कर सके!’ मैंने बाबू से कहा, ‘यह तुम्हारी कैसी बुद्धि है! स्वयं लक्ष्मी जिनकी दासी हैं, चरणसेवा करती हैं, उनको ऐश्वर्य की क्या कमी है? यह जेवर तुम्हारे लिए ही अमोल वस्तु है, ईश्वर के लिए तो कंकड़-पत्थर है। राम राम! ऐसी बुद्धिहीनता की बातें न किया करो। कौन बड़ा ऐश्वर्य तुम उन्हें दे सकते हो?’ इसीलिए कहता हूँ जिसका मन जिस पर रम जाता है वह उसी को चाहता है; कहाँ वह रहता है, उसकी कितनी कोठियाँ हैं, कितने बगीचे हैं, कितना धन है, परिवार में कौन कौन है, नौकर कितने हैं - इसकी खबर कौन लेता है? जब मैं नरेन्द्र को देखता हूँ, तब सबकुछ भूल जाता हूँ। उसका घर कहाँ है, उसका बाप क्या करता है, उसके कितने भाई हैं, ये सब बातें कभी भूलकर भी नहीं पूछीं, ईश्वर के मधुर रस में डूब जाओ। उनकी सृष्टि अनन्त है, ऐश्वर्य अनन्त है। ज्यादा ढूँढ़-तलाश की क्या जरूरत?
श्रीरामकृष्ण मधुर कण्ठ से गाने लगे। गीत इस आशय का है - “ ‘ऐ मन तू रूप के समुद्र में डूबा जा। तलातल पाताल खोजने पर तुझे प्रेमरत्न-धन मिलेगा। खोज, जी लगाकर खोज। खोजने ही से तू हृदय में वृन्दावन देखेगा। तब वहाँ सदा ज्ञान की बत्ती जलेगी। भला ऐसा कौन है जो जमीन पर डोंगा चलायेगा? कबीर कहते हैं, तू सदा श्रीगुरू का चरणचिन्तन कर।’
“दर्शन के बाद कभी कभी भक्त की साध होती है कि उनकी लीला देखें। श्रीरामचन्द्रजी जब राक्षसों को मारकर लंकापुरी में घुसे तब बुड्ढी निकषा भागी। तब लक्ष्मण बोले, ‘हे राम, भला यह क्या है? यह निकषा इतनी बुड्ढी है, पुत्रशोक भी इसको कम नहीं हुआ, फिर भी इसे प्राणों का इतना भय है कि भाग रही है!’ श्रीरामचन्द्रजी ने निकषा को अभय देते हुए सामने लाकर कारण पूछा। वह बोली, ‘राम इतने दिनों तक बची हूँ, इसीलिए तुम्हारी इतनी लीला देखी। यही कारण है कि और भी बचना चाहती हूँ। न जाने और कितनी लीलाएँ देखूँ’। (सब हँसते हैं।)
(शिवनाथ से) - “तुम्हें देखने को जी चाहता है। शुद्धात्माओं को बिना देखे किसको लेकर रहूँगा? शुद्धात्मा मेरे पिछले जन्म के मित्र जान पड़ते हैं।”
एक ब्राह्मभक्त ने पूछा, - “महाराज, आप जन्मान्तर मानते हैं?”
जन्मान्तर “बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन”
श्रीरामकृष्ण - हाँ, मैंने सुना है कि जन्मान्तर होता है। ईश्वर का काम हम लोग अल्पबुद्धि से कैसे समझ सकते हैं? अनेकों ने कहा है, इसलिए अविश्वास नहीं कर सकते। भीष्मदेव देह छोड़ना चाहते हैं, शरों की शय्या पर लेटे हुए हैं; सब पाण्डव श्रीकृष्ण के साथ खड़े हैं। सब ने देखा, भीष्मदेव की आँखों से आँसू बह रहे हैं। अर्जुन श्रीकृष्ण से बोले, ‘भाई, यह तो बड़े आश्चर्य की बात है कि पितामह- जो स्वयं भीष्मदेव ही हैं; सत्यवादी, जितेन्द्रिय, ज्ञानी, आठों वसुओ में से एक हैं - वे भी देह छोड़ते समय माया में पड़े रो रहे हैं।’ यह भीष्मदेव से जब श्रीकृष्ण ने कहा तब वे बोले, ‘कृष्ण’, तुम खूब जानते हो कि मैं इसलिए नहीं रो रहा हूँ। जब सोचता हूँ कि स्वयं भगवान् पाण्डवों के सारथि हैं, फिर भी उनके दुःख और विपत्तियों का अन्त नहीं होता तब यही याद करके आँसू बहाता हूँ कि परमात्मा के कार्यों का कुछ भी भेद न पाया।’
भक्तों के साथ कीर्तनानन्द
समाजगृह में सन्ध्याकाल की उपासना शुरू हुई। रात के साढ़े आठ बजे का समय है। चाँदनी रात है। बगीचे के वृक्ष, लताएँ, कुंज आदि शरत्कालीन चन्द्रमा की निर्मल किरणों में आप्लावित हो उठे। समाजगृह में संकीर्तन हो रहा है। श्रीरामकृष्ण भगवत्प्रेम से मतवाले होकर नाच रहे हैं। ब्राह्म भक्तगण मृदंग-करताल लेकर, उन्हें घेरकर नाच रहे हैं। भाव में भरे हुए सभी मानो ईश्वर-दर्शन कर रहे हैं। हरिनाम-ध्वनि उत्तरोत्तर बढ़ने लगी। चारों ओर के ग्रामवासीगण हरिनाम सुन रहे हैं और मन ही मन बगीचे के मालिक वेणीमाधव को कितना धन्यवाद दे रहे हैं।
कीर्तन हो जाने पर श्रीरामकृष्ण ने जगन्माता को भूमिष्ठ हो प्रणाम किया। प्रणाम करते हुए कह रहे हैं, “भागवत भक्त भगवान, ज्ञानी के चरणों में प्रणाम है, साकारवादी भक्तों और निराकारवादी भक्तों के चरणों में प्रणाम है, पहले के ब्रह्मज्ञानियों के चरणों में और आजकल के ब्राह्मसमाज के ब्रह्मज्ञानियों के चरणों में प्रणाम है।”
वेणीमाधव ने अच्छे से अच्छे रुचिकर पकवान भक्तों को खिलाए। श्रीरामकृष्ण ने भी भक्तों के साथ आनन्दपूर्वक प्रसाद पाया।
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