The Gospel of Sri Ramakrishna
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  • श्रीरामकृष्ण वचनामृत
  • परिच्छेद १ - प्रथम दर्शन
  • परिच्छेद २ - द्वितीय दर्शन
  • परिच्छेद ३ - तृतीय दर्शन
  • परिच्छेद ४ - चतुर्थ दर्शन
  • परिच्छेद ५ - बलराम के मकान पर श्रीरामकृष्ण तथा प्रेमानन्द में नृत्य
  • परिच्छेद ६ - शामपुकुर में प्राणकृष्ण के मकान पर श्रीरामकृष्ण
  • परिच्छेद ७ - श्रीरामकृष्ण तथा ईश्वरचन्द्र विद्यासागर
  • परिच्छेद ८ - दक्षिणेश्वर में केदार द्वारा आयोजित उत्सव
  • परिच्छेद ९ - दक्षिणेश्वर में भक्तों के साथ
  • परिच्छेद १० - दक्षिणेश्वर में अन्तरंग भक्तों के साथ
  • परिच्छेद ११ - दक्षिणेश्वर में भक्तों से वार्तालाप
  • परिच्छेद १२ - दक्षिणेश्वर मन्दिर में बलराम आदि के साथ -
  • परिच्छेद १३ - केशवचन्द्र सेन के साथ श्रीरामकृष्ण का नौका विहार, आनन्द और वार्तालाप
  • परिच्छेद १४ - सींती का ब्राह्मसमाज शिवनाथ आदि ब्राह्मभक्तों के साथ वार्तालाप और आनन्द
  • परिच्छेद १५ - सर्कस में श्रीरामकृष्ण
  • परिच्छेद १६ - षड़भुजदर्शन! राजमोहन के मकान पर शुभागमन - नरेन्द्र
  • परिच्छेद १८ - मणि मल्लिक के ब्राह्मोत्सव में श्रीरामकृष्ण
  • परिच्छेद १८ - मणि मल्लिक के ब्राह्मोत्सव में श्रीरामकृष्ण
  • परिच्छेद १९ - विजयकृष्ण गोस्वामी आदि के प्रति उपदेश
  • परिच्छेद २० - भक्तों के प्रति उपदेश
  • परिच्छेद २१ - मारवाड़ी भक्तों के साथ
  • परिच्छेद २२ - राखाल, प्राणकृष्ण, केदार आदि भक्तों के साथ
  • परिच्छेद २३ - बेलघर में गोविन्द मुखोपाध्याय के मकान पर
  • परिच्छेद २४ - दक्षिणेश्वर में राखाल, राम आदि के साथ
  • परिच्छेद २५ - दक्षिणेश्वर में भक्तों के साथ
  • परिच्छेद २६ - दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण का जन्मोत्सव
  • परिच्छेद २७ - ब्राह्मभक्तों के प्रति उपदेश
  • परिच्छेद २८ - नरेन्द्र आदि भक्तों के साथ बलराम के मकान पर
  • परिच्छेद २९ - दक्षिणेश्वर में भक्तों के साथ
  • परिच्छेद ३० - सुरेन्द्र के मकान पर अन्नपूर्णा पूजा के उत्सव में
  • परिच्छेद ३१ - सींती के ब्राह्मसमाज में ब्राह्मभक्तों के साथ
  • परिच्छेद ३२ - नन्दनबागान के ब्राह्मसमाज में भक्तों के साथ
  • परिच्छेद ३३ - भक्तों के साथ कीर्तनानन्द में
  • परिच्छेद ३४ - दक्षिणेश्वर में भक्तों के साथ
  • परिच्छेद ३५ - भक्तों के मकान पर
  • परिच्छेद ३६ - दक्षिणेश्वर मन्दिर में भक्तों के साथ
  • परिच्छेद ३७ - श्रीरामकृष्ण का प्रथम प्रेमोन्माद
  • परिच्छेद ३८ - दक्षिणेश्वर मन्दिर में
  • परिच्छेद ३९ - मणिरामपुर तथा बेलघर के भक्तों के साथ
  • परिच्छेद ४० - दक्षिणेश्वर में भक्तों के साथ
  • परिच्छेद ४१ - दक्षिणेश्वर में भक्तों के साथ
  • परिच्छेद ४२ - पानीहाटी महोत्सव में
  • परिच्छेद ४३ - बलराम के मकान पर
  • परिच्छेद ४४ - दक्षिणेश्वर में
  • परिच्छेद ४५ - अधर के मकान पर
  • परिच्छेद ४६ - भक्तों के साथ
  • परिच्छेद ४७ - ब्रह्मतत्त्व तथा आद्याशक्ति
  • परिच्छेद ४८ - बलराम के मकान पर
  • परिच्छेद ४९ - दक्षिणेश्वर में भक्तों के साथ
  • परिच्छेद ५० - दक्षिणेश्वर मन्दिर में भक्तों के साथ
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परिच्छेद २० - भक्तों के प्रति उपदेश

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बाबूराम आदि के साथ ‘स्वाधीन इच्छा’ के सम्बन्ध में वार्तालाप। श्री तोतापुरी का आत्महत्या का संकल्प

श्रीरामकृष्ण तीसरे प्रहर के बाद दक्षिणेश्वर मन्दिर के अपने कमरे के पश्चिमवाले बरामदे में वार्तालाप कर रहे हैं। साथ बाबूराम, मास्टर, रामदयाल आदि हैं। दिसम्बर १८८२ ई. । बाबूराम, रामदयाल तथा मास्टर आज रात को यहीं रहेंगे। बड़े दिनों की छुट्टी हुई है। मास्टर कल भी रहेंगे। बाबूराम नये नये आये हैं।

श्रीरामकृष्ण (भक्तों के प्रति) - “ईश्वर सब कुछ कर रहे हैं, यह ज्ञान होने पर मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है। केशव सेन शम्भु मल्लिक के साथ आया था। मैंने उससे कहा, वृक्ष के पत्ते तक ईश्वर की इच्छा के बिना नहीं हिलते। ‘स्वाधीन इच्छा’ है कहाँ? सभी ईश्वर के अधीन हैं। नंगा उतने बड़े ज्ञानी थे जी, वे भी पानी में डूबने गए थे! यहाँ पर ग्यारह महीने रहे। पेट की पीड़ा हुई, रोग की यन्त्रणा से घबड़ाकर गंगा में डूबने गए थे। घाट के पास काफी दूर तक जल कम था। जितना ही आगे बढ़ते हैं, घुटनेभर से अधिक जल नहीं मिलता। तब उन्होंने समझा; समझकर लौट आए। एक बार अत्यन्त अधिक बीमारी के कारण मैं बहुत ही जिद्दी हो गया था। गले में छुरी लगाने चला था! इसलिए कहता हूँ, ‘माँ, मैं यन्त्र हूँ, तुम यन्त्री; मैं रथ हूँ, तुम रथी; जैसा चलाती हो वैसा ही चलता हूँ, जैसा कराती हो वैसा ही करता हूँ’ ।”

श्रीरामकृष्ण के कमरे में गाना हो रहा है। भक्तगण गाना गा रहे हैं; उसका भावार्थ इस प्रकार है :-

(१) “हे कमलापति, यदि तुम हृदयरूपी वृन्दावन में निवास करो तो हे भक्तिप्रिय, मेरी भक्ति सती राधा बनेगी। मुक्ति की मेरी कामना गोपनारी बनेगी। देह नन्द की पुरी बनेगा, और प्रीति माँ यशोदा बन जाएगी। हे जनार्दन, मेरे पापसमूहरूपी गोवर्धन को धारण करो। इसी समय काम आदि कंस के छः चरों को विनष्ट करो। कृपा की बंसरी बजाते हुए मेरे मनरूपी गाय को वशीभूत कर मेरे हृदयरूपी चरागाह में निवास करो। मेरी इस कामना की पूर्ति करो, यही प्रार्थना है। इस समय मेरे प्रेमरूपी यमुना के तट पर आशारूपी वट के नीचे कृपा करके प्रकट होकर निवास करो। यदि कहो कि गोपालों के प्रेम में बन्दी होकर ब्रजधाम में रहता हूँ, तो यह अज्ञानी ‘दाशरथि’ तुम्हारा गोपाल, तुम्हारा दास बनेगा।”

(२) “हे मेरे प्राणरूपी पिंजरे के पक्षी, गाओ न। ब्रह्मरूपी कल्पतरु पर बैठकर, हे पक्षी, तुम प्रभु के गुण गाओ न। और साथ ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-रूपी पके फलों को खाओ न।”

नन्दनबागान के श्रीनाथ मित्र अपने मित्रों के साथ आये हैं। श्रीरामकृष्ण उन्हें देखकर कहते हैं, “यह देखो, इनकी आँखों में से भीतर का सब कुछ दिखायी पड़ रहा है, खिड़की के काँच में से जिस प्रकार कमरे के भीतर की सभी चीजें देखी जाती हैं।’ श्रीनाथ, यज्ञनाथ ये लोग नन्दनबागान के ब्राह्मपरिवार के हैं। इनके मकान पर प्रतिवर्ष ब्राह्मसमाज का उत्सव होता था। बाद में श्रीरामकृष्ण उत्सव देखने गए थे।

सायंकाल को मन्दिर में आरती होने लगी। कमरे में छोटे तखत पर बैठकर श्रीरामकृष्ण ईश्वर-चिन्तन कर रहे हैं। धीरे धीरे भावमग्न हो गए। भाव शान्त होने पर कहते हैं, “माँ, उसे भी खींच लो। वह इतने दीन भाव से रहता है, तुम्हारे पास आना-जाना कर रहा है!”

श्रीरामकृष्ण भाव में क्या बाबूराम की बात कह रहे हैं?

बाबूराम, मास्टर, रामदयाल आदि बैठे हैं। रात के आठ-नौ बजे का समय होगा। श्रीरामकृष्ण समाधि-तत्त्व समझा रहे हैं। जड़ समाधि, चेतन समाधि, स्थित समाधी, उन्मना समाधि।

विद्यासागर और चंगेजखान। क्या ईश्वर निष्ठुर हैं? श्रीरामकृष्ण का उत्तर

सुख-दुःख की बात चल रही है। ईश्वर ने इतना दुःख क्यों बनाया?

मास्टर-विद्यासागर प्रेमकोप से कहते हैं, “ईश्वर को पुकारने की क्या आवश्यकता है! देखो चंगेजखाँ ने जिस समय लूटमार करना आरम्भ किया उस समय उसने अनेक लोगों को बन्द कर दिया। धीरे धीरे करीब एक लाख कैदी इकट्ठे हो गए। तब सेनापतियों ने आकर कहा, ‘हुजूर, इन्हें खिलाएगा कौन? इन्हें साथ रखने पर भी हमारे लिए विपत्ति है। क्या किया जाए? छोड़ने पर भी विपत्ति है।’ उस समय चंगेजखाँ ने कहा, ‘तो फिर क्या किया जाए? उनका वध कर डालो ।’ इसलिए कचाकच काट डालने का आदेश हो गया! इस हत्याकाण्ड को तो ईश्वर ने देखा। कहाँ, निवारण भी तो नहीं किया। वे हैं, तो रहें। मुझे उनकी आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। मेरा तो कोई भला न हुआ!”

श्रीरामकृष्ण - क्या ईश्वर का काम, वे किस उद्देश्य से क्या करते हैं समझा जा सकता है? वे सृष्टि, पालन, संहार सभी कर रहे हैं। वे क्यों संहार कर रहे हैं, हम क्या समझ सकते हैं? मैं कहता हूँ, माँ, मुझे समझने की आवश्यकता भी नहीं है। बस, अपने चरणकमल में भक्ति दो। मनुष्य-जीवन का उद्देश्य है इसी भक्ति को प्राप्त करना। और सब माँ जानें। बगीचे में आम खाने को आया हूँ, कितने पेड़, कितनी शाखाएँ, कितने करोड़ पत्ते हैं - यह सब हिसाब करने से मुझे क्या मतलब? मैं आम खाता हूँ, पेड़ और पत्तों के हिसाब से मेरा क्या सम्बन्ध?

आज रात में बाबूराम, मास्टर और रामदयाल श्रीरामकृष्ण के कमरे में जमीन पर सोये।

आधी रात, दो-तीन बजे का समय होगा, श्रीरामकृष्ण के कमरे में बत्ती बुझ गयी है। वे स्वयं बिस्तर पर बैठे बीच बीच में भक्तों के साथ बातें कर रहे हैं।

श्रीरामकृष्ण और बाबूराम, मास्टर प्रभृति भक्त दया और माया कठिन साधना और ईश्वर दर्शन

श्रीरामकृष्ण (मास्टर आदि भक्तों के प्रति) - देखो, दया और माया ये दो पृथक् पृथक् चीजें हैं। माया का अर्थ है, आत्मीयों के प्रति ममता - जैसे बाप, माँ, भाई, बहन, स्त्री, पुत्र इन पर प्रेम। दया का अर्थ है सर्व भूतों में प्रेम, समदृष्टि। किसी में यदि दया देखो, जैसे विद्यासागर में, तो उसे ईश्वर की दया जानो। दया से सर्वभूतों की सेवा होती है। माया भी ईश्वर की ही है। माया द्वारा वे आत्मीयों की सेवा करा लेते हैं। पर इसमें एक बात है। माया अज्ञानी बनाकर रखती है और बद्ध बनाती है। परन्तु दया से चित्तशुद्धि होती है और धीरे धीरे बन्धन-मुक्ति होती है।

चित्तशुद्वि हुए बिना भगवान् के दर्शन नहीं होते। काम, क्रोध, लोभ, इन सब पर विजय प्राप्त करने से उनकी कृपा होती है, तब उनके दर्शन होते हैं। तुम लोगों को बहुत ही गुप्त बातें बता रहा हूँ। काम पर विजय प्राप्त करने के लिए मैंने बहुतकुछ किया था। आनन्द-आसन के चारों ओर ‘जय काली’ जय काली’ कहते हुए कई बार प्रदक्षिणा की थी।

“मेरी दस-ग्याराह वर्ष की उम्र में, जब उस देश में था, उस समय वह स्थिति-समाधि की स्थिति - प्राप्त हुई थी। मैदान में से जाते जाते जो कुछ देखा उससें मैं विह्वल हो पड़ा था। ईश्वरदर्शन के कुछ लक्षण हैं। ज्योति देखने में आती है, आनन्द होता है, हृदय के बीच में गुर-गुर करके महावायु उठती है ।”

दूसरे दिन बाबूराम, रामदयाल घर लौट गए। मास्टर ने वह दिन व रात्रि श्रीराम-कृष्ण के साथ बितायी। उस दिन उन्होंने मन्दिर मे ही प्रसाद पाया।

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